Showing posts with label love story. Show all posts
Showing posts with label love story. Show all posts

Monday, December 26, 2011

नाम का चमत्कार - कहानी

अब तक: नाते टूटते हैं पर जुड़े रह जाते हैं। या शायद वे कभी टूटते ही नहीं, केवल रूपांतरित हो जाते हैं। हम समझते हैं कि आत्मा मुक्त हो गयी जबकि वह नये वस्त्र पहने अपनी बारी का इंतज़ार कर रही होती है। न जाने कब यह नवीन वस्त्र किसी पुराने कांटे में अटक जाता है, खबर ही नहीं होती। तार-तार हो जाता है पर परिभाषा के अनुसार आत्मा तो घायल नहीं हो सकती। न जल सकती है न आद्र होती है। बारिश की बून्द को छूती तो है पर फिर भी सूखी रह जाती है।
नाम का चमत्कार कहानी की भूमिका पढना चाहें तो यहाँ क्लिक कीजिये
यह वह मेट्रो तो नहीं!
दिल्ली मेट्रो में घुसते ही सुवाक की नज़र सामने ही पहले से बैठी तारा पर पड़ी। लगभग उसी समय तारा ने उसे देखा। इस प्रकार अचानक एक दूसरे को सामने देखकर दोनों ही चमत्कृत थे।

"तुम यहाँ कैसे? बताया भी नहीं?" वह जगह बनाते हुए थोड़ी खिसकी।

"बता देता तो यह चमत्कारिक मिलन कैसे होता? चिंता नहीं, आराम से बैठो, मैं ऐसे ही ठीक हूँ।"

"दिल्ली कब आये?"

"कज़न की शादी थी। परसों वापसी है। आज सोचा कि मेट्रो का ट्रायल लिया जाये। तुम कहीं जा रही हो ... या कहीं से आ रही हो?"

"बेटे की दवा लेकर आ रही थी।" वह रुकी, सुवाक को एक बार ऊपर से नीचे तक देखा और बोली, "तुम बिल्कुल भी नहीं बदले। मेट्रो देखने के लिये तो सूट और टाई ज़रूरी नहीं था।"

"सर्दी थी सो सूट पहन लिया। नैचुरल है टाई भी लगा ली।"

वह मुस्कराई, "कफ़लिंक्स पर अभी भी इनिशियल्स होते हैं क्या?"

"इनिशियल्स? पूरा नाम होता है अब" वह हँसा, "सब कुछ पर्सनलाइज़्ड है, पेन से लेकर घड़ी तक। तुम भी तो नहीं बदलीं। मिलते ही मज़ाक उड़ाने लगीं।" वाक्य पूरा करके सुवाक ने अपनी माँ से चिपककर बैठे बेटे को ध्यान से देखा। उनकी बातों से बेखबर वह अपने डीएस पर कुछ खेलने में मग्न था।

"बच्चे की तबियत कैसी है अब?"

"ठीक है! चिंता की कोई बात नहीं है ..." तारा ने आसपास कुछ तलाशते हुए पूछा, "तुम अभी भी अकेले हो?"

"नहीं, पत्नी भी आयी है। पर सर्दी में उसे घर में रहना ही पसन्द है।"

" ... और बच्चे?"

"बस, हम दो।" सुवाक सकुचाया और मन में मनाया कि तारा बात आगे न बढाये।

"लेकिन तुम तो कहते थे ...." वाक्य पूरा करने से पहले ही तारा को उसकी अप्रासंगिकता का आभास हो चला था। परंतु तीर चल चुका था।

"मैं तो और भी बहुत कुछ कहता था। कहा हुआ सब होने लगे तो दुनिया स्वर्ग ही न हो जाये।"

"सॉरी!"

"सॉरी की कोई बात नहीं है, सुधा को बच्चों से नफ़रत तो नहीं पर ... और मुझे प्रकृति ने वह क्षमता नहीं दी कि मैं उन्हें नौ महीने अपने अन्दर पाल सकूँ।" बात पूरी करते-करते सुवाक को भी अहसास हुआ कि यह बात कहे बिना भी वार्तालाप सम्पूर्ण ही था।

"अच्छा? अगर विज्ञान कर सकता तो क्या तुम रखते?"

"इतना आश्चर्य क्यों? तुम मुझे जानती नहीं क्या? हाँSSS, जानती होतीं तो आज यह सर्प्राइज़ मीटिंग कैसे होती?"

