Wednesday, December 10, 2008

सौभाग्य - कहानी - अन्तिम कड़ी [भाग ५]

सौभाग्य की अन्तिम कड़ी प्रस्तुत है। अब तक की कथा यहाँ उपलब्ध है:
सौभाग्य - खंड १
सौभाग्य - खंड २
सौभाग्य - खंड ३
सौभाग्य - खंड ४


रणबीर के साथ मेरी शादी पापा के आशीर्वाद से हुई। कोई भी सहेली मेरी शादी में नहीं आयी। सबको यही लगता था कि मैंने आदित्य के साथ अन्याय किया है। किसी को भी मेरे दिल का हाल जानने की फुरसत न थी। मुझे यकीन था कि वह तो आयेगा ही। अरविन्द के द्वारा मेरी ख़बर तो उस तक पहुँचती ही होगी यह मुझे मालूम था। मगर वह भी न आया। उसकी तरफ़ से बस एक बधाई तार आया। बाद में भी उसकी कोई ख़बर न मिली। और कुछ नहीं तो आकर गुस्सा तो कर सकता था। मगर उसने गुस्सा भी नहीं किया और न ही कोई शिकवा। चुपचाप मेरी ज़िंदगी से चला गया। शादी के दो साल बाद करिश्मा पैदा हुयी। दिन, मास और फ़िर वर्ष बीतते गए। करिश्मा स्कूल भी जाने लगी।

पुराने मित्रों में सिर्फ़ अरविंद से कभी-कभार बस स्टॉप पर मुलाक़ात हो जाती थी। बाद में ऐसी ही किसी एक मुलाक़ात में अरविंद ने एक बार बताया कि आदित्य ने निशा से शादी कर ली। आदित्य और निशा - इससे ज्यादा बेमेल रिश्ता मैंने सुना न था। कहाँ आदित्य जैसा देवता आदमी और कहाँ एक नंबर की बदतमीज़ और नकचढ़ी निशा। बदतमीज़ क्यों न होती? चौधरी सुच्चा सिंह की बेटी जो ठहरी। चौधरी सुच्चा सिंह हमारी बिरादरी के सबसे नामी-गिरामी आदमी थे। बड़े-बड़े नेताओं से उठना बैठना था। वजह यह थी कि सारी बिरादरी के वोट उनके इशारे पर ही चलते थे। उनके प्रयासों से ही हम लोगों को आरक्षण मिला था। खानदानी पैसे वाले थे। सारा परिवार पढ़ा-लिखा भी था। कहते हैं कि भगवान सारे सुख किसी को भी नहीं देता है। बस उनके बच्चे ही ख़राब निकले। बड़ा बेटा गुंडागर्दी में पड़ गया। कॉलेज के दिनों में ही किसी हत्याकाण्ड में भी उसका नाम आया था। उसके दोस्तों को सज़ा भी हुई थी। मगर कहते हैं कि चौधरी ने अपने रसूख के बल पर उसको साफ़ बचा लिया था। मुक़दमे के दौरान ही उसे पढ़ने के बहाने इंग्लैंड भिजवा दिया था। अब तो वापस आने से रहा।

आदित्य के दादाजी चौधरी के परिवार के ज्योतिषी थे। चौधरी उनको बहुत मानते थे और कहते थे कि उनकी वजह से ही यह परिवार हमेशा चमका और कितना भी बुरा वक़्त आने पर भी कभी संकट में नहीं पडा। निशा का बचपन से ही आदित्य के घर आना जाना था। आदित्य को भी उसके घर में सभी पसंद करते थे। और निशा भी हमेशा से किसी फौजी अफसर से ही शादी करना चाहती थी। फ़िर भी इस शादी पर मुझे अचम्भा हुआ। निशा ने वह खजाना पा लिया था जो मेरे हाथ से फिसल चुका था। मुझे निशा से रश्क होने लगा। निशा ने ज़रूर पिछले जन्म में कोई बड़ी तपस्या की होगी। उस रात भी मुझे नींद नहीं आयी। वह रात मेरी ज़िंदगी की सबसे लम्बी रात थी।

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"आँख से यह मोती क्यों गिरा, इसके बारे में, मुझे कुछ बताना चाहती हो?” उसने बिना किसी दृढ़ता के मुझसे पूछा।

