प्रतिदिन इस कहानी की एक कड़ी लिखने का प्रयास करूंगा। आशा है आपको पसंद आयेगी। आपका सुझाव है कि कड़ी थोड़ी और बड़ी हो, सो हाज़िर है एक बड़ी कड़ी। अब तक की कथा यहाँ उपलब्ध है:
सौभाग्य - खंड १
सौभाग्य - खंड 2
फोन पर उसकी आवाज़ क्या सुनी, मानो मैं किसी टाइम मशीन में चली गयी। अपने जीवन में से कितनी भूली-बिसरी पुरानी यादें जैसे अब तक जबरन बंद रखी गयी खिड़कियों से उड़कर मेरे मन-मन्दिर में मंडराने लगीं। याद आए वे दिन जब हर पल आशा से बंधा था। मुझे हर रोज़ सुबह होने का इंतज़ार रहता था - ताकि उससे मिल सकूँ। उसके संग की खुशबू को बरसों बाद फ़िर से महसूस किया तो चेहरे पर स्वतः ही मुस्कान आ गयी।
कॉलेज में वह सब का चहेता था। मैं भी किसी से कम नहीं थी। वह खिलाड़ी था तो मैं पढाकू थी। मैं बहुत हाज़िर-जवाब थी जबकि वह चुप सा था। और भी बहुत से अन्तर थे हमारे बीच में। मसलन हम लोग खाते-पीते घर से थे जबकि उसका परिवार बड़ी मुश्किल से ही निम्न-मध्य वर्ग में गिना जाने लायक था। उसके पास अपनी साइकिल भी नहीं थी जबकि मुझे कॉलेज छोड़ने ड्राइवर आता था। हालांकि, बाद में मैंने जिद करके बस से आना-जाना शुरू कर दिया था। अब सोचती हूँ तो यह सपने जैसा लगता है कि इतने भेद के बावजूद हम दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे के रंग में रंग गए। जान-पहचान कब नज़दीकी में बदली, पता ही न लगा। मेरी सहेलियाँ शाम होते ही मुझे अकेला छोड़ देती थीं ताकि मैं उसके साथ समय बिता सकूँ। सुनयना तो हमेशा ही उसका नाम मेरे साथ जोड़कर कुछ न कुछ चुहल करती रहती। कॉलेज में सबको यकीन था कि हम शादी करेंगे ही।
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हम दोनों करोल बाग में एक छोटे से होटल में बैठे थे। मैं अपने परिवार की एल्बम ले गयी थी। वह एक-एक फोटो को बड़े ध्यान से देख रहा था। टेढ़े मेढ़े फोटो को एल्बम से निकालकर फिर वापस व्यवस्था से लगा देता। पापा के फोटो को उसने बिना बताये ही पहचान लिया।
"यह तो एक प्यारी से बच्ची के पापा ही हैं? ..."
“दिल कर रहा है कि अभी चरण छूकर आशीर्वाद ले लो, है न?”
हम दोनों ही खुलकर इतना हँसे कि आसपास की टेबल पर बैठे लोग मुड़कर हमें देखने लगे।
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मुझसे विदा लेना उसे कभी अच्छा नहीं लगता था। पर उस दिन वह कुछ ज़्यादा ही भावुक हो रहा था।
"थोडी देर और रुक जाओ न" उसने विनती की।
"आखरी बस निकल गयी तो फ़िर घर कैसे जाऊंगी?"
