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पिछली दो किस्तों में आपने पढा कि किस तरह विपरीत प्रकृति के दो सहकर्मी एक दूसरे के मित्र बने और बिछड़ गए। एक दिन ख़बर आयी आतंकवादी दरिंदों द्वारा कल्लर की हत्या की। फ़िर क्या हुआ? आईये देखें इस कड़ी में। पिछली कड़ियाँ यहाँ उपलब्ध हैं खंड 1; खंड 2; आपके सुझाव, शिकायतें और टिप्पणियाँ मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हैं। कृपया बताइये ज़रूर कि आप इस कहानी के बारे में क्या सोचते हैं.
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यह ज़रूर सपना ही होगा। अगर हकीकत थी तो यह तय है कि सच्चे दिल से माँगी गयी दुआओं में सचमुच बड़ा असर होता है। मेरे सामने एक हट्टा-कट्टा आदमी चला आ रहा था। ऐसा लगता था जैसे कि किसी ने कल्लर को हवा भरकर फुला दिया हो। मुझे देखकर वह खुशी के मारे ज़ोर से चिल्लाया, "अरे मेरे चुनमुन, तू तो आज भी वैसा ही है मैन।"
"अरे, कल्लर ज़िंदा है क्या?" मेरा मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया। मैं तो हमेशा ही भगवान् से यह मनाता था कि उसके मरने की ख़बर झूठ हो। फ़िर भी उसे सामने देखकर मुझे अचम्भा तो बहुत हुआ। शायद यह मेरा भ्रम ही हो मगर वह पहले से काफी फर्क लग रहा था। इतने दिनों में वह न सिर्फ़ मोटा हुआ था बल्कि मुझे तो वह पहले से कुछ लंबा भी लग रहा था।
मेरा दिमाग कुछ समझ नहीं पा रहा था। रंग-रूप, चटख वेश-भूषा, लाउड हाव-भाव और ज़ोर-ज़ोर से बोलना, यह व्यक्ति कल्लर न हो यह हो ही नहीं सकता था। क्या भगवान् ने मेरी पुकार सुन ली? वह मरा नहीं था? अखबार की कतरन ही झूठी थी या फ़िर आतंकवादियों के हत्थे उसी नाम का कोई और व्यक्ति चढ़ गया था? मैं खुशी से उछलता हुआ उसकी और लपका। उसने भी आगे बढ़कर मुझे गले लगाया।
"आज सिगरेट के बिना कैसे?" मैंने आश्चर्य से पूछा, "छोड़ दी क्या?"
"नहीं चुनमुन, तुझसे मिलने आ रहा था सो बिल्कुल जेंटलमैन बनकर आया मैन!" वह अपने विशिष्ट अंदाज़ में बोला, "क्यों डर गया क्या मुझे देखकर?"
"अरे मैं भूत नहीं हूँ, तू खुश नहीं है क्या कि मैं मरा नहीं?" वह हमेशा जैसे ही हँसते हुए बोला।
"मेरी खुशी को कौन समझ सकता है" मैंने आश्चर्य मिश्रित आल्हाद से कहा।
"हाँ, मैं तो जानता हूँ तुझे, साढ़े तीन महीने झेला है!" मुझसे मिलकर वह बहुत खुश था, "याद है तुझसे दिल्ली में मिलने का वादा किया था मैंने, आरा छोड़ते समय?"