पहले भी उसकी हर बात बिना किसी दृढ़ बन्धन के होती थी। मुझे अच्छा नहीं लगता था। मैं चाहती थी कि वह मुझ पर अपना अधिकार जताए। अगर मैं उसकी बात का जवाब न दूँ तो वह जिद करके मुझसे दोबारा पूछे। अगर कभी वह मुझ पर गुस्सा भी करता तो शायद मुझे अच्छा ही लगता। मगर मेरी यह इच्छा कभी पूरी नहीं हुई। उसने कभी भी किसी बात की जिद नहीं की थी। न तो ज़िद करके अपने किसी सवाल का जवाब माँगा और न ही कभी मुझ पर गुस्सा हुआ।

तब मैंने उसके व्यक्तित्व के इस अंग को कभी नहीं सराहा। आज इतने साल बाद पहली बार मैंने उसके व्यवहार के इस बड़प्पन को समझा। पहली बार अपने आप को उसकी बराबरी का परिपक्व पाया। क्या रणबीर की तानाशाही में रहने के कारण ही मैं ऐसा समझ रही हूँ? या फिर मेरी उम्र ने मुझे विकसित किया है। जो भी हो, इतना सच है कि वह आज भी हमेशा जैसा था।

“तुम इतने दिन से मिले क्यों नहीं मुझसे? इतने साल तक मेरी कोई ख़बर नहीं ली? क्या कभी भी दिल्ली आना नहीं होता है?" लाख कोशिश करने पर भी मैं शिकवा किया बिना न रह सकी, "चिट्ठी न सही, फ़ोन तो कर सकते थे कभी?”

वह शांति से सुनता रहा।

“मेरी याद नहीं आयी कभी?” मैं बोलती रही।

“यादें कहाँ छूटती हैं? मिला नहीं तो क्या, तुम्हारी एक-एक बात आज भी याद है मुझे।”

“शादी के बाद अपनी मरजी के अलावा और भी बहुत सी बातें होती हैं जिनका ध्यान रखना पड़ता है। और क्या कहूँ, तुम तो ख़ुद ही समझदार हो” उसने सफाई सी दी।

“नहीं, मैं तो बुद्धू हूँ। और यह बात मैं साबित कर चुकी हूँ रणबीर से शादी कर के।”

“मगर तुमने तो अपनी मरजी से शादी की थी?”

“वह मेरा बचपना था। मुझे रणबीर से कभी शादी नहीं करनी चाहिए थी।”

“तो क्या ऋतिक रोशन से?” वह मुस्कुराया, “उसी की फैन थीं न तुम?”

कितने बरस बाद वह निश्छल मुस्कान देखने को मिली थी। मैं अपनी खुशी को शब्दों में बयान नहीं कर सकती।

“नहीं वह तो कुछ भी नहीं है मेरे परफेक्ट मैच के सामने।”

“परफेक्ट मैच? कौन है वह खुशनसीब, ज़रा हम भी तो सुनें? ” वह शरारत से मुस्कुराया।

“तुम, और कौन?” मैंने झूठमूठ गुस्सा दिखाते हुए कहा, “मेरे मुँह से अपनी तारीफ सुनना चाहते हो?”

“…”

“मैंने तुम्हें नहीं पहचाना। बहुत बड़ी गलती की। उसी की सज़ा आज तक भुगत रही हूँ।”

“ऐसा मत कहो प्रीति” उसकी मुस्कान एकदम से गायब हो गयी। एक गहरा विषाद सा उसके चेहरे पर उतर आया। मैंने कभी भी उसे इतना उदास नहीं देखा था। मैं तो यह जानती ही नहीं थी कि वह कभी उदास भी दिख सकता है। मुझे समझ नहीं आया कि वह मेरी बात से आहत क्यों हुआ। मैंने तो उसकी तारीफ़ ही की थी।

“निशा कितनी खुशनसीब है जो उसे तुम जैसा पति मिला” मैं अपनी ही रौ में बोली।

“प्रीति, प्लीज़ ऐसा बिल्कुल मत कहो। यह सच नहीं है” वह ऐसे बोला मानो बहुत पीड़ा में हो। मुझे समझ नहीं आया कि वह इतना असहज क्यों हो रहा था।

“काश मैं निशा की जगह होती।” मेरे मुँह से निकल ही गया, “मैं कभी अपनी किस्मत से लड़ने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकी। वरना हमारी दुनिया कुछ अलग ही होती।”

“तुम्हें लगता है कि तुम मेरे साथ खुश रहतीं?” वह एक पल को ठिठका फिर बोला, “तुम सोचती हो कि निशा मेरे साथ बहुत खुश है?”

