बात तब की है जब मैं दिल्ली में नौकरी करने आया था। नौकरी के साथ एक घर भी मिला था और साथ में थोड़ा-बहुत फर्नीचर भी। मगर मैट्रेस आदि तो खुद ही खरीदना था। मेरे एक सहकर्मी ने कहा कि वह मुझे अपनी कार से नज़दीक के बाज़ार ले चलेगा और हम गद्दों को कार के ऊपर बाँध कर घर ले आयेंगे। सहकर्मी का नाम जानने से कोई फायदा नहीं है। सुविधा के लिए हम उन्हें 'फितूर साहब' कह सकते हैं। फितूर साहब वैसे तो अच्छे परिवार से थे मगर कोई ज़्यादा भरोसे के आदमी नहीं थे। उनकी संगत भी ख़ास अच्छी नहीं थी। उम्र में मुझसे दसेक साल बड़े थे, लेकिन मेरे मातहत होने के नाते मेरी काफी इज्ज़त करते थे। मुझे दिल्ली के बाज़ारों की बहुत जानकारी नहीं थी, भाव-तोल करना भी नहीं आता था और ऊपर से वाहन के नाम पर सिर्फ़ एक स्कूटर था। इसलिए मैंने फितूर साहब की बात मान ली।
तय हुआ कि इस शनिवार की शाम को मैं उनके घर आकर वहाँ से उनके साथ उनकी कार में चल दूंगा। शनिवार के दिन हमारा दफ्तर आधे दिन का होता था इसलिए मुझे भी कोई मुश्किल नहीं थी। तो साहब शाम को जब मैं उनके घर पहुँचा तो उनकी पत्नी, बच्चे और माताजी से मुलाक़ात हुई मगर वे कहीं नज़र नहीं आए। जब पूछा तो उनकी माँ ने झुंझलाते हुए कहा, "बरसाती में बैठा है मंडली के साथ, देख लो जाकर।"
मैं ऊपर गया तो पाया कि दफ्तर के कई सारे उद्दंड कर्मचारी एक-एक गिलास थामे लम्बी-लम्बी फैंक रहे थे। दो बाल्टियों में बर्फ में गढ़ी हुई कुछ बोतलें थीं और कुछ बोतलें किनारे की बार में करीने से लगी हुई थीं। फितूर साहब ने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया। मेरे लिए विशेष रूप से नरम-पेय की व्यवस्था भी थी। मैंने महसूस किया कि एकाध लोगों को वहाँ पर एक नरम-पेय वाले व्यक्ति का आना अच्छा नहीं लगा। उनका अपना घर होता तो शायद दरवाजा बंद भी कर देते मगर फितूर साहब के सामने चुपचाप बैठे रहे।
मेहमानों में मेरे एक और मुरीद भी थे। अजी नाम में क्या रक्खा है? फ़िर भी आप जिद कर रहे हैं तो उन्हें 'करमा जी' कहकर पुकार लेते हैं। करमा जी के हाथ में सबसे बड़ा गिलास था और वह ऊपर तक लबालब भरा हुआ था। बाकी सारी भीड़ रह-रह कर करमा जी की "कैपसिटी" की तारीफ़ कर रही थी। मुझे इतना अंदाज़ तो हो गया था कि उन लोगों की सभा लम्बी चलने वाली थी। कोक की बोतल ख़त्म करते-करते मुझे यह भी पता लगा कि पीने के बाद वे सभी भंडारा रोड पर डिनर करने जा रहे थे।
मेरा वहाँ और अधिक रुकने का कोई कारण न था। सो अपना पेय निबटा कर मैं उठा। मेरा इरादा ताड़कर फितूर साहब उठे और जिद करने लगे कि मैं डिनर उन लोगों के साथ करुँ तभी तो मेरे सहकर्मियों से मेरी जान-पहचान हो सकेगी। मेरे न करने पर वे मेरा हाथ पकड़कर बोले, "आप चले जाओगे तो हम सब का दिल टूट जायेगा", फ़िर कान के पास फुसफुसाते हुए बोले, "बिल इस करमा जी के बच्चे से लेंगे, हमेशा आकर मुफ्त की डकारता रहता है। बहुत पैसा लगता है मेरा इसकी दारू में।" सुनकर मुझे अजीब सा लगा। पीने वालों का दिल साफ़ होने के बारे में काफी अफवाहें उड़ती रहती थीं, मगर उनसे साक्षात्कार पहली बार हो रहा था। मुझे फितूर साहब के दोमुँहेपन पर क्रोध भी आया और करमा जी से सहानुभूति भी हुई।
