पुरानी घटना है। आस पड़ोस के सब लोग गणेश जी को दूध पिलाने के लिये दौड़ रहे थे। हमारी पड़ोसन भी आयीं ताकि वे माँ के साथ निकट के मन्दिर में जा सकें। माँ ने पहले तो समझाने का प्रयास किया फिर अचानक ही साथ चलने को तैयार हो गयीं। दूध के लोटे-गिलास के बजाय एक खाली चम्मच लिया और वहाँ जाकर संगेमरमर की मूर्ति की गर्दन से लगा दिया। पल भर में ही चम्मच दूध से भर गया। पड़ोसन को भी दिख गया कि मूर्ति दूध पी नहीं रही थी बल्कि दुग्ध-स्नान कर रही थी।
आजकल अफ़वाहें भी तकनीक की बेल के सहारे काफ़ी ऊँची उठ चुकी हैं। एक एस एम एस आता है या कोई ईमेल मिलती है और हम आश्चर्य से भर जाते हैं। सब कुछ अनोखा, इतना अनूठा कि संयोग शब्द कुछ हल्का लगने लगे। हम इतने प्रभावित हो जाते हैं कि जो मिलता है उसे उस ईमेल का विषय फ़टाफ़ट विस्तार के साथ बताने लगते हैं। कभी उस संदेश को आगे दो चार मित्रों को फ़ॉरवर्ड करते हैं और कभी ब्लॉग पोस्ट भी बना देते हैं। उत्साह के बीच ये बात दिमाग़ में आती ही नहीं कि वह सन्देश अफ़वाह भी हो सकता है। पहले किसी अफ़वाह के फैलने की रफ़्तार धीमी थी परंतु आजकल तो बस्स ...
क्या आपने कभी जानने का प्रयास किया है कि इन अफ़वाहों के पीछे कौन छिपा है? कौन हमारे भोले विश्वास का लाभ उठाकर अपना उल्लू सिद्ध करना चाहता है? अपने अभिनेता बेटे की हाई प्रोफ़ाइल फ़िल्म के विश्व-व्यापी उद्घाटन के समय भारत के एक फ़िल्म निर्माता को अंडरवर्ल्ड से पैसा देने की धमकी मिलती है। वह पुलिस में जाता है। पुलिस उसकी सुरक्षा में लग जाती है। तभी पड़ोसी देश का एक केबल नेटवर्क उस अभिनेता द्वारा उस देश का अपमान करने की खबर देता है। देशभक्ति की भावना से भरे भोले-भाले लोग उस अभिनेता के विरोध में घरों से बाहर निकल आते हैं। अभिनेता बेचारा सफ़ाई ही देता रह जाता है।
सम्बन्ध व्यवसायिक हों या पारिवारिक, वे तभी टिकते हैं जब उनमें दोनों पक्ष या तो लाभ में रहते हों या कम से कम एक पक्ष का लाभ हो रहा हो या कम से कम एक पक्ष इस सम्बन्ध के प्रति या तो निरपेक्ष हो या हानि भी सहने को तैयार हो। इसी प्रकार कुछ लोग कोई भी काम करते समय सबका भला देखते हैं। कुछ लोग केवल अपना भला देखते हैं। लेकिन इस सब से आगे बढकर कुछ लोग, देश या संस्थायें केवल इतना देखते हैं कि उनके काम से दूसरे व्यक्ति, संस्था या देश की हानि हो। उनके लिये यह दूसरा कोई व्यक्ति, संस्था या देश नहीं होता, वह होता है केवल एक प्रतिद्वन्द्वी बल्कि एक शत्रु, जिसे किसी भी कीमत पर नीचा दिखाना है, हराना है या नष्ट करना है।
मुझे याद पड़ता है कि एक अन्य पड़ोसी देश के एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि हम हिन्दुस्तान से हज़ार साल तक लड़ेंगे, भले ही उसके लिये हमें घास खाना पड़े। पता नहीं उनके देश ने घास खाई या नहीं मगर पहले तो उस देश का एक बड़ा भूभाग अलग हुआ और फिर बचे हुए लोगों ने उस प्रधानमंत्री को फ़ाँसी पर लटका दिया। देश का चरित्र फिर भी काफ़ी हद तक वैसा ही रहा जैसा इन घटनाओं से पहले था। अपना इतिहास छिपाने और पड़ोसियों के विरुद्ध अफ़वाहें फैलाने का चलन वहाँ आज भी है और उस देश के पतन का एक बड़ा कारण है।
लेकिन ये अफ़वाहें फैलती क्यों हैं? पड़ोसी देश की समस्या तो ये है कि वहाँ इस्लाम के नाम पर कुछ भी कराया जा सकता है। हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान के विरोध के नाम पर इंसानियत का खून आसानी से किया जा सकता है। उनके स्कूलों की किताबें हों या मदरसों के सबक, सबका एक छिपा एजेंडा है। वे भूल गये हैं कि नफ़रत की आग जब एक बार जलनी शुरू होती है फिर समदर्शी होकर अपना पराया नहीं देखती। वे अन्धे हों तो हों मगर वैविध्य, उदारता और सहिष्णुता की अति-प्राचीन परम्परा वाले हम लोग अफ़वाहों के चक्र को तोड़ने के बजाय उसे हवा क्यों देते हैं? शायद इसलिये कि अफ़वाह फैलाने वाले आपके मन की घुटन पहचानते हैं। वे जानते हैं कि आपके मन में क्या चल रहा हैं? अफ़वाहें अक्सर ऐसी भावनाओं का शोषण करती हैं जिनसे एक बड़े समूह को आसानी से चलायमान किया जा सके। ये भावनायें धर्म, देशप्रेम, ग़रीबी, अन्याय, असमानता आदि कुछ भी हो सकती हैं लेकिन अक्सर इनके द्वारा एक बड़े समूह को पीड़ित बताया जाता है।
