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Tuesday, March 27, 2012

क्या तिब्बत की आग चीनी तानाशाही को भस्म करेगी?

स्वतंत्रत तिब्बत = हिमालय की शांति

सारे तिब्बत में आग लगी हुई है। शांतिप्रिय तिब्बतियों को चीनी सैनिक अपने जूतों-तले रौंद रहे है। मठों पर सेना का कब्ज़ा है। भिक्षुकों को बाहरी समाज से काट दिया गया है। तोड़्फ़ोड के आरोप में पिछले दिनों एक दर्जन प्रदर्शनकारियों को चीन की एक अदालत ने 13-13 वर्ष की सजा सुनाई है। अनेक भिक्षुकों की गोलियों से छलनी लाशें मिल चुकी हैं और भी न जाने कितने भिक्षुक लापता हैं। चीन की दानवी सरकार की दमनकारी नीतियों से परेशान तिब्बती जन सेना की लाठी और गोली खाकर भी भूख हड़ताल, जन आंदोलन, और आत्मदाह कर रहे हैं। 2012 के आरम्भ से अब तक तिब्बत की स्वतंत्रता व दलाई लामा की वापसी की मांग को लेकर सिचुआन तथा अन्य क्षेत्रों में रह रहे 30 आत्मदाह के मामले प्रकाश में आ चुके हैं। न जाने कितने मामले कठोर चीनी सेंसर नीति के तहत दबे पड़े होंगे।

चीनी दमन के विरुद्ध विश्व भर में आवाज़ उठा रहे तिब्बतियों को भारी समर्थन मिल रहा है। न्यूयॉर्क में तीन तिब्बती युवाओं का 30 दिन पुराना अन्शन समाप्त कराते समय संयुक्त राष्ट्र ने भी चीन के साथ तिब्बत विषयक वार्ता का आश्वासन दिया है। मगर भारत के हालात उलट हैं। "शरणागत रक्षा" का दम भरने वाली धरती पर चीनी हू जिंताओ के आगमन से पहले तिब्बतियों की बस्तियों पर भारतीय प्रशासन ने दमन की कार्यवाहियाँ आरम्भ कर दी हैं। और यह हू जिंताओ है कौन? एक तानाशाह ही न! फिर उसके आगमन से पहले संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत को छावनी क्यों बनाया जा रहा है? चीनी शासक यह जानें या न जानें, भारतीय सदा से जानते हैं कि स्वतंत्रता मानवमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। तिब्बती जन भी स्वतंत्र वायु में सांस लेना चाहते हैं और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति का पूरा अधिकार है। आज जब चीनी दवाब में आकर नेपाल और भारत की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें भी तिब्बतियों की अहिंसक और शांतिमय अभिव्यक्ति को कुचलने में जुट गयी हैं तब तिब्बती सीने में सुलग़ती आग भारत की धरती तक भी आ पहुँची है। क्या हम अब भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? 26 वर्षीय तिब्बती युवक पावो जम्फ़ेल यशी ला ने चीन के अत्याचारों के खिलाफ दिल्ली में जंतर मंतर पर आत्मदाह का प्रयास किया है। यह पोस्ट लिखे जाने तक वे दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहे थे।
आज बुधवार मार्च 28, 2012 की सुबह पावो जम्फ़ेल यशी ला (26) का निधन हो गया! वे 2006 में तिब्बत से भागकर भारत आये थे और तब से धर्मशाला में रह रहे थे। अश्रुपूरित श्रद्धांजलि! 

धन्यवाद भारत!
 भारत सरकार और दिल्ली की राज्य सरकार को तिब्बतियों के इस कठिन समय में भारतीय राष्ट्रीय नारे "सत्यमेव जयते" को सिद्ध करना चाहिये। तिब्बती समुदाय पर हिंसक कार्यवाही करने के बजाय उन्हें चीनी नेताओं की आँखों में आँखें डालकर तिब्बत मुद्दे पर स्पष्ट बात करनी चाहिये। वहीं भारतीय जनता को भी इस विषय पर तिब्बत की स्वतंत्रता के समर्थन में खुलकर सामने आना चाहिये बल्कि चीन से भारतीय भूमि वापसी की मांग के लिये भी सरकार पर दवाब डालना चाहिये। कितने आश्चर्य की बात है कि देशभक्ति का दावा करने वाली किसी भी राष्ट्रीय पार्टी ने आज तक भारतीय भूमि की वापसी को अपनी नीति में शामिल करने का साहस नहीं दिखाया। कैसा राष्ट्रप्रेम है यह?

