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Thursday, February 26, 2009

खून दो - खंड दो

आज 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' के संस्थापक सदस्य श्री चंद्रशेखर आजाद की पुण्यतिथि है। 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में एक मुखबिर की सहायता से अंग्रेजी राज की पुलिस ने आजाद को घेर लिया था। लगभग आधे घंटे तक गोलियों का आदान प्रदान हुआ और एक ही गोली बचने पर आजाद ने उससे स्वयं को शहीद कर लिया परन्तु मृत्युपर्यंत "आजाद" ही रहे। अपने नाम आजाद को सार्थक करने वाले इस वीर की आयु प्राण देते समय केवल पच्चीस वर्ष थी। आइये आज इस बात पर विचार करें कि हमने इस उम्र तक अपने देश को अपनी माँ को क्या दिया है।

"खून दो" के पिछले अंक में आपने पढा कि मिल्की सिंह जी सर्वज्ञानी हैं। रेड्डी की प्रसिद्धि से चिढ़कर उन्होंने रक्त-दान की बात सोची। वे खूब सारा कीमा डकार कर निर्धारित समय से पहले ही ब्लड-बैंक पहुँच गए।

कागजी कार्रवाई के बाद उन्हें एक मेज़ पर लिटा दिया गया। जब नर्स से उनकी बांह में अप्रत्याशित रूप से बड़ा सूजा भोंका तब उन्हें अपने ठगे जाने का अहसास हुआ। मगर अब पछताए का होत जब चिडिया चुग गई खेत। उनकी बांह में इतनी जलन हुई कि वे तकलीफ से चिल्ला ही पड़ते मगर पड़ोस में ही एक 60 वर्षीया महिला को आराम से खून देते देखकर उनकी चीख त्रिशंकु की तरह अधर में ही लटक गयी। मौका और हालत की नजाकत देखकर उन्होंने होठ सी लेने और अश्क पी लेने में ही भलाई समझी।

पूरी प्रक्रिया में काफी देर लग रही थी। मिल्की सिंह जी के मन में तरह-तरह के ख़याल आ रहे थे। न जाने उनका खून किसके काम आयेगा। उन्हें पता ही न था कि वे एक व्यक्ति की जान बचा रहे थे कि ज़्यादा लोगों की। हो सकता है कि उनका खून रणभूमि में घायल सिपाहियों के लिए ले जाया जाए. सिर्फ उनके खून की वजह से एक वीर सैनिक की जान बचेगी और वह वीर युद्ध की बाजी पलट देगा। इतना सोचकर मिल्की सिंह को अपने ऊपर बड़ा गर्व हुआ। वे अब तक अपने अन्दर छिपे पड़े युद्ध-वीर को पहचान चुके थे। उन्होंने तो अपनी कल्पना में इतनी देर में राष्ट्रपति के हाथों परमवीर चक्र भी कबूल कर लिया था।

बहादुरी के सपनों के बीच-बीच में उन्हें बुरे-बुरे खयालात भी आ रहे थे। उन्हें यह भी समझ नहीं आ रहा था कि उनके शरीर से इतना ज़्यादा खून क्यों निकाला जा रहा था। पड़ोस की बूढी महिला तो जा भी चुकी थी। क्या उनसे इतना ज़्यादा खून इसलिए लिया जा रहा है क्योंकि वे वीरों के दस्ते में से हैं?

तभी नर्स मुस्कराती हुई उनके पास आयी और पूछा, "आप ठीक तो हैं? रेलेक्सिंग?"

"माफ़ कीजिये, मैं मिल्की सिंह, रिलेक मेरा छोटा भाई है" मिल्की ने पहले तो नर्स का भूल सुधार किया। फिर अपनी दुखती राग पर हाथ रखकर झल्लाते हुए से पूछा, "और कितनी देर लगेगी? हाथ जला जा रहा है।"

"बस हो गया" नर्स ने उसी मधुर मुस्कान के साथ कहा और अपने नाज़ुक हाथों से सुई निकालकर घाव को रुई से दबा दिया।

