Tuesday, December 2, 2008
मुम्बई - आतंक के बाद
मुम्बई की घटना से हमें अपने ही अनेकों ऐसे पक्ष साफ़ दिखाई दिए जो अन्यथा दिखते हुए भी अनदेखे रह जाते हैं। हमें, प्रशासन, नेता, पत्रकार, जनता, पुलिस, एन एस जी और वहशी आतंकवादी हत्यारों के बारे में ऐसी बहुत सी बातों से दो चार होना पडा जिनके बारे में चर्चा ज़रूरी सी ही है। मैं आप सब से काफी दूर बैठा हूँ और भौतिक रूप से इस आतंक का भुक्तभोगी नहीं हूँ परन्तु समाचार और अन्य माध्यमों से जितनी जानकारी मिलती रही है उससे ऐसा लगता है जैसे मैं वहीं हूँ और यह सब मेरे चारों ओर ही घटित होता रहा है।
पहले तो देश की जनता को नमन जिसने इतना बड़ा सदमा भी बहुत बहादुरी से झेला। छोटी-छोटी असुविधाओं पर भी असंतोष से भड़क उठने वाले लोग भी गंभीरता से यह सोचने में लगे रहे कि आतंकवाद की समस्या को कैसे समूल नष्ट किया जाए। जो खतरनाक आतंकवादी ऐ टी एस के उच्चाधिकारियों से गाडी और हथियार आराम से छीनकर ले गए, उन्हीं में से एक को ज़िंदा पकड़ने में पुलिस के साथ जनता के जिन लोगों ने बहादुरी दिखाई वे तारीफ़ के काबिल हैं। इसी के साथ, नरीमन हाउस के पास आइसक्रीम बेचने वाले हनीफ ने जिस तरह पहले पुलिस और फिर कमांडोज़ को इमारत के नक्शे और आवाजाही के रास्तों से परिचित कराया उससे इस अभियान में सुरक्षा बलों का नुकसान कम से कम हुआ। बाद में भी जनता ने एकजुट होकर इस तरह की घटनाओं की पहले से जानकारी, बचाव, रोक और सामना करने की तैयारी में नेताओं और प्रशासन की घोर असफलता को कड़े स्वर में मगर सकारात्मक रूप में सामने रखकर एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
जहाँ जनता और कमांडोज़ जीते वहीं नेताओं की हार के साथ यह घटना एक और बात दिखा गयी। वह यह कि महाराष्ट्र पुलिस में ऐ टी एस जैसे संगठनों का क्या औचित्य है और उसके अधिकारी कितने सक्षम हैं। आतंकवाद निरोध के नाम पर बना यह संगठन इस घटना के होने की खुफिया जानकारी जुटाने, आतंकवादियों की संख्या और ठिकाने की जानकारी, विस्फोटकों व हथियारों की तस्करी और उनका ताज होटल आदि में जमाव पर रोक लगाने और अंततः गोलीबारी का सामना, इन सभी स्तरों पर लगातार फेल हुआ। सच है कि ऐ टी एस के उच्चाधिकारियों की जान आतंकवादियों के हाथों गयी मगर अफ़सोस कि यह जानें उनसे लड़कर नहीं गयीं। सच है कि उनकी असफलता की वजह से आतंकवादी पुलिस की गाडी से जनता पर गोलियाँ चला सके। हमें यह तय करना होगा कि हमारे सीमित संसाधन ऐसे संगठनों में न झोंके जाएँ जिनका एकमात्र उद्देश्य चहेते अफसरों को बड़े शहरों में आराम की पोस्टिंग देना हो। और यदि नेताओं को ऐसी कोई शक्ति दी भी जाती है तो ऐसे संगठनों का नाम "आतंकवाद निरोध" जैसा भारीभरकम न होकर "अधिकारी आरामगाह" जैसा हल्का-फुल्का हो।
