Thursday, February 12, 2009
खाली प्याला - समापन किस्त
यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. वह हमेशा चाय पीकर खाली प्याले मेरी मेज़ पर छोड़ देता था. आगे पढिये कि मैंने उसे कैसे झेला। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी; तीसरी कड़ी; चौथी कड़ी]
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मुझे लगता है कि ज़िंदगी से हर दाँव हारे हुए उस बेबस इंसान पर आता हुआ मेरा रहम उन खाली प्यालों पर आए हुए मेरे गुस्से से कहीं भारी था।
उस शाखा में मेरा कार्यकाल कब पूरा हो गया, पता ही न चला। मेरा तबादला महाराष्ट्र में सात पर्वतों से घिरे एक सुदूर ग्राम में हो गया था। मेरी विदाई-सभा में सारे सहकर्मियों ने मेरी प्रशंसा में कोई कसर न छोड़ी। जिन लोगों को आरम्भ में मैं फूटी आँख न सुहाता था जब उन्होंने तारीफ़ के पुल बांधे तो मेरा सीना गर्व से फूल गया। शाखा की ओर से और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत रूप से भी मुझे उपहारों से लाद दिया। सभी दिख रहे थे परन्तु नीलाम्बक्कम नदारद था। उस दिन वह छुट्टी पर था। पूछने पर अमर ने बताया कि उसका इकलौता स्वेटर उसे आगरा की ठण्ड से नहीं बचा सका। मैंने नीलाम्बक्कम की अनुपस्थिति के बारे में अधिक ध्यान नहीं दिया। शायद मेरे मन में उसके प्रति दयाभाव से ज़्यादा कुछ भी नहीं था। वैसे भी मैं अपनी नयी शाखा के बारे में बहुत उत्साहित था।
नयी जगह आकर मैं बहुत खुश था। मेरी नयी शाखा बहुत अच्छी थी। गाँव हरी-भरी पहाड़ियों से घिरी एक सुंदर घाटी में स्थित था। शाखा में कागजी काम तो कम था मगर बाहर घूम-फिरकर करने के लिए कामों की कमी नहीं थी। छोटी सी शाखा थी जिसमें मेरे अलावा केवल पाँच लोग थे। सभी बहुत खुशमिजाज़ और मित्रवत थे, विशेषकर मोहिनी जिसने अपने आप ही मुझे मराठी सिखाने की जिम्मेदारी ले ली थी।
वहाँ रहकर मैंने पहली बार भारत के ग्रामीण विकास में सरकारी बैंकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को करीब से देखा। हमारी शाखा के सहयोग से क्षेत्र के 12 गाँवों की काया पलट हुयी थी। दूध के लिए गाय-भैसें, ईंधन के लिए गोबर गैस, और सिंचाई के लिए सामूहिक जल-संरक्षण परियोजनाओं ने किसानों के जीवन-स्तर को बहुत सुधारा था। इस गाँव में ही पहली बार मैंने गरीबी-रेखा से नीचे रह रहे लोगों को भी बेधड़क बैंक आते-जाते देखा।
पूरा गाँव एक बड़े परिवार की तरह था। हम छः लोग भी इस परिवार का अभिन्न अंग थे। गाँव में किसी न किसी बहाने से आए-दिन दावतें होती रहती थीं। न जाने क्यों, गाँव की हर दावत मांसाहार पर केंद्रित होती थी। जब मोहिनी को मेरी खानपान की सीमाओं का पता लगा तो उसने मुझे इन दावतों से बचाने की जिम्मेदारी भी ले ली। वह मुझे अपने घर ले जाती और कुछ नया पकाकर खिलाती थी। मुझे यह मानना पड़ेगा कि उस गाँव के लोग बहुत ही सहिष्णु और उदार थे। खासकर मोहिनी मेरे प्रति बहुत ही सहनशील थी।
गाँव में रहते हुए भी अमर के साथ मेरा पत्र-व्यवहार जारी रहा। एक दिन शाखा में उसका ट्रंक-कॉल आया। पता लगा कि आगरा में काम करते हुए जब एक दिन मैंने अपने खाते से पैसे निकाले तो मेरा चेक गलती से किसी ग्राहक के खाते में घटा दिया गया था। बाद में जब विदाई पर मैंने अपना खाता बंद करके बचा हुआ पैसा निकाला तो बैलेंस शून्य होने के बजाय असलियत में ऋण में बदल गया था। जब उस ग्राहक ने अपने खाते में पैसा कम पाया तो गलती का पता लगा।
