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Wednesday, April 24, 2013

तिब्बत, चीन, भारत और संप्रभुता

जिस देश के शिक्षित नागरिक भी बिना देखे भाले इन्टरनेट से लेकर अपने देश के आड़े टेढ़े नक्शे अपने ब्लोग्स पर ही नहीं, तथाकथित प्रतिष्ठित समाचार साइट्स पर भी लगा रहे हों, उस देश की सीमाओं का आदर एक अधिक शक्तिशाली शत्रु-राष्ट्र क्यों करेगा। पिछले दिनों जब मैं भारत का आधिकारिक मानचित्र ढूंढ रहा था तब पाया कि भारत सरकार की आधिकारिक साइट्स पर देश का मानचित्र ढूँढना दुष्कर ही नहीं असंभव कार्य है। लगा जैसे हमारे देश के कर्ता-धर्ता धरती पर अपनी उपस्थिति से शर्मिंदा हों। ऐसे देश का एक दुश्मन देश यदि वीसा जारी करते समय हमारे राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए आधिकारिक पारपत्र पर भी अपने अनाधिकारिक नक्शे की मुहर बेधड़क होकर सामान्य रूप से लगाते रहता हो, तो आश्चर्य कैसा?

साम्राज्यवादी कम्युनिस्ट चीन की लाल सेना की एक पूरी प्लाटून द्वारा लद्दाख में भारतीय सीमा के अंदर घुसकर एक और चौकी बना लेने की खबर गरम है। भ्रष्टाचार के मामलों का अनचाहा खुलासा हो जाने पर पूरी बहादुरी और निष्ठा से दनादन बयानबाजी करने वाले भारतीय नेता चीनी घुसपैठ पर लीपापोती में लगे हुए हैं। राजनीतिक नेतृत्व में गंभीरता दिखे भी कैसे, चीन तो बहुत बड़ा तानाशाह दैत्य है, पाकिस्तान जैसे छोटे और अस्थिर देश के सैनिक भी हमारी सीमा के भीतर आकर हमारे सैनिकों का सर काट लेते हैं और हमारी सरकार रोक नहीं पाती। हालत यह हो गयी है कि श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश तो दूर, भूटान और मालदीव जैसे देश भी मौका मिलने पर भारत सरकार को मुँह चिढ़ाने से बाज़ नहीं आते।

तिब्बत में भारतीय जलस्रोतों पर चीन अपनी मनमर्ज़ी से न केवल बांध बनाता रहा है, बरसात के दिनों में चीन द्वारा गैरजिम्मेदाराना रूप से छोड़ा गया पानी भारत में भयंकर बाढ़-विभीषिका का कारण बना है। हिमाचल तो पहले ही चीन द्वारा निर्मित अप्राकृतिक बाढ़ से जूझ चुका है, अब ब्रह्मपुत्र के नए बांधों के द्वारा असम से लेकर बांगलादेश तक को डुबाने की साजिश चल रही है। अरुणाचल के क्षेत्रों में चीनी सैनिक पहले से ही जब चाहे भारतीय सीमा में गश्त लगाते रहे हैं। अक्साई-चिन दशकों से चीनी कब्जे में है, अब दौलत बेग ओल्डी में सीमा के छह मील अंदर घुसकर चौकी भी बना ली है। पक्की चीनी चौकी के फोटो इन्टरनेट पर मौजूद होते हुए भी सरकार इसके लिए सिर्फ "तम्बू गाढ़ना" और स्थानीय मुद्दा जैसे शब्दों का प्रयोग कर रही है। कल को शायद हमारी सरकार के किसी मंत्री के संबंधी की कंपनी द्वारा इस चौकी के चूल्हों के लिए कोयला और पीने के लिए चाय सप्लाई करने का ठेका भी ले लिया जाये। अफसोस की बात है कि ताज़ा चीनी दुस्साहस की प्रतिक्रिया में हमारे नेताओं की किसी भी हरकत में भारत का गौरव बनाए रखने की इच्छाशक्ति नहीं दिखती। अरे सरकार में बैठे "शांतिप्रिय" नेता कुछ और न भी करें, कम से कम दिग्विजय सरीखे किसी वक्तव्य सिंह को सीमा पर तो भेज सकते हैं।

