स्वतंत्रत तिब्बत = हिमालय की शांति |
सारे तिब्बत में आग लगी हुई है। शांतिप्रिय तिब्बतियों को चीनी सैनिक अपने जूतों-तले रौंद रहे है। मठों पर सेना का कब्ज़ा है। भिक्षुकों को बाहरी समाज से काट दिया गया है। तोड़्फ़ोड के आरोप में पिछले दिनों एक दर्जन प्रदर्शनकारियों को चीन की एक अदालत ने 13-13 वर्ष की सजा सुनाई है। अनेक भिक्षुकों की गोलियों से छलनी लाशें मिल चुकी हैं और भी न जाने कितने भिक्षुक लापता हैं। चीन की दानवी सरकार की दमनकारी नीतियों से परेशान तिब्बती जन सेना की लाठी और गोली खाकर भी भूख हड़ताल, जन आंदोलन, और आत्मदाह कर रहे हैं। 2012 के आरम्भ से अब तक तिब्बत की स्वतंत्रता व दलाई लामा की वापसी की मांग को लेकर सिचुआन तथा अन्य क्षेत्रों में रह रहे 30 आत्मदाह के मामले प्रकाश में आ चुके हैं। न जाने कितने मामले कठोर चीनी सेंसर नीति के तहत दबे पड़े होंगे।
चीनी दमन के विरुद्ध विश्व भर में आवाज़ उठा रहे तिब्बतियों को भारी समर्थन मिल रहा है। न्यूयॉर्क में तीन तिब्बती युवाओं का 30 दिन पुराना अन्शन समाप्त कराते समय संयुक्त राष्ट्र ने भी चीन के साथ तिब्बत विषयक वार्ता का आश्वासन दिया है। मगर भारत के हालात उलट हैं। "शरणागत रक्षा" का दम भरने वाली धरती पर चीनी हू जिंताओ के आगमन से पहले तिब्बतियों की बस्तियों पर भारतीय प्रशासन ने दमन की कार्यवाहियाँ आरम्भ कर दी हैं। और यह हू जिंताओ है कौन? एक तानाशाह ही न! फिर उसके आगमन से पहले संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत को छावनी क्यों बनाया जा रहा है? चीनी शासक यह जानें या न जानें, भारतीय सदा से जानते हैं कि स्वतंत्रता मानवमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। तिब्बती जन भी स्वतंत्र वायु में सांस लेना चाहते हैं और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति का पूरा अधिकार है। आज जब चीनी दवाब में आकर नेपाल और भारत की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें भी तिब्बतियों की अहिंसक और शांतिमय अभिव्यक्ति को कुचलने में जुट गयी हैं तब तिब्बती सीने में सुलग़ती आग भारत की धरती तक भी आ पहुँची है। क्या हम अब भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? 26 वर्षीय तिब्बती युवक पावो जम्फ़ेल यशी ला ने चीन के अत्याचारों के खिलाफ दिल्ली में जंतर मंतर पर आत्मदाह का प्रयास किया है। यह पोस्ट लिखे जाने तक वे दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहे थे।
आज बुधवार मार्च 28, 2012 की सुबह पावो जम्फ़ेल यशी ला (26) का निधन हो गया! वे 2006 में तिब्बत से भागकर भारत आये थे और तब से धर्मशाला में रह रहे थे। अश्रुपूरित श्रद्धांजलि!
धन्यवाद भारत! |
कोई भी चीनी नेता भारत का रुख करता है और तिब्बतियों की धर-पकड़ शुरू हो जाती है। वही तिब्बती जो अब तक भारत में आये शरणार्थियों में से सर्वाधिक शांतिप्रिय रहे हैं, पुलिस के डंडे खाते हैं, दुत्कारे जाते हैं, जेल जाते हैं - किसलिये? हमारी चुनी हुई सरकार में उनके संघर्ष में उनके साथ खड़े होने लायक रीढ नहीं है, यह बात समझ में आती है मगर तानाशाहों की लाठी बनकर निर्दोष शरणार्थियों के ऊपर बरसना? क्या यही है "अतिथि देवो भवः" की संस्कृति? कहाँ हैं संस्कृति के ठेकेदार और कहाँ हैं राष्ट्रगौरव वाले? कहाँ है वह प्रबुद्ध वर्ग जिन्हें फ़िलिस्तीन या क्यूबा में हवा चलने पर भारत बैठे-बैठे ज़ुकाम हो जाता है?