"न, मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। कोई और बात याद आ गयी थी। तुम कहाँ तक जाओगे?"

"डरो मत, तुम्हारे घर नहीं आ रहा। स्टेशन से ही वापस हो लूंगा।" सुवाक शरारत से मुस्कराया।

"डर!" तारा ने गहरी सांस ली, "डर क्या होता है, तुम क्या जानो! सच, तुम कुछ भी नहीं जानते। तुम नहीं समझोगे, उस दुनिया को जिसमें मैं रहती हूँ। तुम्हें नहीं पता कि आज तुम्हें सामने देखकर मैं कितनी खुश हूँ ... आज हम मिल सके ..." बात पूरी करते-करते तारा की आँखें नम हो आयीं।

"कैसा है पहलवान?" सुवाक ने बात बदलने का भरपूर प्रयास किया।

"वे" तारा एक पल को सकुचाई फिर बोली, " ... वे तो शादी के साल भर बाद ही ..."

"क्या हुआ? कैसे?"

"ज़मीन का झगड़ा, सगे चाचा ने ... छोड़ो न वह सब। तुम कैसे हो?"

"हे राम!"

भगवान भी क्या-क्या खेल रचता है। उन आँखों की तरलता ने सुवाक को झकझोर दिया। उसका मन करुणा से भर आया। दिल किया कि अभी उठाकर उसे अंक में भर ले। मगर यह समय और था। अब उन दोनों की निष्ठायें अलग थीं। वैसे भी यह भारत था। आसपास के मर्द-औरत, बूढ़े-जवान पहले से ही अपनी नज़रें उन पर ही लगाये हुए थे।

"तुमने यह शादी क्यों की?" सुवाक पूछना चाहता था लेकिन वार्ता के इस मोड़ पर वह कुछ बोल न सका। परंतु इसकी ज़रूरत भी नहीं पड़ी। तारा खुद ही कुछ बताना चाह्ती थी।

"मुझे ग़लत मत समझना। मैंने यह शादी सिर्फ़ इसलिये की ताकि मेरे भाई तुम्हें ..." वह फफक पड़ी, "तुम कुशल रहो, लम्बी उम्र हो।"

"माफ करना तारा, मैंने अनजाने ही ... तुम्हारे ज़ख्म हरे कर दिये। मुझे लगता था कि तुमने मुझे नहीं पहचाना। लेकिन आज समझा कि तुमसे बड़ा नासमझ तो मैं ही था ... मैंने तो, कोशिश भी नहीं की।"

माँ के स्वर का परिवर्तन भाँपकर बच्चे ने खेल से ध्यान हटाकर माँ की ओर देखा और अपने नन्हे हाथों से उसे प्यार से घेर लिया। सुवाक का हृदय स्नेह से भर उठा, "तुम्हारा क्या नाम है बेटा?"

बच्चा अपनी मीठी तोतली आवाज़ में बोला तो सुवाक के मन में घंटियाँ सी बज उठीं। तारा भी मुस्कराई। दोनों की आँखें मिलीं और तारा ने एकबारगी उसे देखकर अपनी नज़रें झुका लीं। सुवाक ने मुस्कराकर अपनी जेब से एक बेशकीमती पेन निकालकर बच्चे को दिया, "ये तुम्हारा गिफ़्ट मेरे पास पड़ा था। सम्भालकर रखना।"

पेन हाथ में लेकर बच्चा बोला, "कौन सा पेन है यह? सोने का है?"

तारा ने उठने का उपक्रम करते हुए अपने बेटे से कहा, "अभी ये पैन और गेम मैं रख लेती हूँ, घर चलकर ले लेना" फिर सुवाक से बोली, "मेरा स्टेशन आ रहा है। हम शायद फिर न मिलें, तुम अपना ध्यान रखना और हाँ, जैसे हो हमेशा वैसे ही बने रहना।"

"वैसा ही? मतलब डरावना?"

"मतलब तुम्हें पता है!"

दोनों हँसे। पेन को अभी तक हाथों से पकड़े हुए बच्चा एकाएक खुशी से उछल पड़ा, "अंकल तो जादूगर हैं, पेन पर मेरा नाम लिखा है। उन्हें पहले से कैसे पता चला?"

