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Tuesday, March 27, 2012

क्या तिब्बत की आग चीनी तानाशाही को भस्म करेगी?

स्वतंत्रत तिब्बत = हिमालय की शांति

सारे तिब्बत में आग लगी हुई है। शांतिप्रिय तिब्बतियों को चीनी सैनिक अपने जूतों-तले रौंद रहे है। मठों पर सेना का कब्ज़ा है। भिक्षुकों को बाहरी समाज से काट दिया गया है। तोड़्फ़ोड के आरोप में पिछले दिनों एक दर्जन प्रदर्शनकारियों को चीन की एक अदालत ने 13-13 वर्ष की सजा सुनाई है। अनेक भिक्षुकों की गोलियों से छलनी लाशें मिल चुकी हैं और भी न जाने कितने भिक्षुक लापता हैं। चीन की दानवी सरकार की दमनकारी नीतियों से परेशान तिब्बती जन सेना की लाठी और गोली खाकर भी भूख हड़ताल, जन आंदोलन, और आत्मदाह कर रहे हैं। 2012 के आरम्भ से अब तक तिब्बत की स्वतंत्रता व दलाई लामा की वापसी की मांग को लेकर सिचुआन तथा अन्य क्षेत्रों में रह रहे 30 आत्मदाह के मामले प्रकाश में आ चुके हैं। न जाने कितने मामले कठोर चीनी सेंसर नीति के तहत दबे पड़े होंगे।

चीनी दमन के विरुद्ध विश्व भर में आवाज़ उठा रहे तिब्बतियों को भारी समर्थन मिल रहा है। न्यूयॉर्क में तीन तिब्बती युवाओं का 30 दिन पुराना अन्शन समाप्त कराते समय संयुक्त राष्ट्र ने भी चीन के साथ तिब्बत विषयक वार्ता का आश्वासन दिया है। मगर भारत के हालात उलट हैं। "शरणागत रक्षा" का दम भरने वाली धरती पर चीनी हू जिंताओ के आगमन से पहले तिब्बतियों की बस्तियों पर भारतीय प्रशासन ने दमन की कार्यवाहियाँ आरम्भ कर दी हैं। और यह हू जिंताओ है कौन? एक तानाशाह ही न! फिर उसके आगमन से पहले संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत को छावनी क्यों बनाया जा रहा है? चीनी शासक यह जानें या न जानें, भारतीय सदा से जानते हैं कि स्वतंत्रता मानवमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। तिब्बती जन भी स्वतंत्र वायु में सांस लेना चाहते हैं और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति का पूरा अधिकार है। आज जब चीनी दवाब में आकर नेपाल और भारत की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें भी तिब्बतियों की अहिंसक और शांतिमय अभिव्यक्ति को कुचलने में जुट गयी हैं तब तिब्बती सीने में सुलग़ती आग भारत की धरती तक भी आ पहुँची है। क्या हम अब भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? 26 वर्षीय तिब्बती युवक पावो जम्फ़ेल यशी ला ने चीन के अत्याचारों के खिलाफ दिल्ली में जंतर मंतर पर आत्मदाह का प्रयास किया है। यह पोस्ट लिखे जाने तक वे दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहे थे।
आज बुधवार मार्च 28, 2012 की सुबह पावो जम्फ़ेल यशी ला (26) का निधन हो गया! वे 2006 में तिब्बत से भागकर भारत आये थे और तब से धर्मशाला में रह रहे थे। अश्रुपूरित श्रद्धांजलि! 

धन्यवाद भारत!
 भारत सरकार और दिल्ली की राज्य सरकार को तिब्बतियों के इस कठिन समय में भारतीय राष्ट्रीय नारे "सत्यमेव जयते" को सिद्ध करना चाहिये। तिब्बती समुदाय पर हिंसक कार्यवाही करने के बजाय उन्हें चीनी नेताओं की आँखों में आँखें डालकर तिब्बत मुद्दे पर स्पष्ट बात करनी चाहिये। वहीं भारतीय जनता को भी इस विषय पर तिब्बत की स्वतंत्रता के समर्थन में खुलकर सामने आना चाहिये बल्कि चीन से भारतीय भूमि वापसी की मांग के लिये भी सरकार पर दवाब डालना चाहिये। कितने आश्चर्य की बात है कि देशभक्ति का दावा करने वाली किसी भी राष्ट्रीय पार्टी ने आज तक भारतीय भूमि की वापसी को अपनी नीति में शामिल करने का साहस नहीं दिखाया। कैसा राष्ट्रप्रेम है यह?