टी-वी पत्रकारों ने जिस तरह बीसियों घंटों तक आतंक से त्रस्त रहने के बाद वापस आते मेहमानों को अपने बेतुके और संवेदनहीन सवालों से त्रस्त किया उससे यह स्पष्ट है कि पत्रकारिता के कोर्स में उनके लिए इंसानियत और कॉमन सेंस की कक्षाएं भी हों जिन्हें पास किए बिना उन्हें माइक पकड़ने का लाइसेंस न दिया जाए। जिन उर्दू अखबारों ने आतंकवादियों के निर्दोष जानें लेने से ज़्यादा तवज्जो उनकी कलाई में दिख रहे लाल बंद को दी, उनसे मेरा व्यक्तिगत अनुरोध है की अब वे अकेले ज़िंदा पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकवादी मोहम्मद अजमल मोहम्मद आमिर कसब से पूछताछ कर के अपने उस सवाल (मुसलमान हाथ में लाल धागा क्यों बांधेगा भला?) का उत्तर पूछें और हमें भी बताएं।
इस सारी घटना में सबसे ज़्यादा कलई खुली नेताओं और अभिनेताओं की। एक बड़े-बूढे अभिनेता को रिवोल्वर रखकर सोना पडा। आश्चर्य है कि वे सो ही कैसे पाये? और अगर सोये तो नींद में रिवोल्वर चलाते कैसे? शायद उनका उद्देश्य सिर्फ़ अपने ब्लॉग पर ज़्यादा टिप्पणियाँ पाना हो। भाजपा के मुख्तार अब्बास नक़वी कहते हैं कि केवल लिपस्टिक वाली महिलाएँ आक्रोश में हैं। शायद उन्हें घूंघट और हिजाब वाली वीरांगना भारतीय महिलाओं से ज़ुबान लड़ाने का मौका नहीं मिला वरना ऐसा बयान देने की हालत में ही नहीं रहे होते। महाराष्ट्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री जी की रूचि अपनी जनता की सुरक्षा से ज़्यादा अपने बेटे की अगली फ़िल्म के प्लाट में थी जभी वह ताज के मुक्त होते ही अपने बेटे और रामगोपाल वर्मा को शूटिंग साईट का वी आई पी टूर कराने निकल पड़े। ऐसा भी सुनने में आया है कि समाजवादी पार्टी के बड़बोले नेता अबू आज़मी एन एस जी की कार्रवाई के दौरान अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों पर कोई ध्यान दिए बिना अपने विदेशी धनाढ्य मित्र को निकालने के लिए सब कायदा क़ानून तोड़कर ताज में घुस गए। मगर कंम्युनिस्ट पार्टी के एक नेता ने अपनी नेताई अकड़ और बदतमीजी से इन सभी को पीछे छोड़ दिया। इस आदमी ने अपने शब्दों से एक शहीद का ऐसा अपमान किया है कि इसे आदमी कहने में भी शर्म आ रही है। मार्क्सवादी कंम्युनिस्ट पार्टी के नेता और केरल के मुख्यमंत्री वी एस अछूतानंद ने देश के नेताओं के प्रति एन एस जी के शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता के रोष पर प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए पत्रकारों से कहा, "अगर वह शहीद का घर न होता तो एक कुत्ता भी उस तरफ़ नहीं देखता।" यह बेशर्म मुख्यमंत्री ख़ुद तो इस्तीफा देने से रहा - इसे चुनाव में जनता ही लातियायेगी शायद!
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सही आकलन किया है आपने । लगा नहीं कि आप दूर बैठे हैं ।
ReplyDeleteबिलकुल खरा खरा लिखा है आपने अनुराग भाई -
ReplyDeleteइस घटना ने बहुत से उन दृश्यों को दिखाया है जिन्हें हम आम तौर पर नहीं देख पाते।
ReplyDeleteआप ने अहर्निश गहराई और तन्मयता से घटनाक्रम पर धयान दिया है. भले ही दूर हों आपने पास होने का अहसास दिलाया .आभार !
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढ कर तो नही लगता आप बाहर हैं।वैसे आप बिना लायसेंस के माईक पकड़ने की काबिलियत रखते हैं।
ReplyDeleteआपका आक्रोश हमारा आक्रोश। बाकी यह समझ नहीं आता कि यह समग्र आक्रोश कुछ पॉजिटिव प्रभाव दे पायेगा?
