अब तक: नाते टूटते हैं पर जुड़े रह जाते हैं। या शायद वे कभी टूटते ही नहीं, केवल रूपांतरित हो जाते हैं। हम समझते हैं कि आत्मा मुक्त हो गयी जबकि वह नये वस्त्र पहने अपनी बारी का इंतज़ार कर रही होती है। न जाने कब यह नवीन वस्त्र किसी पुराने कांटे में अटक जाता है, खबर ही नहीं होती। तार-तार हो जाता है पर परिभाषा के अनुसार आत्मा तो घायल नहीं हो सकती। न जल सकती है न आद्र होती है। बारिश की बून्द को छूती तो है पर फिर भी सूखी रह जाती है।
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यह वह मेट्रो तो नहीं! |
"तुम यहाँ कैसे? बताया भी नहीं?" वह जगह बनाते हुए थोड़ी खिसकी।
"बता देता तो यह चमत्कारिक मिलन कैसे होता? चिंता नहीं, आराम से बैठो, मैं ऐसे ही ठीक हूँ।"
"दिल्ली कब आये?"
"कज़न की शादी थी। परसों वापसी है। आज सोचा कि मेट्रो का ट्रायल लिया जाये। तुम कहीं जा रही हो ... या कहीं से आ रही हो?"
"बेटे की दवा लेकर आ रही थी।" वह रुकी, सुवाक को एक बार ऊपर से नीचे तक देखा और बोली, "तुम बिल्कुल भी नहीं बदले। मेट्रो देखने के लिये तो सूट और टाई ज़रूरी नहीं था।"
"सर्दी थी सो सूट पहन लिया। नैचुरल है टाई भी लगा ली।"
वह मुस्कराई, "कफ़लिंक्स पर अभी भी इनिशियल्स होते हैं क्या?"
"इनिशियल्स? पूरा नाम होता है अब" वह हँसा, "सब कुछ पर्सनलाइज़्ड है, पेन से लेकर घड़ी तक। तुम भी तो नहीं बदलीं। मिलते ही मज़ाक उड़ाने लगीं।" वाक्य पूरा करके सुवाक ने अपनी माँ से चिपककर बैठे बेटे को ध्यान से देखा। उनकी बातों से बेखबर वह अपने डीएस पर कुछ खेलने में मग्न था।
"बच्चे की तबियत कैसी है अब?"
"ठीक है! चिंता की कोई बात नहीं है ..." तारा ने आसपास कुछ तलाशते हुए पूछा, "तुम अभी भी अकेले हो?"
"नहीं, पत्नी भी आयी है। पर सर्दी में उसे घर में रहना ही पसन्द है।"
" ... और बच्चे?"
"बस, हम दो।" सुवाक सकुचाया और मन में मनाया कि तारा बात आगे न बढाये।
"लेकिन तुम तो कहते थे ...." वाक्य पूरा करने से पहले ही तारा को उसकी अप्रासंगिकता का आभास हो चला था। परंतु तीर चल चुका था।
"मैं तो और भी बहुत कुछ कहता था। कहा हुआ सब होने लगे तो दुनिया स्वर्ग ही न हो जाये।"
"सॉरी!"
"सॉरी की कोई बात नहीं है, सुधा को बच्चों से नफ़रत तो नहीं पर ... और मुझे प्रकृति ने वह क्षमता नहीं दी कि मैं उन्हें नौ महीने अपने अन्दर पाल सकूँ।" बात पूरी करते-करते सुवाक को भी अहसास हुआ कि यह बात कहे बिना भी वार्तालाप सम्पूर्ण ही था।
"अच्छा? अगर विज्ञान कर सकता तो क्या तुम रखते?"
"इतना आश्चर्य क्यों? तुम मुझे जानती नहीं क्या? हाँSSS, जानती होतीं तो आज यह सर्प्राइज़ मीटिंग कैसे होती?"
"न, मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। कोई और बात याद आ गयी थी। तुम कहाँ तक जाओगे?"