अमेरिका में स्वतंत्र तिब्बत (अंतर्जाल चित्र ) |
स्वतंत्र तिब्बत का ध्वज |
सत्य का साथ दें - तिब्बत के मित्र बनें |
यह पोस्ट लिखते समय जब कुछ जानी-मानी तिब्बती वेबसाइटों पर जाने का प्रयास किया तो पाया कि वे डाउन हैं। अलग-अलग जगह से चल रही कई साइट्स का एक साथ डाउन होना तो यही दर्शा रहा है कि चीनी दमन लाठी, गोली, टैंक, जेल से आगे बढकर साइबर-टैरर तक पहुँच चुका है। ज़हरीला ड्रैगन इस वक़्त स्वतंत्र अभिव्यक्ति से डरा हुआ है।कहावत है कि पाप का घड़ा फूटने से पहले छलकता ज़रूर है। क्या कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद के आखिरी कॉमरेड की बत्ती बुझने के दिन आ गये? चीन पर काफ़ी अंतर्राष्ट्रीय दवाब है, मगर जब तक भारत की ओर से दवाब नहीं बनता, वह निश्चिंत है। यदि एक बेहतर और शांतिमय संसार चाहिये तो चीन की तिब्बत से वापसी एक आवश्यक शर्त है। इस शर्त की पूर्ति के लिये तिब्बतियों को भारत सरकार का समर्थन आवश्यक है और भारत सरकार को ऐसा करने के लिये बाध्य करने के लिये भारतीय जनता का उठ खड़े होना ज़रूरी है। सम्पादक के नाम पत्र, फ़ेसबुक शेयर, गूगल प्लस, अपने जनप्रतिनिधि के नाम पत्र, या स्थानीय स्तर पर गोष्ठी और प्रेस सम्मेलन, नारेबाज़ी; आप जो भी कर सकते हैं कीजिये ताकि चीन के अगले हमले के समय 1962 वाले बहाने, "हिन्दी चीनी भाई-भाई" की आड़ न लेनी पड़े।
जय तिब्बत! जय भारत! अमर हो स्वतंत्रता!
सम्बन्धित कड़ियाँ* Protests, Self-Immolation Signs Of A Desperate Tibet
* Friends of Tibet
* चीनी दमन और तिब्बती अहिंसा
* बार-बार दिन यह आए
* भारत पर चीन का दूसरा हमला?
* ४ जून - सर्वहारा और हत्यारे तानाशाह
* कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?
* तिब्बत - चीखते अक्षर (आचार्य गिरिजेश राव)
* अरुणाचल पर चीन ने फिर चली चाल
चीनी ड्रैगन लीलता, त्रिविष्टप संसार ।
ReplyDeleteदैव-शक्ति को पड़ेगा, पाना इससे पार ।
पाना इससे पार, मरे न गन से ड्रैगन ।
देखेगा गरनाल, तभी यह काँपे गन-गन ।
भरा पूर्ण घट-पाप, दूंढ़ जग चाल महीनी ।
होय तभी यह साफ़, बड़ी कडुवी यह चीनी ।।
हमें इन सीधे साधे लोगों का साथ देना चाहिए ....
ReplyDeleteशुभकामनायें तिब्बत को !
तिब्बत के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ का हस्तक्षेप महत्वपूर्ण हो सकता है, विडंबना यह है की साम्राज्यवादी शक्तियों के अधीन संयुक्त राष्ट्र संघ का ध्यान अरब मुल्कों से हटती ही नहीं है......उपरोक्त पोस्ट हेतु आभार.....................
ReplyDeleteबहुत लंबा रास्ता है अभी तय करने को,पर वह दिन ज़रूर आयेगा जब साम्राज्यवादी शक्तियां परास्त होंगी !
