Wednesday, December 10, 2008

सौभाग्य - कहानी [भाग ४]

सौभाग्य की चौथी कड़ी प्रस्तुत है। पहले सोचा था कि इस कहानी की एक कड़ी प्रतिदिन लिखने का प्रयास करूंगा। उम्मीद थी कि आपको पसंद आयेगी। आपका सुझाव है कि कड़ी थोड़ी और बड़ी हो, सो हाज़िर है एक और बड़ी कड़ी। बाद की टिप्पणियों से पता लगा कि कड़ियों में देरी आखरने लगी है, सो सुबह शाम एक-एक कड़ी लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। अब तक की कथा यहाँ उपलब्ध है:
सौभाग्य - खंड १
सौभाग्य - खंड २
सौभाग्य - खंड ३


वह तो स्वभाव से ही निडर था। कभी भी किसी की परवाह नहीं करता था। मगर मुझे तो घर में सबका ही ख्याल रखना था। दीदी ने माँ-बाप की इच्छा के विरुद्ध घर त्यागकर दूसरी जाति में शादी की थी। एक साल बाद भाई ने भी घर में सबके बहुत मना करने के बाद भी लड़-झगड़ कर एक निम्न कोटि के परिवार में विवाह कर लिया। पापा ने उसी दिन उसको अपनी संपत्ति से बेदखल कर दिया और मुझसे वचन ले लिया कि मैं अपनी मर्जी से शादी नहीं करूंगी। इस बात को बहुत समय हो गया था। पापा ने दीदी और भइया को वापस स्वीकार भी कर लिया था। मुझे लगा कि सब कुछ ठीक हो गया है। ऊपर से आदित्य का प्यार। मैं तो पापा को दिए इस वचन को पूरी तरह भूल भी गयी थी।

एक दिन मैंने पापा को आदित्य के बारे में सब कुछ सच-सच बता दिया। उसी क्षण मेरी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल गयी। पापा का वह भयानक रूप मैं कभी भूल नहीं सकती। उस समय रात के ग्यारह बज रहे थे। उन्होंने उसी वक्त मुझे घर से निकल जाने को कहा। मैंने बहुत समझाने की कोशिश की मगर उन पर तो जैसे भूत सा सवार था। अब याद करके भी आश्चर्य होता है कि हमेशा अपनी शर्तों पर जीने वाले दीदी और भय्या भी इस बार पापा की ही तरफदारी कर रहे थे।

दीदी और भय्या ने अपनी बातों से मुझे बार-बार यह यकीन भी दिलाया कि अपने दोनों बड़े बच्चों द्वारा अपनी मर्जी से विवाह कर लेने की वजह से माँ-पापा पहले ही बहुत टूट चुके हैं। अगर मैं भी उनकी इच्छा का ख्याल नहीं करूंगी तो वे लोग गुस्से में न जाने क्या कर बैठें। अगर कुछ उलटा-सीधा हो गया तो घर का कोई भी सदस्य मुझे कभी माफ़ नहीं करेगा।

पापा के गुस्से के अलावा मुझे एक और बात का भी डर था। वह था हमारी जातियों का। आदित्य एक सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार से था और मुझे कॉलेज में प्रवेश भी आरक्षित कोटा में मिला था। दीदी हमेशा कहती थी, "यह पण्डे-पुजारी बड़े ही दोगले होते हैं। जिस दिन भी उसे तेरी जाति का पता लगेगा, दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देगा।” हालांकि मुझे यकीन था कि आदित्य ऐसा लड़का नहीं था मगर वक्त की धार किसने देखी है। अगर वह कभी भी दुनिया के बहकावे में आ जाता तो मैं तो कहीं की भी न रहती।

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मैंने उसे फ़ोन करके सारी बात बताई और कहा कि मैं पापा का दिल नहीं तोड़ सकती हूँ।

"तुम मुझे भूल जाओ हमेशा के लिए। समझो मैं मर गयी।”

मुझे लगा कि वह कहेगा, "तुम्हारे लिए मैं सारी उम्र कुँवारा रहूँगा।” मगर उसने ऐसा कुछ नहीं कहा।

"ऐसा कैसे हो सकता है? तुम उनकी बेटी हो प्रॉपर्टी नही। नहीं मानते तो न मानें। हम उनके बिना ही शादी करेंगे।"

"उनके बिना? अभी तो शादी हुई भी नहीं है, तुम पहले ही मुझे अपने परिवार से अलग करना चाहते हो?" मुझे उसकी बात बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी।