थोड़ी देर और पीने के बाद सब लोगों ने अपने-अपने दुपहिये उठाये और गंतव्य पर निकल पड़े। मैं अपना स्कूटर फितूर साहब के घर छोड़कर उनकी कार में गया। रेस्तराँ छोटा सा था मगर देखने से ही पता लग रहा था कि काफी महँगा होगा। इस रेस्तराँ में शराब परोसने का लाइसेंस नहीं था मगर रसूख वाली जगह और करमा जी की पहुँच के कारण इन सब के लिए उनकी पसंद के पेय लाये गए। करमा जी मेरे ठीक सामने बैठे थे। जब वे कबाब खा रहे थे तो एक साथी ने बताया कि करमा जी वैसे तो शुद्ध शाकाहारी हैं मगर शराब पीने के बाद वे कबाब को शाकाहार में ही शामिल कर लेते हैं। कबाब ज़मीन पर गिरने के बाद पहले उनके हाथ से गिलास छूटकर नीचे गिरा और फ़िर आँखें गोल-गोल घुमाते हुए वे ख़ुद ही मेज़ पर धराशायी हो गए। मैंने ज़िंदगी में पहली बार किसी को टुन्न होते हुए देखा था और यकीन मानिए मेरे लिए वह बड़ा रोमांचकारी अनुभव था।
मुझे तो कोई ख़ास भूख नहीं थी मगर बाकी सब लोगों ने छक कर खाया-पीया और बिल करमा जी के खाते में डालकर बाहर आ गए। जैसे-तैसे, गिरते-पड़ते करमा जी भी बाहर आए। सभी लोग पान खाने चले गए मगर करमा जी बड़ी कठिनाई से फितूर साहब की कार का सहारा लेकर खड़े हो गए। दो मिनट बाद जब वे गिरने को हुए तो इस गिरोह के अकेले सभ्य आदमी गंजी शक्कर ने सहारा देकर उन्हें कार में बिठा दिया। अपनी अर्ध-टुन्न भलमनसाहत में गंजी शक्कर यह नहीं देख सका कि करमा जी गिर नहीं रहे थे बल्कि शराब-कबाब आदि के कॉम्बिनेशन को उगलकर धरती माता के आँचल को अपने प्यार से सनाना चाह रहे थे। जब तक गंजी शक्कर जी समझते, दो बातें एकसाथ हो गयीं। इधर फितूर साहब पान खाकर आ गए और उधर उनकी कार में बैठे करमा जी ने पीछे की सीट पर उल्टी कर दी।
कॉमेडी को ट्रेजेडी में बदलते देर न लगी। फितूर साहब ने गालियों का शब्दकोष करमा जी पर पूरा का पूरा उड़ेल दिया। बाकी लोग भी जोश में आ गए। खाना-पीना सब हो ही चुका था। अब फुर्सत का समय था। गिरोह दो दलों में बँट चुका था। एक में मैं और गंजी शक्कर थे जो कि करमा जी की दयनीय दशा को ध्यान में रखकर उन्हें कार से घर छोड़ने के पक्ष में थे। अपने स्कूटर पर जाने की उनकी हालत न थी और इस टुन्न हालत में दिल्ली के नाकाबिले-भरोसा ऑटो-रिक्शा में अकेले भेजने का मतलब उनकी घड़ी, चेन, अंगूठी, ब्रेसलेट आदि से; शायद उनकी जान से भी, निजात पाना हो सकता था। मगर दूसरा दल उनकी जान वहीं पर, उसी वक़्त लेना चाहता था। मैं अकेला होश में था इसलिए जब मैंने फितूर साहब को कंधे पकड़कर ज़ोर से झिंझोडा तो मेरी बात उन्हें तुरंत समझ में आ गयी। चूंकि गंजी शक्कर इस दुर्घटना के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार था इसलिए पीछे की सीट पर बैठकर करमा जी को संभालने का काम उसीके हिस्से में आया।
फितूर साहब ने बड़बड़ाते हुए गाडी भंगपुरा की और दौड़ा दी। नशे में धुत तीनों लोग एक दूसरे पर वाक्-प्रहार करते जा रहे थे। तीन शराबियों को एक साथ झगड़ा करते और बीच-बीच में फलसफा झाड़ते देख-सुन कर काफी मज़ा आ रहा था। कुछ ही देर में हम भंगपुरा में थे मगर करमा जी का घर किसी ने न देखा था। हर चौराहे से पहले फितूर साहब अपनी गाड़ी रोकते और गुस्से से पूछते, "करमा जी, कित्थे जाणा है?"
