तीन खंडों की यह कहानी इस अंक में समाप्य है। पिछले खंड पढने के लिए नीचे के लिंक्स पर क्लिक करें खंड १ खंड २ |
साथ बैठे नौजवान मजदूर ने एक बीड़ी सुलगाकर उसकी तरफ़ बढ़ाई तो वह न नहीं कर सका। बीडी से शायद उसके शरीर और आवाज़ का कम्पन कुछ कम हुआ। इस लड़के ने बताया कि वह बालीगंज के पास ही जा रहे हैं। काम करीब हफ्ते भर चलेगा। उसके चेहरे पर खुशी की एक लहर सी दौड़ गयी। बालीगंज उसकी झुग्गी के एकदम पास था। उसने शुक्र मनाया कि शाम को वह जल्दी घर पहुँच सकेगा और पत्नी का हाथ भी बँटा सकेगा। कल से अगर वह घर से सीधा काम पर चला जाय तो रोज़ का बस का किराया भी बच जायेगा और बेमतलब ठण्ड में जमेगा भी नहीं।
उसने महसूस किया कि अब धूप में कुछ गरमी आने लगी थी। कोहरा भी छंट गया था। ट्रक बालीगंज में दाखिल हो चुका था। रास्ते जाने-पहचाने लग रहे थे। ला-बेला चौक, गांधी चौराहा, सब कुछ तो उसका रोज़ का देखा हुआ था।
ट्रक उजाड़ महल के मैदान में जाकर रुक गया। ट्रक के पास ही एक पुलिस की गाडी भी खड़ी थी। न जाने क्यों आज रास्ते में भी पुलिस की गाडियां खूब दिख रही थीं। उजाड़ महल दरअसल कंक्रीट के एक ढाँचे का नाम था। चार-पाँच साल पहले किसी सेठ ने यहाँ अपनी कोठी बनवानी शुरू की थी। एक रात सात-आठ मजदूर एक अधबनी छत के गिरने से दबकर मर गए थे। तब से वह कोठी वैसी ही पडी थी। बाद में सेठ ने वह ज़मीन किसी को बेच दी थी। नए मालिक ने एकाध बार वहाँ काम शुरू कराना चाहा भी मगर हर बार कुछ न कुछ लफडा ही हुआ। एक बार पुलिस भी आयी और उसके बाद वहाँ कोई काम नहीं हुआ।
कालांतर में उसके आसपास कई झुग्गी झोपडियां उग आयी थीं। वह भी ऐसी ही एक झुग्गी में रहता था। झुग्गी की बात याद आते ही उसे याद आया कि कल तो तौकीर भाई भी आयेगा झुग्गी का किराया लेने। तौकीर भाई बहुत ही जालिम आदमी है। उससे पंगा लेकर कोई भी चैन से नहीं रह सकता। आम आदमी की तो बात ही क्या, इलाके में कोई नया थानेदार भी आता है तो पहले उसकी भट्टी पर ही आता है हाजरी बजाने।
ठेकेदार ट्रक से नीचे उतरकर एक पुलिसवाले से बात करने लगा। दोनों एक दूसरे को कुछ समझा रहे थे। थोड़ी देर बाद ठेकेदार ट्रक के पीछे आया और सभी मजदूरों को नीचे उतरकर एक तरफ़ खडा होने की हिदायत देकर फ़िर से उसी पुलिसवाले के पास चला गया। सोचने लगा कि वह दोपहर में ठेकेदार से पूछकर खाना खाने घर चला जायेगा, मुन्ना का हालचाल भी देख लेगा। घर के इतने पास काम करने का कुछ तो फायदा होना ही चाहिए।
"मेरे पीछे-पीछे आओ एक-एक कुदाल लेकर" ठेकेदार की बात से उसकी तंद्रा भंग हुई।
उसने भी एक कुदाल उठाई और बाकी मजदूरों के पीछे चलने लगा। यह क्या, ठेकेदार तो उसकी बस्ती की तरफ़ ही जा रहा था। उसने देखा कि पुलिस वाले कुछ ट्रकों में पुरानी साइकिलें, बर्तन, खटियाँ, और बहुत सा दूसरा सामान भर रहे थे। तमाम औरतें बच्चे जमा थे। बहुत शोर हो रहा था। एकाध छोटे झुंड पुलिस से उलझते हुए भी दिख रहे थे। वह जानना चाह रहा था कि यह सब क्या हो रहा है। उसके मन में अजीब सी बेचैनी होने लगी थी।
ठेकेदार के आगे-आगे पुलिस का दीवान चल रहा था। दीवान उसकी बस्ती में घुस गया। वहाँ पहले से ही कई सिपाही मौजूद थे। दीवान ने उसके पड़ोसी नत्थू के घर की तरफ़ इशारा करके ठेकेदार से कहा, "यहाँ!"
