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कंडक्टर को पास आता देखकर उसने अंटी में से सारी रेजगारी निकाल ली। कई बार गिना। टिकट के पैसे बिल्कुल बराबर, यह भी अजब इत्तफाक था। उसके हाथ में जो सिक्के थे बस वही उसके घर का सम्पूर्ण धन था। पत्नी का अन्तिम गहना, उसकी पाजेब की जोड़ी बेचने के बाद जितने भी पैसे मिले थे उसमें से अब बस यही सिक्के बचे थे। कंडक्टर ने एक हाथ में टिकट थमाया और उसने दूसरे हाथ से सिक्के उसकी हथेली में रख दिए। कंडक्टर ने सिक्के देखे, विद्रूप से मुँह बनाया और सिक्के शीशा-टूटी खिड़की से बाहर फैंकते हुए बोला, "अब तो भिखारी भी टिकट खरीदने लगे हैं।"
अपनी संपत्ति की आख़िरी निशानी उन सिक्कों को इस बेकद्री से बस की खिड़की के बाहर कोहरे के सफ़ेद समुद्र में खोते हुए देखकर उसका सर भन्ना गया। दिल में आया कि इस कंडक्टर को भी उसी खिड़की से बाहर फेंककर अपने सिक्के वापस मंगवाए मगर मुँह से उतना ही निकला, "बाहर काहे फेंक दिए जी?"
"तुझे टिकट मिल गया न? अब चुपचाप बैठा रह, अपना स्टाप आने तक।" कंडक्टर गुर्राकर अगली सवारी को टिकट पकड़ाने चल दिया।
वह सोचने लगा कि कब तक वह अकारण ही जानवरों की तरह दुत्कारा जाता रहेगा। यह कंडक्टर तो कोई सेठ नहीं है और न ही पढा-लिखा बाबू है। यह तो शायद उसके जैसा ही है। अगर यह भी उसे इंसान नहीं समझ सकता तो फिर बड़े आदमियों से क्या उम्मीद की जा सकती है।
आखिरकार बस उसके ठिये तक पहुँच गयी। वह बस से उतरकर सेठ की गद्दी की तरफ़ चलने लगा। कोहरे की बूँदें उसके कुरते पर मोतियों की तरह चिपकने लगीं। पास में ही एक चाय के खोखे के आस पास कुछ लोग खड़े अखबार पढ़ रहे थे। उसे पता था कि अंटी खाली है। फिर भी उसका हाथ वहाँ चला गया। कुछ क्षणों के लिए उसके कदम भी ठिठके मगर सच्चाई से समझौता करना तो अब उसकी आदत सी ही हो गयी थी, सो गद्दी की तरफ़ चल पडा। मन ही मन मनाता जा रहा था कि कुछ न कुछ काम उसके लिए बच ही गया हो।
"लो आ गए अपने बाप की बरात में से!" सेठ का बेटा उसे देखकर साथ खड़े मुंशी से बोला। कल का लड़का, लेकिन कभी किसी मजदूर से सीधे मुँह बात नहीं करता है। फिर उसकी तरफ़ मुखातिब होकर बोला, "अबे ये आने का टाइम है क्या?"
"जी बाउजी, कोई काम है?" उसने सकुचाते हुए पूछा।
"किस्मत वाला है रे तू, हफ्ते भर का काम है तेरे लिए..." मुंशी ने आशा के विपरीत कहा, "ठेकेदार आता ही होगा बाहर, ट्रक में साथ में चला जइयो।"
ट्रक आने में ज़्यादा देर नहीं लगी। ठेकेदार ने अन्दर आकर सेठ के मुंशी के हाथ में कुछ रुपये पकडाए और मुंशी ने लगभग धकियाते हुए उसे आगे कर दिया।
"चल आजा फ़टाफ़ट" ठेकेदार ने ड्राइवर के बगल में बैठते हुए कहा।
वह ट्रक के पीछे जाकर ऊपर चढ़ गया। कुछ मजदूर वहाँ पहले से ही मौजूद थे। कुदाली वगैरह औजार भी एक कोने में पड़े थे। ट्रक खुला था और ठण्ड भी थी। सूरज चढ़ने लगा था मगर धूप भी उसकी तरह ही बेदम थी।
उसने साथ बैठे आदमी को जय राम जी की कही और पूछा, "कहाँ जा रहे हैं?"
"जाने बालीगंज की तरफ़ है जाने कहाँ!" साथी ने कुछ अटपटा सा जवाब दिया।
[क्रमशः]
बहुत सहज प्रवाह से कही गयी इस कथा में संवेदना के साथ सूक्ष्म अवलोकन भी है
ReplyDeleteवाह बंधुवर
ReplyDeleteअभी तक सब ठीक ठाक चल रहा है
उत्सुकता बरकरार है
"वह सोचने लगा कि कब तक वह अकारण ही जानवरों की तरह दुत्कारा जाता रहेगा। यह कंडक्टर तो कोई सेठ नहीं है और न ही पढा-लिखा बाबू है। यह तो शायद उसके जैसा ही है। अगर यह भी उसे इंसान नहीं समझ सकता तो फ़िर बड़े आदमियों से क्या उम्मीद की जा सकती है।"
ReplyDeleteबहुत बेसब्री से पटाक्षेप का इंतजार है ! बालीगंज का नाम पढ़ कर अधीरता और बढ़ गयी है ! धन्यवाद !
चलो उसे काम तो मिला...अब आगे क्या
ReplyDeleteइंतज़ार रहेगा
ReplyDeleteकथा पात्रों से तादात्म्य बनाती है।
ReplyDeleteआगे कुछ गड़बड़ होने वाला है?
ReplyDeleteसिक्कों की कीमत... किसी के लिए कितना कुछ होता है ये !
ReplyDeleteबहुत करीब से देखने वाले भी ऐसा नही लिख सकते।बधाई आपको। अंत का इंतज़ार रहेगा।
ReplyDeleteजारी रहिये...आगे इन्तजार है. प्रवाह बना हुआ है.
ReplyDeleteअभी तक कथा सहज और पात्र व स्थान के अनुरुप है आगे इँतज़ार रहेगा --
ReplyDeleteबहुत ही संदर जिन पर बीतती है बही जाने दर्द, एक बहुत ही उम्दा रचना लिखी है आप ने.
ReplyDeleteधन्यवाद
कहानी नहीं, यह तो आंखों देखा वर्णन है ।
ReplyDeleteकहानी नहीं, यह तो आखों देखा हाल अनुभव हो रहा है ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पढकर।
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