कोई भी चीनी नेता भारत का रुख करता है और तिब्बतियों की धर-पकड़ शुरू हो जाती है। वही तिब्बती जो अब तक भारत में आये शरणार्थियों में से सर्वाधिक शांतिप्रिय रहे हैं, पुलिस के डंडे खाते हैं, दुत्कारे जाते हैं, जेल जाते हैं - किसलिये? हमारी चुनी हुई सरकार में उनके संघर्ष में उनके साथ खड़े होने लायक रीढ नहीं है, यह बात समझ में आती है मगर तानाशाहों की लाठी बनकर निर्दोष शरणार्थियों के ऊपर बरसना? क्या यही है "अतिथि देवो भवः" की संस्कृति? कहाँ हैं संस्कृति के ठेकेदार और कहाँ हैं राष्ट्रगौरव वाले? कहाँ है वह प्रबुद्ध वर्ग जिन्हें फ़िलिस्तीन या क्यूबा में हवा चलने पर भारत बैठे-बैठे ज़ुकाम हो जाता है?
 
अमेरिका में  स्वतंत्र तिब्बत (अंतर्जाल  चित्र )
1952 के चीनी आक्रमण से पहले तक तिब्बत कम से कम 1300 वर्षों से एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में था। चीनदेश का जो भी हाल रहा हो त्रिविष्टप भूमि के आर्यावर्त से नियमित सम्बन्ध थे। दलाई लामा को अपना स्वामी मानने वाले तिब्बत की अपनी मुद्रा और डाक टिकट चीनी हमले तक चलते थे। सच तो यह है कि तिब्बत की अपनी सेना भी थी जिसने 1952 के प्रतिरोध के अतिरिक्त छठी शताब्दी में दो सौ वर्षों तक चीन से युद्ध किया था। डोगरा जनरल जोरावर सिंह के तिब्बत अभियान में सोने की गोली से मारे जाने की बात राहुल सांकृत्यायन ने भी लिखी है। चीन के दुष्प्रचार मे भले ही अरुणाचल, सिक्किम और भूटान की तरह तिब्बत भी चीन के अंग बताये जाते हों परंतु सत्य यही है कि स्वतंत्र राष्ट्र होने के बावजूद तिब्बत का जैसा नाता भारत और नेपाल के साथ रहा है वैसा चीन के साथ कभी नहीं रहा। तिब्बत की भाषा और लिपि सम्पूर्ण चीन में एक भाषा का दावा करने वाले चीन से एकदम अलग है। तिब्बती लिपि तो भारतीय लिपि परिवार की ही सदस्य है। भाषा और संस्कृति भी चीन के बजाय हिमालयी राज्यों से मिलती है।

स्वतंत्र तिब्बत का ध्वज
पंचशील की सन्धि करने के बाद भारत पर अचानक हमला करने वाले विस्तारवादी और उद्दण्ड चीन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। अक्साई-चिन पर कब्ज़ा किये रहने के बावजूद चीन का जब मन करता है वह कभी कश्मीर और कभी अरुणाचल प्रदेश के निवासियों के वीसा के बहाने भारत की प्रभुसत्ता का मज़ाक उड़ाने लगता है। बढती शक्ति से बौराये चीनी तिब्बत से निकलने वाली हमारी नदियों के रुख मोड़ रहे हैं। अपने सैनिकों के लिये दुर्गम स्थलों तक आधुनिक ट्रेनें चलाने वाला चीनी प्रशासन कैलाश और मानसरोवर जैसे प्राचीन तीर्थों की यात्राओं पर जाने वाले हमारे यात्रियों से भारी वीसा शुल्क लेने के बाद भी उन्हें मौलिक सुविधायें तक मुहैया नहीं कराता। चीनी अधिकारियों के हाथों भारतीय व्यापारियों के साथ हालिया बदसलूकी और वियेतनाम के साथ खनन परियोजनाओं सम्बन्धी समझौतों के समय खनन स्थल पर अपने नौसैनिक बेड़े की गश्तें कराना चीन द्वारा भारत की सम्प्रभुता को चुनौती देने का स्पष्ट उदाहरण है।

सत्य का साथ दें - तिब्बत के मित्र बनें
तिब्बत पर चीन के दमन का विरोध न केवल एक मानवता के लिहाज़ से ज़रूरी है बल्कि भारत के स्थाई शत्रु तानाशाह चीन की गुंडागर्दी को काबू में रखने के लिये आवश्यक भी है। नेपाल और पाकिस्तान भले ही मुँह सिये बैठे रहें, कम से कम भारत को यह चाहिए कि वह तिब्बत की स्वतंत्रता की आवाज विश्व मंच पर उठाए।  एक स्वतंत्र तिब्बत के अस्तित्व के साथ ही भारत-चीन सीमा विवाद का अंत तो होगा ही, भारत के साथ-साथ नेपाल और भूटान को भी एक दानवी पड़ोसी से छुटकारा मिलेगा। हमारी नदियाँ स्वतंत्र होंगी और पिछले वर्षों में सतलज में आयी कृत्रिम बाढ जैसी विभीषिकाओं से छुटकारा मिलेगा। अक्साई चिन व पाकिस्तान द्वारा कब्ज़ाये कश्मीर के उत्तरी भाग से लिये गये भूभाग की वापसी का मार्ग भी साफ़ होगा और चीन द्वारा तिब्बत को पर्माण्वीय कचरे का ढेर बनाये जाने की आशंकाओं के भय से मुक्ति भी मिलेगी। तिब्बत जैसे मित्रवत पड़ोसी की उपस्थिति से उत्तरी सीमा पर हथियारों व वन्यपशुओं की तस्करी से बचाव जैसे लाभ भी स्वतः ही मिलेंगे।