ReplyDeleteमुझे शंका होती है।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने इस पर .गुस्सा .आक्रोश सब तरफ़ है पर यह सही दिशा में काम करे यही दुआ है
ReplyDeleteबहुत सटीकता पूर्वक आपने आक्रोश जाहिर किया है ! मैं समझता हूँ की हमारा आक्रोश जाहिर करना भी जरुरी है क्योंकि बिना आक्रोश किए हमारे आकाओं को बात समझ में भी नही आती ! इन्होने अपने आपको भाग्य विधाता समझ लिया है भले नकवी हो या फ़िर "अ" छोड़कर अच्युता नंदन हो !
ReplyDeleteआपने सही विश्लेषण किया है अनुराग जी।
ReplyDeletepata nahin hamare desh me kab jaagriti aayegi
ReplyDeleteबहुत आक्रोश है लोगों में... ये उर्जा अगर सही तरीके से कनवर्ज हुई तो बहुत कुछ सम्भव है !
ReplyDeleteआपका आक्रोश केवल आपका नही है, आज सब गुस्से मैं भरे हैं
ReplyDeleteहम समझ ही नही पाते और दुश्मन वार पर वार करते जाते हैं
हमारी संवेदनाएं बस एयर कंडीशन कमरों तक सिमिटकर रह गयीं है
हम सब को फ़िर से याद करना होगा बिस्मिल का वो आह्वान
"वक़्त आने पर बता देंगे तुझे ऐ आसमां"
शायद ये आक्रोश कुछ कदम उठाने पर मजबूर करे सरकार को....वैसे भी विश्व में इतना सब हल्ला होने के बाद ओर पकिस्तान के खिलाफ बोलने के बाद अगर भारत सरकार कुछ कदम नही उठाएगी तो विश्व मंच पर भी ये बड़ी नाकामी होगी...
ReplyDeleteआप ने बहुत उचित लिखा, लेकिन अब तक हमारे नेताओ ने इस समाजवादी पार्टी के बड़बोले नेता अबू आज़मी के बारे पुछ ताछ क्यो नही शुरु कि?? यह क्या उन आतांकियो का ससुरा लगता था जिसे कुछ नही कहा, अब हम सब का फ़र्ज बनता है कि ऎसे नेताओ को कटघरे मै खडा करे.
ReplyDeleteधन्यवाद
Indeed a To The Point post. All those points are covered , which occillated into my mind and thousand of fellow Bharateey, here or abroad.
ReplyDeleteYour post confirms that you are not only a Smart Indian, but a TRUE INDIAN also. Long Live.
टी-वी पत्रकारों ने जिस तरह बीसियों घंटों तक आतंक से त्रस्त रहने के बाद वापस आते मेहमानों को अपने बेतुके और संवेदनहीन सवालों से त्रस्त किया उससे यह स्पष्ट है कि पत्रकारिता के कोर्स में उनके लिए इंसानियत और कॉमन सेंस की कक्षाएं भी हों जिन्हें पास किए बिना उन्हें माइक पकड़ने का लाइसेंस न दिया जाए।
ReplyDeletewah.... बेहतरीन व संवेदनशील प्रस्तुति के लिये आभार व बधाई स्वीकारें
एक सचेत नागरिक की तड़प है आपके एक-एक शब्दों में।
ReplyDeleteपता नही आपने जानबूझकर अच्युतानंद को अछूतानन्द लिखा या अनजाने में..... पर मुझे इसने बड़ा जबरदस्त अपील किया है और इसके लिए मैं आपकी आभारी रहूंगी.सचमुच ये अच्युतानंद नही " अछूतानन्द " नाम के ही काबिल हैं.
ReplyDeleteसुंदर और सराहनीय आलेख है आपका.
देश से दूर हैं तो क्या हुआ रगों में तो इसी माटी का लहू बहता है न,तो अपने देश की दुर्दशा पर यह क्यों नही खौलेगा.......