पीछे की सीट से करमा जी उनींदे से अपने दोनों हाथों से हवा में तलवार सी भाँजते हुए उत्तर देते, "सज्जे-खब्बे, ... लेफ्ट-राइट-लेफ्ट।"
झख मारकर फितूर साहब किसी भी तरफ़ गाड़ी मोड़ लेते और अगले चौराहे पर फ़िर वही सवाल होता और करमा जी उसी तरह उनींदे से आभासी तलवार चलाते हुए दोहराते, "सज्जे-खब्बे, लेफ्ट-राइट-लेफ्ट।"
करीब आधे घंटे तक भंगपुरा की खाक छानने के बाद फितूर साहब ने एक वीरान सड़क पर कार रोकी और गंजी शक्कर ने दरवाजा खोलकर करमा जी को बाहर धकेल दिया। करमा जी भी रुके बिना सामने की एक अंधेरी गली में गिरते पड़ते गुम हो गए।
उस रात मैं ठीक से सो न सका। रात भर सोचता रहा कि न जाने करमा जी किस नाली में पड़े होंगे। अगले दिन जब दफ्तर पहुँचा तो पाया कि करमा जी पहले से अपनी सीट पर बैठे हुए कागजों से धींगामुश्ती कर रहे थे। कहना न होगा कि गद्दे मैंने बाद में एक दिन ख़ुद जाकर ही खरीद लिए और दूकानदार ने उसी दिन घर भी पहुँचा दिए।
तय हुआ कि इस शनिवार की शाम को मैं उनके घर आकर वहाँ से उनके साथ उनकी कार में चल दूंगा। शनिवार के दिन हमारा दफ्तर आधे दिन का होता था इसलिए मुझे भी कोई मुश्किल नहीं थी। तो साहब शाम को जब मैं उनके घर पहुँचा तो उनकी पत्नी, बच्चे और माताजी से मुलाक़ात हुई मगर वे कहीं नज़र नहीं आए। जब पूछा तो उनकी माँ ने झुंझलाते हुए कहा, "बरसाती में बैठा है मंडली के साथ, देख लो जाकर।"
मैं ऊपर गया तो पाया कि दफ्तर के कई सारे उद्दंड कर्मचारी एक-एक गिलास थामे लम्बी-लम्बी फैंक रहे थे। दो बाल्टियों में बर्फ में गढ़ी हुई कुछ बोतलें थीं और कुछ बोतलें किनारे की बार में करीने से लगी हुई थीं। फितूर साहब ने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया। मेरे लिए विशेष रूप से नरम-पेय की व्यवस्था भी थी। मैंने महसूस किया कि एकाध लोगों को वहाँ पर एक नरम-पेय वाले व्यक्ति का आना अच्छा नहीं लगा। उनका अपना घर होता तो शायद दरवाजा बंद भी कर देते मगर फितूर साहब के सामने चुपचाप बैठे रहे।
मेहमानों में मेरे एक और मुरीद भी थे। अजी नाम में क्या रक्खा है? फ़िर भी आप जिद कर रहे हैं तो उन्हें 'करमा जी' कहकर पुकार लेते हैं। करमा जी के हाथ में सबसे बड़ा गिलास था और वह ऊपर तक लबालब भरा हुआ था। बाकी सारी भीड़ रह-रह कर करमा जी की "कैपसिटी" की तारीफ़ कर रही थी। मुझे इतना अंदाज़ तो हो गया था कि उन लोगों की सभा लम्बी चलने वाली थी। कोक की बोतल ख़त्म करते-करते मुझे यह भी पता लगा कि पीने के बाद वे सभी भंडारा रोड पर डिनर करने जा रहे थे।
मेरा वहाँ और अधिक रुकने का कोई कारण न था। सो अपना पेय निबटा कर मैं उठा। मेरा इरादा ताड़कर फितूर साहब उठे और जिद करने लगे कि मैं डिनर उन लोगों के साथ करुँ तभी तो मेरे सहकर्मियों से मेरी जान-पहचान हो सकेगी। मेरे न करने पर वे मेरा हाथ पकड़कर बोले, "आप चले जाओगे तो हम सब का दिल टूट जायेगा", फ़िर कान के पास फुसफुसाते हुए बोले, "बिल इस करमा जी के बच्चे से लेंगे, हमेशा आकर मुफ्त की डकारता रहता है। बहुत पैसा लगता है मेरा इसकी दारू में।" सुनकर मुझे अजीब सा लगा। पीने वालों का दिल साफ़ होने के बारे में काफी अफवाहें उड़ती रहती थीं, मगर उनसे साक्षात्कार पहली बार हो रहा था। मुझे फितूर साहब के दोमुँहेपन पर क्रोध भी आया और करमा जी से सहानुभूति भी हुई।