यह पोस्ट लिखते समय जब कुछ जानी-मानी तिब्बती वेबसाइटों पर जाने का प्रयास किया तो पाया कि वे डाउन हैं। अलग-अलग जगह से चल रही कई साइट्स का एक साथ डाउन होना तो यही दर्शा रहा है कि चीनी दमन लाठी, गोली, टैंक, जेल से आगे बढकर साइबर-टैरर तक पहुँच चुका है। ज़हरीला ड्रैगन इस वक़्त स्वतंत्र अभिव्यक्ति से डरा हुआ है।
कहावत है कि पाप का घड़ा फूटने से पहले छलकता ज़रूर है। क्या कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद के आखिरी कॉमरेड की बत्ती बुझने के दिन आ गये? चीन पर काफ़ी अंतर्राष्ट्रीय दवाब है, मगर जब तक भारत की ओर से दवाब नहीं बनता, वह निश्चिंत है। यदि एक बेहतर और शांतिमय संसार चाहिये तो चीन की तिब्बत से वापसी एक आवश्यक शर्त है। इस शर्त की पूर्ति के लिये तिब्बतियों को भारत सरकार का समर्थन आवश्यक है और भारत सरकार को ऐसा करने के लिये बाध्य करने के लिये भारतीय जनता का उठ खड़े होना ज़रूरी है। सम्पादक के नाम पत्र, फ़ेसबुक शेयर, गूगल प्लस, अपने जनप्रतिनिधि के नाम पत्र, या स्थानीय स्तर पर गोष्ठी और प्रेस सम्मेलन, नारेबाज़ी; आप जो भी कर सकते हैं कीजिये ताकि चीन के अगले हमले के समय 1962 वाले बहाने, "हिन्दी चीनी भाई-भाई" की आड़ न लेनी पड़े।

जय तिब्बत! जय भारत!  अमर हो स्वतंत्रता!

सम्बन्धित कड़ियाँ
Protests, Self-Immolation Signs Of A Desperate Tibet
* Friends of Tibet
* चीनी दमन और तिब्बती अहिंसा
* बार-बार दिन यह आए
* भारत पर चीन का दूसरा हमला?
* ४ जून - सर्वहारा और हत्यारे तानाशाह
* कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?
* तिब्बत - चीखते अक्षर (आचार्य गिरिजेश राव)
* अरुणाचल पर चीन ने फिर चली चाल

Wednesday, October 5, 2011

श्रद्धेय वीरांगना दुर्गा भाभी के जन्मदिन पर

आप सभी को दशहरा के अवसर पर हार्दिक मंगलकामनायें!
एक शताब्दी से थोडा पहले जब 7 अक्टूबर 1907 को इलाहाबाद कलक्ट्रेट के नाज़िर पण्डित बांके बिहारी नागर के शहजादपुर ग्राम ज़िला कौशाम्बी स्थित घर में एक सुकुमार कन्या का जन्म हुआ तब किसी ने शायद ही सोचा होगा कि वह बडी होकर भारत में ब्रिटिश राज की ईंट से ईंट बजाने का साहस करेगी और क्रांतिकारियों के बीच आयरन लेडी के नाम से पहचान बनायेगी। बच्ची का नाम दुर्गावती रखा गया। नन्ही दुर्गावती के नाना पं. महेश प्रसाद भट्ट जालौन में थानेदार और दादा पं. शिवशंकर शहजादपुर के जमींदार थे। दस महीने में ही उनकी माँ की असमय मृत्यु हो जाने के बाद वैराग्‍योन्‍मुख पिता ने उन्हें आगरा में उनके चाचा-चाची को सौंपकर सन्यास की राह ली।

1918 में आगरा निवासी श्री शिवचरण नागर वोहरा के पुत्र श्री भगवती चरण वोहरा के साथ परिणय के समय 11 वर्षीया दुर्गा पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण कर चुकी थीं। समस्त वोहरा परिवार स्वतंत्र भारत के सपने में पूर्णतया सराबोर था। जन-जागृति और शिक्षा के महत्व को समझने वाली दुर्गा ने खादी अपनाते हुए अपनी पढाई जारी रखी और समय आने पर प्रभाकर की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1925 में उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम शचीन्द्रनाथ रखा गया।