कोई भी चीनी नेता भारत का रुख करता है और तिब्बतियों की धर-पकड़ शुरू हो जाती है। वही तिब्बती जो अब तक भारत में आये शरणार्थियों में से सर्वाधिक शांतिप्रिय रहे हैं, पुलिस के डंडे खाते हैं, दुत्कारे जाते हैं, जेल जाते हैं - किसलिये? हमारी चुनी हुई सरकार में उनके संघर्ष में उनके साथ खड़े होने लायक रीढ नहीं है, यह बात समझ में आती है मगर तानाशाहों की लाठी बनकर निर्दोष शरणार्थियों के ऊपर बरसना? क्या यही है "अतिथि देवो भवः" की संस्कृति? कहाँ हैं संस्कृति के ठेकेदार और कहाँ हैं राष्ट्रगौरव वाले? कहाँ है वह प्रबुद्ध वर्ग जिन्हें फ़िलिस्तीन या क्यूबा में हवा चलने पर भारत बैठे-बैठे ज़ुकाम हो जाता है?
 
अमेरिका में  स्वतंत्र तिब्बत (अंतर्जाल  चित्र )
1952 के चीनी आक्रमण से पहले तक तिब्बत कम से कम 1300 वर्षों से एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में था। चीनदेश का जो भी हाल रहा हो त्रिविष्टप भूमि के आर्यावर्त से नियमित सम्बन्ध थे। दलाई लामा को अपना स्वामी मानने वाले तिब्बत की अपनी मुद्रा और डाक टिकट चीनी हमले तक चलते थे। सच तो यह है कि तिब्बत की अपनी सेना भी थी जिसने 1952 के प्रतिरोध के अतिरिक्त छठी शताब्दी में दो सौ वर्षों तक चीन से युद्ध किया था। डोगरा जनरल जोरावर सिंह के तिब्बत अभियान में सोने की गोली से मारे जाने की बात राहुल सांकृत्यायन ने भी लिखी है। चीन के दुष्प्रचार मे भले ही अरुणाचल, सिक्किम और भूटान की तरह तिब्बत भी चीन के अंग बताये जाते हों परंतु सत्य यही है कि स्वतंत्र राष्ट्र होने के बावजूद तिब्बत का जैसा नाता भारत और नेपाल के साथ रहा है वैसा चीन के साथ कभी नहीं रहा। तिब्बत की भाषा और लिपि सम्पूर्ण चीन में एक भाषा का दावा करने वाले चीन से एकदम अलग है। तिब्बती लिपि तो भारतीय लिपि परिवार की ही सदस्य है। भाषा और संस्कृति भी चीन के बजाय हिमालयी राज्यों से मिलती है।

स्वतंत्र तिब्बत का ध्वज
पंचशील की सन्धि करने के बाद भारत पर अचानक हमला करने वाले विस्तारवादी और उद्दण्ड चीन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। अक्साई-चिन पर कब्ज़ा किये रहने के बावजूद चीन का जब मन करता है वह कभी कश्मीर और कभी अरुणाचल प्रदेश के निवासियों के वीसा के बहाने भारत की प्रभुसत्ता का मज़ाक उड़ाने लगता है। बढती शक्ति से बौराये चीनी तिब्बत से निकलने वाली हमारी नदियों के रुख मोड़ रहे हैं। अपने सैनिकों के लिये दुर्गम स्थलों तक आधुनिक ट्रेनें चलाने वाला चीनी प्रशासन कैलाश और मानसरोवर जैसे प्राचीन तीर्थों की यात्राओं पर जाने वाले हमारे यात्रियों से भारी वीसा शुल्क लेने के बाद भी उन्हें मौलिक सुविधायें तक मुहैया नहीं कराता। चीनी अधिकारियों के हाथों भारतीय व्यापारियों के साथ हालिया बदसलूकी और वियेतनाम के साथ खनन परियोजनाओं सम्बन्धी समझौतों के समय खनन स्थल पर अपने नौसैनिक बेड़े की गश्तें कराना चीन द्वारा भारत की सम्प्रभुता को चुनौती देने का स्पष्ट उदाहरण है।