ReplyDeleteकभी-कभी क्षुब्ध होता है मन.. इस विषय से बिलकुल अनभिज्ञ हूँ.. गिरिजेश जी की यह श्रृंखला भी नहीं पढ़ पाया हूँ... मगर यहाँ वहाँ से छिटपुट जो भी जाना है उससे मन को तकलीफ होती है!!
ReplyDeleteअब इसे पढकर समझने की कोशिश करता हूँ!! आभार!!!
भारतीय संस्कृति, भारतीय मूल्यों का पिछले ६० वर्षों में जितना हनन हुवा है वो पछले २०० वर्षों में शायद न हुवा हो ... तिब्बत ही नहीं आज भारत के हर पडोसी के साथ भारत के सम्बन्ध खराब हैं क्योंकि वो संस्कृति के ऊपर नहीं टिके हैं बल्कि राजनीति पे टिके हैं ...
ReplyDeleteसोचना पड़ेगा देश के कर्णधारों को ....
damankari takton ko sda hi dushparinam bhugatna pda hae ,par fir bhi he to chintan ka vishay ki bharat ki rananeeti kya hoga ?
ReplyDeleteतिब्बत तो हमारा सहोदर सा ही है। उसकी मुक्ति के लिए भारत को दबाव बनाना ही चाहिए। कूटनीति और राजनय का कुशल उपयोग करने का यह ठीक समय लगता है।
ReplyDeleteआपकी बात से असहमत होने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
गंभीर आलेख,,, भारत में फ़िलहाल जो सरकार है उससे कुछ भी सकारात्मक उम्मीद करना बेमानी है... सामाजिक बदलाव बहद जरूरी हैं तभी बड़े स्तर पर कुछ हो सकता है....
ReplyDeleteचीन एक बार धोखा दे चुका है, यह स्वीकार करने का मन नहीं होता कि दुबारा वह ऐसा नहीं करेगा। सत्य का ही साथ दे भारत।
ReplyDeleteधोखा और बेईमानी चीन के स्वभाव में है.एक बात और भी वहाँ की वस्तुओं का जो सस्ती बना कर (निम्न क्वालिटी की-स्वास्थ्य की कीमत पर)हमारे बाज़ारों में उँडेल रहा है उसका विरोध भी ज़रूरी है. .
ReplyDeleteयक़ीनन भारत की नीति सहयोगात्मक ही रहनी चाहिए ....... आपके विचारों से सहमत हूँ.......
ReplyDeleteभाई अनुराग जी,
ReplyDeleteतिब्बत का मामला सिर्फ न्याय और मानवाधिकार का नहीं बल्कि जिम्मेवारी का भी है जिसका निर्वाह करने में भारतीय शासक चूक गए. जहां ता मेरी जानकारी है. ब्रिटिश काल में तिब्बत के साथ भारत का यह करार था कि तिब्बत की गृह नीति और आतंरिक व्यवस्था दलाई लामा के जिम्मे होगी और उसकी विदेश नीति और सुरक्षा संबंधी मामले भारत देखेगा. यही कारण है कि तिब्बत के पास कोई सेना नहीं थी. उसे इसकी जरूरत भी नहीं थी. चीन की क्रांति के बाद जब चीन ने यह कहकर चीन पर कब्ज़ा करना शुरू किया कि अमेरिका यहां से हमें डिस्टर्ब कर रहा है तो तिब्बतियों ने अनुबंध के मुताबिक भारत सरकार से सुरक्षा की गुहार लगाई. उस वक़्त ( ५ वें दशक के प्रारंभ में ) शांति के कथित दूत पंडित नेहरू भारत के प्रधान मंत्री थे. उन्होंने यह कहकर अपने हांथ पीछे कर लिए कि तिब्बत जैसे देश के लिए हम चीन से सम्बन्ध ख़राब नहीं कर सकते. यह सीधे तौर पर वादाखिलाफी और कायरता थी. इसी का परिणाम 1962 का चीनी हमला था और आज तक भारतीय भूभाग पर चीन के अवैध कब्जे और दावे के रूप में भुगतना पड़ रहा है. अभी भी भारतीय शासक यदि पूर्वजों की कायरता का पश्ताताप कर तिब्बत की आजादी के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनायें तो यह भारत की सुरक्षा की दृष्टि से भी उचित होगा. भारत की जनता का नैतिक समर्थन तो तिब्बत के साथ रहा है और रहेगा.
we should not crush anyones fundamental right.
