Wednesday, March 14, 2012

हिन्दी-बंगाली भाई-भाई

कार्यक्रम का आरम्भ "वन्दे मातरम" के उद्घोष से हुआ। बच्चों के गीत और नृत्यों के अतिरिक्त देशप्रेम के बारे में कई भाषणों के बाद समारोह के समापन से पहले राष्ट्रीय गान गाया गया। उसके बाद भोजन काल आरम्भ हुआ और भोजन के साथ ही लोग छोटे-छोटे दलों में बँट गये। पोड़्मो बाबू से मेरी मुलाकात ऐसे ही एक दल में हुई। भारतीयों की हर सभा में भारत देश की दशा पर तो बात होती ही है। फिर आज तो दिन भी गणतंत्र दिवस का था। पता लगा कि वे चिकित्सक हैं और दो वर्ष पहले ही कलकत्ता से यहाँ आये हैं।

अंग्रेज़ी में चल रही बात बातों-बातों में भारत की समस्याओं पर पहुँची। पोड़्मो बाबू इस बात पर काफ़ी नाराज़ दिखे कि "हम" हिन्दी वाले उन पर हिन्दी थोप रहे हैं। मैंने विनम्रता से कहा कि मैं कुछ हिन्दी अतिवादियों को जानता ज़रूर हूँ परंतु भारत में हिन्दी थोपे जाने जैसी बात होती तो हिन्दी की गति आज कुछ और ही होती। मेरी बात सुने बिना जब उन्होंने दोहराया कि हिन्दी वाले बंगाल पर हिन्दी थोप रहे हैं तो मैंने बात को मज़ाक में लेते हुए कहा कि उन थोपने वालों में मैं कहीं नहीं हूँ, बल्कि मेरे तो खुद के ऊपर हिन्दी थोपने वाले बंगाली हैं। बचपन से अब तक जुथिका रॉय, पंकज मल्लिक, हेमंत कुमार, मन्ना दे, सचिन देव बर्मन, राहुल देव बर्मन, किशोर कुमार, भप्पी लाहिड़ी, अभिजीत, शान आदि ने हिन्दी गाने सुना-सुनाकर मुझे हिन्दी में डुबो डाला।

पोड़्मो बाबू को मेरी बात अच्छी नहीं लगी तो मैंने कहना चाहा कि भाषाई विविधता के देश में सम्पर्क भाषायें बिना थोपे स्वतः भी विकसित हो सकती हैं। उन्हें मेरा यह प्रयास भी पसन्द नहीं आया। समारोह में मौजूद एक बांग्लादेशी अतिथि भी हमारा वार्तालाप सुनकर पास आ गयीं। उनका कहना था कि पाकिस्तान ने भी बांग्लादेश पर अपनी भाषा थोपी थी। मैंने कहा कि भारत और पाकिस्तान की परिस्थितियों की कोई तुलना नहीं है। पाकिस्तान ने तो चुनाव में हार के बावजूद बांगलादेश पर पहले अपना नेता थोपा था और फिर सैनिक दमन भी। लेकिन वे बोलती रहीं कि उनकी बंगाली भाषा पर दूसरी भाषा का थोपा जाना बर्दाश्त नहीं होगा, वह चाहे हिन्दी हो या उर्दू।

मैंने बताया कि हिन्दी वाले खुद अपने क्षेत्रों में हिन्दी नहीं थोप सके तो किसी और पर थोपने कैसे जायेंगे। आधे हिन्दी भाषियों को तो यह भी नहीं पता होगा कि देवनागरी में कितने स्वर व कितने व्यंजन हैं। जिन्हें ग़लती से इतना पता हो उन्हें यह नहीं पता होगा कि हिन्दी में 79 और 89 को क्या-क्या कहते हैं। बात चलती रही। हिन्दी वाले अपनी भाषा के प्रति कोई खास गम्भीर नहीं हैं यह बताने के लिये मैंने उन्हें देश के विभिन्न नगरों के नये (या पुराने?) नामकरण के उदाहरण देते हुए कहा कि कलकत्ता तो हिन्दी अंग्रेज़ी में भी कोलकाता हो गया मगर बनारस तो आधिकारिक हिन्दी में भी काशी नहीं हुआ और न ही लखनऊ किसी भी हिन्दी में लक्ष्मणपुर बना।