अफ़वाहों के कुछ विशेषज्ञ भी होते हैं। पहले सीधी-सच्ची जैसी लगने वाली अफवाहें फैलाकर जनता का रुख और उनकी परिपक्वता का स्तर पहचाना जाता है। समय के साथ अफ़वाहों को बदला या हटाया जाता है। कई बार ये अफ़वाहें प्रत्यक्ष होती हैं जबकि कई बार परोक्ष भी होती हैं। शीतल पेयों में पशु-उत्पाद होना, नेहरू जी का मुसलमान होना, जिन्ना का सैकुलर होना जैसी सामान्य प्रचलित अफ़वाहों का परिणाम समझ आ जाये तो उनका उद्देश्य और उद्गम पहचानना आसान हो जायेगा। साथ ही यदि हम अफ़वाह पर एक सरसरी नज़र डालें तो उसका झूठ एकदम सामने आ जायेगा।
आइये केवल विश्लेषण के उद्देश्य से एक ब्लॉग पर ताज़ा छपी एक पुरानी अफ़वाह का नया संस्करण देखें। मैंने जानकर इस अफ़वाह को इसलिये चुना है क्योंकि यह एक विख्यात परंतु सरल सी अफ़वाह है और इसका हमारे देश, धर्म, राजनीति, राष्ट्रनायक या परिस्थितियों से भी कोई लेना-देना नहीं है। अफ़वाह लम्बी है, कृपया धैर्य रखिये।
1. प्रेसिडेंट लिंकन 1860 मे राष्ट्रपति चुने गये थे, केनेडी का चुनाव 1960 मे हुआ था।
2. लिंकन के सेक्रेटरी का नाम केनेडी तथा केनेडी के सेक्रेटरी का नाम लिंकन था।
3. दोनों राष्ट्रपतियों का कत्ल शुक्रवार को अपनी पत्नियों की उपस्थिति मे हुआ था।
4. लिंकन के हत्यारे बूथ ने थियेटर मे लिंकन पर गोली चला कर एक स्टोर मे शरण ली थी और केनेडी का हत्यारा ओस्वाल्ड, एक स्टोर मे केनेडी को गोली मार कर एक थियेटर मे जा छुपा था।
5. बूथ का जन्म 1839 मे तथा ओस्वाल्ड का 1939 मे हुआ था।
6. दोनों हत्यारों की हत्या मुकद्दमा चलने के पहले ही कर दी गयी थी।
7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का नाम जानसन था। एन्ड्रयु जानसन का जन्म 1808 मे तथा लिंडन जानसन का जन्म 1908 मे हुआ था।
8. लिंकन और केनेडी दोनों के नाम मे सात अक्षर हैं।
9. दोनों का संबंध नागरिक अधिकारों से जुडा हुआ था।
10. लिंकन की हत्या फ़ोर्ड के थियेटर में हुई थी, जबकी केनेडी फ़ोर्ड कम्पनी की कार मे सवार थे।
आश्चर्य है कि इसकी काट बहुत पहले प्रकाशित हो जाने के बाद भी यह दंतकथा आज तक सर्कुलेशन में है। आइये बिन्दुवार देखें इस विचित्र से सत्य में सत्य का प्रतिशत कितना है:
1. अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हर 4 वर्ष में होता है। इसलिये किन्हीं भी दो राष्ट्रपतियों के बीच का अंतर 4 से विभाज्य होगा। यह हम पर निर्भर है कि हम जो दो राष्ट्रपति चुनें उनके बीच का अंतर 56, 96, 100, 104 या 200 वर्ष है या कुछ और। यहाँ दो ऐसे राष्ट्रपति लिये गये हैं जिनकी हत्या हुई और उनके राष्ट्रपति बनने के वर्षों में सौ वर्ष का अंतर था।
2. यह पक्की बात है कि लिंकन के अनेक सचिवों में से किसी का उपनाम भी कैनेडी नहीं था।
3. सप्ताह के सात दिनों में से एक के होने की सम्भावना कितनी जटिल है। वैसे लिंकन की हत्या के समय उनकी पत्नी साथ नहीं थीं और उनकी मृत्यु शनिवार को हुई थी।
4. भागने के बाद बूथ ने अलग-अलग जगहों यथा घर, खेत, कुठार आदि में शरण ली थी परंतु स्टोर में नहीं।
5. इन दो राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर था, सो उनके हत्यारों के जन्म में भी 100 साल का अंतर कोई बड़ी बात नहीं है। मगर अफ़वाह का यह बिन्दु भी ग़लत है। बूथ का जन्म 1839 में नहीं बल्कि 1838 में हुआ था। वैसे, ओसवाल्ड केनेडी का हत्यारा था - इस बात पर आज भी बहुत से लोगों को विश्वास नहीं है।
6. चलिये एक बिन्दु तो सच है, वैसे राष्ट्रपति के हत्यारों का घटनास्थल पर ही मारा जाना एक सामान्य सम्भावना है।
7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का कुलनाम जॉंन्सन होना सचमुच एक सन्योग है। जॉंन्सन अमेरिका का एक सामान्य नाम है। यदि दोनों जॉंन्सन के नाम भी समान होते तब ज़रूर आश्चर्य होता। या फिर उत्तराधिकारियों के नाम क्रमशः कैनेडी व लिंकन होते तब तो मैं भी इस अफ़वाह पर पूर्ण विश्वास करता। दोनों राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर उनके उत्तराधिकारियों के समान अंतर को ही साबित करता है। यदि उत्तराधिकारियों का अंतर 75 या 125 साल भी होता तो क्या फ़र्क पड़ना था?