भोजन का वक़्त था। मैंने हम दोनों के लिए खाना मंगाया और हम लोग बातें करने लगे। उसने बताया कि वह कभी सरकारी अफसर बना ही नहीं था। न ही उसने स्कूल के दिनों के बाद कभी कश्मीर के शालीमार बाग़ में कदम ही रखा। वह तो सिटीबैंक छोड़कर कलकत्ता में जीवन बीमा निगम में चला गया था। ख़बर पढ़कर उसके घर में भी काफी हंगामा हुआ था। अनिता तो इतनी बीमार हो गयी थी कि अगर वह सचमुच जीवित न पहुँचता तो शायद मर ही जाती। बाद में पता लगा कि मुजाहिदीन का शिकार व्यक्ति राजनगर का था भी नहीं। किसी तरह से अखबार की दो खबरें उलट-पुलट हो गयी थीं। कैसे हुईं या फ़िर उसका ही नाम क्यों आया, इसके बारे में उसको कुछ मालूम नहीं था।
हमने आरा की बहुत सी बातें याद कीं। वह सभी साथियों के बारे में पूछता रहा। बहुत उत्साह से उसने अपने और परिवार के बारे में भी काफी बातें बताईं। उसने अनिता से शादी कर ली थी। बहन की पढाई पूरी होकर रामगढ में शादी हो गई थी। माता-पिता कभी राजनगर तो कभी रामगढ में रहते हैं। कभी कलकत्ता नहीं आते। उन्हें बड़े शहर और छोटे फ्लैट पसंद नहीं हैं, यह बताते हुए वह थोड़ा उदास हो गया। कुछ देर और रूककर वह निकल गया। उसकी उसी दिन की कलकत्ता की जहाज़ की टिकट बुक थी इसलिए वह ज़्यादा देर रुक नहीं सकता था।
चलने से पहले हमारे बीच अपने कार्डों का आदान प्रदान हुआ। उसने मुझे जीवन बीमा निगम का अपना कार्ड दिया। कार्ड पर उसका घर का फ़ोन नंबर नहीं छपा था तो उसने मेरी मेज़ पर सीडी पर लिखने के लिए पड़े एक स्थायी मार्कर को उठाकर उसीसे लिख दिया। कुछ ही क्षणों में वह जैसे आया था वैसे ही मुस्कराता हुआ चला गया। मैं उस दिन बड़ा खुश था।
आरा प्रवास में कल्लर ने अपने कैमरे से मेरे बहुत से फोटो लिए थे. उन्ही में से एक.
रात में घर पहुँचकर मैंने पत्नी को बड़ी उतावली से दिन की घटना सुनाई। रात में सोने से पहले यूँ ही मैंने अखबार की कतरन देखने के लिए विनोबा के गीता प्रवचन की किताब हाथ में ली। सारी किताब झाड़ी मगर उसमें कल्लर की कतरन नहीं मिली। पत्नी ने भी ढूंढा, मगर कागज़ का वह टुकडा कहीं नहीं था। उसे सिर्फ़ एक संयोग समझकर मैंने पत्नी को दिखाने के लिए बटुए में से कल्लर का कार्ड निकाला तो पाया कि मेरे हाथ में जो कार्ड था वह बिल्कुल कोरा था - कुछ भी नहीं, स्थायी मार्कर का लाल निशान तक नहीं।
महीने के अंत में जब कैंटीन वाले हर्ष बहादुर ने मेरा महीने भर का बिल दिया तो उसमें हर रोज़ का सिर्फ़ एक ही लंच लगा हुआ था। मैंने उसे बुलाकर गलती सही करने को कहा मगर वह अड़ा रहा कि उसने हर दिन मेरे लिए सिर्फ़ एक ही खाना भेजा है। पूरे महीने में किसी दिन भी मेरे नाम से दो लंच नहीं आए। प्रशांत को भी याद नहीं आता कि कल्लर नाम का मेरा कोई पुराना मित्र मुझसे मिलने दफ्तर आया था। राजेश कहता है कि जब वह पिछली बार राजनगर गया था तो कल्लर के परिवार से मिला था और इस बात में शक की कोई भी गुंजाइश नहीं है कि कल्लर का पार्थिव शरीर हमारे बीच नहीं है। उसने यह भी बताया कि उस घटना के कुछ दिन बाद ही अनिता भी डेंगू जैसी किसी बीमारी का शिकार होकर चल बसी।
वह दिन है और आज का दिन, जब भी समय मिलता है मैं टेलीफोन निर्देशिकाओं में, नेटवर्किंग साइट्स पर, और इन्टरनेट पर कल्लर के नाम की खोज करता हूँ। जब भी कोई पुराना सहकर्मी मिलता है तो उसके बारे में पूछता हूँ। मगर कभी भी उसके जीवित होने की कोई जानकारी नहीं मिली।
[समाप्त]
[नोट: इस कहानी के सभी पात्र, नाम, स्थान, संस्थान, व्यवसाय तथा घटनाएँ काल्पनिक हैं. यहाँ तक कि इस कहानी का लेखक और उसका चित्र भी पूर्णतः काल्पनिक है।]
पिछली दो किस्तों में आपने पढा कि किस तरह विपरीत प्रकृति के दो सहकर्मी एक दूसरे के मित्र बने और बिछड़ गए। एक दिन ख़बर आयी आतंकवादी दरिंदों द्वारा कल्लर की हत्या की। फ़िर क्या हुआ? आईये देखें इस कड़ी में। पिछली कड़ियाँ यहाँ उपलब्ध हैं खंड 1; खंड 2; आपके सुझाव, शिकायतें और टिप्पणियाँ मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हैं। कृपया बताइये ज़रूर कि आप इस कहानी के बारे में क्या सोचते हैं.