मैं समझी नहीं वह क्या कहना चाह रहा था, वह कुछ उलझी उलझी बातें कर रहा था।

“बिल्कुल भी खुश नहीं थी वह मेरे साथ। या तो झगड़ा करती थी या दिन-रात रोती थी। मैंने एकाध बार मनो-चिकित्सक के पास जाने की बात भी उठाई तो वह और सारा चौधरी परिवार मेरे ख़िलाफ़ भड़क गया कि मैं उनकी बेटी को पागल कर देना चाहता हूँ।”

मैं उसके चेहरे की पीड़ा को स्पष्ट देख पा रही थी मगर नहीं जानती थी कि उसका क्या करूँ।

“प्रीति, यह दुनिया बहुत कठिन है। सही-ग़लत, अच्छे-बुरे को पहचानना आसान नहीं है। हमें सिर्फ़ अपने घाव दिखते हैं। सुंदर-सुंदर कपडों के नीचे दूसरे लोग कितने घाव लेकर जी रहे हैं उसका हमें कतई एहसास नहीं है। इसलिए हमें दूसरों से ईर्ष्या होती है। सच तो यह है कि अपने सारे घावों के बावजूद हम दूसरों से ज़्यादा खुशनसीब हो सकते हैं मगर हमें इस बात का ज़रा सा भी अंदाज़ नहीं होता है।”

मैं उसकी बात ध्यान से सुन रही थी।

“सुख दुःख दोनों हमारे अन्दर ही हैं।”

मुझे उसकी बात कुछ कुछ समझ आने लगी थी।

“पता है हमारी समस्या क्या है?" उसने बहुत प्यार से कहा, मानो किसी बच्चे को समझा रहा हो, “झूठी उम्मीदों में फँसकर हम सच्ची खुशियों को दरकिनार करते रहते हैं।”

“…”

“अपूर्णता जीवन की कमी नहीं बल्कि उसका असली मतलब है। जीवन एक खोज है, एक सफर है। जीवन मंजिल नहीं है, यही जीवन की सुन्दरता है। मौत सम्पूर्ण हो सकती है परन्तु जीवन अधूरा ही होता है।”

“…”

“आधा-अधूरा जो भी मिले उसे अपनाना सीखना होगा। छोटी छोटी खुशियाँ ही हमें बड़ा बनती हैं जबकि बड़ी बड़ी उम्मीदें हमें छोटा कर देती हैं।"

“…”

“याद रखना कि अगर तुम्हारी शादी रणबीर से न हुई होती तो तुम्हें करिश्मा नही मिलती। अपने सौभाग्य को पहचानो, तभी खुशी मिलेगी।”

“निशा साथ में आयी है? ” मैंने पूछा, “क्या मैं उससे मिल सकती हूँ?” सोचती थी कि शायद मैं उसे अहसास दिला पाऊँ कि वह किस हीरे की बेक़द्री कर रही है।

उसके चेहरे पर अजब सी उदास मुस्कान कौंधी और वह कुछ शब्द ढूँढता हुआ सा लगा।

“निशा ने यह शादी सिर्फ़ अपने माता-पिता से विद्रोह करने के लिए की थी। उसने कई बार पुलिस बुलाई थी मुझ पर प्रताड़ना का आरोप लगाकर। मैं दहेज़ विरोधी एक्ट में जेल भी गया। कुछ तो पुलिस-रिकार्ड की वजह से और काफी कुछ ससुर जी के प्रभाव की वजह से नौसेना ने डिसऑनरेब्ल डिस्चार्ज देकर निकालने की कोशिश की मगर बाद में आरोप साबित नहीं हो पाये और आखिरकार मुझे बहाल किया। आज उसी सिलसिले में मुख्यालय आया था।”

“हे भगवान्! कब हुआ था यह सब? ” मुझे निशा पर बेहिसाब गुस्सा आ रहा था।

“कुछ साल पहले” उसने मुस्कुराते हुए कहा मानो कुछ हुआ ही न हो, “अब तो हमारा तलाक़ हुए भी एक साल हो चुका है।”

हम सोना-रूपा के सामने खड़े थे। मेरी भूख मर चुकी थी।

[समाप्त]

19 comments:

  1. सुंदर और यथार्थ कथा है जीवन की एक सचाई को सामने उद्घाटित करती है। इस कहानी को एक लिंक में डाल दीजिए। एक बार में पढ़ने पर इस का कुछ और ही अर्थ होगा।

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  2. यथार्थ में भी कितनी कथायें इससे मिलती जुलती हैं. बहुत बेहतरीन श्रृंख्ला रही. बधाई.