8. यूरोपीय मूल के नामों में 7 अक्षर होना अनोखी बात नहीं है। वैसे कैनेडी के नाम "जॉन" में 7 नहीं चार अक्षर थे।
9. आश्चर्य? अमेरिका के हर राष्ट्रपति का नाम मानव अधिकारों से जुड़ा है, कइयों को नोबल शांति पुरस्कार भी मिल चुके हैं।
10. कैनेडी लिंकन कम्पनी द्वारा बनाई हुई लिंकन कॉंटिनेंटल लिमुज़िन में सवार थे। हाँ, लिंकन कम्पनी फ़ोर्ड कम्पनी के स्वामित्व में अवश्य है लेकिन क्या स्टेट बैंक ऑफ़ ट्रावनकोर को स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया कहा जा सकता है? दूसरी बात यह कि लिंकन कार का नाम ही राष्ट्रपति लिंकन के सम्मान में रखा गया था। इसलिये एक शताब्दी बाद आये कैनेडी की कार का नाम लिंकन होना आसान सी बात है। अनोखी बात तब होती जब लिंकन की कार का नाम कैनेडी होता।
क्या मैं कुछ अधिक ही विद्रोही हो रहा हूँ? शायद ऐसा हो क्योंकि किसी भी सन्देश को बिना विचारे दोहराते हुए देखना मुझे अजीब लगता है। वह भी तब जब अफ़वाह की तथ्यात्मक काट लम्बे समय पहले प्रकाशित हो चुकी हो। यदि अफ़वाहें राष्ट्र को उद्वेलित करके समुदायों के बीच नफ़रत पैदा करके राष्ट्रीय नागरिकों, सेवाओं या सम्पत्ति की हानि करने लगें तब तो हमारी ज़िम्मेदारी और भी बढ जाती है। ध्यान रखिये कि राष्ट्र की हानि कराने वाले राष्ट्रभक्ति का मुखौटा भले ही ओढ लें, वे रहेंगे राष्ट्रद्रोही ही। मेरा तो सभी मित्रों से यही अनुरोध है कि कुछ भी पढते सुनते वक़्त दिमाग का प्रयोग कीजिये, खुलकर सवाल पूछिये। सम्पादक के नाम आपका पत्र या किसी ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी यदि प्रकाशित न हो तो अपनी बात अपने ब्लॉग पर कहिये। कुछ भी करिये मगर अनुसरण सत्य का ही कीजिये। याद रहे कि पाकिस्तान कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता। हाँ यदि पाकिस्तान फिर से भारतीय परम्परा अपनाये तो उनकी काफ़ी समस्यायें अपने आप हल हो सकती हैं। क्या कहते हैं आप?
आजकल अफ़वाहें भी तकनीक की बेल के सहारे काफ़ी ऊँची उठ चुकी हैं। एक एस एम एस आता है या कोई ईमेल मिलती है और हम आश्चर्य से भर जाते हैं। सब कुछ अनोखा, इतना अनूठा कि संयोग शब्द कुछ हल्का लगने लगे। हम इतने प्रभावित हो जाते हैं कि जो मिलता है उसे उस ईमेल का विषय फ़टाफ़ट विस्तार के साथ बताने लगते हैं। कभी उस संदेश को आगे दो चार मित्रों को फ़ॉरवर्ड करते हैं और कभी ब्लॉग पोस्ट भी बना देते हैं। उत्साह के बीच ये बात दिमाग़ में आती ही नहीं कि वह सन्देश अफ़वाह भी हो सकता है। पहले किसी अफ़वाह के फैलने की रफ़्तार धीमी थी परंतु आजकल तो बस्स ...