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यह ज़रूर सपना ही होगा। अगर हकीकत थी तो यह तय है कि सच्चे दिल से माँगी गयी दुआओं में सचमुच बड़ा असर होता है। मेरे सामने एक हट्टा-कट्टा आदमी चला आ रहा था। ऐसा लगता था जैसे कि किसी ने कल्लर को हवा भरकर फुला दिया हो। मुझे देखकर वह खुशी के मारे ज़ोर से चिल्लाया, "अरे मेरे चुनमुन, तू तो आज भी वैसा ही है मैन।"
"अरे, कल्लर ज़िंदा है क्या?" मेरा मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया। मैं तो हमेशा ही भगवान् से यह मनाता था कि उसके मरने की ख़बर झूठ हो। फ़िर भी उसे सामने देखकर मुझे अचम्भा तो बहुत हुआ। शायद यह मेरा भ्रम ही हो मगर वह पहले से काफी फर्क लग रहा था। इतने दिनों में वह न सिर्फ़ मोटा हुआ था बल्कि मुझे तो वह पहले से कुछ लंबा भी लग रहा था।
मेरा दिमाग कुछ समझ नहीं पा रहा था। रंग-रूप, चटख वेश-भूषा, लाउड हाव-भाव और ज़ोर-ज़ोर से बोलना, यह व्यक्ति कल्लर न हो यह हो ही नहीं सकता था। क्या भगवान् ने मेरी पुकार सुन ली? वह मरा नहीं था? अखबार की कतरन ही झूठी थी या फ़िर आतंकवादियों के हत्थे उसी नाम का कोई और व्यक्ति चढ़ गया था? मैं खुशी से उछलता हुआ उसकी और लपका। उसने भी आगे बढ़कर मुझे गले लगाया।
"आज सिगरेट के बिना कैसे?" मैंने आश्चर्य से पूछा, "छोड़ दी क्या?"
"नहीं चुनमुन, तुझसे मिलने आ रहा था सो बिल्कुल जेंटलमैन बनकर आया मैन!" वह अपने विशिष्ट अंदाज़ में बोला, "क्यों डर गया क्या मुझे देखकर?"
"अरे मैं भूत नहीं हूँ, तू खुश नहीं है क्या कि मैं मरा नहीं?" वह हमेशा जैसे ही हँसते हुए बोला।
"मेरी खुशी को कौन समझ सकता है" मैंने आश्चर्य मिश्रित आल्हाद से कहा।
"हाँ, मैं तो जानता हूँ तुझे, साढ़े तीन महीने झेला है!" मुझसे मिलकर वह बहुत खुश था, "याद है तुझसे दिल्ली में मिलने का वादा किया था मैंने, आरा छोड़ते समय?"
भोजन का वक़्त था। मैंने हम दोनों के लिए खाना मंगाया और हम लोग बातें करने लगे। उसने बताया कि वह कभी सरकारी अफसर बना ही नहीं था। न ही उसने स्कूल के दिनों के बाद कभी कश्मीर के शालीमार बाग़ में कदम ही रखा। वह तो सिटीबैंक छोड़कर कलकत्ता में जीवन बीमा निगम में चला गया था। ख़बर पढ़कर उसके घर में भी काफी हंगामा हुआ था। अनिता तो इतनी बीमार हो गयी थी कि अगर वह सचमुच जीवित न पहुँचता तो शायद मर ही जाती। बाद में पता लगा कि मुजाहिदीन का शिकार व्यक्ति राजनगर का था भी नहीं। किसी तरह से अखबार की दो खबरें उलट-पुलट हो गयी थीं। कैसे हुईं या फ़िर उसका ही नाम क्यों आया, इसके बारे में उसको कुछ मालूम नहीं था।
हमने आरा की बहुत सी बातें याद कीं। वह सभी साथियों के बारे में पूछता रहा। बहुत उत्साह से उसने अपने और परिवार के बारे में भी काफी बातें बताईं। उसने अनिता से शादी कर ली थी। बहन की पढाई पूरी होकर रामगढ में शादी हो गई थी। माता-पिता कभी राजनगर तो कभी रामगढ में रहते हैं। कभी कलकत्ता नहीं आते। उन्हें बड़े शहर और छोटे फ्लैट पसंद नहीं हैं, यह बताते हुए वह थोड़ा उदास हो गया। कुछ देर और रूककर वह निकल गया। उसकी उसी दिन की कलकत्ता की जहाज़ की टिकट बुक थी इसलिए वह ज़्यादा देर रुक नहीं सकता था।
चलने से पहले हमारे बीच अपने कार्डों का आदान प्रदान हुआ। उसने मुझे जीवन बीमा निगम का अपना कार्ड दिया। कार्ड पर उसका घर का फ़ोन नंबर नहीं छपा था तो उसने मेरी मेज़ पर सीडी पर लिखने के लिए पड़े एक स्थायी मार्कर को उठाकर उसीसे लिख दिया। कुछ ही क्षणों में वह जैसे आया था वैसे ही मुस्कराता हुआ चला गया। मैं उस दिन बड़ा खुश था।
आरा प्रवास में कल्लर ने अपने कैमरे से मेरे बहुत से फोटो लिए थे. उन्ही में से एक.
