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मिल्की सिंह उनका असली नाम नहीं है। मगर उनको यही नाम पसंद है क्योंकि माता-पिता द्वारा दिया गया नाम उनके पिछडेपन का प्रतीक है। उनका असली नाम यानी दूधनाथ सिंह उनकी एक आधुनिक अधिकारी वाली उनकी छवि से कहीं भी मेल नहीं खाता है। कुमारी चाको ने पहली बार उन्हें इस विसंगति का अहसास दिलाकर उनका नया नामकरण किया था और तभी से कुछ ऐसा हुआ कि लोग उनका वास्तविक नाम ही भूल गए।
मिल्की सिंह का व्यवहार मेरे प्रति काफी रूखा और कड़क है। मगर मैं यह जानता हूँ कि एक उनका जंगलीपन एक कड़े नारियल की तरह ही ऊपरी और दिखावटी है। ऊपर से वे भले ही मिल्की सिंह हो जाएँ मगर अन्दर से वे आज भी दूधनाथ सिंह ही हैं दूधिया गरी जैसे नरम। दूसरों की सहायता का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। अब उनकी रग-रग में बह रही इस भलमनसाहत को मैं नहीं पहचानूंगा तो और कौन समझेगा। न सिर्फ़ वे मेरे साथ काम करते हैं, दुर्भाग्य से वे मेरे बॉस भी हैं। इसलिए मैं अक्सर उनकी महानता और दयालुता के किस्से इतनी बार सुनता रहा हूँ कि मेरे कान पाक गए हैं।
कडाके की सर्दी पड़ रही थी। सिंह साहब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास से गुज़र रहे थे। उन्होंने एक कमज़ोर बूढे आदमी को चीथड़ों में लिपटे देखा। कितने ही लोग वहाँ से निकले मगर यह हमारे मिल्की सिंह ही थे जिन्हें उस बूढे पर दया आयी और उन्होंने पास के ठेले वाले को एक रुपया देकर उस गरीब को चाय के एक कुल्हड़ की बदौलत ठण्ड में जमने से बचा लिया। इस बात को बीते हुए कई वर्ष हो गए हैं मगर मुझे आज भी गाहे-बगाहे यह गाथा सुननी पड़ती है।
ऐसा नहीं कि हम-आप जैसे आम लोगों की तरह उनकी दयालुता का घेरा भी सिर्फ़ मनुजों तक ही सीमित हो। मिल्की सिंह आला दर्जे के पशु-प्रेमी हैं। एक बार उनके बच्चे ने क़त्लगाहों में चल रहे पशु-अत्याचारों के बारे में बनी कोई विडियो-क्लिप इन्टरनेट से उतार ली थी। उसे देखने के बाद दयालु मिल्की सिंह ने एक हफ्ते तक मटन नहीं खाया था। सिर्फ़ चिकन पर ही ज़िंदा रहे। यही किस्से बार-बार सुनने पर मेरे मन में कई प्रश्न उठते हैं मगर मैं उनसे कभी पूछ नहीं सकता क्योंकि बॉस हमेशा सही होता है।
वैसे तो मेरा बॉस होने के नाते मिल्की सिंह जी सर्वज्ञानी हैं। फिर भी, एक बात मिल्की सिंह को कभी समझ में कभी नहीं आयी। दफ्तर में उनके नहीं बल्कि रेड्डी साहब की दयालुता के किस्सों की चर्चा होती है। आज मिल्की सिंह कुछ ज़्यादा ही अनमने से हैं। होना भी चाहिए। सारे कर्मचारी पैसे और कपड़े इकट्ठे कर के रेड्डी साहब को दे रहे हैं जिन्होंने यह सब उडीसा के चक्रवात-पीडितों तक पहुँचाने का प्रबंध किया है। मिल्की सिंह के दिमाग में भी एक चक्रवात घूम रहा है। वे भी रेड्डी साहब की तरह कुछ बड़ा नाम (काम नहीं) करना चाहते हैं। हर सफल बॉस की तरह मिल्की सिंह भी जानते हैं कि आगे बढ़ने के लिए उन्हें एक असफल पर बुद्धिमान मातहत से कुछ गुह्य-सूत्र लेने पड़ेंगे। निश्चित है कि मेरे पास ही आयेंगे।
"मैं सफल हूँ, अक्लमंद हूँ, पैसे और बचत के महत्त्व को समझता हूँ ..." वह मेरे इतना पास आकर बोले कि चाय सड़ने की महक ने मुझे अन्दर तक चीर दिया। मगर क्या करता, बॉस हैं।
"... ऐसा क्या करुँ कि दान भी हो जाए और अंटी भी ढीली न हो?" उन्होंने सकुचाते हुए फुसफुसाया।
"पैसा दिए बगैर?" मैंने अपने आप से पूछा और त्वरित-विचार के लिए इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। खिड़की के बाहर दीवार पर कुछ दीवाने नौजवानों का लिखा हुआ सुभाष चन्द्र बोस का नारा दिखाई दिया, "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। "
"हम अपने खून से आसमान पे क्रान्ति लिख देंगे..."