थोड़ी देर और पीने के बाद सब लोगों ने अपने-अपने दुपहिये उठाये और गंतव्य पर निकल पड़े। मैं अपना स्कूटर फितूर साहब के घर छोड़कर उनकी कार में गया। रेस्तराँ छोटा सा था मगर देखने से ही पता लग रहा था कि काफी महँगा होगा। इस रेस्तराँ में शराब परोसने का लाइसेंस नहीं था मगर रसूख वाली जगह और करमा जी की पहुँच के कारण इन सब के लिए उनकी पसंद के पेय लाये गए। करमा जी मेरे ठीक सामने बैठे थे। जब वे कबाब खा रहे थे तो एक साथी ने बताया कि करमा जी वैसे तो शुद्ध शाकाहारी हैं मगर शराब पीने के बाद वे कबाब को शाकाहार में ही शामिल कर लेते हैं। कबाब ज़मीन पर गिरने के बाद पहले उनके हाथ से गिलास छूटकर नीचे गिरा और फ़िर आँखें गोल-गोल घुमाते हुए वे ख़ुद ही मेज़ पर धराशायी हो गए। मैंने ज़िंदगी में पहली बार किसी को टुन्न होते हुए देखा था और यकीन मानिए मेरे लिए वह बड़ा रोमांचकारी अनुभव था।
मुझे तो कोई ख़ास भूख नहीं थी मगर बाकी सब लोगों ने छक कर खाया-पीया और बिल करमा जी के खाते में डालकर बाहर आ गए। जैसे-तैसे, गिरते-पड़ते करमा जी भी बाहर आए। सभी लोग पान खाने चले गए मगर करमा जी बड़ी कठिनाई से फितूर साहब की कार का सहारा लेकर खड़े हो गए। दो मिनट बाद जब वे गिरने को हुए तो इस गिरोह के अकेले सभ्य आदमी गंजी शक्कर ने सहारा देकर उन्हें कार में बिठा दिया। अपनी अर्ध-टुन्न भलमनसाहत में गंजी शक्कर यह नहीं देख सका कि करमा जी गिर नहीं रहे थे बल्कि शराब-कबाब आदि के कॉम्बिनेशन को उगलकर धरती माता के आँचल को अपने प्यार से सनाना चाह रहे थे। जब तक गंजी शक्कर जी समझते, दो बातें एकसाथ हो गयीं। इधर फितूर साहब पान खाकर आ गए और उधर उनकी कार में बैठे करमा जी ने पीछे की सीट पर उल्टी कर दी।
कॉमेडी को ट्रेजेडी में बदलते देर न लगी। फितूर साहब ने गालियों का शब्दकोष करमा जी पर पूरा का पूरा उड़ेल दिया। बाकी लोग भी जोश में आ गए। खाना-पीना सब हो ही चुका था। अब फुर्सत का समय था। गिरोह दो दलों में बँट चुका था। एक में मैं और गंजी शक्कर थे जो कि करमा जी की दयनीय दशा को ध्यान में रखकर उन्हें कार से घर छोड़ने के पक्ष में थे। अपने स्कूटर पर जाने की उनकी हालत न थी और इस टुन्न हालत में दिल्ली के नाकाबिले-भरोसा ऑटो-रिक्शा में अकेले भेजने का मतलब उनकी घड़ी, चेन, अंगूठी, ब्रेसलेट आदि से; शायद उनकी जान से भी, निजात पाना हो सकता था। मगर दूसरा दल उनकी जान वहीं पर, उसी वक़्त लेना चाहता था। मैं अकेला होश में था इसलिए जब मैंने फितूर साहब को कंधे पकड़कर ज़ोर से झिंझोडा तो मेरी बात उन्हें तुरंत समझ में आ गयी। चूंकि गंजी शक्कर इस दुर्घटना के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार था इसलिए पीछे की सीट पर बैठकर करमा जी को संभालने का काम उसीके हिस्से में आया।
फितूर साहब ने बड़बड़ाते हुए गाडी भंगपुरा की और दौड़ा दी। नशे में धुत तीनों लोग एक दूसरे पर वाक्-प्रहार करते जा रहे थे। तीन शराबियों को एक साथ झगड़ा करते और बीच-बीच में फलसफा झाड़ते देख-सुन कर काफी मज़ा आ रहा था। कुछ ही देर में हम भंगपुरा में थे मगर करमा जी का घर किसी ने न देखा था। हर चौराहे से पहले फितूर साहब अपनी गाड़ी रोकते और गुस्से से पूछते, "करमा जी, कित्थे जाणा है?"