मैं चिंतित हुआ। इतने दिनों के प्रशिक्षण में मैं यह जान चुका था कि किसी कर्मचारी के बचत खाते में किसी भी कारण से उधार हो जाना एक बहुत ही गंभीर त्रुटि थी जिसकी सज़ा निलंबन तक हो सकती थी। लेकिन साथ ही मुझे आगरा शाखा में अपनी लोकप्रियता का ध्यान आया। शाखा से मेरी विदाई के भाषणों में कहे गये शब्द भी कान में मधुर संगीत की भांति झंकृत हुए। मेरी आंखों के सामने ऐसा चित्र साकार हुआ जिसमें कई सहकर्मी मेरे खाते में पैसा डालने के लिए एक-दूसरे से मुकाबला कर रहे थे। मैं यह जानने को उत्सुक था कि अंततः मेरे मित्रों में से कौन सफल हुआ। आख़िर मेरा मधुर व्यवहार और मेरी लोकप्रियता बेकार थोड़े ही जाने वाली थी।
"कोई आगे नहीं आया ..." अमर ने कहा, "... कुछ लोग तो मामले को तुंरत ही ऊपर रिपोर्ट कराना चाहते थे।"
"यह कल के लड़के समझते क्या हैं अपने को?"
"अफसर बन गए तौ बैंक खरीद ली क्या इन्ने?"
"क़ानून सबके लिए बराबर है। रिपोर्ट करो।"
अमर ने बताया कि उपरोक्त जुमले मेरे कई "नज़दीकी" मित्रों ने उछाले थे। उसकी बातें सुनकर मैं सन्न रह गया। हे भगवान्! कितने झूठे थे वे पढ़े-लिखे, सुसंस्कृत लोग। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि दोस्ती का दम भरने वाले वे लोग मेरी अनुपस्थिति में ऐसा व्यवहार करेंगे। मैं अपने भविष्य को दांव पर लगा देख पा रहा था। एक छोटी सी भूल मेरा आगे का करियर चौपट कर सकती थी।
"फ़िर क्या हुआ? क्या उन्होंने ऊपर रिपोर्ट किया? मेरे सामने क्या रास्ता है अब?" मुझे पता था कि अमर के खाते में कभी भी इतना पैसा नहीं होता था कि वह इस मामले में मेरी सहायता कर सका हो।
"जल्दी बताओ, मैं क्या करूँ?" मैंने उद्विग्न होकर पूछा।
"बेफिक्र रहो ..." अमर ने मुझे दिलासा देकर कहा, "नीलाम्बक्कम ने ज़रूरी रक़म अपने खाते से चुपचाप तुम्हारे खाते में ट्रांसफर कर दी।"
अमर ने बताया कि नीलाम्बक्कम तो यह भी चाहता था कि मुझे इस बात का पता ही न लगे लेकिन अमर ने सोचा कि मुझे बताना चाहिए।
"इस दुनिया में अच्छे लोगों के साथ कभी भी बुरा नहीं होना चाहिए" अमर ने मेरे बारे में नीलाम्बक्कम के शब्द दोहराए तो कृतज्ञता से मेरा दिल भर आया।
मैंने रात भर सोचकर नीलाम्बक्कम को एक सुंदर सा "धन्यवाद" पत्र लिखा और पैसों के साथ भेज दिया। नीलाम्बक्कम की और से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। मुझे पता भी नहीं कि आज वह कहाँ है मगर मेरी शुभकामनाएँ हमेशा उसके और अशोक के साथ हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर ने उनके सब सपने ज़रूर साकार किए होंगे। सच्चाई के प्रति मेरे विश्वास को आज भी बनाए रखने में नीलाम्बक्कम जैसे लोगों का बहुत योगदान है।
[समाप्त]
Wednesday, February 11, 2009
खाली प्याला - चौथी कड़ी
यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके. उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला. आगे पढिये कि नीलाम्बक्कम कौन था। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी; तीसरी कड़ी]