(7 अक्टूबर सन् 1907 -15 अक्टूबर सन् 1999) 
चौरी-चौरा काण्ड के बाद असहयोग आन्दोलन की वापसी हुई और देशभक्तों के एक वर्ग ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के साथ-साथ फ़्रांस, अमेरिका और रूस की क्रांति से प्रेरणा लेकर सशस्त्र क्रांति का स्वप्न देखा। उन दिनों विदेश में रहकर हिन्दुस्तान को स्वतन्त्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल ने क्रांतिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल को पत्र लिखकर शचीन्द्र नाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी से मिलकर नयी पार्टी तैयार करने की सलाह दी। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने इलाहाबाद में शचीन्द्र नाथ सान्याल के घर पर पार्टी का प्रारूप बनाया और इस प्रकार मिलकर आइरिश रिपब्लिकन आर्मी की तर्ज़ पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (एचआरए) का गठन हुया जिसकी प्रथम कार्यकारिणी सभा 3 अक्तूबर 1924 को कानपुर में हुई जिसमें "बिस्मिल" के नेतृत्व में शचीन्द्र नाथ सान्याल, योगेन्द्र शुक्ल, योगेश चन्द्र चटर्जी, ठाकुर रोशन सिंह तथा राजेन्द्र सिंह लाहिड़ी आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए। कुछ ही समय में अशफ़ाक़ उल्लाह खाँ, चन्द्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त जैसे नामचीन एचआरए से जुड गये। काकोरी काण्ड के बाद एच.आर.ए. के अनेक प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में एच.आर.ए. अपने नये नाम एच.ऐस.आर.ए. (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन/आर्मी) से पुनरुज्जीवित हुई। दुर्गाभाभी, सुशीला दीदी, भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, भगवतीचरण वोहरा का सम्बन्ध भी इस संस्था से रहा।

माता-पिता के साथ शचीन्द्रनाथ
मेरठ षडयंत्र काण्ड में भगवतीचरण वोहरा के नाम वारंट निकलने पर वे पत्नी दुर्गादेवी के साथ लाहौर चले गये जहाँ वे दोनों ही भारत नौजवान सभा में सम्मिलित रहे। यहीं पर भारत नौजवान सभा ने तत्वावधान में भगवतीचरण वोहरा की बहन सुशीला देवी "दीदी" तथा अब तक "भाभी" नाम से प्रसिद्ध दुर्गादेवी ने करतार सिंह के शहीदी दिवस पर अपने खून से एक चित्र बनाया था।

सॉंडर्स की हत्या के अगले दिन 18 दिसम्बर 1928 को वे ही लाहौर स्टेशन पर उपस्थित 500 पुलिसकर्मियों को चकमा देकर हैट पहने भगत सिंह को अपने साथ रेलमार्ग से सुरक्षित कलकत्ता लेकर गयीं। राजगुरू ने उनके नौकर का वेश धरा और कोई मुसीबत आने पर रक्षा हेतु चन्द्रशेखर आज़ाद तृतीय श्रेणी के डब्बे में साधु बनकर भजन गाते चले। लखनऊ स्टेशन से राजगुरू ने वोहरा जी को उनके आगमन का तार भेजा जो कि सुशीला दीदी के साथ कलकत्ता में स्टेशन पर आ गये। वहाँ भगतसिंह अपने नये वेश में कॉंग्रेस के अधिवेशन में गये और गांधी, नेहरू और बोस जैसे नेताओं को निकट से देखा। भगतसिंह का सबसे प्रसिद्ध (हैट वाला) चित्र उन्हीं दिनों कलकत्ता में लिया गया।

भगतसिंह की गिरफ़्तारी के बाद आज़ाद के पास उस स्तर का कोई साथी नहीं रहा गया था जो उनकी कमी को पूरा कर सके। यह अभाव आज़ाद को हर कदम पर खल रहा था। अब आज़ाद और भगवतीचरण एक दूसरे के पूरक बन गए। ~शिव वर्मा
महान क्रांतिकारी दुर्गाभाभी
वोहरा दम्पत्ति लाहौर में क्रांतिकारियों के संरक्षक जैसे थे। जहाँ भगवतीचरण एक पिता की तरह उनके खर्च और दिशानिर्देश का ख्याल रखते थे वहीं दुर्गा भाभी एक नेत्री और माँ की तरह उनका निर्देशन करतीं और अनिर्णय की स्थिति में उनके लिये राह चुनतीं।

भगवतीचरण वोहरा की सहायता से चन्द्रशेखर आज़ाद ने पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल के विरोध में हुए सेंट्रल असेम्बली बम काण्ड में क़ैद क्रांतिकारियों को छुडाने के लिये जेल को बम से उडाने की योजना पर काम आरम्भ किया। इसी बम की तैयारी और परीक्षण के समय रावी नदी के तट पर सुखदेवराज और विश्वनाथ वैशम्पायन की आंखों के सामने 28 मई 1930 को वोहरा जी की अकालमृत्यु हो गयी। उस आसन्न मृत्यु के समय मुस्कुराते हुए उन्होंने विश्वनाथ से कहा कि अगर मेरी जगह तुम दोनों को कुछ हो जाता तो मैं भैया (आज़ाद) को क्या मुँह दिखाता?