क्या आपने कभी जानने का प्रयास किया है कि इन अफ़वाहों के पीछे कौन छिपा है? कौन हमारे भोले विश्वास का लाभ उठाकर अपना उल्लू सिद्ध करना चाहता है? अपने अभिनेता बेटे की हाई प्रोफ़ाइल फ़िल्म के विश्व-व्यापी उद्घाटन के समय भारत के एक फ़िल्म निर्माता को अंडरवर्ल्ड से पैसा देने की धमकी मिलती है। वह पुलिस में जाता है। पुलिस उसकी सुरक्षा में लग जाती है। तभी पड़ोसी देश का एक केबल नेटवर्क उस अभिनेता द्वारा उस देश का अपमान करने की खबर देता है। देशभक्ति की भावना से भरे भोले-भाले लोग उस अभिनेता के विरोध में घरों से बाहर निकल आते हैं। अभिनेता बेचारा सफ़ाई ही देता रह जाता है।
सम्बन्ध व्यवसायिक हों या पारिवारिक, वे तभी टिकते हैं जब उनमें दोनों पक्ष या तो लाभ में रहते हों या कम से कम एक पक्ष का लाभ हो रहा हो या कम से कम एक पक्ष इस सम्बन्ध के प्रति या तो निरपेक्ष हो या हानि भी सहने को तैयार हो। इसी प्रकार कुछ लोग कोई भी काम करते समय सबका भला देखते हैं। कुछ लोग केवल अपना भला देखते हैं। लेकिन इस सब से आगे बढकर कुछ लोग, देश या संस्थायें केवल इतना देखते हैं कि उनके काम से दूसरे व्यक्ति, संस्था या देश की हानि हो। उनके लिये यह दूसरा कोई व्यक्ति, संस्था या देश नहीं होता, वह होता है केवल एक प्रतिद्वन्द्वी बल्कि एक शत्रु, जिसे किसी भी कीमत पर नीचा दिखाना है, हराना है या नष्ट करना है।
मुझे याद पड़ता है कि एक अन्य पड़ोसी देश के एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि हम हिन्दुस्तान से हज़ार साल तक लड़ेंगे, भले ही उसके लिये हमें घास खाना पड़े। पता नहीं उनके देश ने घास खाई या नहीं मगर पहले तो उस देश का एक बड़ा भूभाग अलग हुआ और फिर बचे हुए लोगों ने उस प्रधानमंत्री को फ़ाँसी पर लटका दिया। देश का चरित्र फिर भी काफ़ी हद तक वैसा ही रहा जैसा इन घटनाओं से पहले था। अपना इतिहास छिपाने और पड़ोसियों के विरुद्ध अफ़वाहें फैलाने का चलन वहाँ आज भी है और उस देश के पतन का एक बड़ा कारण है।
लेकिन ये अफ़वाहें फैलती क्यों हैं? पड़ोसी देश की समस्या तो ये है कि वहाँ इस्लाम के नाम पर कुछ भी कराया जा सकता है। हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान के विरोध के नाम पर इंसानियत का खून आसानी से किया जा सकता है। उनके स्कूलों की किताबें हों या मदरसों के सबक, सबका एक छिपा एजेंडा है। वे भूल गये हैं कि नफ़रत की आग जब एक बार जलनी शुरू होती है फिर समदर्शी होकर अपना पराया नहीं देखती। वे अन्धे हों तो हों मगर वैविध्य, उदारता और सहिष्णुता की अति-प्राचीन परम्परा वाले हम लोग अफ़वाहों के चक्र को तोड़ने के बजाय उसे हवा क्यों देते हैं? शायद इसलिये कि अफ़वाह फैलाने वाले आपके मन की घुटन पहचानते हैं। वे जानते हैं कि आपके मन में क्या चल रहा हैं? अफ़वाहें अक्सर ऐसी भावनाओं का शोषण करती हैं जिनसे एक बड़े समूह को आसानी से चलायमान किया जा सके। ये भावनायें धर्म, देशप्रेम, ग़रीबी, अन्याय, असमानता आदि कुछ भी हो सकती हैं लेकिन अक्सर इनके द्वारा एक बड़े समूह को पीड़ित बताया जाता है।
अब्राहम लिंकन |
आइये केवल विश्लेषण के उद्देश्य से एक ब्लॉग पर ताज़ा छपी एक पुरानी अफ़वाह का नया संस्करण देखें। मैंने जानकर इस अफ़वाह को इसलिये चुना है क्योंकि यह एक विख्यात परंतु सरल सी अफ़वाह है और इसका हमारे देश, धर्म, राजनीति, राष्ट्रनायक या परिस्थितियों से भी कोई लेना-देना नहीं है। अफ़वाह लम्बी है, कृपया धैर्य रखिये।
1. प्रेसिडेंट लिंकन 1860 मे राष्ट्रपति चुने गये थे, केनेडी का चुनाव 1960 मे हुआ था।
2. लिंकन के सेक्रेटरी का नाम केनेडी तथा केनेडी के सेक्रेटरी का नाम लिंकन था।
3. दोनों राष्ट्रपतियों का कत्ल शुक्रवार को अपनी पत्नियों की उपस्थिति मे हुआ था।
4. लिंकन के हत्यारे बूथ ने थियेटर मे लिंकन पर गोली चला कर एक स्टोर मे शरण ली थी और केनेडी का हत्यारा ओस्वाल्ड, एक स्टोर मे केनेडी को गोली मार कर एक थियेटर मे जा छुपा था।
5. बूथ का जन्म 1839 मे तथा ओस्वाल्ड का 1939 मे हुआ था।
6. दोनों हत्यारों की हत्या मुकद्दमा चलने के पहले ही कर दी गयी थी।
7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का नाम जानसन था। एन्ड्रयु जानसन का जन्म 1808 मे तथा लिंडन जानसन का जन्म 1908 मे हुआ था।
8. लिंकन और केनेडी दोनों के नाम मे सात अक्षर हैं।
9. दोनों का संबंध नागरिक अधिकारों से जुडा हुआ था।
