एक पिछली पोस्ट में मैंने कार्तिक राजाराम की आत्महत्या का ज़िक्र किया था। बेरोजगारी आर्थिक मंदी का सिर्फ़ एक पहलू है। एक दूसरा पहलू है बेघर होना। और यह समस्या आम अंदाज़ से कहीं ज़्यादा व्यापक है।
कैलिफोर्निया की तिरपन वर्षीया वांडा डन (Wanda Dunn) भी ऐसी ही एक गृहस्वामिनी थीं। यह उनका पैतृक घर था जो उनके बेरोजगार होने, विकलांग होने और कुछ आर्थिक कारणों की वजह से उनके हाथ से निकल गया। सहृदय नए खरीददार ने उनकी भावनाओं की कद्र करते हुए उन्हें किराए पर रहने दिया। मगर, अफ़सोस यह गृह-ऋण की समस्या, नए मालिक को यह घर उसके ऋणदाता को वापस सुपुर्द करना पडा। वांडा डन यह बर्दाश्त न कर सकीं और उन्होंने अपने घर को आग लगा दी और अपने सर में गोली मार ली।
छिटपुट लोग इस तरह के कदम उठा चुके हैं मगर समस्या जैसी दिखती है उससे कहीं अधिक बड़ी है। २००८ के पहले आठ महीनों में ही क़र्ज़ के लिए बंधक रहे घरों में से लगभग बीस लाख घरों पर ऋणदाताओं का कब्ज़ा हो गया है। घर छोड़ने वालों में से अनेकों लोग घर का कोई स्थायी पता न होने के कारण वोट देने के लिए पंजीकृत नहीं हैं। वैसे भी जब ज़िंदगी ही एक समस्या हो जाए तो वोट देने जैसी बात के बारे में कौन सोच सकता है।
देखते हैं कि चुनाव आयोग या राष्ट्रपति पद के दोनों प्रत्याशी इस बारे में क्या करते हैं। आख़िर गरीब की भी कोई आवाज़ है। संत कबीर ने कहा है:
निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय,
मरे जीव की स्वास सौं लौह भस्म हुई जाय।
कैलिफोर्निया की तिरपन वर्षीया वांडा डन (Wanda Dunn) भी ऐसी ही एक गृहस्वामिनी थीं। यह उनका पैतृक घर था जो उनके बेरोजगार होने, विकलांग होने और कुछ आर्थिक कारणों की वजह से उनके हाथ से निकल गया। सहृदय नए खरीददार ने उनकी भावनाओं की कद्र करते हुए उन्हें किराए पर रहने दिया। मगर, अफ़सोस यह गृह-ऋण की समस्या, नए मालिक को यह घर उसके ऋणदाता को वापस सुपुर्द करना पडा। वांडा डन यह बर्दाश्त न कर सकीं और उन्होंने अपने घर को आग लगा दी और अपने सर में गोली मार ली।
छिटपुट लोग इस तरह के कदम उठा चुके हैं मगर समस्या जैसी दिखती है उससे कहीं अधिक बड़ी है। २००८ के पहले आठ महीनों में ही क़र्ज़ के लिए बंधक रहे घरों में से लगभग बीस लाख घरों पर ऋणदाताओं का कब्ज़ा हो गया है। घर छोड़ने वालों में से अनेकों लोग घर का कोई स्थायी पता न होने के कारण वोट देने के लिए पंजीकृत नहीं हैं। वैसे भी जब ज़िंदगी ही एक समस्या हो जाए तो वोट देने जैसी बात के बारे में कौन सोच सकता है।
देखते हैं कि चुनाव आयोग या राष्ट्रपति पद के दोनों प्रत्याशी इस बारे में क्या करते हैं। आख़िर गरीब की भी कोई आवाज़ है। संत कबीर ने कहा है:
निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय,
मरे जीव की स्वास सौं लौह भस्म हुई जाय।
वांडा डन (Wanda Dunn) जैसे अनेक लोगो के लिए श्रद्धांजलि देने के अलावा हम लोगो के हाथ में कुछ नही है ! असल में समस्या को जिस समय उपचारित किया जाना चाहिए था उस समय समस्या को एलोपैथी रूपी इलाज से बचाने की झूँठी कोशीश की गई ! उसी समय इसका आयुर्वेदिक इलाज किया जाता तो अनेक वांडा डन (Wanda Dunn) आज आपके हमारे बीच होती !