पीछे की सीट से करमा जी उनींदे से अपने दोनों हाथों से हवा में तलवार सी भाँजते हुए उत्तर देते, "सज्जे-खब्बे, ... लेफ्ट-राइट-लेफ्ट।"
झख मारकर फितूर साहब किसी भी तरफ़ गाड़ी मोड़ लेते और अगले चौराहे पर फ़िर वही सवाल होता और करमा जी उसी तरह उनींदे से आभासी तलवार चलाते हुए दोहराते, "सज्जे-खब्बे, लेफ्ट-राइट-लेफ्ट।"
करीब आधे घंटे तक भंगपुरा की खाक छानने के बाद फितूर साहब ने एक वीरान सड़क पर कार रोकी और गंजी शक्कर ने दरवाजा खोलकर करमा जी को बाहर धकेल दिया। करमा जी भी रुके बिना सामने की एक अंधेरी गली में गिरते पड़ते गुम हो गए।
उस रात मैं ठीक से सो न सका। रात भर सोचता रहा कि न जाने करमा जी किस नाली में पड़े होंगे। अगले दिन जब दफ्तर पहुँचा तो पाया कि करमा जी पहले से अपनी सीट पर बैठे हुए कागजों से धींगामुश्ती कर रहे थे। कहना न होगा कि गद्दे मैंने बाद में एक दिन ख़ुद जाकर ही खरीद लिए और दूकानदार ने उसी दिन घर भी पहुँचा दिए।
अच्छा अनुभव है।वैसे दोमुंहेपन की बात सही पकडी आपने। हर आदमी परेड के पहले भाई होता है और टून्न होने के बाद उसका असली रूप सामने आ जाता है।
ReplyDeleteWah anurag ji, maza aagaya. jitne bhi karmaji hote hain unki yahi halat hoti hai, achha hai ki aap in sab ke dost nahin bane, anyatha roz tunnn hote aur aage na jane kya hota. tunnnn hone ke baad aadmi ek nai dunia men pahunch jata hoga jahan jaan jahan ki koi fikra nahin hoti, phir ghadi, chain,anguthi ki kya chinta. achha kiya gadde khud hi khareed liye.
ReplyDeleteबड़ा कामयाब अनुभव रहा आप का। गनीमत है करमा जी आप को टूटे फूटे न मिल कर वनपीस ही मिल गए।
ReplyDeleteपीने वालों को फ़िर होश कहाँ रहता है ..अच्छा अनुभव सुनाया आपने ...
ReplyDelete"सज्जे, खब्बे, लेफ्ट राइट लेफ्ट।"
ReplyDeleteजिन्दगी में ऐसे लोगो से पाला पङता ही है ! आपने इनका चरित्र चित्रण बड़े शानदार ढंग से किया ! लेख पढ़ कर
मजा आगया ! विशेषतः ये वाक्य जबरदस्त लगा !
अपनी अर्ध-टुन्न भलमनसाहत में गंजी शक्कर यह नहीं देख सका कि करमा जी गिर नहीं रहे थे बल्कि शराब-कबाब आदि के कॉम्बिनेशन को उगलकर धरती माता के आँचल को अपने प्यार से सनाना चाह रहे थे। जब तक गंजी शक्कर जी समझते, दो बातें एकसाथ हो गयीं। इधर फितूर साहब पान खाकर आ गए और उधर उनकी पीछे की सीट पर करमा जी ने उल्टी कर दी।
बहुत शुभकामनाएं !
वाह...बड़ा रोचक किस्सा रहा ये तो...पीने वालों का ये मानना है की जब तक पी कर टल्ली न हुए या टुन्न ना हुए तो फ़िर पीने का फायदा ही क्या है...