ReplyDeletethanks sir for beautiful burning post on your blog.
हम आडंबर वाले लोग हैं, चीन अरुणाचल पर अपना सिक्का चलाता है, हम दूर से हेकड़ी मारते हैं, तिब्बती जिस हाल में रह रहे हैं, भारतीय कल्पना करके देखें, कश्मीर को भी यहां याद किया जा सकता है।
ReplyDeleteजम्फ़ेल यशी ला की आग में दहकती तस्वीर दिल दहलानेवाली थी। उनको श्रद्धांजलि
दूसरे पक्ष की बढ़ती शक्ति, लोलुपता, दमन और इधर कल से चर्चाओं में छाये जनरल साहब के पत्र की लीकेज..। अपनी धरती तो हम भूले बैठे हैं और तिब्बत के लिये कुछ करेंगे? एक सांसद श्री महावीर त्यागी ने उस जमीन की बात उठाई तो पंडितजी ने कहा था कि वहाँ तो घास भी नहीं होती। त्यागी जी ने अपनी टोपी उतार कर अपने सफ़ाचट सिर की तरफ़ इशारा करते हुये कहा था कि घास तो यहाँ भी नहीं होती। वो सिर हर हिंदुस्तानी का सिर बना हुआ है। मुझे दो पैसे का फ़ायदा चीन से और चीनी सामान से होगा तो मैं वो फ़ायदा उठाऊंगा, भूल जाऊंगा कि इसके बदले में मुझे क्या क्या गिरवी रखना पड़ता है। बाढ़ आये, जमीन पर कब्जा हो, सैनिक मरें, आम जनता मरे सब मंजूर है। इत्मीनान है तो ये कि मुझे फ़ायदा हो रहा है, गर्व है तो ये कि हमारे पुरखे शरणागत वत्सल थे।
ReplyDeleteक्षुब्ध होने के सिवा हम कुछ कर भी नहीं सकते हैं।
(१) आलेख की चिंताओं से सहमति !
ReplyDelete(२) राष्ट्रीयताओं के निर्धारण / पुनर्निर्धारण के मुद्दे पर एक ख्याल कौंध रहा है सोचा आपसे शेयर कर लूं ...
पूरी दुनिया के इंसानों के लिए स्वायत्तता , स्वतंत्रता , आंचलिक पहचान ,पृथकतावाद के मुद्दे पर नई तरह से बात करने की ज़रूरत है ! कितनी और कहां तक की स्वतंत्रता सारे इंसानों को ? कितनी राजनैतिक संप्रभुता ? पर्याप्त होगी ?
कभी राजनैतिक सीमा आधारित राष्ट्र के रूप में चीन आज जैसा नहीं था और वर्तमान यू.एस.ए./ रूस या फिर दूसरे तमाम देश ! आप जिस देश के नक़्शे मे हाथ डालें यही प्रवृत्ति नज़र आयेगी !
सर्विया चाहिये बोस्निया फिर आयरलैंड भी , फिलिस्तीन , बलूचिस्तान , तिब्बत , उइघुरों के लिए सीक्यांग ,चेचिन्या , कुर्दिस्तान बस गिनते जाइए अंगुलियां कम पड़ेंगी , सभी को राजनैतिक संप्रभुता चाहिये !
इधर राजनैतिक संप्रभुता के अंदर स्वायत्तता बतौर तेलंगाना ,विदर्भ ,हरित प्रदेश वगैरह वगैरह और लीबिया / ईराक के भी एकाधिक टुकड़े ,कमोबेश यूरोप में भी यही प्रवृत्तियां !
बड़ी राजनैतिक इकाई की छोटी छोटी आंचलिकतायें आगे चलकर इन आंचलिकताओं के अंदर उप- आंचलिक पहचान की मांग भी ज़रूर उठेंगी !
यह एक अंतहीन सिलसिला है इसलिए सोचता हूं कि दुनिया भर के इंसानों को भाषा / धर्म /जाति के भेद के बिना कितनी स्वतंत्रता / कितनी स्वायत्तता की दरकार है और कितनी किस शक्ल में वाजिब होगी ? किस शक्ल की राष्ट्रीयतायें उचित साबित होंगी ? जो सतत टूट के इस सिलसिले को रोक पायें ?