गोरा साहब हिन्दी क्षेत्र में (चित्र: हाइंज़ संग्रहालय पिट्सबर्ग से)
कुरेदने पर पता लगा कि डॉक्टर साहब की पूरी शिक्षा अंग्रेज़ी में हुई थी। मैंने नोटिस किया कि उनका लम्बा मूल कुलनाम भी अंग्रेज़ी ने ही काटकर आधा किया था। मैंने अंग्रेज़ी के इस थोपीकरण का उल्लेख बड़ी विनम्रता से किया मगर उन्होंने मुझ हिन्दीभाषी पर लगाये हुए आरोप पर कोई रियायत नहीं दी। ऐसे में मैंने तिनके का सहारा ढूंढने के लिये इधर-उधर मुंडी घुमाई तो मुझे आशा की एक किरण नज़र आयी। राजभाषा हिन्दी वाले स्वाधीन भारत में 25 साल बिताने के बावज़ूद हिन्दी का एक शब्द भी न जानने वाली तिरुमदि कन्नन पास ही खड़ी थीं। मैंने सोचा कि उन्हें बुलाकर पोड़्मो बाबू के सामने हिन्दी के न थोपे जाने का सबूत पेश कर दूँ।

मैंने तिरुमदि कन्नन को पोड़्मो बाबू का आरोप सुना दिया और उनके जवाब की प्रतीक्षा करने लगा। रसम का कटोरा गटककर उन्होंने पास की मेज़ पर रखा और तमिळ अन्दाज़ की अंग्रेज़ी में कहने लगीं, "हाँ, हिन्दी तो पूरे राष्ट्र पर थोप दी गयी है।" मैं भौंचक्का था मगर वे जारी रहीं, "हमारा राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय गीत, टैगोर, बंकिम, सब हिन्दी वाले हैं, तिरुवल्लुवर, दीक्षितर, और भरतियार में से किसी का कुछ भी नहीं लिया गया ..."

"टैगोर और बंकिम चन्द्र, दोनों ही हिन्दी नहीं हैं, उनकी भाषा बंगला है।" मैंने सुधार का प्रयास किया।

"हिन्दी, नेपाली, बंगाली, गुजराती, संस्कृत, सब एक ही बात है - नॉर्थ नॉर्थ है, साउथ साउथ है।"

मुझे उत्तर नहीं सूझा। मगर वे जारी रहीं, " ... बंगाली, हिन्दी भाई-भाई है तभी तो हिन्दी/बंगाली बांगलादेश बनाने के लिये केन्द्र सरकार खासे बड़े पाकिस्तान से लड़ गई जबकि मासूम तमिलों पर इतने अत्याचार होने के बावज़ूद छोटे से श्रीलंका का विरोध करने के बजाये शांतिसेना के नाम पर उनकी सहायता की।"

पोड़्मो बाबू रसगुल्ला खाने के बहाने निकल लिये और मैं आ बैल मुझे मार वाले अन्दाज़ में अपनी थाली में पोंगल और मिष्टि दोई लिये तिरुमदि कन्नन का क्रोध झेल रहा था, "आप उत्तर वाले हम पर हिन्दी बंगाली कल्चर थोप रहे हैं।"

40 comments:

  1. :-)
    लड़ने वालों को लड़ने का बहाना चाहिए...........

    बहुत सार्थक लेख है..रोचक भी..

    किसी भी भाषा को सीखना लोग ज्ञानवर्धन क्यों नहीं समझते...
    मेरा बेटा japanese सीख रहा है :-)
    regards.

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  2. सबसे सटीक जवाब तो पोड्मो बाबू को दिया तमिल महिला ने !

    अब थोपने जैसा कुछ नहीं है,कुछ लोगों के पूर्वाग्रहों का इलाज़ भी नहीं है !

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  3. मतभेद ही मन में भी भेद ला देते हैं.... रोचक पोस्ट

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  4. हम तो यह देश ही तुम पर थोपना चाह्ते हैं ...कोई प्रॉब्लम है ??

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  5. जय हो, हर जगह बस थोपा थोपी चल रही है, मरम न कोउ जाना।

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  6. थोपा-थोपी का लगा, हिंदी पर आरोप ।

    क्यूँ हिंदी 'अनुराग' का, झेलें 'शर्मा' कोप ।

    झेलें 'शर्मा' कोप, तभी प्रत्युत्तर पटका ।

    मन्ना दे अभिजीत, लाहिड़ी मलिक जूथिका।

    बर्मन शान किशोर, सभी के हिंदी गाने ।

    वन्दे मातरम सुन, इंडियन हुवे दिवाने ।।

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  7. भाषाएँ तो संचार सेतू है, उसके सहज प्रवाह को रोका भी नहीं जा सकता। थोपना वगैरह अन्तर्भाषीय गठबंधन के विरुद्ध प्रलाप से विशेष कुछ नहीं।

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  8. पिछले कुछ महीने मैंने दक्षिण के प्रान्तों में बिताये. तमिलनाडु में एक पढ़े लिखे ने अपना आक्रोश व्यक्त किया कि करूणानिधि/ डीएमके ने पूरी प्रजा को हिंदी से अछूता रखा और अब हम भुगत रहे हैं. यकीनन थोपा तो नहीं ही गया हाँ महज विरोध के लिए कट्टर बन गए. अन्य राज्यों में स्थिति असामान्य नहीं है. तिरुमति कन्नन की बातों में से कुछ अंशों पर गंभीरता से विचार करें. वहां की संस्कृति और साहित्य यकीनन विशिष्ट और भरपूर संपन्न है परन्तु उत्तर वासियों को उनसे परिचित कराने के प्रयास में कमी दिखती है.