ReplyDeleteनीरज
शराब पीने की प्रक्रिया में व्यक्ति विभिन्न पशु योनियों से गुजरता हुआ अन्तत: सूअर योनि को प्राप्त होता है।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट ने उस आधुनिक पुराण को वर्णित कर दिया।
बहुत बढिया लिखा - फितूर-कर्मा अध्याय!
अनुराग जी आपकी लेखनी से रोशनाई नहीं जादू निकलता है जो किसी भी संस्मरण को बेहद रोचक बना देता है
ReplyDeleteदारु है तो टुन्न परेड तो होगी ही, लियो तोल्स्तोय की 'Imp and the Peasant's bread' पढ़ी होगी आपने.
ReplyDeleteकरमा जी की बात सुन हमको है अफसोस
ReplyDeleteमहफिल में हम न हुए,रहे भाग्य को कोस
रहे भाग्य को कोस,पैग हम भी दो लेते
हम पृथ्वी के देव,सोमरस छककर पीते
रोचक घटना, सुन्दर वर्णन । लगा, कोई पट कथा पढ रहा हूं ।
ReplyDeleteरोचक अनुभव !
ReplyDeleteआप का लेख पढ कर मजा तो आया लेकिन हेरान भी हुआ, की सब ने इतनी पी रखी है, फ़िर भी कार ओर स्कुट्रर चला रहै है,
ReplyDeleteभगवान का शुक्र सभी सई सलामत घर पहुच गये सज्जे खव्वे कर कै.
धन्यवाद
बाप रे अनुराग जी कैसे झेला आपने यह सब ..हद है नशेडिओ की भी
ReplyDeleteachcha likh hai aapney
ReplyDeleteबहुत जीवंत वर्णन है !कुछ जगहो पर हंसी आ गयी पढते हुये!!
ReplyDelete"झख मारकर फितूर साहब किसी भी तरफ़ गाडी मोड़ लेते और अगले चौराहे पर फ़िर वही सवाल होता और करमा जी उसी तरह उनींदे से तलवार भांजते हुए दोहराते, "सज्जे-खब्बे, लेफ्ट-राइट-लेफ्ट।"
ReplyDeleteक्या कहूँ....अकेले में बैठकर इतना हँसी कि बाकि स्टाफ इधर से गुजरते हुए मुंह फाड़े अनुमान लगाने कि कोशिश कर रहे हैं कि मेरी इस हँसी की वजह क्या हो सकती है.
लाजवाब लिखा है आपने.सत्य तथ्य को व्यंग्यात्मक शैली में ढाल पढने वाले को हंसने पर मजबूर करती है आपकी यह पोस्ट.बहुत अच्छे.
करमा जी की कथा का जवाब नहीं। और साथ ही जवाब नहीं आपकी कलम का भी। इस रोचक पोस्ट के लिए बधाई।
ReplyDeleteदारू पीने वालों का रोज यही हाल होता है पर सुबह उठकर वे भोले बनकर ऐसे ही फाईलों में उलझे अपनी शालीनता परोसते हैं । मजेदार वाकये को बयां करने के लिए आभार ।
ReplyDeleteकरमा जी उन महानुभावों में से हैं जो जीवन का यह दर्शन कि " जीने के लिए को तो बहुत कुछ किया जाता है कुछ मजे से मरने के लिए भी किया जाए, वो ज्यादा भला है " का अनुसरण करते हैं. पोस्ट की शैली रोचक और गुदगुदाती है.
ReplyDeleteटुन्न रहें न आप अब, जल्द खोलिए नैन
ReplyDeleteताजा-ताजा हम पढ़ें, तभी मिलेगा चैन
तभी मिलेगा चैन,खांयगे कब तक बासी
हम संपादक बंधु,समझियो मत चपरासी
भले मानुस से अमानुष की यात्रा का वर्णन रोचक है!!