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एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके। उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला। उनके मुर्दार चेहरे पर मैंने पहली बार मुस्कान देखी। मेरे नमस्कार के उत्तर में उन्होंने उत्साह से उछालते हुए कार्ड मेरी और बढ़ाया और फिर शब्दों को सहेजते हुए टूटी-फूटी हिन्दी में जो कहा उससे मुझे समझ आया कि उनका बेटा हाई स्कूल पास हो गया था। मैंने उनके हाथ से कार्ड लिया, पढा और वापस करते हुए खुश होकर उन्हें बधाई भी दी। कुछ देर तक वे भाव-विह्वल होकर अपने बेटे अशोक के बारे में बताते रहे। जितना कुछ मैं समझ सका उससे पता लगा कि अपनी इस होनहार इकलौती संतान को उन्होंने बड़े जतन से पाला है। उसकी माँ तो जन्म देते ही चल बसी थी। तब से नीलाम्बक्कम अशोक का माँ-बाप दोनों ही बन गया। अशोक बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता था। उसके परीक्षा-परिणाम से यह स्प्पष्ट था कि उसके लिए यह काम ज़्यादा कठिन नहीं होगा। इस छोटी सी मुलाक़ात के बाद नीलाम्बक्कम जी अपना पोस्टकार्ड और अशोक की यादें साथ लेकर वापस अपनी सीट पर चले गए मगर जोश में चाय पीकर छूटा हुआ खाली प्याला मेरी मेज़ पर छोड़ गए।
इसके बाद तो वे रोजाना ही मेरी मेज़ पर आ जाते थे और कुछ देर बात करके ही जाते थे। शायद तब तक उन्हें भी यह अहसास हो गया था कि मैं वह बादल था जो सिर्फ़ छाया देना जानता था, गरजना नहीं। कभी कभार वे काम से सम्बंधित बातें भी करते थे मगर उनकी अधिकांश बातें उनकी दिवंगत पत्नी या उनके पुत्र के चारों और ही घूमती थीं। मैं दावे से कह सकता हूँ कि एक हफ्ते के अन्दर मैंने नीलाम्बक्कम के बारे में जितना जाना था उतना उस शाखा के अन्य कर्मी उनके साथ महीनों रहकर भी नहीं जान सके होंगे। इतना स्पष्ट था कि उस व्यक्ति का भूत उसकी मृत पत्नी थी और उसका भविष्य मीलों दूर बैठा उसका प्रिय बेटा। ऐसा लगता था जैसे उसके जीवन की एकमात्र प्रेरणा उसका बेटा ही था। उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अशोक को जीवन की सारी खुशियाँ देना ही रह गया था। कभी-कभी यह सोचकर दुःख भी होता था कि बेचारा बूढ़ा अपने अकेले प्रियजन से इतनी दूर इन बेरहम और स्वार्थी अजनबियों के बीच क्या पाने के लिए पड़ा हुआ है।
समय बीतने के साथ उनके मुझसे बात करने की आवृत्ति बढ़ती गयी। और उसके साथ ही बढ़ती गयी, मेरी मेज़ पर छोड़े गए उनके जूठे खाली प्यालों की संख्या। मैं बचपन से ही अपने संयम और शांत स्वभाव के लिए ख्यात हूँ। सब जानते हैं कि जिन परिस्थितियों में सामान्यजन क्रोध से पागल हो जाते हैं, मैं उनमें भी प्राकृतिक रूप से सहज रहता हूँ। मेरी इस प्रकृति का एक धुर-विरोधी पक्ष भी है जो सिर्फ़ मैं बेहतर जानता हूँ। वह यह कि मैं बड़ी-बड़ी चुनौतियाँ भले ही बड़ी आसानी से नज़रंदाज़ कर सकता होऊँ, छोटी-छोटी बदतमीजियाँ भी अगर लगातार होती रहें तो मुझे बहुत गुस्सा दिलाती हैं। एक बेशऊर व्यक्ति द्वारा बार-बार मेरी मेज़ पर जूठे प्याले छोड़ जाना भी ऐसी ही छोटी सी बदतमीजी थी जिसे कोई भी अन्य व्यक्ति शायद आसानी से नज़रंदाज़ कर देता। मगर मैं तो मैं ही हूँ - क्या करूँ?