"नहीं, मैं उनकी और इन्सल्ट नहीं कर सकती” शायद मैं बहुत कमज़ोर थी - या शायद मैं दीदी-भैय्या की तरह स्वार्थी नहीं होना चाहती थी। कारण जो भी हो, मैं उसी समय यह समझ गयी थी कि मैं अपने परिवारजनों को नाराज़ नहीं कर पाऊँगी।

“शायद हमारा साथ बस यहाँ तक ही था। आज से हमारा रिश्ता ख़त्म।” मैंने जैसे-तैसे कहा।

मुझे लगा वह झगड़ा करेगा, मुझे बुरा भला कहेगा, वह रूठेगा, मैं मनाऊंगी। मगर उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उसने चुपचाप फ़ोन रख दिया। उस दिन के बाद मैंने जब भी उसका नम्बर मिलाने की कोशिश की उसने फ़ोन कभी उठाया ही नहीं।

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दो हफ्ते बाद हम सुनीता के घर में मिले। उसने बताया कि उसने नौसेना की नौकरी स्वीकार कर ली थी और वह उस दिन ही मुम्बई जा रहा था।

“चिट्ठी लिखोगे न?”

“नहीं।”

“क्यों?”

“इतनी तो लिखीं, कभी किसी का जवाब तक नहीं आया। और फिर अब चिट्ठी लिखने की कोई वजह भी तो नहीं बची है।”

वह सच ही तो कह रहा था। मैंने कभी भी उसके लिखे नोट का जवाब नहीं दिया था। सोचती थी कि वह कभी भी बुरा नहीं मानेगा। उस दिन मैं सारी रात रोती रही। दीदी मुझे दिलासा दिलाते हुए कहती रही, “अच्छा ही हुआ उसका यह पलायनवादी रूप शादी से पहले ही दिख गया, शादी के बाद तुझे अकेला छोड़कर चल देता तो क्या करती?”

भाभी ने भी समझाया, “सच्चा प्यार करने वाले इस तरह मझधार में छोड़कर नहीं चल देते हैं।”

किताबों में, किस्से-कहानियों में भी हमेशा जन्म-जन्मान्तर के साथ के बारे में ही पढ़ा था। मैं उसके जाने पर यकीन नहीं कर पा रही थी। मुझे उस पर अपने से भी ज्यादा विश्वास था। मुझे लगता था कि मैं चाहे कुछ भी करूँ, वह कभी भी मुझे छोड़कर नहीं जायेगा।

वह दिन और आज का दिन। वह मेरी ज़िंदगी से ऐसा गया कि बहुत कोशिश करने पर भी पता ही न चला कि कहाँ है, कैसा है और किस हाल में है। मैंने भी धीरे धीरे ज़िंदगी की सच्चाई को स्वीकार कर लिया। कभी किसी को यह अहसास नहीं होने दिया कि मेरे दिल के किसी कोने में वह आज भी रहता है, हँसता है, गुनगुनाता है, और कविता भी करता है।

[क्रमशः]

13 comments:

  1. बहुत इन्ट्रेस्टिन्ग हो चली है कहानी ! इन्तजार करते है अब आगे क्या होता है ?

    राम राम !

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  2. उफ़...फ़िर से अगली कड़ी का इन्तेजार...गज़ब का लेखन और समस्याएं...एक दम ज्वलंत...
    नीरज

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  3. kahani behad achhi hai. ahani ka pravah intzar ke samay ko kathin bana raha hai. agli kadi ke intzar me.......

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  4. बहूत खूब चाल रही है कहानी
    आगे की कहानी का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा

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  5. Bahut badia likha hai Anurag ji, par kahani padh kar mann kuch udas ho gaya, aage ki kahani ka intezaar rahega.

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  6. बेहतरीन प्रवाह है..बहाये रहो हम सबको साथ साथ. :)

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  7. अनुराग जी आप साहित्य की हर विधा में निपुण है यह सहज सिद्ध है बहुत सुंदर बधाई

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  8. रोचक हो चली है कहानी, फ्लैशबैक से वर्तमान में आने वाली है. पब्लिश होते ही पढ़नी पड़ेगी अबकी बार.

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  9. काफी रोचक हो गई है कहानी,इँतज़ार रहेगा अगली कडी का.

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  10. पात्रोँ के सँग एकात्त्मा अच्छे लेखन की पहचान है
    प्रतीक्षा है
    आगे की कडी लाइये ~`
    स स्नेह, ,
    - लावण्या

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