मिल्की सिंह के होठ सूख रहे थे। नर्स का हाथ हटते ही वे जल्दी से कूदे और पास ही पडी उस मेज़ की और लपके जिस पर फलों के रस से भरी हुई बोतलें रखी थीं। खड़े होते ही उन्हें भयानक चक्कर आया और मेज़ तक पहुँचने से पहले ही वे धराशायी हो गए। आगे की कोई बात उन्हें याद नहीं है। जब होश आया तो वे डॉक्टरों और नर्सों से घिरे एक बिस्तरे पर लेते हुए थे। माथे और गर्दन पर बर्फ की पट्टियां लगी हुई थीं और हाथ में एक सुई चुभी हुई थी।

"यह क्या? आप लोगों ने पहले ही इतना खून निकाल लिया कि मैं गिर गया। अब फिर क्यों?" उन्होंने मिमियाते हुए पूछा।

जवाब उसी सुस्मिता ने दिया, "अभी तो आपको खून चढाया जा रहा है ताकि आप बिना गिरे अपने घर जा सकें।"

अगर उस दिन मिल्की सिंह की कार हमारा चालक सुनील नहीं चला रहा होता तो मुझे यह बात कभी भी पता न लगती। श्रीमती खान उनके घर "ठीक-हो-जाएँ" कार्ड के साथ फूलों का गुलदस्ता लेकर पहुँचीं। नहीं ... कुछ लोग कहते हैं कि वे पांच किलो कीमा लेकर गयी थीं। उस दिन के बाद जब मिल्की ने दफ्तर में वापस कदम रखा तो वे पूरी तरह से बदले हुए थे। अगले हफ्ते की कर्मचारी सभा में न सिर्फ उन्होंने रेड्डी साहब की जनसेवा को मुक्त-कंठ से सराहा बल्कि उनके लिए एक प्रमाण-पत्र और नकद पुरस्कार भी स्वीकृत किया।
[समाप्त]

Wednesday, February 25, 2009

खून दो...

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मिल्की सिंह उनका असली नाम नहीं है। मगर उनको यही नाम पसंद है क्योंकि माता-पिता द्वारा दिया गया नाम उनके पिछडेपन का प्रतीक है। उनका असली नाम यानी दूधनाथ सिंह उनकी एक आधुनिक अधिकारी वाली उनकी छवि से कहीं भी मेल नहीं खाता है। कुमारी चाको ने पहली बार उन्हें इस विसंगति का अहसास दिलाकर उनका नया नामकरण किया था और तभी से कुछ ऐसा हुआ कि लोग उनका वास्तविक नाम ही भूल गए।

मिल्की सिंह का व्यवहार मेरे प्रति काफी रूखा और कड़क है। मगर मैं यह जानता हूँ कि एक उनका जंगलीपन एक कड़े नारियल की तरह ही ऊपरी और दिखावटी है। ऊपर से वे भले ही मिल्की सिंह हो जाएँ मगर अन्दर से वे आज भी दूधनाथ सिंह ही हैं दूधिया गरी जैसे नरम। दूसरों की सहायता का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। अब उनकी रग-रग में बह रही इस भलमनसाहत को मैं नहीं पहचानूंगा तो और कौन समझेगा। न सिर्फ़ वे मेरे साथ काम करते हैं, दुर्भाग्य से वे मेरे बॉस भी हैं। इसलिए मैं अक्सर उनकी महानता और दयालुता के किस्से इतनी बार सुनता रहा हूँ कि मेरे कान पाक गए हैं।

कडाके की सर्दी पड़ रही थी। सिंह साहब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास से गुज़र रहे थे। उन्होंने एक कमज़ोर बूढे आदमी को चीथड़ों में लिपटे देखा। कितने ही लोग वहाँ से निकले मगर यह हमारे मिल्की सिंह ही थे जिन्हें उस बूढे पर दया आयी और उन्होंने पास के ठेले वाले को एक रुपया देकर उस गरीब को चाय के एक कुल्हड़ की बदौलत ठण्ड में जमने से बचा लिया। इस बात को बीते हुए कई वर्ष हो गए हैं मगर मुझे आज भी गाहे-बगाहे यह गाथा सुननी पड़ती है।