मेरे मित्र कहते हैं कि मेरा चेहरा तो शीशे की तरह साफ़ है जिसके भाव कोई अंधा भी पढ़ सकता है। मगर नीलाम्बक्कम शायद भाव पढने की कला का इकलौता अपवाद था। उसका छोड़ा हुआ हर जूठा प्याला मेरे रक्तचाप को और अधिक बढ़ाता जाता था। कभी-कभी मेरा मन करता था कि उसे सामने बिठाकर पूरी विनम्रता से यह समझाऊँ कि उसके हर जूठे कप की जिम्मेदारी भी उसकी ही है, मेरी नहीं। अगर वह उसे काउंटर पर नहीं रख सकता है तो कहीं और रखे, या फिर चाय पीये ही नहीं। जब मैं अच्छे मूड में नहीं होता था तब तो दिल करता था कि उस खाली प्याले को घुमाकर उसीके सर पर दे मारूँ। मैं किसी को आसानी से बख्शता नहीं हूँ लेकिन न जाने क्यों यह दोनों विकल्प मेरे मन में ही रखे रह गए। न मैंने कभी उसे प्याला मारा और न ही उसकी इस परेशान करने वाली आदत का ज़िक्र उससे किया। मुझे लगता है कि ज़िंदगी से हर दाँव हारे हुए उस बेबस इंसान पर आता हुआ मेरा रहम उन खाली प्यालों के कारण आने वाले गुस्से से कहीं भारी था।
[क्रमशः]
Tuesday, February 10, 2009
खाली प्याला - भाग ३
यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. आगे पढिये कि नीलाम्बक्कम कौन था। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी]
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झंडूखेड़ा-प्रवास नीलाम्बक्कम के जीवन का सबसे कठिन तप सिद्ध हुआ। वह लखनऊ की उर्दू भी नहीं समझ सकता था, झंडूखेड़ा की ब्रजभाषा का तो कहना ही क्या। उसे शहर के मामूली जेबकतरे का सामना करना भी नहीं आता था, तो फ़िर आगरा देहात के लठैतों को कैसे झेलता? झंडूखेडा में उसे उत्तर-प्रदेश के गाँव के क़ानून-व्यवस्था एवं मूलभूत सुविधाओं से रहित कठिन जीवन का अनुभव पहली बार हुआ था। उस अकेले विधुर के लिए उम्र के इस पड़ाव पर ऐसी असुविधाओं का पहली बार सामना करना आसान नहीं था। ऊपर से उसे यह भी पता नहीं था कि व्यवहार कुशलता किस चिडिया का नाम है। वह लेन-देन, बख्शीश-व्यवहार के मामले में भी बिल्कुल कोरा था।
न वह प्रबंधन में निपुण था, और न ही उसे ग्रामीण बैंकिंग से जुडी राजनीति ही आती थी। गाँव वालों और बैंक-कर्मी, दोनों का ही उस पर दवाब था। साथ ही खंड विकास अधिकारी को भी उसके आने से काफी असुविधा होने लगी थी। नतीजा, महीने भर में ही उसका जीवन नरक हो गया। हालत यह हो गयी कि बैंक के आगरा क्षेत्रीय कार्यालय के बड़े अधिकारियों के घर आकर घंटों रोना उसके सप्ताहांत का आवश्यक नियम बन गया। जब उसने वापस क्लर्क बनने की संभावनाएं तलाशीं तो कहा गया कि पदावनति तो हो जायेगी मगर दो साल तो उसे उत्तर भारत में ही पूरे करने पड़ेंगे। उसी समय किसी सहृदयी ने आगरा छावनी शाखा में बहुत दिनों से खाली पड़े एक पद को ढूंढ निकाला और नीलाम्बक्कम जी यहाँ आकर सुशोभित हो गए। इस शाखा में भी उसके प्रति व्यवहार में कोई ख़ास बदलाव नहीं था। कोई भी उसे इज्ज़त से नहीं देखता था। वह फ़िर भी खुश था क्योंकि यहाँ कम से कम उसकी जान तो खतरे में नहीं थी।