ReplyDeleteआपके कमेन्ट अक्सर पढा करता था एक दो बार ब्लॉग पर भी आया किंतु प्रौद्योगिकी एवं स्थान का नाम देख कर लौटता रहा के कुछ अंग्रेजी में कोई तकनीकी बातें हवाई ज़हाज़ बनाने बगैरा की लिखी होंगी -फिर आज हिम्मत करके आही गया /यहाँ तो कुछ और ही दिखा/0 कुछ शब्द ऐसे दिखे टुन्न वगैरा जो तकनीकी नहीं थे /एक बात जरूर कहूंगा पूरा लेख पढने के बाद कि पूरा विवरण काल्पनिक है और यह आपकी विशेषता और स्पेसीलिटी है [[वैसे ये हिन्दी और अंगेरजी की दोनों शव्द एक ही अर्थ रखते है किंतु मैंने अपनी योग्यता प्रर्दशित करने दो लिख दिया है ]]लेखन कला है कि आपने उसे रोचक और वास्तविक बना दिया है /साहित्यकार एक छोटी सी घटना को विशाल बटब्रक्ष बना देता है यही उसकी विशेषता होती है /व्यंगकार श्रीलालशुक्ल छोटी सी वास्तविकता को इस ढंग से व्यान करते है के वह चित्रण दर्शनीय हो जाता है -यही विशेषता आपके लेखन में पाई /और आपमें एक विशेषता और कि टेक्निकल लाइन और साहित्य का क्षेत्र समानांतर चल तो सकते हैं मिलते हुए कहीं न कहीं गडबड के संभावना कल्पित करते है आप तो रेल की पटरियों को मिला रहे है /अब देखते हैंकि इस पर साहित्य के गाडी चलती है या तकनीक की और उसका हश्र क्या होता है ?
ReplyDeleteआपके कमेन्ट अक्सर पढा करता था एक दो बार ब्लॉग पर भी आया किंतु प्रौद्योगिकी एवं स्थान का नाम देख कर लौटता रहा के कुछ अंग्रेजी में कोई तकनीकी बातें हवाई ज़हाज़ बनाने बगैरा की लिखी होंगी -फिर आज हिम्मत करके आही गया /यहाँ तो कुछ और ही दिखा/0 कुछ शब्द ऐसे दिखे टुन्न वगैरा जो तकनीकी नहीं थे /एक बात जरूर कहूंगा पूरा लेख पढने के बाद कि पूरा विवरण काल्पनिक है और यह आपकी विशेषता और स्पेसीलिटी है [[वैसे ये हिन्दी और अंगेरजी की दोनों शव्द एक ही अर्थ रखते है किंतु मैंने अपनी योग्यता प्रर्दशित करने दो लिख दिया है ]]लेखन कला है कि आपने उसे रोचक और वास्तविक बना दिया है /साहित्यकार एक छोटी सी घटना को विशाल बटब्रक्ष बना देता है यही उसकी विशेषता होती है /व्यंगकार श्रीलालशुक्ल छोटी सी वास्तविकता को इस ढंग से व्यान करते है के वह चित्रण दर्शनीय हो जाता है -यही विशेषता आपके लेखन में पाई /और आपमें एक विशेषता और कि टेक्निकल लाइन और साहित्य का क्षेत्र समानांतर चल तो सकते हैं मिलते हुए कहीं न कहीं गडबड के संभावना कल्पित करते है आप तो रेल की पटरियों को मिला रहे है /अब देखते हैंकि इस पर साहित्य के गाडी चलती है या तकनीक की और उसका हश्र क्या होता है ?
ReplyDeleteआपके कमेन्ट अक्सर पढा करता था एक दो बार ब्लॉग पर भी आया किंतु प्रौद्योगिकी एवं स्थान का नाम देख कर लौटता रहा के कुछ अंग्रेजी में कोई तकनीकी बातें हवाई ज़हाज़ बनाने बगैरा की लिखी होंगी -फिर आज हिम्मत करके आही गया /यहाँ तो कुछ और ही दिखा/0 कुछ शब्द ऐसे दिखे टुन्न वगैरा जो तकनीकी नहीं थे /एक बात जरूर कहूंगा पूरा लेख पढने के बाद कि पूरा विवरण काल्पनिक है और यह आपकी विशेषता और स्पेसीलिटी है [[वैसे ये हिन्दी और अंगेरजी की दोनों शव्द एक ही अर्थ रखते है किंतु मैंने अपनी योग्यता प्रर्दशित करने दो लिख दिया है ]]लेखन कला है कि आपने उसे रोचक और वास्तविक बना दिया है /साहित्यकार एक छोटी सी घटना को विशाल बटब्रक्ष बना देता है यही उसकी विशेषता होती है /व्यंगकार श्रीलालशुक्ल छोटी सी वास्तविकता को इस ढंग से व्यान करते है के वह चित्रण दर्शनीय हो जाता है -यही विशेषता आपके लेखन में पाई /और आपमें एक विशेषता और कि टेक्निकल लाइन और साहित्य का क्षेत्र समानांतर चल तो सकते हैं मिलते हुए कहीं न कहीं गडबड के संभावना कल्पित करते है आप तो रेल की पटरियों को मिला रहे है /अब देखते हैंकि इस पर साहित्य के गाडी चलती है या तकनीक की और उसका हश्र क्या होता है ?