रात में घर पहुँचकर मैंने पत्नी को बड़ी उतावली से दिन की घटना सुनाई। रात में सोने से पहले यूँ ही मैंने अखबार की कतरन देखने के लिए विनोबा के गीता प्रवचन की किताब हाथ में ली। सारी किताब झाड़ी मगर उसमें कल्लर की कतरन नहीं मिली। पत्नी ने भी ढूंढा, मगर कागज़ का वह टुकडा कहीं नहीं था। उसे सिर्फ़ एक संयोग समझकर मैंने पत्नी को दिखाने के लिए बटुए में से कल्लर का कार्ड निकाला तो पाया कि मेरे हाथ में जो कार्ड था वह बिल्कुल कोरा था - कुछ भी नहीं, स्थायी मार्कर का लाल निशान तक नहीं।
महीने के अंत में जब कैंटीन वाले हर्ष बहादुर ने मेरा महीने भर का बिल दिया तो उसमें हर रोज़ का सिर्फ़ एक ही लंच लगा हुआ था। मैंने उसे बुलाकर गलती सही करने को कहा मगर वह अड़ा रहा कि उसने हर दिन मेरे लिए सिर्फ़ एक ही खाना भेजा है। पूरे महीने में किसी दिन भी मेरे नाम से दो लंच नहीं आए। प्रशांत को भी याद नहीं आता कि कल्लर नाम का मेरा कोई पुराना मित्र मुझसे मिलने दफ्तर आया था। राजेश कहता है कि जब वह पिछली बार राजनगर गया था तो कल्लर के परिवार से मिला था और इस बात में शक की कोई भी गुंजाइश नहीं है कि कल्लर का पार्थिव शरीर हमारे बीच नहीं है। उसने यह भी बताया कि उस घटना के कुछ दिन बाद ही अनिता भी डेंगू जैसी किसी बीमारी का शिकार होकर चल बसी।
वह दिन है और आज का दिन, जब भी समय मिलता है मैं टेलीफोन निर्देशिकाओं में, नेटवर्किंग साइट्स पर, और इन्टरनेट पर कल्लर के नाम की खोज करता हूँ। जब भी कोई पुराना सहकर्मी मिलता है तो उसके बारे में पूछता हूँ। मगर कभी भी उसके जीवित होने की कोई जानकारी नहीं मिली।
[समाप्त]
[नोट: इस कहानी के सभी पात्र, नाम, स्थान, संस्थान, व्यवसाय तथा घटनाएँ काल्पनिक हैं. यहाँ तक कि इस कहानी का लेखक और उसका चित्र भी पूर्णतः काल्पनिक है।]
कौन था वो? सच कहूँ तो मुझे ये संस्मरण जैसा लग रहा था।
ReplyDeleteकिस पर विश्वास करें? कहानी पर या अन्त में दी गई सूचनाओं पर? सच तो आप ही जानें किन्तु कहानी अद्भुत है। कहानी पाठक को आपने साथ बहाए जाती है। आपकी टिप्पणी मानो पाठक को कल्पनालोक से ठोस धरती पर ला खडा करती है।
ReplyDeleteमुझे विश्वास है कि आप इक्कीसवीं शताब्दी की 'चन्द्रकान्ता' लिखेंगे ही।
अग्रिम शुभ-कामनाएं।
@तरुण जी, यह संस्मरण है या कहानी, यह निर्णय मैं पाठकों पर ही छोड़ता हूँ, हाँ व्यक्तिगत रूप से मैं इसे संस्मरण ही कहना पसंद करूंगा. फ़िर भी मैंने कहानी शब्द इसलिए प्रयोग किया है ताकि हमारे बुद्धिजीवी मित्रों की भावनाएं आहत न हों. निकट भविष्य में परिवीक्षा के उन दो सालों के रोमांचक दिनों की कुछ और यादें भी कहानी के रूप में प्रस्तुत करने की इच्छा है.