"क्या बकते हो, मैं कोई पागल हत्यारा हूँ क्या?" मिल्की सिंह बौखलाए हुए से बोले।
"रक्तदान, सर!" मैंने उछालते हुए कहा, "कहावत भी है, खून का खून, पानी का पानी। "
मेरा इतना कहना था कि पड़ोस से मिसेज़ खान आकर मेरे और मिल्की सिंह के बीच एक दीवार की तरह खड़ी हो गयीं, "खून देना बहुत खतरनाक होता है, मेरे खाविंद ने एक दफा अपने अब्बू को दिया था, बेहोश हो गए थे । उनके भाई ने तो खून दिया भी नहीं, वह हो बस उनको देखने भर से ही बेहोश हो गया। उन्हें ठीक होने में दो हफ्ते और कई किलो कीमा लगा।"
मिसेज़ खान की बात सुनकर मिल्की सिंह बिदकने के बजाय उछल पड़े, "अरे मुझे बेहोश होने का कोई ख़तरा नहीं है, मैं तो खूब कीमा खाता हूँ।"
उनके निर्देश पर मैंने रक्त-बैंक से उनके लिए अगले दिन का समय ले लिया और अगले दिन वे खूब सारा कीमा डकार कर निर्धारित समय से पहले ही ब्लड-बैंक पहुँच गए।
सामान्य जांच पड़ताल और कागजी कारवाई के बाद नर्स ने जब उनसे पूछा, "आप (खून देने के लिए) रेडी हैं क्या?"
"जी नहीं, मैं सिंह हूँ" मिल्की ने सफाई देते हुए कहा, "रेड्डी तो मेरा सहकर्मी है. हमारी शक्ल काफी मिलती है, लोगों को अक्सर शक हो जाता है।"
[क्रमशः]
हर सफल बॉस की तरह मिल्की सिंह भी जानते हैं कि आगे बढ़ने के लिए उन्हें एक असफल पर बुद्धिमान मातहत से कुछ गुह्य-सूत्र लेने पड़ेंगे। निश्चित है कि मेरे पास ही आयेंगे।
ReplyDeleteऔर आपने उनको जोरदार आईडिया दे दिया.:)
कुछ लोग ऐसी ही प्रजाति के होते हैं. बहुत लाजवाब लिखा आपने.
रामराम.
गज़ब आईडिया दिया गुरू।
ReplyDeleteबहुत ममतामय लोग आपके आस पास रहते हैं। इतने मिल्की लोग --- आपका जीवन तो आकाश गंगा मय होगा!
ReplyDeleteविश्व उत्तरोत्तर मिल्की होगा!
आप रेडी हैं क्या?...... ये तो वही बात हुई की एक बार धावक मिल्खा सिंग जी आराम फरमा रहे थे तो एक अँगरेज़ ने उनसे पूछा " आर यु रिलक्सिंग ?" तो उन्होंने फ़ौरन जवाब दिया " नो आई एम् मिल्खा सिंग "
ReplyDeleteबहुत रोचक पोस्ट है...मेरा बास पढेगा तो पागल हो जायेगा...हा हा हा हा हा
हास्य, व्यंग के साथ साथ अच्छी चल रही है कहानी अगले अंक का इंतज़ार रहेगा
ReplyDeleteझकास लिख छोडे हो भाई.....एक चुटकुला याद आ गया .ज्ञानी जेल सिंह पर था.....ऐसा सा ही...
ReplyDeleteवाह क्या बात है? ये मिल्की सिंह तो जाने पहचाने से लगते हैं।
ReplyDeleteआपकी स्थायी पहचान को और गाढा करती एक और रोचक कथा। चूंके सुनना आपसे ही है, इसलिए अगली कडी की प्रतीक्षा करनी ही है। करेंगे।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है। बधाई।
ReplyDeleteवाह !!! आनंद आ गया....बहुत बहुत रोचक.......अगली कड़ी शीघ्र डालिए...
ReplyDeleteइस बात से तो हम भी सहमत हैं की बॉस हमेशा सही होता है! आपके बॉस के किस्से सुनकर मज़ा आया, कभी हम भी लिखेंगे!
ReplyDeletechuteelee shailee mein rochak rachnaa.
ReplyDeletebahut khoob, hamesha ki tarah ek nayab peshkash, agli kadi ka intezaar rahega.
ReplyDeleteमिल्की सिंह जी से तो मे परसो ही मिल कर आया हूं, आप की बहुत तारीफ़ कर रहे थे, बोले एक बार मिल जाये तो.....
ReplyDeleteइस सुंदर ओर मजेदार लेख के लिये मिल्की सिंह जी ओर आप का धन्यवाद, लेकिन अब ताऊ का क्या होगा????
मिल्की सिँह बडे चतुर हैँ !! अब रेड्डी जी को फँसाने के चक्कर मेँ हैँ क्या ?लिखा है बहुत, शानदार !!
ReplyDelete- लावण्या