10. लिंकन की हत्या फ़ोर्ड के थियेटर में हुई थी, जबकी केनेडी फ़ोर्ड कम्पनी की कार मे सवार थे।
आश्चर्य है कि इसकी काट बहुत पहले प्रकाशित हो जाने के बाद भी यह दंतकथा आज तक सर्कुलेशन में है। आइये बिन्दुवार देखें इस विचित्र से सत्य में सत्य का प्रतिशत कितना है:
1. अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हर 4 वर्ष में होता है। इसलिये किन्हीं भी दो राष्ट्रपतियों के बीच का अंतर 4 से विभाज्य होगा। यह हम पर निर्भर है कि हम जो दो राष्ट्रपति चुनें उनके बीच का अंतर 56, 96, 100, 104 या 200 वर्ष है या कुछ और। यहाँ दो ऐसे राष्ट्रपति लिये गये हैं जिनकी हत्या हुई और उनके राष्ट्रपति बनने के वर्षों में सौ वर्ष का अंतर था।
2. यह पक्की बात है कि लिंकन के अनेक सचिवों में से किसी का उपनाम भी कैनेडी नहीं था।
3. सप्ताह के सात दिनों में से एक के होने की सम्भावना कितनी जटिल है। वैसे लिंकन की हत्या के समय उनकी पत्नी साथ नहीं थीं और उनकी मृत्यु शनिवार को हुई थी।
4. भागने के बाद बूथ ने अलग-अलग जगहों यथा घर, खेत, कुठार आदि में शरण ली थी परंतु स्टोर में नहीं।
5. इन दो राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर था, सो उनके हत्यारों के जन्म में भी 100 साल का अंतर कोई बड़ी बात नहीं है। मगर अफ़वाह का यह बिन्दु भी ग़लत है। बूथ का जन्म 1839 में नहीं बल्कि 1838 में हुआ था। वैसे, ओसवाल्ड केनेडी का हत्यारा था - इस बात पर आज भी बहुत से लोगों को विश्वास नहीं है।
6. चलिये एक बिन्दु तो सच है, वैसे राष्ट्रपति के हत्यारों का घटनास्थल पर ही मारा जाना एक सामान्य सम्भावना है।
7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का कुलनाम जॉंन्सन होना सचमुच एक सन्योग है। जॉंन्सन अमेरिका का एक सामान्य नाम है। यदि दोनों जॉंन्सन के नाम भी समान होते तब ज़रूर आश्चर्य होता। या फिर उत्तराधिकारियों के नाम क्रमशः कैनेडी व लिंकन होते तब तो मैं भी इस अफ़वाह पर पूर्ण विश्वास करता। दोनों राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर उनके उत्तराधिकारियों के समान अंतर को ही साबित करता है। यदि उत्तराधिकारियों का अंतर 75 या 125 साल भी होता तो क्या फ़र्क पड़ना था?
8. यूरोपीय मूल के नामों में 7 अक्षर होना अनोखी बात नहीं है। वैसे कैनेडी के नाम "जॉन" में 7 नहीं चार अक्षर थे।
9. आश्चर्य? अमेरिका के हर राष्ट्रपति का नाम मानव अधिकारों से जुड़ा है, कइयों को नोबल शांति पुरस्कार भी मिल चुके हैं।
10. कैनेडी लिंकन कम्पनी द्वारा बनाई हुई लिंकन कॉंटिनेंटल लिमुज़िन में सवार थे। हाँ, लिंकन कम्पनी फ़ोर्ड कम्पनी के स्वामित्व में अवश्य है लेकिन क्या स्टेट बैंक ऑफ़ ट्रावनकोर को स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया कहा जा सकता है? दूसरी बात यह कि लिंकन कार का नाम ही राष्ट्रपति लिंकन के सम्मान में रखा गया था। इसलिये एक शताब्दी बाद आये कैनेडी की कार का नाम लिंकन होना आसान सी बात है। अनोखी बात तब होती जब लिंकन की कार का नाम कैनेडी होता।
क्या मैं कुछ अधिक ही विद्रोही हो रहा हूँ? शायद ऐसा हो क्योंकि किसी भी सन्देश को बिना विचारे दोहराते हुए देखना मुझे अजीब लगता है। वह भी तब जब अफ़वाह की तथ्यात्मक काट लम्बे समय पहले प्रकाशित हो चुकी हो। यदि अफ़वाहें राष्ट्र को उद्वेलित करके समुदायों के बीच नफ़रत पैदा करके राष्ट्रीय नागरिकों, सेवाओं या सम्पत्ति की हानि करने लगें तब तो हमारी ज़िम्मेदारी और भी बढ जाती है। ध्यान रखिये कि राष्ट्र की हानि कराने वाले राष्ट्रभक्ति का मुखौटा भले ही ओढ लें, वे रहेंगे राष्ट्रद्रोही ही। मेरा तो सभी मित्रों से यही अनुरोध है कि कुछ भी पढते सुनते वक़्त दिमाग का प्रयोग कीजिये, खुलकर सवाल पूछिये। सम्पादक के नाम आपका पत्र या किसी ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी यदि प्रकाशित न हो तो अपनी बात अपने ब्लॉग पर कहिये। कुछ भी करिये मगर अनुसरण सत्य का ही कीजिये। याद रहे कि पाकिस्तान कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता। हाँ यदि पाकिस्तान फिर से भारतीय परम्परा अपनाये तो उनकी काफ़ी समस्यायें अपने आप हल हो सकती हैं। क्या कहते हैं आप?
बढ़िया विश्लेषण किया है !
ReplyDeleteकुछ भी करिये मगर अनुसरण सत्य का ही कीजिये।
यही सच है मै भी यही कहती हूँ .....
अनुराग जी अफवाहें बहुत सहज और मानव मन पर सहसा अधिकार बनाने सरीखी होती हैं जबकि उनका खंडन नीरस उबाऊ बोझिल ..
