यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. आगे पढिये कि नीलाम्बक्कम कौन था। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी]
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झंडूखेड़ा-प्रवास नीलाम्बक्कम के जीवन का सबसे कठिन तप सिद्ध हुआ। वह लखनऊ की उर्दू भी नहीं समझ सकता था, झंडूखेड़ा की ब्रजभाषा का तो कहना ही क्या। उसे शहर के मामूली जेबकतरे का सामना करना भी नहीं आता था, तो फ़िर आगरा देहात के लठैतों को कैसे झेलता? झंडूखेडा में उसे उत्तर-प्रदेश के गाँव के क़ानून-व्यवस्था एवं मूलभूत सुविधाओं से रहित कठिन जीवन का अनुभव पहली बार हुआ था। उस अकेले विधुर के लिए उम्र के इस पड़ाव पर ऐसी असुविधाओं का पहली बार सामना करना आसान नहीं था। ऊपर से उसे यह भी पता नहीं था कि व्यवहार कुशलता किस चिडिया का नाम है। वह लेन-देन, बख्शीश-व्यवहार के मामले में भी बिल्कुल कोरा था।
न वह प्रबंधन में निपुण था, और न ही उसे ग्रामीण बैंकिंग से जुडी राजनीति ही आती थी। गाँव वालों और बैंक-कर्मी, दोनों का ही उस पर दवाब था। साथ ही खंड विकास अधिकारी को भी उसके आने से काफी असुविधा होने लगी थी। नतीजा, महीने भर में ही उसका जीवन नरक हो गया। हालत यह हो गयी कि बैंक के आगरा क्षेत्रीय कार्यालय के बड़े अधिकारियों के घर आकर घंटों रोना उसके सप्ताहांत का आवश्यक नियम बन गया। जब उसने वापस क्लर्क बनने की संभावनाएं तलाशीं तो कहा गया कि पदावनति तो हो जायेगी मगर दो साल तो उसे उत्तर भारत में ही पूरे करने पड़ेंगे। उसी समय किसी सहृदयी ने आगरा छावनी शाखा में बहुत दिनों से खाली पड़े एक पद को ढूंढ निकाला और नीलाम्बक्कम जी यहाँ आकर सुशोभित हो गए। इस शाखा में भी उसके प्रति व्यवहार में कोई ख़ास बदलाव नहीं था। कोई भी उसे इज्ज़त से नहीं देखता था। वह फ़िर भी खुश था क्योंकि यहाँ कम से कम उसकी जान तो खतरे में नहीं थी।
उसकी अल्प-शिक्षा का भी मज़ाक उड़ता था और उसके रंग-रूप का भी, कभी-कभार उसकी अंग्रेजी का भी। मगर सबसे ज़्यादा मज़ाक उड़ता था उसकी वेश-भूषा का। उसे शायद कभी यह पता नहीं चला कि उसकी हवाई चप्पल, ढीली-ढाली कमीज़ और लिफाफे जैसी पतलून उसके सबसे बड़े दुश्मन थे। अमर के अलावा कोई भी उससे बात नहीं करता था। दोपहर का खाना भी वह अकेला अपनी सीट पर बैठकर खाता था। और तो और, प्रबंधक को भी जब उसके विभाग में कोई काम होता था तो वह नीलाम्बक्कम को दरकिनार कर अमर को ही बताता था।
मैंने नीलाम्बक्कम को कभी इस व्यवहार का बुरा मानते या शिकायत करते नहीं देखा। करता भी किससे? इस शाखा में तो शायद उसका दुखड़ा सुनने वाला कोई था भी नहीं। शायद इस भेदभाव को उसने झंडूखेडा से अपने बचाव का भुगतान समझकर आत्मसात कर लिया था।
