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महामहिम दलाई लामा की अगुयाई में अगले हफ्ते से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला नगर में निर्वासित तिब्बतियों के एक-सप्ताह तक चलने वाले एक सम्मेलन का आयोजन हो रहा है. हमेशा की तरह कम्युनिस्ट चीन ने पहले से ही बयानबाजी करके भारत पर राजनैतिक दवाब डालना शुरू कर दिया है. एक तरफ़ चीन ने भारत को याद दिलाया कि वह इस सम्मेलन को भारत भूमि पर हो रहा एक चीन विरोधी कार्यक्रम मानेगा वहीं दूसरी ओर चीन ने कहा कि भारत की बताई उत्तरी सीमा को उसने कभी नहीं माना है खासकर पूर्वोत्तर में.
दशकों से निर्वासन में जी रहे हमारे उत्तरी पड़ोसी देश के नागरिकों की देश वापस लौटने की आस अभी भी ज्वलंत है. भले ही उनके प्रदर्शन हमारे अपने भारतीयों के प्रदर्शनों की तरह हिंसक न हों मगर उनका जज्बा फ़िर भी प्रशंसनीय है.
मुझे तिब्बतियों से पूर्ण सहानुभूति है और मुझे अहिंसा में उनके दृढ़ विश्वास के प्रति पूर्ण आदर भी है. मगर अहिंसा की उनकी परिभाषा से थोडा सा मतभेद है. मेरा दिल उनके लिए यह सोचकर द्रवित होता है कि तानाशाहों की नज़र में उनकी अहिंसा सिर्फ़ कमजोरी है. मुझे बार-बार यह लगता है कि अहिंसा के इस रूप को अपनाकर वे एक तरह से तिब्बत में पीछे छूटे तिब्बतियों पर चीन के दमन को अनजाने में सहारा ही दे रहे हैं.
अहिंसा के विचार का उदय और विकास शायद भारत में ही सबसे पहले हुआ. गीता जैसे रणांगन के मध्य से कहे गए ग्रन्थ में भी अहिंसा को प्रमुखता दिया जाना यह दर्शाता है कि अहिंसा की धारणा हमारे समाज में कितनी दृढ़ है. परन्तु हमारी संस्कृति में अहिंसा कमजोरी नहीं है बल्कि वीरता है. और गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन की मोह के वश आयी छद्म-अहिंसा की अवधारणा को तोड़ते हुए उसे थोपे गए युद्ध में अपने ही परिजनों और गुरुजनों का मुकाबला करने के लिए कहा था.
दूसरे अध्याय में भगवान् कहते हैं:
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥२- ३८॥
सुख-दुख, लाभ-हानि, जय और पराजय को समान मानकर युद्ध करते हुए पाप नहीं लगता. आख़िर सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान मानने वाला किसी से युद्ध करेगा ही क्यों? युद्ध के लिए निकलने वाला पक्ष किसी न किसी तरह के त्वरित या दीर्घकालीन सुख या लाभ की इच्छा तो ज़रूर ही रखेगा. और इसके साथ विजयाकान्क्षा होना तो प्रयाण के लिए अवश्यम्भावी है. अन्यथा युद्ध की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है. तब गीता में श्री कृष्ण बिना पाप वाले किस युद्ध की बात करते हैं? यह युद्ध है अन्याय का मुकाबला करने वाला, धर्म की रक्षा के लिए आततायियों से लड़ा जाने वाला युद्ध. आज या कल तिब्बतियों को निर्दय चीनी तानाशाहों के ख़िलाफ़ निष्पाप युद्ध लड़ना ही पडेगा जिससे बामियान के बुद्ध के संहारक तालेबान समेत दुनिया भर के तानाशाहों को आज भी हथियार बेचने वाला चीन बहुत समय तक तिब्बत की बौद्ध संस्कृति का दमन न कर सके.
महामहिम दलाई लामा की अगुयाई में अगले हफ्ते से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला नगर में निर्वासित तिब्बतियों के एक-सप्ताह तक चलने वाले एक सम्मेलन का आयोजन हो रहा है. हमेशा की तरह कम्युनिस्ट चीन ने पहले से ही बयानबाजी करके भारत पर राजनैतिक दवाब डालना शुरू कर दिया है. एक तरफ़ चीन ने भारत को याद दिलाया कि वह इस सम्मेलन को भारत भूमि पर हो रहा एक चीन विरोधी कार्यक्रम मानेगा वहीं दूसरी ओर चीन ने कहा कि भारत की बताई उत्तरी सीमा को उसने कभी नहीं माना है खासकर पूर्वोत्तर में.
दशकों से निर्वासन में जी रहे हमारे उत्तरी पड़ोसी देश के नागरिकों की देश वापस लौटने की आस अभी भी ज्वलंत है. भले ही उनके प्रदर्शन हमारे अपने भारतीयों के प्रदर्शनों की तरह हिंसक न हों मगर उनका जज्बा फ़िर भी प्रशंसनीय है.
मुझे तिब्बतियों से पूर्ण सहानुभूति है और मुझे अहिंसा में उनके दृढ़ विश्वास के प्रति पूर्ण आदर भी है. मगर अहिंसा की उनकी परिभाषा से थोडा सा मतभेद है. मेरा दिल उनके लिए यह सोचकर द्रवित होता है कि तानाशाहों की नज़र में उनकी अहिंसा सिर्फ़ कमजोरी है. मुझे बार-बार यह लगता है कि अहिंसा के इस रूप को अपनाकर वे एक तरह से तिब्बत में पीछे छूटे तिब्बतियों पर चीन के दमन को अनजाने में सहारा ही दे रहे हैं.