ReplyDeleteमनुष्य विस्मित होना चाहता है बोर होना नहीं ....ही इज आलवेज इन सर्च आफ मिराकुलस ..बहरहाल मैं इस अफवाह का आज खंडन पाकर संतुष्ट महसूस कर रहा हूँ....इतने संयोगों से मेरा माथा भी भन्नाया हुआ था !
लिंकन की आत्मा का १०० वर्ष तक भटकना तो हमें भी स्वीकार नहीं है।
ReplyDelete@ पता नहीं उनके देश ने घास खाई या नहीं मगर पहले देश का एक बड़ा भूभाग अलग हुआ और फिर बचे हुए लोगों ने उस प्रधानमंत्री को फ़ाँसी पर लटका दिया।
ReplyDeleteयह भाग बहुत प्रभावशाली लगा अनुराग भाई ! तमाम इतिहास नज़रों के सामने घूम गया !
उन अभागे प्रधानमन्त्री पर तरस आता है ....
वाकई चरित्र नहीं बदलते ....
यह अफवाह भी कितनी तेज भागती है ? बात गणेशजी से सुरू हुई थी और राष्ट्रपति तक जा पहुंची !
ReplyDelete...वैसे अच्छा किया कि लिंकन और केनेडी को लेकर चल रहे 'तथ्यों' को आपने अफवाह बता दिया.मैं इन्हें सही समझ रहा था.
...और हाँ,हिटलर के मंत्री गोयबल्स ने भी तो कहा था कि किसी बात को सौ-बार कहोगे तो वह सच हो जायेगी !!
अफवाहें समाज की दुश्मन साबित होती हैं और फ़ैलाने वाले देश के दुश्मन ।
ReplyDeleteदूध वाले मामले में भी शुरुआत अमेरिका से ही हुई थी । कहीं यह भी पडोसी की ही खुरापात तो नहीं थी !
अक्सर लोग आश्चर्यजनक तथ्यों पर आसानी से विश्वास कर लेते हैं । शायद इसीलिए अफवाहों की स्पीड बहुत तेज होती है ।
सुन्दर प्रस्तुति ।
ये तथ्य जिन्हें आप अफवाह कह रहे है:-) ये तो हमने कई बार पढ़े थे....
ReplyDeleteमगर ये काट आज पहली बार पढ़े....
याने सच है.....अफवाहों के हज़ार पैर होते हैं...और सच दो पैरों से रेंगता है.
बढ़िया पोस्ट.
शुक्रिया अनुराग जी
अनु
क्या बात कही आपने. अभी अभी एक दो दिन पहले ही लिंकन वाला मेल मिला था. पहले भी आ चुका है. मैंने संयोग समझ कर टाल दिया था.
ReplyDeleteतकरीबन तीन वर्ष पहले मुझे मेरे एक मित्र ने एक एसएमएस भेजा जिसमें E211, E224 के बारे में यह लिखा था कि यह सूअर की चर्बी से बना है और इससे भी स्वाईन फ्लू का खतरा है, तथा यह एक शीतल पेय में मिलाया जा रहा है. चूँकि मित्र मेडिकल विभाग से ताल्लुकात रखते थे इसलिए उनकी बात में दम लगा. पिछले दिनों फेसबुक भी कई उत्पादों के बारे में ऐसा ही बहुत कुछ पढ़ने को मिला. आपकी इस पोस्ट से काफी कुछ स्पष्ट हुआ.
ReplyDeleteजी, बहुत सी अफ़वाहों में सभी ई नम्बर्स को सुअर से निकाला हुआ बताया जाता है। इस अफ़वाह की शुरुआत कुछ अतिवादी इस्लामी संगठनों द्वारा अमेरिकी उत्पादों के विरुद्ध माहौल बनाने से हुई है। ई नम्बर सीरीज़ का पहला पदार्थ E100 ही कर्क्युमिन है जो कि हल्दी से बनता है, मतलब यह कि ई नम्बर्स को थोक में सुअर की चर्बी कहना सरासर ग़लतबयानी है। ई शृंखला के बारे में विस्तृत जानकारी यहाँ उपलब्ध है:
Deletehttp://www.understandingfoodadditives.org/index.htm
अफवाहों से सचेत रहने की जरुरत है ।
ReplyDeleteएक ऐसा चेन मेल "Proud to be Indian"वाला है, जिसमे नासा, माइक्रोसाफ्ट जैसी कंपनीयो मे ३०-४०% भारतीयो के काम करने का दावा है. इसमे भी अधिकतर बातें गलत है. भारत से जु्डी अधिकतर अफवाहो मे धर्म/राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढा होता है, विरोध करने पर गालीयाँ मीलती है|
ReplyDeleteएक ऐसा चेन मेल"Proud to be Indian" वाला है, जिसमे नासा, माइक्रोसाफ्ट जैसी कंपनीयो मे ३०-४०% भारतीयो के काम करने का दावा है. इसमे भी अधिकतर बातें गलत है. भारत से जु्डी अधिकतर अफवाहो मे धर्म/राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढा होता है, विरोध करने पर गालीयाँ मीलती है|
ReplyDeleteदरअसल इंसान की प्रवृति ऐसी ही होती है रोचक और थोड़े से भी तथ्य के साथ जुडी हुयी बात को मान लेने की और फिर उसे मसाला लगा के पेश करने की ... अफवाहों के साथ भी ऐसा ही होता है ... कने वाले का ढंग ऐसा होता है की मानने को विवश हो जाता है इंसान और फिर चाहे खंडन हो ... क्या फरक पढता है ... पर आपकी बात सच है की कुछ अफवाहें दूरगामी प्रभाव रखती हैं और उनसे बचना जरूरी है ...