समय बीतता गया। देखते-देखते मेरे आगरा-प्रवास का एक महीना पूरा हो गया। इस बीच में वहाँ मेरे लिए काफी परिवर्तन हुए। अमर के अतिरिक्त भी बहुत से सहकर्मी मेरे मित्र बने। खान को मेरी उर्दू पसंद आयी तो मिश्रा जी को मेरा निर्व्यसन होना। बाकी लोगों को भी मुझमें कोई अनुकरणीय सूत्र मिल ही गया था। जिन्हें नहीं भी मिला उन्हें भी इतने दिनों में इतना विश्वास तो हो ही गया था कि मैं उनको कोई हानि नहीं पहुँचाने वाला हूँ। खाली समय में वे लोग अक्सर मुझे घेरकर खड़े हो जाते थे और काम से सम्बंधित या व्यक्तिगत बातें करते थे। कोई मुझे अपनी मजदूर युनियन में लेना चाहता था तो कोई अपनी दूर की भतीजी का रिश्ता चाहता था। अपने स्थानीय होने के दम पर वे मेरी हर तरह से सहायता करने में भी एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते दिखाई देते थे।
एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके। उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला। उनके मुर्दार चेहरे पर मैंने पहली बार मुस्कान देखी।
[क्रमशः]
नीलाम्बक्कम जी के अजीब गरीब व्यक्तिव से सजा ये संस्मरण काफी रोचक है...उमीद है आगे भी पढ़ने की उत्सुकता बनी रहेगी.."
ReplyDeleteRegards
परिवेश, रंग और बोली के बदल जाने से कितना अन्तर आ जाता है. कई बार कितना मुश्किल होता है सामंजस्य बैठने में... ! कहानी एक रोचक मोड़ पर रुकी है, उत्सुकता बन जाना स्वाभाविक ही है.
ReplyDeleteएक बेचारे मद्रासी के पीछे सब हाथ धो कर पड़ गए हो. वैसे मजा आ रहा है.
ReplyDeleteAise kiston me padhna bada akhar raha hai...
ReplyDeleteअच्छा लग रहा है भाई... लगे रहें...
ReplyDeleteकहानी मे रोचकता बरकरार रखी है आपने. रंजना जी का कथन सत्य है कि किश्तों मे यह कहानी अखरती है पर ब्लाग जगत की मर्यादा का भी तो ख्याल रखना है. जबकी आजकल छोटी पोस्ट का ही चलन हो गया है. बहुत शुभकामनाएं और अगली कडी का इन्तजार है.
ReplyDeleteरामराम.
अरे! वाह, नीलाम्बक्कम जी मुस्कुराए! और इसी मुकाम पर आपने यह कडी समाप्त कर दी! अब तो मामला किसी जासूसी कथानक तैसा कर दिया है आपने।
ReplyDeleteरंजना जी ताऊ और ताऊ की बात से सहमती भी है और आपकी असुविधा के लिए खेद भी. मगर समयाभाव के कारण एक साथ ज़्यादा नहीं लिख पा रहा हूँ. इसलिए जितना बन पड़ता है उतना करके विश्राम ले लेता हूँ. आपके ध्यानाकर्षण के लिए धन्यवाद. कहानी में आप सब की रूचि बनी हुई है यह जानकर अच्छा लगा. आगे की कथा ८ घंटों के बीच लिखूंगा. अभी तो, "डूटी पर भी जाना है ना!"
ReplyDeleteपिछली कड़ियाँ नहीं पढ़ पाया, सब एक साथ पढूंगा।
ReplyDeleteबहुत सुंदर, रंजना जी ओर ताऊ से मै सहमत हूं लेकिन जब लेख काफ़ी लम्बा हो तो काफ़ी लोग उसे देख कर ध्यान से नही पढते या आगे निकल जाते है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर अगली कडी का इन्तजार
कहानी की रोचकता बनी हुई है पर कडिया तोडने की फरियाद है।
ReplyDeleteअनुराग भाई,
ReplyDeleteआज मैंने तीनों कडियाँ एक साथ पढ़ी,कहानी बहुत ही रोचक लग रही है ..अगली कड़ी का बेसब्री से इन्तेज़ार रहेगा!!!