"फ़टाफ़ट लग जाओ काम पर..." ठेकेदार बोला।
उसे अभी तक सब कुछ एक रहस्य सा लग रहा था। उसने देखा कि नत्थू के घर का सारा सामान बाहर पडा था। लेकिन वहाँ पर कोई व्यक्ति नहीं था। नत्थू तो सवेरे ही फेरी लगाने निकल पड़ता है मगर उसकी घरवाली कहाँ है? नत्थू के घर से उड़कर जब उसकी नज़र आगे बढ़ी तो अपने घर पर जाकर टिकी। वहाँ कुछ भीड़ सी लगी हुई थी। उसने देखा कि उसके घर का सामान भी बाहर पडा था। उसकी पत्नी मुन्ना को गोद में लिए हुए बाहर गली में खड़ी थी। नत्थू की घरवाली और कुछ और महिलायें भी वहीं थीं।
तभी ठेकेदार के बाकी शब्द उसके कान में पड़े, "...ये पूरी लाइन आज शाम तक तोड़नी है, हफ्ते भर में यह पूरा कचरा साफ़ हो जाना चाहिए।"
अब बात उसकी समझ में आने लगी थी। हे भगवान्! यह सारी कवायद उस जैसे गरीबों की झुग्गियां उजाड़ने के लिए है ताकि सेठ अपने महल बना सकें। नहीं, वह अपनी बस्ती नहीं टूटने देगा। अगर यह बस्ती टूट गयी तो उसकी पत्नी कहाँ रहेगी, बीमार मुन्ना का क्या होगा? अपनी कुदाल फैंककर वह अपने घर की तरफ़ भागा।
"यह सब कैसे हुआ?" उसने पत्नी से पूछा। पत्नी बौराई सी उसे फटी आंखों से देखती रही। उस के मुँह से कोई बोल न फूटा। मुन्ना भी उसकी गोद में मूर्तिवत सा पडा रहा। शायद बहुत गहरी नींद में था।
नत्थू की घरवाली ने सुबकते हुए किसी तरह कहा, "तुम्हारे जाते ही खून की उल्टी हुई और एक घंटे में ही सब निबट गया। हमने तुरन्त ही रज्जो के बाबूजी को भेजा तुम्हारा पता लगाने। बाप के बिना हम औरतें तो अन्तिम संस्कार नहीं कर सकती हैं न।"
[समाप्त]
बहुत मर्मस्पर्शी कहानी है ! धन्यवाद !
ReplyDeleteयूँ लगा जैसे मुंशी प्रेमचंद जी को पढ़ रहा होऊं ! एक साँस में पढ़ गया ! होश आया तो कमेन्ट करना है ! तब मालुम पडा की लेखक आप हैं ! क्या कमेन्ट करूँ ? बस इतना कहूंगा की अन्दर तक छलनी कर गई आप की रचना ! कहानीकार के रूप में भी और कथानक के रूप भी ! बहुत शुभकामनाएं !
ReplyDeleteअरे राम ! ये कथा मर्माँतक है ..:-(
ReplyDeleteताऊ से सहमत हूँ ! शुभकामनायें !