अब एक सीरियस नोट - भारत की उत्तरी सीमा कहीं भी चीन से नहीं छूती। आधिकारिक रूप से उत्तर में हमारे सीमावर्ती राष्ट्र नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान और तिब्बत हैं। चीन के साथ सभी मतभेदों की तीन मूल वजहें हैं।

  1. कश्मीर के पाकिस्तान अधिकृत क्षेत्र 
  2. चीनी कब्जे में अकसाई-चिन 
  3. तिब्बत राष्ट्र पर चीन का अनधिकृत कब्जा और उसके बावजूद होने वाली दादागिरी और अनियंत्रित विस्तारवाद

अच्छी बात है कि तिब्बत की निर्वासित सरकार और उनके राष्ट्रीय नेता ससम्मान भारत में रहते हैं। लेकिन उनका क्या जो पीछे छूट गए हैं? तिब्बत की पददलित बौद्ध जनता अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए आगे बढ़-बढ़कर आत्मदाह कर रही है। तिब्बत के पश्चिमी क्षेत्रों में मुस्लिम वीगरों की हालत भी कोई खास अच्छी नहीं है। लेकिन तिब्बत के बाहर चीन के विकसित क्षेत्रों में भी जनता खुश नहीं है। कम्युनिस्ट नेताओं और उनके शक्तिशाली संबंधियों द्वारा गरीबों को निरंतर जबरन विस्थापित किए जाने से वहाँ भी असंतोष बढ़ रहा है। इसलिए, चीन की धमकियों और घुसपैठ का मुँहतोड़ जवाब देना उतना मुश्किल नहीं है जितना सतही तौर पर देखने से लगता है। चीनी आधिपत्य से दबी सम्पूर्ण जनता केवल एक दरार के इंतज़ार में है। वह दरार दिख जाये तो तानाशाही के दमन और साम्राज्यवाद के विघटन का काम वे काफी हद तक खुद कर लेंगे।

चीन की दादागिरी भारत की संप्रभुता के लिए एक बड़ी समस्या है। सीमा पर हर रोज़ बढ़ती उद्दंडता के मद्देनजर, भारत सरकार में बैठे लोगों को न केवल गंभीरता से तिब्बत की स्वतन्त्रता की ओर कदम उठाने चाहिए बल्कि चीन की नाक में तिब्बत कार्ड पूरी ताकत से ठूंस देना चाहिए। वे हमारे पासपोर्ट पर अपनी मुहर लगाएँ तो हम उनके पासपोर्ट पर उनकी साम्राज्यवादी असलियत चस्पाँ करें। मतलब यह कि उनके पारपत्रों पर ऐसी मुहर लगाएँ जिसमें भारत की सीमाएं तो सटीक हों ही, तिब्बत भी स्वतंत्र दिखाई दे।  मेरी नज़र में सरकार बड़ी आसानी से कुछ ऐसे काम कर सकती है जिनसे तिब्बत समस्या संसार में उजागर हो और भारत-चीन सीमा मामले पर चीन दवाब में आए। अभी तक जो गलत हुआ सो हुआ, कम से कम भविष्य पर एक कूटनीतिक नज़र तो रहनी ही चाहिए।


शुरुआत कुछ छोटे-छोटे कदमों से की जा सकती है:

1) भारत सरकार की वेब साइट्स पर भारत का आधिकारिक मानचित्र प्रमुखता से लगाया जाये।
2) सीमा पर चीनी गुर्राहट के मामले पाये जाने पर उन्हें छिपाने के बजाय संसार के सम्मुख लाया जाये
3) तिब्बत के मुद्दे पर हर मौके का फायदा उठाकर खुलकर सामने आया जाये
4) चीन से तिब्बती शरणार्थी और उनकी सरकार को उनकी ज़मीन एक समय सीमा के भीतर वापस देने की बात हो
5) मानचित्र के बारे में खुद भी जानें और आम जनता में भी जागरूकता उत्पन्न करें।
6) चीनी दूतावास वाली सड़क का नाम 'दलाई लामा मार्ग', 'स्वतंत्र तिब्बत पथ' या 'रंगज़ेन' रखा जाए।

दलाई लामा का भारत में निवास हमारे लिए गौरव की बात तो है ही,  अतिथि और शरणागत के आदर की गौरवमयी भारतीय परंपरा के अनुकूल भी है। फिर भी उनकी सहमति से उनकी सम्मानपूर्वक देश वापसी के बारे में समयबद्ध रणनीति पर काम होना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों को अपने खोल से बाहर आकर इस राष्ट्रीय मुद्दे पर एकमत होना चाहिए।

सरकारी नौकरी न करने वाले सभी ब्लोगर्स, जिनमें विभिन्न राजनीतिक दलों के पक्ष में किस्म-किस्म के तर्क रखने वाले और राजनीतिक प्रतिबद्धता वाले ब्लॉगर ही नहीं,  बल्कि अन्य सभी भी शामिल हैं, अपने लेखन और अन्य सभी संभव माध्यमों से इस जागृति का प्रसार करें कि एक स्वतंत्र तिब्बत भारत की आवश्यकता है। संभव हो तो "तिब्बत के मित्र" जैसे जन आंदोलनों का हिस्सा बनिये। यदि आपकी नज़र में कुछ सुझाव हैं तो कृपया उन्हें मुझसे भी साझा कीजिये।

इसके अलावा, पाँच साल में एक बार अपनी चौहद्दी से बाहर निकलकर आपके दरवाजे पर वोट मांगने आने वाले नेताओं से भी यह पूछिये कि राष्ट्रीय गौरव के ऐसे मुद्दों पर उनकी कोई स्पष्ट नीति क्यों नहीं है, और यदि है तो वह उनके मेनिफेस्टो पर क्यों नहीं दिखती है?        

सभी चित्र अंतर्जाल पर विभिन्न समाचार स्रोतों से साभार
  
Note: Images in this article have been taken from various sources. Original owners retain copyright to their respective works.

Thursday, July 7, 2011

न्यूयॉर्क नगरिया [इस्पात नगरी से 43]

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पिट्सबर्ग में चार जुलाई के समारोह के अगले दिन ही अचानक ही न्यूयॉर्क जाने का संयोग बन गया। वैसे तो वहाँ इतनी बार जाना होता है मानो मेरा एक घर वहीं हो परंतु हर बार समय इतना कम होता है कि जब तक किसी को बताने की सोचूँ, तब तक वापस आ चुका होता हूँ। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। घर से निकलते ही अपने न्यूयॉर्क के कुछ मित्रों को पूर्वसूचना दे दी। एक मित्र के साथ एक पूरा दिन रहा। ग्राउण्ड ज़ीरो से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की दौड के बीच में कुछ देर तफ़रीह का समय भी मिला।

इस यात्रा के कुछ चित्र प्रस्तुत हैं, शायद आपको पसन्द आयें।

हैम्सली भवन

प्रमुख डाकघर
आतंकवादियों द्वारा गिराये गये जुडवाँ स्तम्भों के स्थल पर कार्य जारी है

आतंकियों द्वारा गिराये स्तम्भ के स्थल पर आकार लेता एक नया भवन

गतिमान पुलिस का तिपहिया वाहन 

नगर के एक मुख्य मार्ग पर घुडसवार पुलिस अधिकारी

संयुक्त राष्ट्र परिसर में एक कलाकृति  

स्वर्णमण्डित स्वातंत्र्य की देवी

ग्रैंड सेंट्रल स्टेशन

यहाँ के सिगार कास्त्रो नहीं खरीद सकता - एक पुरानी दुकान

न्यूयॉर्क ने मात्र 18 मास में एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग खडी कर दी थी 

विश्व की व्यापार राजधानी के लिये - भारत में बना हुआ 

ज़मीन कब्ज़ियाने के लिये शंघाई नागरिकों पर हो रहे कम्युनिस्ट अत्याचारों की कहानी सुनाने संयुक्त राष्ट्र कार्यालय आये चीनी शरणार्थी

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी 2011 में भी अपनी जनता को दोज़ख भेज रही है

अधिकांश चीनी पीछे छूटे अपने परिवार के डर से कैमरा के सामने नहीं आये परंतु यह दो निडर प्रस्तुत हैं

बन्दूक द्वारा जनता को कुचलने वालों का दुनिया भर में वही हाल होगा जो इस पिस्तौल का हुआ है

वापसी से पहले युवा और विद्वान ब्लॉगर अभिषेक ओझा के दर्शन हुए, यात्रा सफल रही।

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: All photos by Anurag Sharma]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* स्टेटस ऑफ चाइनीज़ पीपल (अंग्रेज़ी)
* संयुक्त राष्ट्र (विकीपीडिया)
* न्यूयॉर्क में हिंदी

Saturday, September 25, 2010

कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?

सोवियत संघ का दिवाला पिटने के समय से अब तक लगभग सारी दुनिया में कम्युनिज़्म की हवा कुछ इस तरह निकलती रही है जैसे पिन चुभा गुब्बारा। लेकिन विश्व के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों के पड़ोस में कम्युनिज़म की बन्दूक, मेरा मतलब है, पर्चम अभी भी फहर रही है। वह बात अलग है कि कम्युनिज़्म के इन दोनों ही रूपों में तानाशाही के सर्वाधिकार और जन-सामान्य के दमन के अतिरिक्त अन्य समानतायें न्यूनतम हैं। कम्युनिज़्म के पुराने साम्राज्य से तुलना करें तो आज बहुत कुछ बदल गया है। क्या कम्युनिज़्म भी समय के साथ सुधर रहा है? क्या यह एक दिन इतना सुधर जायेगा कि लोकतंत्र की तरह प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करने लगेगा? शायद सन 2030 के बाद ऐसा हो जाये। मगर 2030 के बाद ही क्यों? क्योंकि, चीन के एक प्रांत ने ऐसा सन्देश दिया है कि आज से बीस वर्ष बाद वहाँ के परिवारों को दूसरा बच्चा पैदा करने का अधिकार दिया जा सकता है। मतलब यह कि आगे के बीस साल तक वहाँ की जनता ऐसे किसी पूंजीवादी अधिकार की उम्मीद न करे। मगर चीन के आका यह भूल गये कि अगर जनता 2030 से पहले ही जाग गयी तो वहाँ के तानाशाहों का क्या हाल करेगी।

ऐसा नहीं है कि चीन में इतने वर्षों में कोई सुधार न हुआ हो। कुछ वर्ष पहले तक चीन की जनता अपने बच्चों का नामकरण तो कर सकती थी परंतु उन्हें उपनाम चुनने की आज़ादी नहीं थी। चीनी कानून के अनुसार श्रीमान ब्रूस ली और श्रीमती फेंग चू के बच्चे का उपनाम ली या चू के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो सकता है। उस देश में होने वाले बहुत से सुधारों के बावज़ूद जनता की व्यक्तिगत पहचान पर कसे सरकारी शिकंजे की मजबूती बनाये रखने के उद्देश्य से कुलनाम के नियम में कोई छूट गवारा नहीं की गयी थी। मगर कुछ साल पहले जनता को एक बडी आज़ादी देते हुए उपनाम में माता-पिता दोनों के नाम का संयोग एक साथ प्रयोग करने की स्वतंत्रता दी गयी है। मतलब यह कि अब ली और चू को अपने बच्चे के उपनाम के लिये चार विकल्प हैं: चू, ली, ली-चू और चू-ली।

चीन से दूर कम्युनिज़्म के दूसरे मजबूत किले क्यूबा की दीवारें भी दरकनी शुरू हो गयी हैं। वहाँ के 84-साला तानाशाह फिडेल कास्त्रो के भाई वर्तमान तानाशाह राउल कास्त्रो ने देश की पतली हालत के मद्देनज़र पाँच लाख सरकारी नौकरों को बेरोज़गार करने का आदेश दिया है। मतलब यह है मज़दूरों के तथाकथित मसीहा हर सौ में से दस सरकारी कर्मचारी को निकाल बाहर कर देंगे। क्या इन बेरोज़गारों के समर्थन में हमारे करोड़पति कम्युनिस्ट नेता क्रान्ति जैसा किताबी कार्यक्रम न सही, आमरण अनशन जैसा कुछ अहिंसक करेंगे?

Sunday, July 12, 2009

भारत पर चीन का दूसरा हमला?

जी हाँ! चौंकिए मत। वही कम्युनिस्ट चीन जिसने 1962 में पंचशील के नारे के पीछे छिपकर हमारी पीठ में छुरा भोंका था, जो आज भी हमारी हजारों एकड़ ज़मीन पर सेंध मारे बैठा है। तिब्बत और अक्साई-चिन को हज़म करके डकार भी न लेने वाला वही साम्यवादी चीन आज फ़िर अपनी भूखी, बेरोजगार और निरंतर दमन से असंतुष्ट जनता का ध्यान आतंरिक उलझनों से हटाने के लिए कभी भी भारत पर एक और हमला कर सकता है। वीगर मुसलमानों, तिब्बती बौद्धों, फालुन गॉङ्ग एवं अन्य धार्मिक समुदायों का दमन तो दुनिया देख ही रही है, लेकिन इन सब के अलावा वैश्विक मंदी ने सस्ते चीनी निर्यात को बड़ा झटका दिया है। इससे चीन में अभूतपूर्व आंतरिक सामाजिक अशांति पैदा हो रही हैं। निश्चित है कि अपनी ही जनता की पीठ में छुरा भोंकने वाले चीनी तानाशाह चीनी समाज पर कम्युनिस्टों की ढीली होती पकड़ को फिर पक्का करने के लिए भारत को कभी भी दगा देने को तय्यार बैठे हैं।

प्रतिष्ठित रक्षा जर्नल ‘इंडियन डिफेंस रिव्यू’ के नवीनतम अंक के संपादकीय में प्रसिद्व रक्षा विशेषज्ञ भारत वर्मा ने कहा है कि चीन सन 2012 तक भारत पर हमला करेगा। भारत वर्मा की बात से कुछ लोग असहमत हो सकते हैं मगर मुझे इसमें कोई शक नहीं है कि चीन जैसा गैर-जिम्मेदार देश किसी भी हद तक जा सकता है। एक महाशक्ति बनने का सपना लेकर चीन ने हमेशा ही विभिन्न तानाशाहियों और छोटे-बड़े आतंकवादी समूहों को सैनिक या नैतिक समर्थन दिया है। 9-11 तक तालेबान को खुलेआम हथियार बेचने वाले चीन के उत्तर-कोरिया, बर्मा और पाकिस्तान के सैनिक तानाशाहों से और नेपाल के माओवादियों से रिश्ते किसी से भी छिपे नहीं हैं। परंतु आज चीन की सरपरस्ती वाले यह सारे ही मिलिशिया और संगठन बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में धीरे-धीरे महत्वहीन होते जा रहे हैं।

मैं सोचता हूँ कि यदि चीन अब ऐसी बेवकूफी करता है तो इसका नतीजा चीन के लिए निर्णयकारी सिद्ध हो सकता है। यह चीनी आक्रमण यदि हुआ तो शायद 1962 की तरह ही सीमित युद्ध होगा। इस युद्ध के लंबा खिंचने की आशंका न्यून और इस में नाभिकीय हथियारों के उपयोग की संभावना नगण्य है। युद्ध किसी भी पक्ष के लिए शुद्ध लाभकारी घटना नहीं होती है मगर इस बेवकूफी से चीन का विखंडन भी हो सकता है। मैंने अपनी बात कह दी मगर साथ ही मैं इस विषय पर आप लोगों के विचार जानने को उत्सुक हूँ। कृपया बताएँ ज़रूर, धन्यवाद!
सम्बन्धित कड़ियाँ - अपडेट
* भारत-चीन में हो सकती है लड़ाई!
* राजकाज - भारत पर चीन का हमला

Wednesday, June 3, 2009

४ जून - सर्वहारा और हत्यारे तानाशाह

आज उस दुखद घटना की बीसवीं बरसी है जिसके जीवित बचे हजारों पीड़ित आज भी चीन की विभिन्न जेलों में सड़ रहे हैं। ५ जून १९८९ को चीन के तिआनआनमेन चौक (Tiananmen Square) में लिया गया वह फोटो आज दो दशक बाद भी दुनिया भर में तानाशाहीयों के ख़िलाफ़ जन-विरोध का प्रतीक बना हुआ है जिसमें सैनिक टैंकों की एक कतार एक निहत्थे प्रदर्शनकारी को कुचलने ही वाली है। दमनकारी चीनी सरकार ने सपने में भी नहीं सोचा था कि मुखर और जनप्रिय सरकारी अधिकारी हूँ याओबांग की मृत्यु का शोक मनाने के लिए १५ अप्रैल १९८९ को तिआनमान चौक में इकट्ठे हुए दस लाख लोग नागरिक स्वतन्त्रता की मांग करने की हिम्मत कर सकेंगे। लेकिन तानाशाह अगर जनता का मन पढ़ सकते होते तो फ़िर दुनिया भर में जनतंत्र ही होता।

चीन की सरकार ने हूँ याओबांग को १९८६-८७ के छात्र आन्दोलन का जिम्मेदार ठहराते हुए महासचिव पद से त्यागपत्र देने को मजबूर किया था। जनता उनके इस प्रकार हटाये जाने से सरकार से पहले ही नाराज़ थी। मगर बाद में जब सरकारी सूत्रों ने उनकी अचानक हुई मृत्यु की ख़बर देना शुरू किया तो दमन से गुस्साए बैठे लोगों के आक्रोश का ठिकाना नहीं रहा। छात्रों ने अहिंसक तरीके से हूँ याओबांग पर लगाए गए आरोपों को वापस लेने की मांग की। मगर उन्हें क्या पता कि सर्वहारा का दम भरने वालों की असलियत कितनी घिनौनी हो सकती है।

चीन की साम्यवादी हुकूमत के धमकाने पर भी जब जनता ने मैदान नहीं छोडा तो सेना ने नरसंहार शुरू किया। चीन के रेड्क्रोस के अपने शुरूआती आंकडों के अनुसार भी इस सैनिक कार्रवाई में ४ जून १९८९ को ढाई हज़ार से अधिक लोग शहीद हुए। बाद में चीन की सरकार ने आधिकारिक रूप से २४१ मृतक और ७००० घायलों की संख्या बताई। आज के दिन चीन और उसके बाहर जन-स्वातंत्र्य के लिए जान देने वाले शहीदों को नमन! ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे और दुनिया से दुष्टों का सफाया करे। इस अवसर पर बाबा नागार्जुन की एक पंक्ति ज़रूर कहना चाहूंगा:
हरी ॐ तत्सत!