ReplyDelete@ विष्णु जी, कहाँ है आपके चरण? आपका आशीर्वाद सर माथे!
बढिया कथा रही जी आपकी !
ReplyDeleteबटुए में से कल्लर का कार्ड निकाला तो पाया कि मेरे हाथ में जो कार्ड था वह बिल्कुल कोरा था - कुछ भी नहीं, स्थायी मार्कर का लाल निशान तक नहीं।
ReplyDelete" कथा के शुरू से अंत लेकर एक रोचकता बनी रही और अंत मे आवाक, आश्चर्यचकित .........कौन था जो जीवित रूप में दुबारा लेखक से मिला था, कार्ड पर कुछ भी नही लिखा था कोरा था, मगर कार्ड का तो आस्तित्व था ना, माने बटुए में कार्ड मिला चाहे कोरा ही , आखिरी कड़ी पाठक को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है ........ क्या ये वास्तविकता से भी परे का सच था ....जिस पर यकीन करना मुश्किल होता है, जो भी रहा हो सच या कल्पना मगर कुछ पलों की लिए एक अनोखी ही अनुभूति का एहसास हुआ "
regards
पीछे से सारी कडिया पढने के बाद यह लाजवाब संसमरण लगा मुझे तो. बेहद भावनात्मक और मार्मिक भी कहूंगा. कुछ निजी व्यस्तताओं मे काफ़ी दिन गायब रहा, इस वजह से आपका लेखन पढने से वंचित रहा, इसका मुझे बहुत अफ़्सोस है.
ReplyDeleteधन्यवाद.
बेहद मार्मिकता से लिखा गया सन्समरण लगा मुझको तो. और आप चाहे चित्र को काल्पनिक कहे , मुझे तो आपका ही लग रहा है.
ReplyDeleteऔर मैं यहां बैरागी जी की बात से बिल्कुल सहमत हूं. बहुत बधाई आपको इस उत्कृष्ट लेखन के लिये.
इन संसमरणों को लेकर एक बहुत अद्वितिय नावेल का लेखन हो सकता है और वो जब आपकी शैली मे लिखा जायेगा तो बेहद मार्मिक और हर दृष्टि से पठनीय होगा. शुभकामनाएं.
रामराम.
badhiya katha rahi aapki...........
ReplyDeleteअविश्वसनीय किन्तु मार्मिक.
ReplyDeleteअविश्वसनीय किन्तु मार्मिक.
ReplyDeleteकहानी की पहली शर्त यही होती है कि वह अपने साथ पाठक को बांधे रखे, आपकी कहानी इस शर्त पर खरी उतरती है। इस हेतु हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteकहानी की शुरुआत से ही लग रहा था की संस्मरण है. काश दो पैराग्राफ पहले ही कहानी ख़त्म हो गई होती.
ReplyDeleteमानना पड़ेगा आप की कहानी लेखन विधा में बहुत गहरी पकड़ है आप के पात्र पढने वाले को अपने साथ बहा ले जाते हैं और कहानी ख़तम होने पर भी दिमाग में रह जाते हैं...बहुत खूब....