अहिंसा के विचार का उदय और विकास शायद भारत में ही सबसे पहले हुआ. गीता जैसे रणांगन के मध्य से कहे गए ग्रन्थ में भी अहिंसा को प्रमुखता दिया जाना यह दर्शाता है कि अहिंसा की धारणा हमारे समाज में कितनी दृढ़ है. परन्तु हमारी संस्कृति में अहिंसा कमजोरी नहीं है बल्कि वीरता है. और गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन की मोह के वश आयी छद्म-अहिंसा की अवधारणा को तोड़ते हुए उसे थोपे गए युद्ध में अपने ही परिजनों और गुरुजनों का मुकाबला करने के लिए कहा था.
दूसरे अध्याय में भगवान् कहते हैं:
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥२- ३८॥
सुख-दुख, लाभ-हानि, जय और पराजय को समान मानकर युद्ध करते हुए पाप नहीं लगता. आख़िर सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान मानने वाला किसी से युद्ध करेगा ही क्यों? युद्ध के लिए निकलने वाला पक्ष किसी न किसी तरह के त्वरित या दीर्घकालीन सुख या लाभ की इच्छा तो ज़रूर ही रखेगा. और इसके साथ विजयाकान्क्षा होना तो प्रयाण के लिए अवश्यम्भावी है. अन्यथा युद्ध की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है. तब गीता में श्री कृष्ण बिना पाप वाले किस युद्ध की बात करते हैं? यह युद्ध है अन्याय का मुकाबला करने वाला, धर्म की रक्षा के लिए आततायियों से लड़ा जाने वाला युद्ध. आज या कल तिब्बतियों को निर्दय चीनी तानाशाहों के ख़िलाफ़ निष्पाप युद्ध लड़ना ही पडेगा जिससे बामियान के बुद्ध के संहारक तालेबान समेत दुनिया भर के तानाशाहों को आज भी हथियार बेचने वाला चीन बहुत समय तक तिब्बत की बौद्ध संस्कृति का दमन न कर सके.
| तिब्बत संबन्धी कुछ लिंक तिब्बत के मित्र दलाई लामा |
तिब्बतियों को उन का राष्ट्र मिलना चाहिए।
ReplyDeleteअगर आप मेँ हिँसा के प्रतिकार का शौर्य नहीँ तब राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा करने मेँ आप कैसे सक्षम होँगेँ ?
ReplyDeleteतिब्बती प्रजा की अहिँसा को सबल राज्योँ से सहकार मिलना अनिवार्य होना चाहीये -
- लावण्या
तिब्बतियों का आत्मबल और धैर्य निस्सन्देह अदभुत और प्रशंसनीय है । उन्हें तिब्बत मिलना ही चाहिए ।
ReplyDeleteआज या कल तिब्बतियों को निर्दयी चीनी तानाशाहों के ख़िलाफ़ निष्पाप युद्ध लड़ना ही पडेगा जिससे बामियान के बुद्ध के संहारक तालेबान समेत दुनिया भर के तानाशाहों को आज भी हथियार बेचने वाला चीन बहुत समय तक तिब्बत की बौद्ध संस्कृति का दमन न कर सके.
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेख ! एक ज्वलंत विषय पर आपने बहुत ही सटीकता से लिखा ! बहुत शुभकामनाएं !
आपका कथन बिल्कुल सटीक है ! आख़िर तिब्बती कब तक इंतजार करेंगे ? धन्यवाद !
ReplyDeleteसहज ही सहानुभूति है हम सब की तिब्बतियों के प्रति. उनको अधिकार मिले यही कामना है.
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteहैरानी की बात है न की उन्होंने हिंसा का रास्ता नही अपनाया इतना सब कुछ होने के बाद भी.....क्या कुछ लोग अब भी उनकी ओर नही देखेगे ?
ReplyDeleteअप्रत्यक्ष रूप से सभी चाहते हैं कि तिब्बतियों को उनका हक मिले। पर चीन से कोई भी दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहता। दलाई लामा के बाद यह संघर्ष जिंदा भी रह पायेगा, इसमें भी शक है।
ReplyDeleteअहिंसा एक नोबल तरीका है कार्य सिद्धि का। पर इसका प्रयोग अगर क्लीव या बर्बर करेगा तो फलदाई न होगा वह तरीका। इसके अलावा, यह तरीका है - अन्तिम सत्य नहीं।
ReplyDeleteअच्छा आलेख. विचारणीय.
ReplyDeleteआपके ज्ञान भण्डार का जवाव नही धनयबाद
ReplyDeleteआप जिस से लडते है आखिरकर वैसे ही हो जाते है इसलिये सुंदर के लिये लडो और आप सुंदर हो जायेंगे !!ईमानदारी के लिये लडिये और आप ईमानदार हो जायेंगे !!
ReplyDeleteanurag jee chahte to sab yahi hai ..par himmt kisme hai ki yah bat kah saken vishw ke samne.
ReplyDeletebahut samayik lekh
ReplyDeleteजी हाँ - और - जब युद्ध किया जाए - तो नाम के लिए नहीं - अधर्म, दमन और क्रूरता की ताकतों को हराने के लिए |
ReplyDeleteऔर युद्ध उनसे भी करना ही होगा - जो इन ताकतों का जाने अनजाने में साथ दे रहे हों - जैसे महाभारत के समय द्रोण और भीष्म जैसे महात्मा जन कर रहे थे |