ReplyDeleteलिंकन, कैनेडी वाला किस्सा सालों पुराना है, तब जब इलैक्ट्रॉनिक मीडिया आज जितना शक्तिशाली भी नहीं था। आज ही आपसे पता चला कि यह एक अफवाह है।
ReplyDeleteऐसे कई ईमेल हमें भी मिल चुके हैं, जब से ईमेल का उपयोग कर रहे हैं तब से ही, परंतु हमने आज तक किसी भी ईमेल को रिसर्कुलेट नहीं किया, क्योंकि जब तक आप तथ्यों की जानकारी न जानते हों आप कैसे किसी के साथ साझा कर सकते हैं और अगर वह ज्यादा जानकार हो तो हालात और मुश्किल हो सकते हैं।
ReplyDeleteshi kaha aapne sarthak lekh hae aabhr .
ReplyDeleteANALYTICL POST .
ReplyDeleteBEAUTIFUL MEMORABLE AND MEANINGFUL.
I AM VERY VERY THANKFUL TO FOR THESE KNOWLEDGE.
अफवाहों में मोहग्रस्त हो जाने से पहले विवेक से मंथन करना बहुत जरूरी है। और ऐसे खण्ड़न भी आना जरूरी है, ताकि अफवाहों पर चिंतन की दृष्टि और दिशा मिले। अन्यथा निर्दोष भी जाने अनजाने ऐसी अफवाहो गति दे बैठते है।
ReplyDeleteअनुराग जी, अफवाह भ्रम ही फैलाती है। आपकी अपील सार्थक है कि कुछ भी पढऩे और सुनने से पहले उसे अपने दिमाग के तराजू पर तौलिया। किसी भी बात को क्रॉसचेक करना जरूरी है।
ReplyDeleteआप कठिन काम बता रहे हैं। आप 'जान कर' चलने की बात कर रहे हैं जबकि हमें तो 'मान कर' चलने/जीने की आदत है। फिर, अफवाहों आनन्द ही कुछ और होता है। सबसे बडी आसानी/सुविधा यह कि इसकी जिम्मेदारी झेलने का कोई लफडा ही नहीं। एक बात और, यहॉं इतना समय और धैर्य है किसके पास कि अफवाह की वास्तविकता जानने का परिश्रम कर सके? आपकी पोस्ट का शब्द-शब्द सत्य और अनुकरणीय है। आप 'द्रोही' बिलकुल नहीं बन रहे। हॉं, आप अकेले अवश्य है जबकि हम सबको, हममें से प्रत्येक को 'द्रोही' बनना समय की मॉंग है।
ReplyDeletekaafi acha likhte hain ap... pittsburgh mein kya kr rahe ho. bharat laut aayo.
ReplyDelete1. सबै भूमि गोपाल की ...
Delete2. गोपाल आपकी बात पर जल्दी ध्यान दे!
:)
अनुराग भाया! आपने अफवाह की पैथोलॉजिकल प्रोपर्टीज पे ध्यान नाय दिया भाया! अब सुनो -
ReplyDelete1- अफवाहें सनसनी इत्ती ज़ोर से फ़ैलाती हें के शिथिल हुये लोगलुगाइयन में एक अतिरिक्त ऊर्जा का संचार फट्ट से हो ज्जाता ए, जैसे उत्तरीध्रुव पे बैठे के कोई बीड़ी सुलगा रिया हो और बाकी चमक दूर बैठ के बो आदमी देख रिया हो जिसके पास बीड़ी ना होवे!
2- अफवाहें बौद्धिक जड़ता याने के जिसे आप सब पढ़ेलिखे लोग इनर्शिया केहते हो उसे स्थिर रखती हैं जामें न्यूटन को कोऊ नियम और फिट कल्लियो तौ बात और समझ में आ जाग्गी!
3- अफवाहें बुद्धिमानन को मूरख बनायबे को उत्तम साधन हें, बो केहते हें ना हर्रा लगे ना फ़िटकरी रंग चोख्खो आवे!
4- अफवाहन से तो बड़े-बड़े उद्योगन के बारे-न्यारे हे गये! बिग्यापनन में नईं देखो का?
5- चुनाव में अफवाह ना होबे, भासन में अफवाह ना होबे, बिग्यापन में अफवाह ना होबे, ब्यौपार में अफवाह ना होबे तो काम कैसे चलेगो भाया?
इत्ती-इत्ती प्रोपर्टीज पे तौ ध्यान दियो ना गयो तुम पे औ लगे अफवाहन की बुराई कन्ने, जई तौ तुम इंडियन लोगन में अच्छी बात नाय हे! पीटसबरग में भले ई बस जाओ पर अबे तक इंडियानापना ना छूटो तुमाओ!
अफवाहों की खासियत ही यही है इनकी कोई सीमा ही नहीं...... कैसी भी कुछ भी हो सकती हैं ...... आपका लेख अत्यंत शोधपरक लगा ....
ReplyDeleteछोटी बड़ी अफवाहें यदि भ्रम और अराजकता की स्थिति फैलाती हैं तो इनसे बचना चाहिए ...रोक ना पायें तो कम से कम उन्हें आगे न बढ़ाएं ..