    मेरे लम्बे प्रवास से एक बात सामने आई है कि आजीविका के लिए तमिलनाडु तथा केरल में हजारों की संख्या में बंगालियों, बिहारियों, का प्रवेश हो चुका है और साधारण दुकानदार भी हिंदी समझने लगे हैं. इसके साथ ही बंगाली और बिहारी भी स्थानीय भाषा में व्यवहार करते दिखे. मुझे देख लोग हिंदी में ही बोलने का प्रयास करते थे और मुझे उन्हें आश्वस्त करना पड़ता था कि मुझे उनकी बोली आती है. मुझे विश्वास है संपर्क भाषा के रूप में हिंदी सर्वव्यापी हो जायेगी.

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  9. अपने निजी पूर्वाग्रह के कारण, जो सहजता से किसी भाषा को नहीं अपना पाते वे इसे भाषा का भाषा का थोपना या लादना कह देते हैं... बिहार और झारखंड के साथ होने के बावजूद भी वे अहिन्दी कहलाते हैं और बिहार में लगभग ७०% स्थानीय शब्द बांग्ला से लिए हुए हैं... एक व्यक्ति से दिल्ली में मिलने गया जिनका नाम देवदत्त बंदोपाध्याय था.. उन्होंने मुझसे कहा कि आपको उच्चारण करने में असुविधा होगी.. मैंने हंसकर उत्तर दिया कि मुझे कोई समस्या नहीं.. आप चाहे तो मैं आपका पूरा नाम 'देबदत्तो बंदोपाध्याय' पुकार सकता हूँ.. हाँ आप कृपया मुझे "मि. भार्मा" न बुलाएं..
    वे शर्मा गए.. अब उनको कौन बताए कि इस बिहारी/हिन्दी भाषी को धुरंधर भाटवडेकर से लेकर पुण्डरीकाक्ष पुरकायस्थो बोलने में भी कोई दिक्कत नहीं होती.. हाँ वे मुझे छः साल तक मि. भार्मा बुलाते रहे!!! खैर कोई गिला नहीं!!

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  10. इतने बड़े देश की अपनी समस्याएं विषमताएं हैं
    आशा करते हैं धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा ...
    शुभकामनायें !

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  11. apnee apnee dhapali aur apana apna raag yahi hai hamara aaj ka samaj..

    jai baba banaras....

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  12. मेरे प्रिय लेखकों में शरतचंद्र का नाम सबसे ऊपर है। और शरत के जीवन पर आधारित आवारा मसीहा मेरा प्रिय उपन्‍यास। पर दोनों को ही पढ़ते हुए मुझे कभी नहीं लगा कि मैं किसी बंगलाभाषी को पढ़ रहा हूं।
    पिछले तीन साल से बंगलौर में हूं। सच तो यह है कि हिन्‍दी के अलावा दूसरी कोई भाषा नहीं आती है। पर कभी कोई दिक्‍कत नहीं हुई।

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  13. ठीक वैसे ही एक भाई-साहब हैं बैंगलोर में, जो की इस बात को लेकर हमेशा परेसान रहते हैं की हिन्दी सब पर थोपी जा रही है :)

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  14. हा हा ... कनाही एक कडुवा सत्य प्रस्तुत कर रही है .. आज हम इसी में फंस के रह गए हैं और भारत भी कुछ है इसको भूल गए हैं ... पहले अपना घर देखते हैं फिर देश की सोचते हैं ...
    सटीक ...

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  15. थोपा-थोपी अपनी जगह होती रहे और हिंदी की बल्ले-बल्ले होती रहे..

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  16. जब हम दुखी रहना और आरोप लगाना चाहते हैं - तो दस कारण मिल जाते हैं | प्रसन्नता चुनने वालों को शायद यही बात बड़ी प्रसन्नता दे की उन्हें इतनी सारी भाषाओं की मिठास मिली है |

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  17. भारत की सबसे बड़ी बिडम्बना यही है जो उसे विश्वस्तर पर कमजोर करती हैं -हमारी भाषाएं!
    कुल २४ संविधान सम्मत ! और सभी के अपने अपने श्रेष्टता के दावे!
    मेरी चले तो त्रिभाषी फार्मूला पूरे देश में लागू-एक स्थानीय और एक हिन्दी और एक अंगरेजी!