ReplyDeleteनत्थू की घरवाली ने सुबकते हुए किसी तरह कहा, "तुम्हारे जाते ही खून की उल्टी हुई और एक घंटे में ही सब निबट गया। हमने तुरन्त ही रज्जो के बाबूजी को भेजा तुम्हारा पता लगाने। बाप के बिना हम औरतें तो अन्तिम संस्कार नहीं कर सकती हैं न।"
ReplyDelete"ufff! socha hee nahee tha kee khanee ka antt itna marmik hoga..... ek ajeeb see udasee ne gher liya hai.."
Regards
तारीफ़ के लिये शब्द नही हैं मेरे पास ।इश्वर से प्रार्थना करुंगा मां सरस्वती का आशीर्वाद आप पर हमेशा बना रहे।
ReplyDeleteक्यों लिखते हो सच यार ?ऐसा सच जिसके हर चेहरे से हम वाकिफ है पर उसे पहचानना नही चाहते .....मुफलिसी से बड़ा कोई जुर्म नही ..........
ReplyDeleteबहुत मर्मान्तक और क्लाईमेक्स उम्मीद के विपरीत किसी जासूसी उपन्यास के प्लाट की तरह ! नायक मजदूरी करने वापस अपनी ही जगह आता है ! वाकई करुनान्तक और मार्मिक ! अंदाज नही लगा की कहानी का अंत यहाँ जाकर होगा ! बहुत शुभकामनाएं !
ReplyDeleteऐसा अंत ! पर वास्तविकता है. आपकी तरह फ्लो तो नहीं पर कभी एक कोशिश की थी यहाँ है:
ReplyDeletehttp://abhishek.ojha.googlepages.com/sach_abhishekojha.pdf
निर्मम से निर्ममतर है यह जीवन - कोई थाह नहीं।
ReplyDeleteविचार में भी नहीं था ऐसा मर्मांत!!
ReplyDeleteमन दुखी हो गया. कहानी सफल रही. आपकी लेखनी बहुत उम्दा है.
निःशब्द हूँ पढ़कर .... क्या कहूँ कुछ सूझ नही रहा......
ReplyDeleteहमारे आस पास के चिरपरिचित इस विद्रूप सत्य तो इतने सटीक रोचक और प्रभावी ढंग से कथा कलेवर में बाँध प्रस्तुत करने के लिए साधुवाद. कथा शिल्प अनुपम है आपका.
कुछ कहने लायक छोड़ा कहां आपने।
ReplyDeleteकटु सत्य बयां करती कहानी...बहुत मार्मिक...
ReplyDeleteनीरज
कहानी का अन्त हतप्रभ कर गया । ऐसा लगा मानो आपने बिजली के करण्टदार नंगे तार हाथों में थमा दिए हों । सब कुछ कल्पनातीत ।
ReplyDeleteइतनी मर्मस्पर्शी कहानी, इतने प्रभावी ढंग से कहने के लिए आप पर न्यौछावर ।
अत्यन्त मार्मिक यथार्थ!
ReplyDeleteक्या ऎसा भी होता है???? हे राम
ReplyDeleteयह जीवन कितना निष्ठुर और कितना वेदनापरक हो सकता है, इसे बताने के लिए इस कहानी से अच्छा उदाहरण नहीं मिलेगा।
ReplyDeleteसार्थक कहानी के लिए बधाई।
निःसंदेह नंगे यथार्थ को उकेरने
ReplyDeleteमें सफल रही आपकी यह कहानी,
सफलता का यह सोपान निरंतर
ऊपर को चढ़ता रहे !
वैसे सही बताऊँ, तो किंचित ईर्ष्या भी हो रही है..
इतने समर्थ लेखन से !
उम्दा लेखन ....!! ब्लॉग जगत ने हमें ऐसी पठनीय सामग्री सहज उपलब्ध करा दी है, इसके लिए तकनीक को शुक्रिया...आप अनवरत रहें आपका आभार.
ReplyDeleteaapki kahaniyon ne mere padhne ki iccha ko aur badha diya hai...bahut hi acchi kahaniyan...
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