ReplyDeleteनीरज
कहानी की कसावट देखते ही बनती हैं। एक अच्छी कहानी के लिए बधाई स्वीकारें। वैसे फोटो देख मैं पता नही क्यों हँस पड़ा।
ReplyDeleteसँवेदनाओँ से भरपूर और बेहद रोचक रही कथा -मुझे तो लगता है "मिस्टर कल्लर"
ReplyDeleteखुफिया तँत्र से जुडे हुए हैँ
और आप की दोस्ती का मान रखने के लिये,
एक बार मिलने चले आये
- विष्णु बैरागी जी के सुझाव से सहमति है -
लँबी कथा जल्द ही छपवायेँ -
हमेँ इँतज़ार रहेगा -
लावण्या
लेखन की इस विधा के आप मंजे खिलाड़ी लगते हैं। बधाई।
ReplyDeleteअनुराग जी यह चित्र आप का ही है, ओर आप का स्नेह कल्लर से ज्यादा था, शायद आप के दिल मै उस के बारे इअतने विचार आये कि आप ने अपने खाव्ब मै उसे देखा, ओर आप को लगा कि यह सब सच है, लेकिन कहानी बिलकुल सच्ची है,ओर कई बार होता भी है ऎसा, जिसे हम बहुत याद करते है, जिस के बारे बहुत सोचते है, वो हमारे दिल ओर दिमाग पर इतना हावी हो जाता है कि किसी ना किसी रुप मे हमे वो दिख जाता है.
ReplyDeleteधन्यवाद, इस सुंदर लेख के लिये
कहानी शब्द्-चित्र की भाति आंखों के सामने से गुजरती है।... वास्तविक न होने पर भी हम इस कहानी क धार दार प्रवाह को महसूस करतें है।... एक बेह्तरीन रचनाः धन्यवाद।
ReplyDeleteवाह भई वाह.....ये अंत तो सोचा ही नही था, कोशिश जरूर करी थी पर लेखक की सोच कुछ और ही निकली. पर मज़ा आ गया पढ़ कर रोचकता अंत तक बनी रही. टर्निंग पॉइंट पर कहानी का बदलाव बिल्कुल नया था.
ReplyDeleteअनुराग जी रात के दस से ऊपर हो रहे हैं और अभी-अभी ये कहानी पढ़ कर खत्म की....एक सिहरन सी दौड़ उठी है .कई घटनायें जाने कितनी सिहराती घटनाओं से रूबरू हूं अब तक,किंतु ये वर्णन तो उफ़.....
ReplyDeleteआज से कुछ दिन पहले बदायूं से गंज डुंडबारा जाते हुए एक भुल्लर जी मुझे भी मिले थे और और उन्होंने मुझे एक ऐसे पैन के बारे में बताया था जो दिखने और लिखने में बिल्कुल मार्कर पैन के जैसा था पर उसकी इंक लिखने के कुछ समय बाद गायब हो जाती थी । भुल्लर जी ने उस पैन से अपने फोटो पर अपना पता भी दिया था, आज यह कहानी पढने के बाद जब मैंने उस फोटो को निकाल कर देखा तो वह एकदम कोरा था । कहीं कल्लर जी का प्रेत बदायूं गंज डुंडबारा के बीच आज भी तो नहीं घूम रहा ।
ReplyDeleteये अनोखी अनूभूति अबुझ ज़रूर है, मगर अविश्वसनीय नही.ये संस्मरण ही है, कहानी उन लोगों के लिये जो मानते है कि
ReplyDeleteफ़साना शबे ग़म उनको एक कहानी थी ,
कुछ ऐतबार किया , कुछ ना ऐतबार किया...
मानव अंतर्मन एक विशाल समुद्र ही तो है, जिसमें किस्म किस्म के मोती और अबुझ खज़ाने पडे़ है.जिनका आकलन मानव नें कर लिया वह Science हो गया, जो रह गया वह चमत्कार.
मित्र के जाने की पीडा़, वह भी हमेशा के लिये, असहनीय है, ये मैं भोग चुका हूं. मेरे केस में वह मित्र हमेशा के लिये छोड कर ज़िंदगी से निकल गया.
मानस के अमोघ शब्द पर ताज़ी पोस्ट में यही पढेंगे आप. (देखी ज़माने की यारी,बिछडे सभी बारी बारी )अब लगता है, कि उसका SMS आना भी ऐसी ही कोई बात होगी.