शहीदत्रयी की फ़ांसी की घोषणा के विरोधस्वरूप दुर्गा भाभी ने स्वामीराम, सुखदेवराज और एक अन्य साथी के साथ मिलकर एक कार में मुम्बई के लेमिंगटन रोड थाने पर हमला करके कई गोरे पुलिस अधिकारियों को ढेर कर दिया। पुलिस को यह कल्पना भी न थी कि ऐसे आक्रमण में एक महिला भी शामिल थी। उनके धोखे में मुम्बई पुलिस ने बडे बाल वाले बहुत से युवकों को पूछताछ के लिये बन्दी बनाया था। बाद में मुम्बई गोलीकांड में उनको तीन वर्ष की सजा भी हुई थी।

भगवती चरण (नागर) वोहरा
4 जुलाई 1904 - 28 मई 1930
अडयार (तमिलनाडु) में मॉंटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लेने के बाद से ही वे भारत में इस पद्धति के प्रवर्तकों में से एक थीं। सन 1940 से ही उन्होंने उत्तर भारत के पहले मॉंटेसरी स्कूल की स्थापना के प्रयास आरम्भ किये और लखनऊ छावनी स्थित एक घर में पाँच छात्रों के साथ इसका श्रीगणेश किया। उनके इस विनम्र प्रयास की परिणति के रूप में आजादी के बाद 7 फ़रवरी 1957 को पण्डित नेहरू ने लखनऊ मॉंटेसरी सोसाइटी के अपने भवन की नीँव रखी। संस्था की प्रबन्ध समिति में कुछ राजनीतिकों के साथ आचार्य नरेन्द्र देव, यशपाल, और शिव वर्मा भी थे। 1983 तक दुर्गा भाभी इस संस्था की मुख्य प्रबन्धक रहीं। तत्पश्चात वे मृत्युपर्यंत अपने पुत्र शचीन्द्रनाथ के साथ गाजियाबाद में रहीं और शिक्षणकार्य करती रहीं। त्याग की परम्परा की संरक्षक दुर्गा भाभी ने लखनऊ छोडते समय अपना निवास-स्थल भी संस्थान को दान कर दिया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ राजनीतिज्ञों द्वारा राजनीति में आने के अनुरोध को उन्होंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। पंजाब सरकार द्वारा 51 हजार रुपए भेंट किए जाने पर भाभी ने उन्हें अस्वीकार करते हुए अनुरोध किया कि उस पैसे से शहीदों का एक बड़ा स्मारक बनाया जाए जिससे भारत की स्वतंत्रता के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास का अध्ययन और अध्यापन हो सके क्योंकि नई पीढ़ी को अपने गौरवशाली इतिहास से परिचय की आवश्यकता है।

92 वर्ष की आयु में 15 अक्टूबर सन् 1999 को गाजियाबाद में में रहते हुए उनका देहावसान हुआ। वोहरा दम्पत्ति जैसे क्रांतिकारियों ने अपना सर्वस्व हमारे राष्ट्र पर, हम पर न्योछावर करते हुए एक क्षण को भी कुछ विचारा नहीं। आज जब उनके पुत्र शचीन्द्रनाथ वोहरा भी हमारे बीच नहीं हैं, हमें यह अवश्य सोचना चाहिये कि हमने उन देशभक्तों के लिये, उनके सपनों के लिये, और अपने देश के लिये अब तक क्या किया है और आगे क्या करने की योजना है ।

सात अक्टूबर को दुर्गा भाभी के जन्मदिन पर उन्हें शत-शत नमन!

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* आजादी का अनोखा सपना बुना था दुर्गा भाभी ने
* Durga bhabhi: A forgotten revolutionary
* अमर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा
* हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र
शहीदों को तो बख्श दो
* महान क्रांतिकारी थे भगवती चरण वोहरा
जेल में गीता मांगी थी भगतसिंह ने
महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
जिन्होंने समाजवादी गणतंत्र का स्वप्न देखा
काकोरी काण्ड
* Lucknow Montessori Inter College
Revolutionary movement for Indian independence

Saturday, August 13, 2011

हिंदुस्थान हमारा है

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बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' (8 दिसम्बर 1897 :: 29 अप्रैल 1960)

कोटि-कोटि कंठों से निकली आज यही स्वरधारा है
भारतवर्ष हमारा है यह, हिंदुस्थान हमारा है।

जिस दिन सबसे पहले जागे, नव-सृजन के स्वप्न घने
जिस दिन देश-काल के दो-दो, विस्तृत विमल वितान तने
जिस दिन नभ में तारे छिटके जिस दिन सूरज-चांद बने
तब से है यह देश हमारा, यह अभिमान हमारा है।

जबकि घटाओं ने सीखा था, सबसे पहले घिर आना
पहले पहल हवाओं ने जब, सीखा था कुछ हहराना
जबकि जलधि सब सीख रहे थे, सबसे पहले लहराना
उसी अनादि आदि-क्षण से यह, जन्म-स्थान हमारा है।