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  3. अनुराग भाई, नमस्ते
    कथा वास्तविक सी लगी -
    जिसपे बीते वही जाने -
    जो शब्दोँ से
    बयाँ नहीँ होता ना !

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  4. अनुराग जी कथा बहुत अच्छी है ... यथार्थ अधिक कथा कम

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  5. पांचो कडियों को आज एक साथ ही पढा। बहुत अच्‍छी कहानी है।

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  6. कहानी में यथार्थ का चित्रण बड़ी कुशलता पूर्वक किया है आपने ! प्रीती - रणवीर ,निशा - आदित्य हमारे बीच के ही पात्र हैं और इनसे हमको रोज रूबरू होना पङता है !

    पहली कडी से इस आखिरी कडी तक आगे की जिज्ञासा बनी रही ! इस यथार्थपरक कहानी के लिए आपको बहुत धन्यवाद !

    रामराम !

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  7. बहुत से जोड़े लड़ते-झगड़ते ज़िंदगी का असली सुख ढूंढते नज़र आ जाते है शायद हमारी युवा पीढी के अक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है ये कहानी और हां महिला के मन और उस्के अंतर्द्वद का बहुत बारीक चित्रण किया है आपने।एक महिला पात्र की सजीव रचना करने की तारीफ़ जितनी की जाये कम ही होगी।

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  8. sundar abhibyakti,dwivedi ji se sahmat

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  9. sundar abhibyakti,dwivedi ji se sahmat

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  10. कमाल की कहानी थी...आप का कथा शिल्प बेमिसाल है...ये कहानी देर तक जेहन में रहेगी....
    नीरज

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  11. पढ़ते पढ़ते जाने कहाँ तक खो गया मन, कितना सजीव चित्रण है जैसे सब कुछ आँखों के सामने हो रहा है...... और क्या कहूँ"

    Regards

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  12. जीवन एक खोज है, एक सफर है। जीवन मंजिल नहीं है, यही जीवन की सुन्दरता है। मौत सम्पूर्ण हो सकती है परन्तु जीवन अधूरा ही होता है।”

    वास्तव मैं जीवन की खुशियाँ छोटी छोटी बातों मैं हि सिमटी होती हैं, जरूरत उन्हें ढूंढने की होती है

    अच्छी कहानी, अंत भी बहुत अच्छा था जैसे जीवन चलता रहता है
    शुक्रिया

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  13. ओ गॉड! मैं तो एक व्यक्ति को जानता भी हूं जो आदित्य है। एक दो बार मैने उसका ट्रेन रिजर्वेशन भी कराया है। तलाक के सम्बन्ध में यहां आता रहा है। निहायत सज्जन और सच्चरित्र!

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  14. कथा अच्छी लग रही है। इसे आवाज़ पर भी डाल दें।

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  15. "..."

    जीवन दर्शन अच्छा लगा. वैसे तो पूरी कहानी बहुत अच्छी लगी. बधाई !

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  16. लगता है यह हम सब के बीच के ही पात्र हो, बहुत सुंदर.
    धन्यवाद

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  17. ओह..आदत के मुताबिक यहां अगली कडी पढने आया था पर फ़िर याद आया कल ही आअखिरि किश्त हो गई थी ! एक बार फ़िर से पढा...अब लगता है इन सम्बन्धो की कभी आखिरी कडी होती है क्या ? अनन्त जीवन तक शायद इन सम्बन्धो की यात्रा चलती रहती है ! अतीत को भुलाना मानविय मन के लिये बडा दुरुह है !

    सारे एपिसोड एक साथ पढ कर और भी मार्मिक कहानी लगी !

    राम् राम !

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  18. saarii kadiyaan ek saath padhin aaj..antim kadi me bahut si baaten mun chhuu gayin...dhanyavaad

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  19. anurag ji behad.. khubsurat
    kitna mushkil hota hai kisi ke dard aur eahsason ko samjhna jab tak ki vo sab kucj mehsus na kiya ho. ham aksar sochte hain ki ham pe jo beet rahi hai wahi sabse buri hai. par eshwar kab kiske sath kya kare anuman lagana kathin hai.
    dhanyavaad

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