ReplyDeleteखैर समय के साथ ही समस्या सुलझेगी ! हमेशा लम्हों ने खता की है और सदियों ने सजा पाई है ! शुभकामनाएं !
pata nahi aage kya hone wala hai, paridrashya nirashajanak lag raha hai
ReplyDeleteमनुष्य ने एक बड़ी सीमा तक प्रकृति की शक्तियों को समझ कर उन पर नियंत्रण पाया है। अर्थ तो मानव जनित ही है। वह इस की व्यवस्था पर नियंत्रण प्राप्त कर सकता है। बशर्ते कि वह चाहे।
ReplyDeleteमंदी के इस दौर की तो अभी शुरुवात है-ऐसी न जाने कितनी ही घटनाऐं होने को तैयार खड़ी हैं. राष्ट्रपति इसमें कुछ न कर पायेंगे. यह एक सायकिल है-बस, इस की गति और हो रही घटनाओं की तिक्ष्णता पर इनके उचित कदमों से कुछ विराम दिया जा सकता है. विचारणीय मसला उठाया है. वैसे यह भविष्य के लिए एक सीख भी है मगर सीखता कौन है?
ReplyDeleteभारत में स्थिति चिंताजनक पर नियंत्रण में दीखती है ! ऐसा ऍफ़.एम्. का कहना है ! वास्तविकता क्या है ? यह तो समय महोदय ही बताएँगे ! शुभकामनाएं !
ReplyDeleteBahut achha kiha hai Anurag aapne, is kathin samay mein bahut dairya rakhna hoga. Ishwar Wanda Dunn ki atma ko shaanti de.
ReplyDeleteगरीब हर जगह पिसते है....
ReplyDeleteमैं समझ नहीं पा रहा हूं। यह समस्या क्षमता से अधिक कर्ज लेने की प्रवृत्ति का परिणाम है या इसमें निरीह मानव पिस रहा है?
ReplyDeleteलोग आत्महत्या पर उतारू हो रहे हैं - यह बहुत दुखद है।
यह भी दुखद है कि लोगों ने अपनी चादर के अनुसार पैर नहीं पसारे।
कितनी दुखद घटना है ये :-(
ReplyDeleteआर्थिक सँकट के तहत पीसे जा रहे कई ऐसे,
अनाम भी रहते हैँ .......
- लावण्या
तेते पांव पसारिये जेती लम्बी सोर,
ReplyDeleteभाई यहां भारतीया ओर कई अन्य लोग किराया बचाने के चक्कर मे कर्जे पर घर तो ले लेते है, लेकिन ज्यादा सोचते नही... ओर उस का अन्त .... इस गोरी के अन्त से भी बुरा होता है, इस लिये जिन्दगी एक बार मिलती है, इसे लालच मै ना लगाओ ओर जियो जीने की तरहा से,पेसो के लिये इसे बर्बाद मत करो
आपने सटीक और सामयीक पोस्ट लिखी है ! हालत कहाँ ले जायेंगे ? कोई नही जानता ! अब तो इसके रचायीता भी नही जानते ! जिन्न बोतल के बाहर है ! कब वापस बोतल में आयेगा ? भगवान् जाने ?
ReplyDelete'आमद कम और खर्चा ज्यादा' होने पर यही होता है । हम अपनी इजडों को याद रखे -
ReplyDeleteसांई इतना दीजिए, जा में कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु भूखा न जाय ।।
गांधी ने कहा था - यह धरती आवश्यकताएं तो सबकी पूरी कर सकती है लेकिन लालच एक का भी नहीं ।
और कुछ भी नहीं दरकार मुझे लेकिन
ReplyDeleteमेरी चादर मेरे पैरों के बराबर कर दे.....
कुछ इस तरह की सोच के साथ आगे बढ़ने की जरुरत है.
वो वोटर चाहे us के या इंडिया के ...
भयानक। अमेरिका का यह भयावह सच बता कर आपने आंखें खोल दीं। अपना भारत सबसे बेहतर है। कहीं भी झोपड़ी डाल कर रह तो सकते हैं।
ReplyDeleteअनुराग जी,
ReplyDeleteअपनी इस पोस्ट के अन्त में आपने जो दो पंक्तियां लिखी हैं उनका अर्थ क्या है?
इन्हें मैं पहले भी सुन/पढ चुका हूँ लेकिन अर्थ स्पष्ट नहीं है। मेरे जीव की स्वाश से लौह कैसे भस्म होता है, इसका क्या अर्थ है?
अपना जवाब आप nrohilla@gmail.com पर भी प्रेषित कर सकते हैं।
आभार,
नीरज,
ReplyDeleteविभिन्न रूपों में प्रचलित यह दोहा संत कबीर का है जिसमें लुहारों द्वारा प्रयुक्त होने वाली चमडे की धौकनी/फुकनी/bellows के लिये कहा है जिसकी सहायता से लोहे के गलनांक तक ताप बढाया जाता है।
एक चित्र यहाँ पर है