जिस क्षण से जड़ रजकण, गतिमय होकर जंगम कहलाए
जब विहंसी प्रथमा ऊषा वह, जबकि कमल-दल मुस्काए
जब मिट्टी में चेतन चमका, प्राणों के झोंके आए
है तब से यह देश हमारा, यह मन-प्राण हमारा है।

कोटि-कोटि कंठों से निकली आज यही स्वर-धारा है
भारतवर्ष हमारा है यह, हिंदुस्थान हमारा है।
.-=<>=-.
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BalKrishna Sharma Naveen
8 दिसम्बर 1897 :: 29 अप्रैल 1960

देशभक्त कवि, स्वतंत्रता सेनानी बालकृष्ण शर्मा "नवीन" की यह ओजस्वी रचना मेरे प्राथमिक विद्यालय की प्रार्थना का अंश थी। प्रतिदिन गाते हुए कब मेरे व्यक्तित्व और जीवन का अंश बन गयी पता ही नहीं चला।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

आप सब को स्वतंत्रता दिवस की मंगलकामनायें!
भारत माता की जय! वन्दे मातरम!

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* अमर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र
महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
शहीदों को तो बख्श दो
नेताजी के दर्शन - तोक्यो के मन्दिर में
1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
* मंगल पाण्डे - यह सूरज अस्त नहीं होगा
* श्रद्धांजलि - खुदीराम बासु
* Pandit Balkrishna Sharma "Navin"
* सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा
* जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है

Wednesday, July 20, 2011

महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"

"पण्डितजी की मृत्यु मेरी निजी क्षति है। मैं इससे कभी उबर नहीं सकता।"~ महामना मदन मोहन मालवीय
आज़ाद मन्दिर
भगतसिंह के वरिष्ठ सहयोगी और अपने "आज़ाद" नाम को सार्थक करने वाले महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद" का जन्म 23 जुलाई 1906 को श्रीमती जगरानी देवी व पण्डित सीताराम तिवारी के यहाँ भाबरा (झाबुआ मध्य प्रदेश) में हुआ था। उनके हृदय में क्रांति की ज्वाला बहुत अल्पायु से ही ज्वलंत थी। वे पण्डित रामप्रसाद "बिस्मिल" की हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन (HRA) में थे और उनकी मृत्यु के बाद नवनिर्मित हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी/ऐसोसियेशन (HSRA) के प्रमुख चुने गये थे। उनके प्रति उनके समकालीन क्रांतिकारियों के हृदय में कितना आदर रहा है उसकी एक झलक संलग्न चित्र में वर्णित आज़ाद मन्दिर से मिलती है। 1931 में छपे "आज़ाद मन्दिर" के इस चित्र में उनके शव के चित्र के साथ ही वे अपने मन्दिर में अपने क्रांतिकारी साथियों से घिरे हुए दिखाये गये हैं।

काकोरी काण्ड के बाद झांसी में
जननी, जन्मभूमि के प्रति आदरभाव से भरे "आज़ाद" को "बिस्मिल" से लेकर सरदार भगत सिंह तक उस दौर के लगभग सभी क्रांतिकारियों के साथ काम करने का अवसर मिला था। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपनी जीविका के लिये नौकरी आरम्भ करने वाले आज़ाद ने 15 वर्ष की आयु में काशी जाकर शिक्षा फिर आरम्भ की और लगभग तभी सब कुछ त्यागकर गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। अपना नाम "आज़ाद" बताया, पुलिस के डण्डे खाये, और बाद में वयस्कों की भीड के सामने भारत माता को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य पर एक ओजस्वी भाषण दिया। काशी की जनता ने बाद में ज्ञानवापी में एक सभा बुलाकर इस बालक का सम्मान किया। सम्पूर्णानन्द के सम्पादन में छपने वाले "मर्यादा" पत्र में इस घटना की जानकारी के साथ उनका चित्र भी छपा। यही सम्पूर्णानन्द बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने।

"देश ने एक सच्चा सिपाही खो दिया।"~मोहम्मद अली जिन्ना
शहीदों के आदर्श आज़ाद
23 जुलाई 1906 - 27 फ़रवरी 1931
उसके बाद उन्होंने देश भर में अनेक क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया और अनेक अभियानों का प्लान, निर्देशन और संचालन किया। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के काकोरी कांड से लेकर शहीद भगत सिंह के सौंडर्स व संसद अभियान तक में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। काकोरी काण्ड, सौण्डर्स हत्याकाण्ड व बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह का असेम्बली बम काण्ड उनके कुछ प्रमुख अभियान रहे हैं। उनके आग्रह पर ही भगवतीचरण वोहरा ने "फ़िलॉसॉफ़ी ऑफ़ द बॉम" तैयार किया था। उनके सरल, सत्यवादी और धर्मात्मा स्वभाव और अपने साथियों के प्रति प्रेम और समर्पण के लिये वे सदा आदरणीय रहे। क्रांतिकारी ही नहीं कॉंग्रेसी भी उनका बहुत आदर करते थे। अचूक निशानेबाज़ आज़ाद का प्रण था कि वे अंग्रेज़ों की जेल में नहीं रहेंगे।