सत्य का साथ दें - तिब्बत के मित्र बनें
तिब्बत पर चीन के दमन का विरोध न केवल एक मानवता के लिहाज़ से ज़रूरी है बल्कि भारत के स्थाई शत्रु तानाशाह चीन की गुंडागर्दी को काबू में रखने के लिये आवश्यक भी है। नेपाल और पाकिस्तान भले ही मुँह सिये बैठे रहें, कम से कम भारत को यह चाहिए कि वह तिब्बत की स्वतंत्रता की आवाज विश्व मंच पर उठाए।  एक स्वतंत्र तिब्बत के अस्तित्व के साथ ही भारत-चीन सीमा विवाद का अंत तो होगा ही, भारत के साथ-साथ नेपाल और भूटान को भी एक दानवी पड़ोसी से छुटकारा मिलेगा। हमारी नदियाँ स्वतंत्र होंगी और पिछले वर्षों में सतलज में आयी कृत्रिम बाढ जैसी विभीषिकाओं से छुटकारा मिलेगा। अक्साई चिन व पाकिस्तान द्वारा कब्ज़ाये कश्मीर के उत्तरी भाग से लिये गये भूभाग की वापसी का मार्ग भी साफ़ होगा और चीन द्वारा तिब्बत को पर्माण्वीय कचरे का ढेर बनाये जाने की आशंकाओं के भय से मुक्ति भी मिलेगी। तिब्बत जैसे मित्रवत पड़ोसी की उपस्थिति से उत्तरी सीमा पर हथियारों व वन्यपशुओं की तस्करी से बचाव जैसे लाभ भी स्वतः ही मिलेंगे।

यह पोस्ट लिखते समय जब कुछ जानी-मानी तिब्बती वेबसाइटों पर जाने का प्रयास किया तो पाया कि वे डाउन हैं। अलग-अलग जगह से चल रही कई साइट्स का एक साथ डाउन होना तो यही दर्शा रहा है कि चीनी दमन लाठी, गोली, टैंक, जेल से आगे बढकर साइबर-टैरर तक पहुँच चुका है। ज़हरीला ड्रैगन इस वक़्त स्वतंत्र अभिव्यक्ति से डरा हुआ है।
कहावत है कि पाप का घड़ा फूटने से पहले छलकता ज़रूर है। क्या कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद के आखिरी कॉमरेड की बत्ती बुझने के दिन आ गये? चीन पर काफ़ी अंतर्राष्ट्रीय दवाब है, मगर जब तक भारत की ओर से दवाब नहीं बनता, वह निश्चिंत है। यदि एक बेहतर और शांतिमय संसार चाहिये तो चीन की तिब्बत से वापसी एक आवश्यक शर्त है। इस शर्त की पूर्ति के लिये तिब्बतियों को भारत सरकार का समर्थन आवश्यक है और भारत सरकार को ऐसा करने के लिये बाध्य करने के लिये भारतीय जनता का उठ खड़े होना ज़रूरी है। सम्पादक के नाम पत्र, फ़ेसबुक शेयर, गूगल प्लस, अपने जनप्रतिनिधि के नाम पत्र, या स्थानीय स्तर पर गोष्ठी और प्रेस सम्मेलन, नारेबाज़ी; आप जो भी कर सकते हैं कीजिये ताकि चीन के अगले हमले के समय 1962 वाले बहाने, "हिन्दी चीनी भाई-भाई" की आड़ न लेनी पड़े।

जय तिब्बत! जय भारत!  अमर हो स्वतंत्रता!