अली सा, इंसान स्वतंत्रता मांगता हुआ आन्चलिक्ताओ से आगे आ अपने घर अपने घर में भी अलग ही स्वंतंत्रता की मांग कर सकता है... वरन कर भी रहा है... पर धीरे धीरे - एक कौम को ही समाप्त कर दो - ये कौन सी कम्युनिष्ट मानसिकता है.
Deleteतिब्बत को हमारी बुलन्द हुँकार की जरूरत है।
ReplyDeleteक्या चीन से युद्ध करने को हम तैयार हैं ? हमारे सेनाध्यक्ष क्या कह रहे हैं ?
ReplyDeleteहमें रेटरिक और भावावेश में आने के बजाय इस मामले को रणनीति और कुटिल नीति=कूटनीति से हल करना होगा ..हम एक और शर्मनाक हार के कारणों को उत्प्रेरित नहीं कर सकते ....आज भी अक्साई चीन हमारे घावों को ,हमारी शर्मनाक हार के दंश को ताजा कर देती है !
Deleteसरकार पहले जनरल साहब से निपट ले, क्योंकि यह बड़ा मुद्दा तो है नहीं कि सेना के पास जो अस्त्र-शस्त्र होना चाहिये वे हैं या नहीं. बड़ा मुद्दा यह है कि जनरल की चिट्ठी लीक कैसे हो गयी. शायद चीन आंख-नाक-कान बन्द कर बैठा है, उसके पास तो इन्टेलीजेन्स एजेन्सियां हैं ही नहीं. शायद हमारी संसद में ही यह बयान दिया गया था कि चीन से एक-एक इंच जमीन वापस ली जायेगी. क्या हुआ उस बयान का. मुझे तो लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि चीन जमीन पर कब्जा कर ले. किस तरह का लोकतन्त्र है-प्रो०आशीर्वादम का कथन लोकतन्त्र के बारे में सही लगता है कि लोकतन्त्र में सिर देखे जाते हैं यह नहीं देखा जाता कि उनके अन्दर क्या है. यह बात बिल्कुल सही है कि जनरल सिंह ने कई अधिकारियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की, हो सकता है कि उनके विरुद्ध भी कोई लाबी सक्रिय हो. लेकिन इन हालातों में तो देश की गारंटी भगवान भी नहीं ले सकता. तिब्बत फिलिस्तीन होता तो अब तक छाती कूट कोहराम मचा होता.
ReplyDeleteहमें यह आज लीक होने पर मालूम हुआ है ..कोई आश्चर्य नहीं ये गोपन सूचनाएं पड़ोसी मुल्कों को पहले से ही न मालूम हो ....
ReplyDeleteहम पहले अपनी स्थिति कान्सालिदेट कर लें फिर नेक कामों पर अमल शुरू करें ...
गंभीर आलेख पढ़ने से छूटा जा रहा था। हम तो तिब्बतियों के संपूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर हैं। अभी असंभव दिखता है लेकिन एक न एक दिन यह होगा जरूर..भारत साथ दे या न दे। संपूर्ण चीन अमानवीय नहीं हो सकता। वहाँ भी मनुष्य रहते हैं..उनके दिल भी धड़कते होंगे..मानवता की पुकार राष्ट्रीय स्वार्थ से अधिक मायने रखती है। चीन की जनता ही तिब्बतियों का साथ देगी।
ReplyDeletePainful on our part, yet true.
Deleteहम तिब्बतियों के साथ हैं. सरकार हो न हो.
ReplyDeleteसार्थक आलेख.................. पर बहुत बहुत बधाई. सार्थक लेखन करते रहिये इन्ही शुभकामनाओं के साथ
ReplyDeleteश्री राम जन्म की बधाईयाँ :) शुभकामनाएं |
ReplyDeleteभस्म तो होना है. बस 'कब' नहीं पता. !
ReplyDeleteCommunists are terrorists.
ReplyDeleteCommunists are terrorists.
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