भगवतीचरण वोहरा
काकोरी काण्ड के बाद फ़रार आज़ाद ने पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल और साथियों की पैरवी और जीवन रक्षा के लिये बहुत प्रयत्न किये थे। सुखदेव, राजगुरू और भगत सिंह को बचाने के लिये उन्होंने जेल पर बम से हमले की योजना बनाई और उसके लिये नये और अधिक शक्तिशाली बमों पर काम किया। दुर्भाग्य से बमों की तैयारी और जाँच के दौरान बम विशेषज्ञ क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की मृत्यु हो गयी जिसने उन्हें शहीदत्रयी-बचाव कार्यक्रम की दिशा बदलने को मजबूर किया। वे विभिन्न कॉंग्रेसी नेताओं के अतिरिक्त उस समय जेल में बन्दी गणेश शंकर विद्यार्थी से भी मिले। दुर्गा भाभी को गांधी जी से मिलने भेजा। इलाहाबाद आकर वे नेहरूजी सहित कई बडे नेताओं से मिलकर भागदौड़ कर रहे थे। इलाहाबाद प्रवास के दौरान वे मोतीलाल नेहरू की शवयात्रा में भी शामिल हुए थे।

भैया सरल स्वभाव के थे। दाँव-पेंच और कपट की बातों से उनका दम घुटता था। उस समय पूरे देश में एक संगठन था और उसके केन्द्र थे "आज़ाद"  ~दुर्गा भाभी 

आज़ाद की पहली जीवनी क्रांतिकारी
विश्वनाथ वैशम्पायन ने लिखी थी
27 फ़रवरी 1931 को जब वे अपने साथी सरदार भगतसिंह की जान बचाने के लिये आनन्द भवन में नेहरू जी से मुलाकात करके निकले तब पुलिस ने उन्हें चन्द्रशेखर आज़ाद पार्क (तब ऐल्फ़्रैड पार्क) में घेर लिया। पुलिस पर अपनी पिस्तौल से गोलियाँ चलाकर "आज़ाद" ने पहले अपने साथी सुखदेव राज को वहाँ से से सुरक्षित हटाया और अंत में एक गोली अपनी कनपटी पर दाग़ ली और "आज़ाद" नाम सार्थक किया।

पुलिस ने बिना किसी सूचना के उनका अंतिम संस्कार कर दिया। बाद में पता लगने पर युवकों ने उनकी अस्थि-भस्म के साथ नगर में यात्रा निकाली। कहते हैं कि इलाहाबाद नगर ने वैसी भीड उससे पहले कभी नहीं देखी थी। यात्रा सम्पन्न होने पर प्रतिभा सान्याल, कमला नेहरू, पण्डित नेहरू, पुरुषोत्तम दास टण्डन सहित अनेक नेताओं ने इस महान क्रांतिकारी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दी।
दल का संबंध मुझसे है, मेरे घर वालों से नहीं। मैं नहीं चाहता कि मेरी जीवनी लिखी जाए।
~चन्द्रशेखर तिवारी "आज़ाद"
संयोग की बात है कि महान राष्ट्रवादी नेता बाळ गंगाधर टिळक का जन्मदिन भी २३ जुलाई को ही पड़ता है। टिळक का जन्मदिन 23 जुलाई 1856 को है। उनके बारे में विस्तार से फिर कभी।

भारत माता के इन महान सपूतों को हमारा भी नमन!

ज्ञानवापी सम्मान का दुर्लभ चित्र
[सभी चित्र मुद्रित व इंटरनैट स्रोतों से साभार]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* आज़ाद का एक दुर्लभ चित्र
* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
* सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
* शहीदों को तो बख्श दो
* चन्द्रशेखर आज़ाद - विकीपीडिया
* आज़ाद का जन्म दिन - 2010
* तोक्यो में नेताजी के दर्शन

Saturday, July 2, 2011

संयुक्त राज्य अमेरिका को स्वाधीनता दिवस की बधाई [इस्पात नगरी से 42]

4 जुलाई 1904 को अमर शहीद भाई भगवती चरण (नागर) वोहरा का जन्म हुआ था। इस मंगलमय अवसर पर इस महान क्रांतिकारी को नमन!

