"टिकेट बुक कराया?"
"हाँ!"
"तुमने तो 8500 कहा था। अब ये 12000 कहाँ से हो गए?"
चुप्पी।
"और ये सप्ताह के बीच में, इतवार का टिकेट क्यों नहीं लिया?"
चुप्पी।
"चार दिन का नुकसान करा दिया? चार दिन की कीमत पता है तुम्हें?"
चुप्पी।
इतना ही ख्याल है तो ख़ुद क्यों नहीं कर लिया। माना मैं पूरे हफ्ते से छुट्टी पर हूँ। इसका मतलब यह तो नहीं कि एक नौकरानी की तरह इस आदमी का हर काम करती रहूँ। अपने मायके में तो मैंने कभी खाना भी नहीं बनाया। हर काम के लिए नौकर-चाकर थे। इनको तो यह भी पसंद नहीं। कितनी बार ताना देकर कहते हैं कि रिश्वत की शान-शौकत के सामने तो मैं भूखा रहना ही पसंद करूँगा। तो रहो भूखे, मुझे और मेरे बच्चे को तो हमारा पूरा हक दो। उसके बाद जो चाहे करो। मैंने क्या-क्या कहना चाहा मगर पिछले कड़वे अनुभवों के कारण मन मारकर चुप ही रही।
सोचते सोचते पता नहीं कब नींद आ गई। सुबह उठी तो सर दर्द के मारे फटा जा रहा था। आखिरी छुट्टी भी आज खत्म हो गई। पैर पटक कर दफ्तर के लिए निकलना ही पड़ा। हमेशा ऐसा ही होता है। ज़बरदस्ती कर के अपने को उठाती हूँ तब भी बस छूट जाती है। आखिरकार टैक्सी करनी पड़ी। और ये दिल्ली के टैक्सी वाले। ये तो लगता है माँ के पेट से ही गुंडे बनकर पैदा हुए थे। कोई लाज-लिहाज़ नही। अकेली औरत देखकर तो कुछ ज़्यादा ही इतराने लगते हैं।
शुरुआत तो रोचक है । आपकी पुरानी पुस्तुतियों से सहज विश्वास है कि रोचकता के शिखर अगले पडावों पर देखने/पढने को मिलेंगे ।
ReplyDeleteप्रतीक्षा है ।
aage ki kahani ka intezaar hai besabri se.
ReplyDeleteसुबह उठी तो सर दर्द के मारे फटा जा रहा था। आखिरी छुट्टी भी आज खत्म हो गई।
ReplyDelete" अच्छा लगा पढ़ कर, जाने कितने दुःख सुख रिश्तों के कडवे अनूठे अनुभव से परिचित करवाने वाली है ये कहानी, आगे का इन्तजार..."
Regards
मानवीय रिश्तो की एक सशक्त कहानी होने का आभास मिल रहा है इस शुरुआती एपिसोड में ! आपकी लेखनी की ताकत हम जानते हैं ! एक रोचक कथा का इन्तजार रहेगा !
ReplyDeleteरामराम !
कहानी तो लगता है जैसे अच्छी बनी हुई है। पर मेरे जैसा बेसर्ब आदमी इंतजार नही कर पाता है। जो मजा एक बार पढने में हैं वो अलग अलग पढने में नही आता।
ReplyDeleteसुबह उठी तो सर दर्द के मारे फटा जा रहा था। आखिरी छुट्टी भी आज खत्म हो गई। पैर पटक कर दफ्तर के लिए निकलना ही पड़ा। हमेशा ऐसा ही होता है। ज़बरदस्ती कर के अपने को उठाती हूँ तब भी बस छूट जाती है।
रोचक।
ReplyDeleteसच में उस चार दिन की कीमत वाली बात जैसे इस कहानी की आत्मा लगी मुझे .......बहुत खूब दोस्त...
ReplyDelete"क्रमशः" देखकर मुझे अच्छा नही लगा
ReplyDeleteखैर जल्दी से आगे लिखें.
achhi lagi..magar bahut jald khatam hui..agli kadi ka intzaar
ReplyDeleteसतत प्रतीक्षा रहेगी.अवस्य लिखें और पोस्ट करें.इस संक्षिप्त भाग ने उत्सुकता को बहुत तीव्र कर दिया है.तनिक और विस्तृत कलेवर में पोस्ट करने का प्रयास कीजियेगा.नहीं तो रस में पड़ा विघ्न बड़ा कष्ट देती है.
ReplyDeleteबहुत सारे द्वंद दिखने वाले हैं इस कहानी में... आने वाले भाग में ही साफ़ हो पायेंगे !
ReplyDeleteअभी अभी आग मिले भी, अनुराग हमें तो मिलने लगा है. आपको भी मिलेगा.
ReplyDeleteअति रोचक., लेकिन ये क्रमश: वाला चक्कर अच्छा नहीं लगा.
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