उसकी अल्प-शिक्षा का भी मज़ाक उड़ता था और उसके रंग-रूप का भी, कभी-कभार उसकी अंग्रेजी का भी। मगर सबसे ज़्यादा मज़ाक उड़ता था उसकी वेश-भूषा का। उसे शायद कभी यह पता नहीं चला कि उसकी हवाई चप्पल, ढीली-ढाली कमीज़ और लिफाफे जैसी पतलून उसके सबसे बड़े दुश्मन थे। अमर के अलावा कोई भी उससे बात नहीं करता था। दोपहर का खाना भी वह अकेला अपनी सीट पर बैठकर खाता था। और तो और, प्रबंधक को भी जब उसके विभाग में कोई काम होता था तो वह नीलाम्बक्कम को दरकिनार कर अमर को ही बताता था।
मैंने नीलाम्बक्कम को कभी इस व्यवहार का बुरा मानते या शिकायत करते नहीं देखा। करता भी किससे? इस शाखा में तो शायद उसका दुखड़ा सुनने वाला कोई था भी नहीं। शायद इस भेदभाव को उसने झंडूखेडा से अपने बचाव का भुगतान समझकर आत्मसात कर लिया था।
समय बीतता गया। देखते-देखते मेरे आगरा-प्रवास का एक महीना पूरा हो गया। इस बीच में वहाँ मेरे लिए काफी परिवर्तन हुए। अमर के अतिरिक्त भी बहुत से सहकर्मी मेरे मित्र बने। खान को मेरी उर्दू पसंद आयी तो मिश्रा जी को मेरा निर्व्यसन होना। बाकी लोगों को भी मुझमें कोई अनुकरणीय सूत्र मिल ही गया था। जिन्हें नहीं भी मिला उन्हें भी इतने दिनों में इतना विश्वास तो हो ही गया था कि मैं उनको कोई हानि नहीं पहुँचाने वाला हूँ। खाली समय में वे लोग अक्सर मुझे घेरकर खड़े हो जाते थे और काम से सम्बंधित या व्यक्तिगत बातें करते थे। कोई मुझे अपनी मजदूर युनियन में लेना चाहता था तो कोई अपनी दूर की भतीजी का रिश्ता चाहता था। अपने स्थानीय होने के दम पर वे मेरी हर तरह से सहायता करने में भी एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते दिखाई देते थे।
एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके। उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला। उनके मुर्दार चेहरे पर मैंने पहली बार मुस्कान देखी।
[क्रमशः]
Friday, February 6, 2009
खाली प्याला - भाग २
यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे सहकर्मी मेरे आने से खुश नहीं थे। आगे पढिये कि वहाँ एक अपवाद भी था - अमर सहाय सब्भरवाल।
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उस पूरी शाखा में अगर कोई एक व्यक्ति मेरे साथ बात करता था तो वह था अमर सहाय सब्भरवाल। अमर एक पतला दुबला खुशमिजाज लड़का था जोकि अपने ऊपर भी व्यंग्य कर सकता था। एक दिन उसने अंग्रेजी में अपने नाम का संक्षिप्तीकरण किया तो हम दोनों खूब हँसे। अपने उत्सुक व्यक्तित्व के अनुरूप ही मैं अपने आस-पास के माहौल को अच्छी तरह से जानना-परखना चाहता था। अमर की सांगत से यह काम सरल हो गया था। हम दोनों एक साथ भोजन करते थे। चूंकि मुझे टाइप करना नहीं आता था, अमर मुझे अपनी प्रगति-रिपोर्ट टाइप करने में सहायता करने लगा।