4 जुलाई 1776 को अमेरिकी जनता ने अपने को ब्रिटिश दासता से मुक्त घोषित किया था। तब से अब तक इस महान राष्ट्र ने एक लम्बा सफ़र तय किया है और संसार में वैचारिक स्वतंत्रता का प्रतीक बना है। बच्चों ने दो दिन पहले ही आतिशबाज़ी चलाना शुरू कर दिया है। घर-आंगन में तारे-पट्टियाँ ध्वज फ़हरते दिख रहे हैं और लकडी के छज्जों पर लोग मित्रों और परिवारजनों के साथ स्वतंत्रता भोज (कुक आउट) की तैयारियाँ कर रहे हैं।

पिछले दिनों अपने डाक टिकट संग्रह में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के चिह्न ढूंढते समय अमेरिकी स्वतंत्रता से सम्बन्धित कुछ भारतीय टिकट और आवरण, तथा भारत की स्वतंत्रता से सम्बन्धित अमेरिकी चिह्न देखकर उन्हें इस अवसर के अनुकूल पाया। संसार के दो महानतम लोकतंत्रों द्वारा व्यक्तिगत और राजनैतिक स्वतंत्रता, मनावाधिकार, और एक दूसरे का सम्मान स्वाभाविक ही है।

जन्मदिन शुभ हो अमेरिका

भारतीय जनता की ओर से अमेरिकी जनता को बधाई

अमेरिका के कुछ ध्वजों की झलकियाँ 
अमेरिका के राष्ट्रपति
अमेरिका द्वारा महात्मा गान्धी के सम्मान में प्रथम दिवस आवरण - स्वतंत्रता के नायक

स्वतंत्रता के नायक महात्मा गान्धी - अमेरिकी टिकट शृंखला

भारतीय गणतंत्र दिवस पर अमेरिका द्वारा राष्ट्रपिता का सम्मान

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: All photos by Anurag Sharma]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* स्वामी विवेकानन्द
* डीसी डीसी क्या है?

Saturday, September 25, 2010

कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?

सोवियत संघ का दिवाला पिटने के समय से अब तक लगभग सारी दुनिया में कम्युनिज़्म की हवा कुछ इस तरह निकलती रही है जैसे पिन चुभा गुब्बारा। लेकिन विश्व के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों के पड़ोस में कम्युनिज़म की बन्दूक, मेरा मतलब है, पर्चम अभी भी फहर रही है। वह बात अलग है कि कम्युनिज़्म के इन दोनों ही रूपों में तानाशाही के सर्वाधिकार और जन-सामान्य के दमन के अतिरिक्त अन्य समानतायें न्यूनतम हैं। कम्युनिज़्म के पुराने साम्राज्य से तुलना करें तो आज बहुत कुछ बदल गया है। क्या कम्युनिज़्म भी समय के साथ सुधर रहा है? क्या यह एक दिन इतना सुधर जायेगा कि लोकतंत्र की तरह प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करने लगेगा? शायद सन 2030 के बाद ऐसा हो जाये। मगर 2030 के बाद ही क्यों? क्योंकि, चीन के एक प्रांत ने ऐसा सन्देश दिया है कि आज से बीस वर्ष बाद वहाँ के परिवारों को दूसरा बच्चा पैदा करने का अधिकार दिया जा सकता है। मतलब यह कि आगे के बीस साल तक वहाँ की जनता ऐसे किसी पूंजीवादी अधिकार की उम्मीद न करे। मगर चीन के आका यह भूल गये कि अगर जनता 2030 से पहले ही जाग गयी तो वहाँ के तानाशाहों का क्या हाल करेगी।

ऐसा नहीं है कि चीन में इतने वर्षों में कोई सुधार न हुआ हो। कुछ वर्ष पहले तक चीन की जनता अपने बच्चों का नामकरण तो कर सकती थी परंतु उन्हें उपनाम चुनने की आज़ादी नहीं थी। चीनी कानून के अनुसार श्रीमान ब्रूस ली और श्रीमती फेंग चू के बच्चे का उपनाम ली या चू के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो सकता है। उस देश में होने वाले बहुत से सुधारों के बावज़ूद जनता की व्यक्तिगत पहचान पर कसे सरकारी शिकंजे की मजबूती बनाये रखने के उद्देश्य से कुलनाम के नियम में कोई छूट गवारा नहीं की गयी थी। मगर कुछ साल पहले जनता को एक बडी आज़ादी देते हुए उपनाम में माता-पिता दोनों के नाम का संयोग एक साथ प्रयोग करने की स्वतंत्रता दी गयी है। मतलब यह कि अब ली और चू को अपने बच्चे के उपनाम के लिये चार विकल्प हैं: चू, ली, ली-चू और चू-ली।

चीन से दूर कम्युनिज़्म के दूसरे मजबूत किले क्यूबा की दीवारें भी दरकनी शुरू हो गयी हैं। वहाँ के 84-साला तानाशाह फिडेल कास्त्रो के भाई वर्तमान तानाशाह राउल कास्त्रो ने देश की पतली हालत के मद्देनज़र पाँच लाख सरकारी नौकरों को बेरोज़गार करने का आदेश दिया है। मतलब यह है मज़दूरों के तथाकथित मसीहा हर सौ में से दस सरकारी कर्मचारी को निकाल बाहर कर देंगे। क्या इन बेरोज़गारों के समर्थन में हमारे करोड़पति कम्युनिस्ट नेता क्रान्ति जैसा किताबी कार्यक्रम न सही, आमरण अनशन जैसा कुछ अहिंसक करेंगे?