सुंदर कथानक और आपके सुंदर फोटो बहुत अच्छा
ReplyDeleteबहुत अच्छी संस्मरणात्मक कहानी लिखी है आपने। मैं कोई साहित्य समालोचक नहीं हूं, लेकिन बतौर पाठक इतना दावा तो कर ही सकता हूं कि एक सफल कहानी के सारे तत्व इसमें मौजूद हैं।
ReplyDeleteकल्लर के साथ आपका गहरा भावनात्मक लगाव समझा जा सकता हैं। ऐसे आत्मीय लोगों का वजूद समाप्त होने के बाद भी स्मृति में उनकी मृग मरीचिका बनी रहती है।
अरे हां, एक बात तो कहना भूला ही जा रहा था...आपका बिना मूंछवाला फोटो भी कहीं देखा है और उसे भी पहचान लूंगा। आप न भी बताते तो भी दावे के साथ कहता कि यह फोटो आपका ही है :)
एक यादगार संस्मरण, यदि यह संस्मरण है और एक अत्यन्त मार्मिक कहानी जो नि:संदेह बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है। आपकी शेष रचनाओं का इंतजार रहेगा ।
ReplyDeleteकहानी पर प्रतिक्रियाएं पहले पढ़ रहा हूं ....प्रिंट निकालकर ही इसे एक साथ पढूंगा।
ReplyDeleteशानदार प्रस्तुति की बधाई एडवांस में लें...
चेतन, अचेतन और अवचेतन तीनो मानवीय शक्तियॉं हैं, जब अवचेतन सक्रिय हो जाता है तो कथानक अविश्वसनीय लगने लगता है, लेकिन इसके बावजूद विश्वास करने को जी चाहता है।
ReplyDeleteयह विश्वास पैदा करना कथाकार की क्षमता है।
तीनो खंड एक साथ पढ़ गया। संस्मरण में कहानी का तत्व अधिक लगा, रोचक भी और मार्मिक भी।
अनुराग जी,
ReplyDeleteआप ने जो लिखा है, इसे कुछ कहानी कहेंगे, कुछ 'मनोहर कहानियां' सरीखी कथा भी कह सकते हैं, लेकिन मैं इस पर उतना ही विश्वास कर रही हूँ जितना सूरज हर रोज निकलता है, क्योंकि मेरे साथ ऐसी कई घटनाएं घटित हो चुकी हैं, मैं कल ही मनु बे-तक्खलुस जी से जिक्र कर रही थी की मेरे साथ बहुत सारी अजीब घटनाएं घटित हुई हैं, लेकिन मैं थोडी हिचक रही थी उन्हें अपने ब्लॉग पर डालने केलिए, आपके इस संस्मरण को पढ़-कर मुझमें भी साहस आया है, और अब मैं अपनी आप बीती जो शायद लोगों के गले ना उतरे लिखूंगी, और यकीं मानिये यह मन का भ्रम नहीं है, आपके साथ ज़रूर यह हुआ है, आप 'किल्लर' के इस प्रेम को सहेज कर रक्खें, वो आपके आस पास ही हैं
स्वप्न मंजूषा 'अदा'
अनुराग जी,
ReplyDeleteआप ने जो लिखा है, इसे कुछ कहानी कहेंगे, कुछ 'मनोहर कहानियां' सरीखी कथा भी कह सकते हैं, लेकिन मैं इस पर उतना ही विश्वास कर रही हूँ जितना सूरज हर रोज निकलता है, क्योंकि मेरे साथ ऐसी कई घटनाएं घटित हो चुकी हैं, मैं कल ही मनु बे-तक्खलुस जी से जिक्र कर रही थी की मेरे साथ बहुत सारी अजीब घटनाएं घटित हुई हैं, लेकिन मैं थोडी हिचक रही थी उन्हें अपने ब्लॉग पर डालने केलिए, आपके इस संस्मरण को पढ़-कर मुझमें भी साहस आया है, और अब मैं अपनी आप बीती जो शायद लोगों के गले ना उतरे लिखूंगी, और यकीं मानिये यह मन का भ्रम नहीं है, आपके साथ ज़रूर यह हुआ है, आप 'किल्लर' के इस प्रेम को सहेज कर रक्खें, वो आपके आस पास ही हैं
स्वप्न मंजूषा 'अदा'
स्मार्ट इंडियन साहब ,
ReplyDeleteकहानी पढ़ी रोचक भी लगी ;पसंद भी आयी बधाई |
परन्तु यहाँ पर आप के एक कदम पर किसी को हो या न हो मुझे आपत्ति है कथा के कल्पनिक होने की घोषणा जो अपने कहानी के अंत में किया वह सिरे से एक गलत निर्णय था ,
यह कहानी के शुरू में या प्रथम कड़ी के ही अंत में ही होना चाहिए था , आप ने जो किया वह पाठकों की भावनाओं से खेलना था | इतनी प्रशंसाओं के बाद मुझे इस बात की संभावना है की शायद मेरी बात बुरी लगे परन्तु जो मुझे सही लगा वह मैंने कह दिया है |