"काश हम लोग हमेशा साथ रह पाते" उसने एक ठंडी आह भरते हुए कहा।
"भूल जाओ, पापा इस शादी के लिए कभी भी तैयार नहीं होंगे", मैंने चुटकी ली। मुझे क्या पता था कि मेरा यह मजाक ही एक दिन मेरी ज़िंदगी का सबसे कड़वा सच बन जायेगा।
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हम दोनों पार्क में बैठे थे। वह मेरे बालों से खेल रहा था। पता ही न चला कब अँधेरा हो चला था। अचानक ही मुझे पापा का रौद्र रूप याद आया। "क्या समय है?" मैंने पूछा।
"मुझे क्या पता, मैं तो घड़ी नहीं बांधता हूँ।”
"हाँ वह तो दहेज़ में मिलेगी ही" मैंने छींटा कसा।
"मेरा दहेज़ में विश्वास नहीं है" उसे मेरी बात अच्छी नहीं लगी थी।
"रहने दो, पण्डितों को तो बस लेना ही लेना आता है।"
कहने के बाद मुझे अहसास हुआ कि मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था। मैं यह सोच ही रही थी कि उसकी आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई।
"क्या चल रहा है प्रीति जी? सब ठीक तो है? करिश्मा का क्या हाल है? पढाई में तो अपनी माँ की तरह ही होशियार होगी? राइट?"
उसके मुँह से "जी" सुनकर अजीब सा लगा। शायद मुझे सहज करना चाहता था। मैंने भी संयत दिखने का पूरा प्रयास किया लेकिन अपनी सारी शक्ति लगाकर भी मैं उसके किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकी। गला और आँख दोनों ही भर आए।
उसने भी दोबारा नहीं पूछा। उसने अपनी नज़रें भी नीची कर लीं ताकि मैं चुपचाप छलक आया एक आँसू पोंछ सकूँ। मुझे अच्छा लगा। वह आज भी वैसा ही कोमल ह्रदय है। हमेशा ही दूसरों को पूरा मौका देता है सर्वश्रेष्ठ दिखने का।
मेरे उत्तर का इंतज़ार किए बिना उसने अपने आप ही कहा, "लंच टाइम हो रहा है, सोना रूपा में चलते हैं। तुम्हें पसंद भी है।”
हम दोनों जल्दी से बाहर निकले। लंच में मूड ख़राब हो जाने की वजह से मैं भूखी तो थी ही। मगर उसके साथ होने की बात ही और थी। मेरे कदम कुछ अधिक ही तेज़ चल रहे थे। आज बहुत सालों के बाद वह मेरे साथ चल रहा था। बिल्कुल वैसे ही जैसे शादी से पहले हम लोग घूमा करते थे।
[क्रमशः]
" एक एक शब्द रूमानियत के नाजुक भावों से सजा है, यूँ लगा ही नही की कहानी पढ़ रही हूँ, हर पल हर शब्द जैसे जीवित हो रहा है....."
ReplyDeleteregards
तीनोँ भाग अभी अभी पढे हैँ
ReplyDeleteबहुत सजीव लिखा है -
पूरी कथा के इँतजार मेँ ,
स स्नेह सादर
- लावण्या
आप बहुत ही बढिया लिख रहे है।अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी।धन्यवाद।
ReplyDeleteइतनी जबरदस्त रवानी है कथा में की एक साँस में पढ़ गया...अब टुकडों में पढ़ना अखरने लगा है...अगली किश्त का इन्तेजार सदियों लंबा लगता है...
ReplyDeleteनीरज
बेहद रूमानियत के पलो को याद करते हुए नायिका अपने विचारो के साथ अविकल बहे जा रही है ! शायद जिन्दगी भी विचारों की तरह बहती है ! हम भी आपकी कहानी के साथ साथ थोड़ी देर बह लेते हैं ! खत्म होते ही वापस इसी दुनिया में ! लाजवाब प्रवाह है आपकी कहानी में ! लगता है कहानी ना होकर कोई संस्मरण हो ?
ReplyDeleteराम राम !
कहानी दिलचस्प होती जा रही है
ReplyDeleteभावनाओं मैं उफ्फां आता जा रहा है, अच्छा प्रवाह रक्खा हुआ है कहानी में
इंतज़ार रहेगा
फिर से अगली कडी का इँतज़ार शुरु.
ReplyDeleteजमाये रहिये जी।
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