ReplyDeleteअनुराग जी,
ReplyDeleteअभी-अभी मैंने आपकी लिखी दो कहानियाँ पढीं हैं.. ''खाली प्याला'' और ''करमा जी की टुन्न परेड''. दोनों ही बढ़िया. पर ''करमा जी की टुन्न परेड'' तो इतनी मजेदार लगी कि कितनी ही बार मैं अपनी जोर की हँसी को न रोक सकी. नशे में धुत्त करमा जी किसी तरह अपनी किस्मत से घर पहुँच गए आप और शक्कर जी कृपा से. वरना फितूर साहिब का बस चलता तो शायद वह उन्हें रेस्ट्रा में या फिर कहीं सड़क के किनारे ही लोटते हुए छोड़ आते. आपके शब्द इतने प्रभावशाली हैं कि कहानी एक चुटकुले की तरह लगती है. जब हंसने या हंसाने का mood हो तो बार-बार इसे पढूंगी. सबके मनोरंजन के लिए यह कहानी लिखने का बहुत धन्यबाद. अभी तो और भी कहानियाँ पढ़नी है आपकी.
शन्नो
अनुराग जी,
ReplyDeleteआपकी लिखी हुई इतनी मजेदार कहानी ''करमा जी की टुन्न परेड'' पढ़ी और पता नहीं कितनी बार पढ़ते हुए खूब हँसी आई. इतनी अच्छी कहानी लिखने के लिए धन्यबाद. करमा जी ने कुछ अच्छे करम किए होंगें जिसकी वजह से वह सड़क पर नहीं पड़े रहे. और आप और शक्कर जी की कृपा से कहीं ठिकाने से लग गए. वरना फितूर साहिब का बस चलता तो करमा जी शायद किसी नाली में लुढ़क गए होते. सुबह तक तो ऑफिस में जाकर वह नोर्मल इंसान में परिवर्तित हो गए होंगे और अपने पिछली रात के करम को भूल गए होंगे. जब-जब हंसने या हंसाने का मन होगा तब-तब यह कहानी याद आएगी.
शन्नो
अनुराग जी,
ReplyDeleteआपकी लिखी हुई इतनी मजेदार कहानी ''करमा जी की टुन्न परेड'' पढ़ी और पता नहीं कितनी बार पढ़ते हुए खूब हँसी आई. इतनी अच्छी कहानी लिखने के लिए धन्यबाद. करमा जी ने कुछ अच्छे करम किए होंगें जिसकी वजह से वह सड़क पर नहीं पड़े रहे. और आप और शक्कर जी की कृपा से कहीं ठिकाने से लग गए. वरना फितूर साहिब का बस चलता तो करमा जी शायद किसी नाली में लुढ़क गए होते. सुबह तक तो ऑफिस में जाकर वह नोर्मल इंसान में परिवर्तित हो गए होंगे और अपने पिछली रात के करम को भूल गए होंगे. जब-जब हंसने या हंसाने का मन होगा तब-तब यह कहानी याद आएगी.
शन्नो
अनुराग जी,
ReplyDeleteआपकी लिखी हुई इतनी मजेदार कहानी ''करमा जी की टुन्न परेड'' पढ़ी और पता नहीं कितनी बार पढ़ते हुए खूब हँसी आई. इतनी अच्छी कहानी लिखने के लिए धन्यबाद. करमा जी ने कुछ अच्छे करम किए होंगें जिसकी वजह से वह सड़क पर नहीं पड़े रहे. और आप और शक्कर जी की कृपा से कहीं ठिकाने से लग गए. वरना फितूर साहिब का बस चलता तो करमा जी शायद किसी नाली में लुढ़क गए होते. सुबह तक तो ऑफिस में जाकर वह नोर्मल इंसान में परिवर्तित हो गए होंगे और अपने पिछली रात के करम को भूल गए होंगे. जब-जब हंसने या हंसाने का मन होगा तब-तब यह कहानी याद आएगी.
शन्नो
-Good piece of information.
ReplyDeleteBharat ke log pina kam jante the us daur me ab to tarakki hai.
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