बचत खाते के काउंटर के ठीक पीछे मुझे कागज़-पत्र और खातों से भरी हुई एक बड़ी सी मेज़ दे दी गयी। कम्प्यूटर तो उस ज़माने में प्रचलित नहीं थे - कम से कम भारतीय बैंकिंग व्यवसाय में तो उनकी घुसपैठ नहीं हो पायी थी। सारे लेखे-जोखे बड़े-बड़े बही खातों में लिखे जाते थे। इन खातों में लकडी के मुखपृष्ठ होते थे और अन्दर के लेखा पृष्ठों को एक चाभी द्वारा सुरक्षित कर देने की व्यवस्था थी।
अमर मेरे सामने ही बचत बैंक काउंटर पर बैठता था। उसके साथ में दो अन्य लिपिक भी थे। इन तीनों के पीछे एक वयस्थ व्यक्ति भी बैठता था। बाद में पता लगा कि उस व्यक्ति का नाम नीलाम्बक्कम था और वह अमर का अधिकारी था, कभी-कभार मैं सोचता था कि नौजवानों से घिरी उस शाखा में सेवानिवृत्ति की आयु वाला वह व्यक्ति क्या कर रहा है।
हमेशा की तरह इस बार भी अमर ने मेरी उत्सुकता को शांत किया। उसीसे पता लगा कि नीलाम्बक्कम दरअसल उतना वृद्ध नहीं है जितना दिखता है। अमर ने बताया कि नीलाम्बक्कम तमिलनाडु के एक गाँव से था। वह एक विधुर था और इस शाखा के अन्य कर्मियों जैसा उच्च शिक्षित भी नहीं था। वह लिपिक भारती हुआ था और बहुत इच्छा के बावजूद कभी प्रोन्नति-परीक्षा पास नहीं कर सका था। मगर देखिये किस्मत भी कैसे-कैसे रंग दिखाती है। बिल्ली के भाग्य से छींका फूटा और बैंक ने अपनी प्लेटिनम जुबली के उपलक्ष्य में अपने उन कर्मचारियों को प्रोन्नति देकर पुरस्कृत करने का निर्णय किया जिन्होंने तीस वर्षों तक इसी बैंक में निष्कलंक सेवा की हो और वे अधिकारी बनकर अपने प्रदेश से बाहर जाने को तैयार हों।
अंधा क्या चाहे, दो आँखें। नीलाम्बक्कम जी ने फ़टाफ़ट इस अवसर का लाभ उठाया और अधिकारी बनकर आगरा के पास के एक डकैतियों के लिए बदनाम गाँव झंडूखेड़ा में विराजमान हो गए। अपने जीवन के सबसे बड़े सपने को सार्थक करने के लिए उन्हें अपने इकलौते बेटे को तमिलनाडु में ही एक हॉस्टल में छोड़ना पडा। झंडूखेड़ा आने तक उन्हें हिन्दी का एक अक्षर भी लिखना, पढ़ना या बोलना नहीं आता था। दुर्भाग्य से झंडूखेड़ा के ग्रामीणों को उनकी तमिलीकृत अंग्रेजी का एक शब्द भी समझ नहीं आता था। इतनी बात सुनाकर अमर ने अपने स्वभाव के अनुसार मज़ाक करते हुए कहा कि नीलाम्बक्कम की अंग्रेजी समझने के लिए उसे एक साल तक तमिल सीखनी पडी थी।
[क्रमशः]
Thursday, February 5, 2009
खाली प्याला - कहानी
बैंक हमारी शिक्षा पर काफी संसाधन झोंकता था। मुख्यालय में मानव संसाधन विभाग के अंतर्गत एक खंड सिर्फ़ हमारे विकास और निगरानी के लिए रहता था। शाखाओं को अपने काम के लिए हमारा दुरुपयोग न करने के स्पष्ट निर्देश थे। हमारे कामों की सूची शाखा में हमारे पहुँचने से पहले ही पहुँच जाती थी। हर महीने प्रगति रिपोर्ट भी बनती थी। मगर फिर भी कुछ घिसे हुए प्रबंधक निर्देशों व प्रणाली के बीच में गहरे गोता लगाकर कोई न कोई ऐसा छिद्र ज़रूर निकाल लाते थे कि हममें से कई लोगों का सारा दिन उनका काम करते ही बीत जाता था। शाखा प्रबंधक जितना निकम्मा और गैर-जिम्मेदार होता था, हमें उतना ही ज़्यादा काम मिलता था क्योंकि उस शाखा में एक हम ही होते थे जो ऐसे प्रबंधक की सुनते थे। अब आपने इतनी देर तक मेरी बात ध्यान से सुनी है तो मेरा भी फ़र्ज़ बनता है कि मैं विषय से न भटकूँ और मुख्य मुद्दे पर वापस आ जाऊं।