ReplyDeleteमानो तो अफवाहों में इतना दम होता है कि एक घर से लेकर देशों तक का बंटवारा करवा देती है ... और ना मानो तो कुछ दिन हवा में फ़ैल कर दम तोड़ देती है ...
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बर्गर नहीं ककड़ी खाइए साथ साथ ब्लॉग बुलेटिन पढ़ते जाइए
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बर्गर नहीं ककड़ी खाइए साथ साथ ब्लॉग बुलेटिन पढ़ते जाइए
ReplyDeleteमैंने भी सुना या फिर पढ़ा है की व्हाइट हॉउस में आज भी लिंकन की आत्मा भक्ति है.... जो जो भी हो, कल का पता नहीं और दावा करते हैं हजार वर्षों का.... कमाल की प्रस्तुति......
ReplyDelete"मेरा तो सभी मित्रों से यही अनुरोध है कि कुछ भी पढते सुनते वक़्त दिमाग का प्रयोग कीजिये, खुलकर सवाल पूछिये। सम्पादक के नाम आपका पत्र या किसी ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी यदि प्रकाशित न हो तो अपनी बात अपने ब्लॉग पर कहिये। कुछ भी करिये मगर अनुसरण सत्य का ही कीजिये। याद रहे कि पाकिस्तान कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता। हाँ यदि पाकिस्तान फिर से भारतीय परम्परा अपनाये तो उनकी काफ़ी समस्यायें अपने आप हल हो सकती हैं।"
ReplyDeleteWhich is an impossible thing !!
अफवाहों की अच्छी खिंचाई की है आपने.. कई बार अफवाहें रची जाती हैं.. ऐसे जैसे बिलकुल सच्ची घटना हो.. आँखों के सामने घटती हैं वे घटनाएँ, कई प्रत्यक्षदर्शी होते हैं..लेकिन फिर भी अफवाहें ही होती हैं वे, झूठी..
ReplyDeleteअमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के पीछे अफवाहें कैसे मैन्युफैक्चर की जाती हैं यह पहली बार मैंने John Grisham के उपन्यास The Brethren में देखा था.. कहानी ही सही पर हकीकत से ली हुई!!
अनुराग जी, बड़ा अनोखा विषय चुना है और बहुत संभावनाएं हैं इस विषय में..!
अफवाहें आज भी अपना काम बखूबी करती हैं... राम राज्य जैसी
ReplyDeleteसत्यान्वेषण की आपसे अपेक्षा रहती ही है।
ReplyDeleteबैरागी जी की जानने और मानने की बात बहुत हद तक सही है। असल में हर मामले की तह में जा सकने की सुविधा, क्षमता, सोच भी सबके पास उपलब्ध नहीं होती और यूँ भी चलती बयार की रौ में बह जाना आसान होता है। आपने जिस पुरानी अफ़वाह का जिक्र किया है, हमने भी सुनी थी और चकित होकर रह गये थे। फ़िर ऐसी ही एक संयोगात्मक अफ़वाह दो क्रिकेट खिलाड़ियों के बारे में और हिटलर\नेपोलियन\मुसोलिनी के बारे में सुनी तो दाल काली लगी तो थी।
वैसे कई बार कुछ अफ़वाहें जनहित में भी जारी होती हैं:) मैंने सुना है कि कोलकाता में एक बार स्टोरियों ने चावल की कृत्रिम मंदी पैदा कर दी थी और खाद्यान्न गोदामों से बाहर नहीं निकाल रहे थे। ऐसे में तत्कालीन कैबिनेट मंत्री ने सरकार की तरफ़ से पर्याप्त मात्रा में चावल की आपूर्ति का बयान देकर खाली मालगाड़ियाँ रवाना कर दी थीं और सरकारी माल पहुँचने से पहले ही कोलकाता के गोदामों से जमाखोरियों ने खाद्यान्न निकालना शुरू कर दिया था।
देश की जनता का ध्यान त्वरित समस्याओं से हटाने के लिये सरकारी तंत्र भी इन तरीकों का फ़ायदा उठाता है और शायद ज्यादा संगठित तरीके से। प्रचलित विश्वास के उलट कही गई बात को एकदम से खारिज कर देना भी उतना ही गलत है जितना अफ़वाहों को फ़ैलाने में मददगार होना। हर व्यक्ति को यथासंभव किसी भी बात को तर्क की कसौटी पर परखना ही चाहिये।
बापू के अंतिम शब्द, हे राम?
ReplyDeleteखास कर आजकल फेसबुक पर इस तरह की अफवाहों से तो मैं परेसान हूँ..लोग बिना सोचे समझे कोई भी फोटो शेयर कर दे रहे हैं, जिसमे कोई भी बेतुकी बात लिखी हुई रहती है, अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग भी ऐसा करते हैं, ये बिना सोचे की लोग इस अफवाहों को कैसे लेंगे...
ReplyDeleteआपने लिंकन और केनेडी का उदाहरण बहुत अच्छा दिया..
ऐसे बहुत से कथानक हैं जो सत्य की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। मेवाड़ के महाराणा प्रताप के लिए गीत रचा गया - अरे घास री रोटी। इसमें अमरसिंह को बच्चा बताया गया, जबकि उस समय अमरसिंह युवा थे। लेकिन गीत खूब चला और पाठ्य पुस्तकों में भी दर्ज हुआ। ऐसी ही अनेकानेक घटनाएं हैं। एकलव्य के अंगूठे की बात तो मैंने पहले भी लिखी थी।
ReplyDeleteGood Analysis
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