बेटे का हाथ थामे तारा ने ट्रेन से उतरने से पहले मुड़कर सुवाक को ऐसे देखा मानो आँखों में भर रही हो, फिर मुस्कराई और चल दी।

[समाप्त]

****************
* इसे भी पढ़ें *
****************
* कोई चेहरा भूला सा.... कहानी
****************

Thursday, December 22, 2011

नाम का चमत्कार - भूमिका

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो. न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
जादूगर के मंच पर बड़े कमाल होते हैं। इसी तरह हिन्दी फ़िल्मों में भी संयोग पर संयोग होते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ऐसे, जादू, कमाल और संयोग केवल किताबी बातें हैं। उनकी निजी ज़िन्दगी में शायद ऐसा कोई कमाल कभी हुआ ही नहीं। मैं यह नहीं मानता। मुझे तो लगता है कि वे अपने जीवन में नित्यप्रति घट रहे चमत्कार को देख पाने की शक्ति खो चुके हैं। लेकिन श्रीमान सुवाक त्रिगुणायत ऐसे लोगों में से नहीं है। शायद यही एक कारण है कि उनके इतने कठिन नाम, अति-सुरुचिपूर्ण जीवनशैली और विराट भौगोलिक दूरी के बावजूद वे अब तक मेरे मित्र हैं।

ये सुवाक की मैत्री का ही चमत्कार है कि मैंने भी आज उस्तादी उस्ताद से करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत है, एक छोटी कहानी जो मेरे एक पसन्दीदा ब्लॉग पर प्रकाशित एक कहानी से प्रभावित तो है मगर है अपने अलग अन्दाज़ में - विडियो किल्ड द रेडियो स्टार बनाम अउआ, अउआ? नहीं! ट्वेल्व ऐंग्री मैन बनाम एक रुका हुआ फैसला? कतई नहीं!

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही
अब तो उसका वापस घर आना इतने-इतने दिन बाद होता है कि हर बार भारत नया लगता है। पिछली बार देखे हुए भारत से एकदम भिन्न। सुवाक की यह विशेषता है कि परिवर्तन अच्छा है या बुरा, इसके बारे में कोई भी उसे कुछ कहने को बाध्य नहीं कर सकता। उसके जीवन में श्वेत-श्याम कुछ भी नहीं है। दुश्मनों से दुआ-सलाम की बात हो या दोस्तों की खिंचाई, जो सुवाक को जानता नहीं, उसके लिये आदमी अजीब है मगर जो उसे जानते भी हैं उनमें भी कई उससे बचते हैं। कुछ-एक लोग उसके तौर-तरीके से सहमे रहते हैं और साज-सलीके से कुछ झिझके से रहते हैं। जो बचे वे उसकी बेबाकी से बचना चाहते हैं। एक सहकर्मिणी ने एक बार उसकी अनुपस्थिति में कहा था कि वह सुवाक से बहुत डरती थी। मेरी हँसी रोके न रुकी। कोई सुवाक से भी डरा हो, इससे बड़ा मज़ाक क्या होगा। लेकिन जीवन में जिस प्रकार चमत्कार होते हैं, उसी प्रकार मज़ाक भी बखूबी होते हैं। बल्कि कई बार तो ज़िन्दगी ऐसा मज़ाक कर जाती है कि हम हँस भी नहीं पाते। तारा और सुवाक का ब्रेकअप भी ऐसा ही एक मज़ाक था।  तारा के अनुसार उसने अपने परिवार का सम्मान बचा लिया और सुवाक? उसने तो शायद कभी कुछ खोया ही नहीं। पहले नौकरी छोड़ी, फिर शहर और फिर देश।

नाते टूटते हैं पर जुड़े रह जाते हैं। या शायद वे कभी टूटते ही नहीं, केवल रूपांतरित हो जाते हैं। हम समझते हैं कि आत्मा मुक्त हो गयी जबकि वह नये वस्त्र पहने अपनी बारी का इंतज़ार कर रही होती है। न जाने कब यह नवीन वस्त्र किसी पुराने कांटे में अटक जाता है, खबर ही नहीं होती। तार-तार हो जाता है पर परिभाषा के अनुसार आत्मा तो घायल नहीं हो सकती। न जल सकती है न आद्र होती है। बारिश की बूंद को छूती तो है पर फिर भी सूखी रह जाती है।
[नाम का चमत्कार - कहानी]

"रेडियो प्लेबैक इंडिया" पर गिरिजेश राव की कहानी "राजू के नाम एक पत्र" का ऑडियो सुनने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये