आज उस दुखद घटना की बीसवीं बरसी है जिसके जीवित बचे हजारों पीड़ित आज भी चीन की विभिन्न जेलों में सड़ रहे हैं। ५ जून १९८९ को चीन के तिआनआनमेन चौक (Tiananmen Square) में लिया गया वह फोटो आज दो दशक बाद भी दुनिया भर में तानाशाहीयों के ख़िलाफ़ जन-विरोध का प्रतीक बना हुआ है जिसमें सैनिक टैंकों की एक कतार एक निहत्थे प्रदर्शनकारी को कुचलने ही वाली है। दमनकारी चीनी सरकार ने सपने में भी नहीं सोचा था कि मुखर और जनप्रिय सरकारी अधिकारी हूँ याओबांग की मृत्यु का शोक मनाने के लिए १५ अप्रैल १९८९ को तिआनमान चौक में इकट्ठे हुए दस लाख लोग नागरिक स्वतन्त्रता की मांग करने की हिम्मत कर सकेंगे। लेकिन तानाशाह अगर जनता का मन पढ़ सकते होते तो फ़िर दुनिया भर में जनतंत्र ही होता।
चीन की सरकार ने हूँ याओबांग को १९८६-८७ के छात्र आन्दोलन का जिम्मेदार ठहराते हुए महासचिव पद से त्यागपत्र देने को मजबूर किया था। जनता उनके इस प्रकार हटाये जाने से सरकार से पहले ही नाराज़ थी। मगर बाद में जब सरकारी सूत्रों ने उनकी अचानक हुई मृत्यु की ख़बर देना शुरू किया तो दमन से गुस्साए बैठे लोगों के आक्रोश का ठिकाना नहीं रहा। छात्रों ने अहिंसक तरीके से हूँ याओबांग पर लगाए गए आरोपों को वापस लेने की मांग की। मगर उन्हें क्या पता कि सर्वहारा का दम भरने वालों की असलियत कितनी घिनौनी हो सकती है।
चीन की साम्यवादी हुकूमत के धमकाने पर भी जब जनता ने मैदान नहीं छोडा तो सेना ने नरसंहार शुरू किया। चीन के रेड्क्रोस के अपने शुरूआती आंकडों के अनुसार भी इस सैनिक कार्रवाई में ४ जून १९८९ को ढाई हज़ार से अधिक लोग शहीद हुए। बाद में चीन की सरकार ने आधिकारिक रूप से २४१ मृतक और ७००० घायलों की संख्या बताई। आज के दिन चीन और उसके बाहर जन-स्वातंत्र्य के लिए जान देने वाले शहीदों को नमन! ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे और दुनिया से दुष्टों का सफाया करे। इस अवसर पर बाबा नागार्जुन की एक पंक्ति ज़रूर कहना चाहूंगा:
चीन की सरकार ने हूँ याओबांग को १९८६-८७ के छात्र आन्दोलन का जिम्मेदार ठहराते हुए महासचिव पद से त्यागपत्र देने को मजबूर किया था। जनता उनके इस प्रकार हटाये जाने से सरकार से पहले ही नाराज़ थी। मगर बाद में जब सरकारी सूत्रों ने उनकी अचानक हुई मृत्यु की ख़बर देना शुरू किया तो दमन से गुस्साए बैठे लोगों के आक्रोश का ठिकाना नहीं रहा। छात्रों ने अहिंसक तरीके से हूँ याओबांग पर लगाए गए आरोपों को वापस लेने की मांग की। मगर उन्हें क्या पता कि सर्वहारा का दम भरने वालों की असलियत कितनी घिनौनी हो सकती है।
चीन की साम्यवादी हुकूमत के धमकाने पर भी जब जनता ने मैदान नहीं छोडा तो सेना ने नरसंहार शुरू किया। चीन के रेड्क्रोस के अपने शुरूआती आंकडों के अनुसार भी इस सैनिक कार्रवाई में ४ जून १९८९ को ढाई हज़ार से अधिक लोग शहीद हुए। बाद में चीन की सरकार ने आधिकारिक रूप से २४१ मृतक और ७००० घायलों की संख्या बताई। आज के दिन चीन और उसके बाहर जन-स्वातंत्र्य के लिए जान देने वाले शहीदों को नमन! ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे और दुनिया से दुष्टों का सफाया करे। इस अवसर पर बाबा नागार्जुन की एक पंक्ति ज़रूर कहना चाहूंगा:
हरी ॐ तत्सत!