ऐसा नहीं कि हम-आप जैसे आम लोगों की तरह उनकी दयालुता का घेरा भी सिर्फ़ मनुजों तक ही सीमित हो। मिल्की सिंह आला दर्जे के पशु-प्रेमी हैं। एक बार उनके बच्चे ने क़त्लगाहों में चल रहे पशु-अत्याचारों के बारे में बनी कोई विडियो-क्लिप इन्टरनेट से उतार ली थी। उसे देखने के बाद दयालु मिल्की सिंह ने एक हफ्ते तक मटन नहीं खाया था। सिर्फ़ चिकन पर ही ज़िंदा रहे। यही किस्से बार-बार सुनने पर मेरे मन में कई प्रश्न उठते हैं मगर मैं उनसे कभी पूछ नहीं सकता क्योंकि बॉस हमेशा सही होता है।

वैसे तो मेरा बॉस होने के नाते मिल्की सिंह जी सर्वज्ञानी हैं। फिर भी, एक बात मिल्की सिंह को कभी समझ में कभी नहीं आयी। दफ्तर में उनके नहीं बल्कि रेड्डी साहब की दयालुता के किस्सों की चर्चा होती है। आज मिल्की सिंह कुछ ज़्यादा ही अनमने से हैं। होना भी चाहिए। सारे कर्मचारी पैसे और कपड़े इकट्ठे कर के रेड्डी साहब को दे रहे हैं जिन्होंने यह सब उडीसा के चक्रवात-पीडितों तक पहुँचाने का प्रबंध किया है। मिल्की सिंह के दिमाग में भी एक चक्रवात घूम रहा है। वे भी रेड्डी साहब की तरह कुछ बड़ा नाम (काम नहीं) करना चाहते हैं। हर सफल बॉस की तरह मिल्की सिंह भी जानते हैं कि आगे बढ़ने के लिए उन्हें एक असफल पर बुद्धिमान मातहत से कुछ गुह्य-सूत्र लेने पड़ेंगे। निश्चित है कि मेरे पास ही आयेंगे।

"मैं सफल हूँ, अक्लमंद हूँ, पैसे और बचत के महत्त्व को समझता हूँ ..." वह मेरे इतना पास आकर बोले कि चाय सड़ने की महक ने मुझे अन्दर तक चीर दिया। मगर क्या करता, बॉस हैं।

"... ऐसा क्या करुँ कि दान भी हो जाए और अंटी भी ढीली न हो?" उन्होंने सकुचाते हुए फुसफुसाया।

"पैसा दिए बगैर?" मैंने अपने आप से पूछा और त्वरित-विचार के लिए इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। खिड़की के बाहर दीवार पर कुछ दीवाने नौजवानों का लिखा हुआ सुभाष चन्द्र बोस का नारा दिखाई दिया, "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। "

"हम अपने खून से आसमान पे क्रान्ति लिख देंगे..."

"क्या बकते हो, मैं कोई पागल हत्यारा हूँ क्या?" मिल्की सिंह बौखलाए हुए से बोले।

"रक्तदान, सर!" मैंने उछालते हुए कहा, "कहावत भी है, खून का खून, पानी का पानी। "

मेरा इतना कहना था कि पड़ोस से मिसेज़ खान आकर मेरे और मिल्की सिंह के बीच एक दीवार की तरह खड़ी हो गयीं, "खून देना बहुत खतरनाक होता है, मेरे खाविंद ने एक दफा अपने अब्बू को दिया था, बेहोश हो गए थे । उनके भाई ने तो खून दिया भी नहीं, वह हो बस उनको देखने भर से ही बेहोश हो गया। उन्हें ठीक होने में दो हफ्ते और कई किलो कीमा लगा।"

मिसेज़ खान की बात सुनकर मिल्की सिंह बिदकने के बजाय उछल पड़े, "अरे मुझे बेहोश होने का कोई ख़तरा नहीं है, मैं तो खूब कीमा खाता हूँ।"

उनके निर्देश पर मैंने रक्त-बैंक से उनके लिए अगले दिन का समय ले लिया और अगले दिन वे खूब सारा कीमा डकार कर निर्धारित समय से पहले ही ब्लड-बैंक पहुँच गए।

सामान्य जांच पड़ताल और कागजी कारवाई के बाद नर्स ने जब उनसे पूछा, "आप (खून देने के लिए) रेडी हैं क्या?"

"जी नहीं, मैं सिंह हूँ" मिल्की ने सफाई देते हुए कहा, "रेड्डी तो मेरा सहकर्मी है. हमारी शक्ल काफी मिलती है, लोगों को अक्सर शक हो जाता है।"
[क्रमशः]