"डरो मत, तुम्हारे घर नहीं आ रहा। स्टेशन से ही वापस हो लूंगा।" सुवाक शरारत से मुस्कराया।
"डर!" तारा ने गहरी सांस ली, "डर क्या होता है, तुम क्या जानो! सच, तुम कुछ भी नहीं जानते। तुम नहीं समझोगे, उस दुनिया को जिसमें मैं रहती हूँ। तुम्हें नहीं पता कि आज तुम्हें सामने देखकर मैं कितनी खुश हूँ ... आज हम मिल सके ..." बात पूरी करते-करते तारा की आँखें नम हो आयीं।
"कैसा है पहलवान?" सुवाक ने बात बदलने का भरपूर प्रयास किया।
"वे" तारा एक पल को सकुचाई फिर बोली, " ... वे तो शादी के साल भर बाद ही ..."
"क्या हुआ? कैसे?"
"ज़मीन का झगड़ा, सगे चाचा ने ... छोड़ो न वह सब। तुम कैसे हो?"
"हे राम!"
भगवान भी क्या-क्या खेल रचता है। उन आँखों की तरलता ने सुवाक को झकझोर दिया। उसका मन करुणा से भर आया। दिल किया कि अभी उठाकर उसे अंक में भर ले। मगर यह समय और था। अब उन दोनों की निष्ठायें अलग थीं। वैसे भी यह भारत था। आसपास के मर्द-औरत, बूढ़े-जवान पहले से ही अपनी नज़रें उन पर ही लगाये हुए थे।
"तुमने यह शादी क्यों की?" सुवाक पूछना चाहता था लेकिन वार्ता के इस मोड़ पर वह कुछ बोल न सका। परंतु इसकी ज़रूरत भी नहीं पड़ी। तारा खुद ही कुछ बताना चाह्ती थी।
"मुझे ग़लत मत समझना। मैंने यह शादी सिर्फ़ इसलिये की ताकि मेरे भाई तुम्हें ..." वह फफक पड़ी, "तुम कुशल रहो, लम्बी उम्र हो।"
"माफ करना तारा, मैंने अनजाने ही ... तुम्हारे ज़ख्म हरे कर दिये। मुझे लगता था कि तुमने मुझे नहीं पहचाना। लेकिन आज समझा कि तुमसे बड़ा नासमझ तो मैं ही था ... मैंने तो, कोशिश भी नहीं की।"
माँ के स्वर का परिवर्तन भाँपकर बच्चे ने खेल से ध्यान हटाकर माँ की ओर देखा और अपने नन्हे हाथों से उसे प्यार से घेर लिया। सुवाक का हृदय स्नेह से भर उठा, "तुम्हारा क्या नाम है बेटा?"
बच्चा अपनी मीठी तोतली आवाज़ में बोला तो सुवाक के मन में घंटियाँ सी बज उठीं। तारा भी मुस्कराई। दोनों की आँखें मिलीं और तारा ने एकबारगी उसे देखकर अपनी नज़रें झुका लीं। सुवाक ने मुस्कराकर अपनी जेब से एक बेशकीमती पेन निकालकर बच्चे को दिया, "ये तुम्हारा गिफ़्ट मेरे पास पड़ा था। सम्भालकर रखना।"
पेन हाथ में लेकर बच्चा बोला, "कौन सा पेन है यह? सोने का है?"
तारा ने उठने का उपक्रम करते हुए अपने बेटे से कहा, "अभी ये पैन और गेम मैं रख लेती हूँ, घर चलकर ले लेना" फिर सुवाक से बोली, "मेरा स्टेशन आ रहा है। हम शायद फिर न मिलें, तुम अपना ध्यान रखना और हाँ, जैसे हो हमेशा वैसे ही बने रहना।"
"वैसा ही? मतलब डरावना?"
"मतलब तुम्हें पता है!"
दोनों हँसे। पेन को अभी तक हाथों से पकड़े हुए बच्चा एकाएक खुशी से उछल पड़ा, "अंकल तो जादूगर हैं, पेन पर मेरा नाम लिखा है। उन्हें पहले से कैसे पता चला?"
बेटे का हाथ थामे तारा ने ट्रेन से उतरने से पहले मुड़कर सुवाक को ऐसे देखा मानो आँखों में भर रही हो, फिर मुस्कराई और चल दी।
[समाप्त]
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