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  18. हिन्‍दी थोपनेवाली बात तो खैर सच नहीं है किन्‍तु त्रिभाषा फार्मूला न अपनाकर हिन्‍दी भाषियों ने, दक्षिण भारतीय समाज के मन में अविश्‍वास और वितृष्‍णा तो पैदा की ही है।

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  19. हम लोग दर-असल प्यार की भाषा समझने वाले हैं ही नहीं. बात सिर्फ यह है. बाकी कमी लोगों के अपने स्वार्थ पूरी कर देते हैं.

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  20. बहुत ही उम्दा लेख .मज़ा आया पढ़ कर :)
    अप को बधाई इस लेख के लिए

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  21. NO COMMENT.BETTER TO SAY THANKS FOR BEAUTIFUL POST.

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  22. आप आयें --
    मेहनत सफल |

    शुक्रवारीय चर्चा मंच
    charchamanch.blogspot.com

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  23. सिर्फ करने के लिए शिकायत करना, केवल थोने के लिए थोपना हो तो कारणों की आवश्यकता कहाँ?

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  24. हम अभी भी भाषा , प्रान्त , धर्म और जात पात के नाम पर बंटे हुए हैं ।
    शुक्र है , फिर भी हिंदुस्तान एक है ।

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  25. भारत में कोई भी किसी पर कोई चीज़ नहीं थोप सकता. यहाँ लोग खुद ही कुछ पूर्वाग्रहों को ओढ़ लेते हैं और फिर दूसरों पर इल्जाम लगाते हैं. और हिन्दी की सबसे ज्यादा बुराई वो करते हैं, जिन्हें हिन्दी का एक अक्षर भी देवनागरी में लिखना नहीं आता.

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  26. circles within circles....
    वही चीज कहीं हमें जोड़ती है और किन्हीं से तोड़ती है। मस्त लगी ये थोपा थोपी:)

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  27. आप लाख तर्क प्रस्तुत कर लें, जिसे न मानना होगा नहीं मानेगा.
    घुघूतीबासूती

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  28. समझ में नहीं आता इस स्थिति पर हँसें या रोयें !

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  29. We Indian talk about more or less on Indian situation ,we feel a lot of problems ,although it is a common one ,biggest thing is unity in diversity ,but something is in our mind which is bigger than our Indian-ship.isnt it?

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  30. में तमिलनाडु में कुछ साल रहा हूँ . वहां के लोगों को हिंदी से चिड सी हो गई है . आप चेन्नई स्टेशन पे देखिये . गाड़ी से उतरते ही ऑटो वाला इतनी अच्छी हिंदी में बात करेगा की आप भूल जायेंगे की आप तमिलनाडु में हैं , मगर गंतव्य पर पहुंचकर वो जब आपसे किराये के पैसे लेगा तो जितने में बात हुई उस से ज्यादा की मांग करेगा और उस वक़्त वो
    हिंदी का एक शब्द भी नहीं बोलेगा .

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  31. badi azeeb paristhiti ban gayee hogi....vyakti vishesh ki mansikta hai....ise badalna bahut mushkil hai.

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  32. .......मैंने बताया कि हिन्दी वाले खुद अपने क्षेत्रों में हिन्दी नहीं थोप सके तो किसी और पर थोपने कैसे जायेंगे।........
    कहानी के मध्य भाग से उठाई गई उपरोक्त पंक्तियों पर गौर करने की आवश्यकता है...
    बहरहाल उपरोक्त प्रस्तुति हेतु आभार.......

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  33. koi kuch bhi kahe par hame to hindi sabse achchi bhasha lagti hai

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  34. ये लड़ाई कभी रुक नहीं सकती, फिर अब तो अंग्रेजी के साथ मिक्स कर हिंदी की ऐसी टांग तोड़ी जा रही है। ख़ैर लेख बहुत रोचक बना है।

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  35. अच्छी प्रस्तुति...

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  36. रोचक और मजेदार लेख। आपकी बात एकदम सही है कि हम हिन्दी वालों पर ही हिन्दी नहीं थोप सके तो किसी और पर क्या थोपेंगे।

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  37. शानदार। सब अपने-अपने गीत गा रहे हैं। हिन्दी को थोपना बता रहे हैं। विदेशी भाषा अंग्रेजी में जी रहे हैं उसे थोपना नहीं मानते। उसे तो शान समझते हैं। शर्म आती है ऐसे लोगों पर...

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