यह बैंक दक्षिण भारतीय था इसलिए इसे उत्तर में पैर ज़माना उतना आसान नहीं था। (ज्ञान दत्त जी की भाषा में कहूं तो - हमारे बैंक के पास इनिशिअल एडवांटैज नहीं था।) उत्तर में हमारी शाखाएँ भी कम थीं और उनमें भी करोड़ों का व्यापार करने बड़ी शाखाएँ तो नाम-मात्र की ही थीं। हमारे बैंक की आगरा शाखा उत्तर भारत की प्रमुख शाखाओं में से एक थी। पर्यटन, निर्यात आदि का काम तो था ही, सैनिक छावनी होने के कारण सेना का भी काफी बड़ा कारोबार हमारे साथ ही होता था। इसके अलावा हम उस इलाके के ग्रामीण बैंकों के प्रायोजक भी थे।
हमारे बैंक में बहुत से अधिकारियों को अच्छी हिन्दी बोलनी नहीं आती थी। कई लोगों को भारत में रहते हुए भी भारत की सांस्कृतिक विविधता का अहसास भी कम था। सुदूर दक्षिण से आए अधिकाँश उच्चाधिकारियों को उत्तर के क्षेत्रों का इतिहास-भूगोल कुछ भी पता न था। इन सब कमियों की भरपाई करने के लिए बैंक अक्सर यह बात ध्यान में रखता था कि अपने सबसे चटक अधिकारियों को ही उत्तर में भेजता था - खासकर बड़ी शाखाओं में। यह लोग खासे पढ़े-लिखे और मेहनती तो थे ही, युवा, तेज़-तर्रार और महत्त्वाकांक्षी भी थे। आगरा में भी मेरे सारे सहकर्मी ऐसे ही थे। उपरोक्त बातों के अतिरिक्त इनमें एक और समानता भी थी - इनमें से किसी को भी मेरा वहाँ रहना पसंद न था। पता नहीं उन्हें मेरा कमउम्र होना नापसंद था या मेरा सीधे अधिकारी बन जाना परन्तु इतना ज़रूर था कि अगर उनका बस चलता तो वे पहले दिन ही मुझे खिड़की से उठाकर बाहर फेंक देते...
[क्रमशः]
नोट:अभी तक मैंने बहुत सी कहानियाँ लिखी हैं. कुछ प्रकाशित भी हुई हैं मगर ज़्यादातर इस वजह से मेरी डायरी में ही सिमटी रहीं क्योंकि मुझे हिन्दी टाइप करना नहीं आता था. इसी कारण से प्रस्तुत कहानी मुझे अंग्रेजी में लिखनी पड़ी थी. अब यूनिकोड के आने से वह समस्या भी हल हो गयी है. आपने पहले भी कहानियों को पसंद किया है. उसी से प्रोत्साहित होकर मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में यह कथा सामने रख रहा हूँ. कुछ अन्य कहानियाँ और संस्मरण नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करके पढ़े जा सकते हैं: | |
जावेद मामू वह कौन था सौभाग्य सब कुछ ढह गया करमा जी की टुन्न-परेड गरजपाल की चिट्ठी लागले बोलबेन तरह तरह के बिच्छू ह्त्या की राजनीति | मेरी खिड़की से इस्पात नगरी हिंदुत्वा एजेंडा केरल, नारी मुक्ति और नेताजी दूर के इतिहासकार सबसे तेज़ मिर्च - भूत जोलोकिया हमारे भारत में मैं एक भारतीय नसीब अपना अपना संस्कृति के रखवाले |