सम्बन्धित कड़ियाँ
Protests, Self-Immolation Signs Of A Desperate Tibet
* Friends of Tibet
* चीनी दमन और तिब्बती अहिंसा
* बार-बार दिन यह आए
* भारत पर चीन का दूसरा हमला?
* ४ जून - सर्वहारा और हत्यारे तानाशाह
* कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?
* तिब्बत - चीखते अक्षर (आचार्य गिरिजेश राव)
* अरुणाचल पर चीन ने फिर चली चाल

Saturday, July 4, 2009

बार-बार दिन यह आए

छः जुलाई १९३५ को जब तिब्बत के एक छोटे से गाँव में ल्हामो धोण्डुप का जन्म हुआ था तब किसे पता था कि यह बालक बड़ा होकर महामहिम दलाई लामा (तेनजिन ग्यात्सो) बनकर संसार भर के करोड़ों लोगों को प्रेम और करुणा के साथ सत्य और अहिंसा की प्रेरणा ही नहीं बनेगा वरन अनेकों लोगों के लिए साक्षात अवतार जैसा मान्य होगा।

यह दलाई लामा का सरल व्यक्तित्व ही है कि वह अपने को तिब्बत, गेलुग परिवार या बौद्ध धर्म तक सीमित न रखकर संपूर्ण विश्व के नागरिक बन सके। १९४९ में चीन द्वारा तिब्बत पर हुए हमले के बाद १९५९ में नेहरू जी की सहायता से दलाई लामा और लाखों शरणार्थियों ने भारत आकर तिब्बत की निर्वासित सरकार का गठन किया। तब से यह सरकार धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) में ही स्थापित है। सब जानते हैं कि चीन ने तिब्बत के अलावा सिक्किम, भूटान, लद्दाख और अरुणाचल के क्षेत्रों पर भी अपना दावा किया और इस सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र को हथियाने के प्रयास किए। अंततः सिक्किम और भूटान पर कब्ज़ा न कर पाने की स्थिति में भारत पर हमला भी किया और अंतर्राष्ट्रीय दवाब बनने पर सेना की वापसी भी कर ली परन्तु बलपूर्वक कब्जाए हुए लद्दाखी क्षेत्र अक्साई चिन को नहीं छोड़ा।

मंगोल भाषा में दलाई लामा का अर्थ है ज्ञान का महासागर। यह दलाई लामा का नेतृत्व ही है जिसने तिब्बत में चीनी दमन के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन को हिंसक नहीं होने दिया है। चीनी कब्जे में तिब्बत में जनता की खराब स्थिति का शांतिपूर्ण हल ढूँढने के लिए दलाई लामा ने अस्सी के दशक में एक शांति योजना भी प्रस्तुत की। १९८९ में दलाई लामा को शान्ति का नोबेल पुरस्कार मिला और चीन की धमकियों की परवाह किए बिना अनेकों राष्ट्रों ने उन्हें अपने देश के विशिष्ट नागरिक का दर्जा दिया है। उनको अनेकों सम्मान एवं बीसिओं डॉक्टरेट उपाधियां भी मिल चुकी हैं । भारत व अमेरिका के अलावा भी अनेकों विश्व विद्यालय उन्हें प्रवचन के लिए बुलाते रहते हैं। अपनी शांत मुस्कान के लिए प्रसिद्व दलाई लामा पचास से अधिक पुस्तकों के लेखक भी हैं।

यदि उनके जीवन संदेश को गिने-चुने शब्दों में कहना हो तो मैं चुनूंगा - अहिंसा, क्षमा, विश्व-बंधुत्व और नम्रता। दलाई लामा को जन्म दिन मुबारक!

दलाई लामा - चित्र सौजन्य: अनुराग शर्मातिब्बत संबन्धी कुछ लिंक
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चीनी दमन और तिब्बती अहिंसा
भारत तिब्बत समन्वय केंद्र



Thursday, November 13, 2008

चीनी दमन और तिब्बती अहिंसा

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महामहिम दलाई लामा की अगुयाई में अगले हफ्ते से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला नगर में निर्वासित तिब्बतियों के एक-सप्ताह तक चलने वाले एक सम्मेलन का आयोजन हो रहा है. हमेशा की तरह कम्युनिस्ट चीन ने पहले से ही बयानबाजी करके भारत पर राजनैतिक दवाब डालना शुरू कर दिया है. एक तरफ़ चीन ने भारत को याद दिलाया कि वह इस सम्मेलन को भारत भूमि पर हो रहा एक चीन विरोधी कार्यक्रम मानेगा वहीं दूसरी ओर चीन ने कहा कि भारत की बताई उत्तरी सीमा को उसने कभी नहीं माना है खासकर पूर्वोत्तर में.

दशकों से निर्वासन में जी रहे हमारे उत्तरी पड़ोसी देश के नागरिकों की देश वापस लौटने की आस अभी भी ज्वलंत है. भले ही उनके प्रदर्शन हमारे अपने भारतीयों के प्रदर्शनों की तरह हिंसक न हों मगर उनका जज्बा फ़िर भी प्रशंसनीय है.

मुझे तिब्बतियों से पूर्ण सहानुभूति है और मुझे अहिंसा में उनके दृढ़ विश्वास के प्रति पूर्ण आदर भी है. मगर अहिंसा की उनकी परिभाषा से थोडा सा मतभेद है. मेरा दिल उनके लिए यह सोचकर द्रवित होता है कि तानाशाहों की नज़र में उनकी अहिंसा सिर्फ़ कमजोरी है. मुझे बार-बार यह लगता है कि अहिंसा के इस रूप को अपनाकर वे एक तरह से तिब्बत में पीछे छूटे तिब्बतियों पर चीन के दमन को अनजाने में सहारा ही दे रहे हैं.

अहिंसा के विचार का उदय और विकास शायद भारत में ही सबसे पहले हुआ. गीता जैसे रणांगन के मध्य से कहे गए ग्रन्थ में भी अहिंसा को प्रमुखता दिया जाना यह दर्शाता है कि अहिंसा की धारणा हमारे समाज में कितनी दृढ़ है. परन्तु हमारी संस्कृति में अहिंसा कमजोरी नहीं है बल्कि वीरता है. और गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन की मोह के वश आयी छद्म-अहिंसा की अवधारणा को तोड़ते हुए उसे थोपे गए युद्ध में अपने ही परिजनों और गुरुजनों का मुकाबला करने के लिए कहा था.
दूसरे अध्याय में भगवान् कहते हैं:

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥२- ३८॥

सुख-दुख, लाभ-हानि, जय और पराजय को समान मानकर युद्ध करते हुए पाप नहीं लगता. आख़िर सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान मानने वाला किसी से युद्ध करेगा ही क्यों? युद्ध के लिए निकलने वाला पक्ष किसी न किसी तरह के त्वरित या दीर्घकालीन सुख या लाभ की इच्छा तो ज़रूर ही रखेगा. और इसके साथ विजयाकान्क्षा होना तो प्रयाण के लिए अवश्यम्भावी है. अन्यथा युद्ध की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है. तब गीता में श्री कृष्ण बिना पाप वाले किस युद्ध की बात करते हैं? यह युद्ध है अन्याय का मुकाबला करने वाला, धर्म की रक्षा के लिए आततायियों से लड़ा जाने वाला युद्ध. आज या कल तिब्बतियों को निर्दय चीनी तानाशाहों के ख़िलाफ़ निष्पाप युद्ध लड़ना ही पडेगा जिससे बामियान के बुद्ध के संहारक तालेबान समेत दुनिया भर के तानाशाहों को आज भी हथियार बेचने वाला चीन बहुत समय तक तिब्बत की बौद्ध संस्कृति का दमन न कर सके.

दलाई लामा - चित्र सौजन्य: अनुराग शर्मा
चित्र: अनुराग शर्मा
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