संजो के रखो इसे, हाथ से न जाने दो
बात निकलेगी तो बेकार चली जायेगी।
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जब कभी लोग बुरे वक़्त से गुज़रते हैं
गैर बच जाते हैं अपने ही बुरे बनते हैं।
-x-X-x-
छोड़ फूलों को परे काँटे जो उठाते हैं
ज़ख्म और दर्द ही हिस्से में उनके आते हैं ।
-x-X-x-
सर भी भारी नहीं ये दम भी आज घुटता नहीं,
बाद मुद्दत के मेरे अश्क बाँध तोड़ चले।
-x-X-x-
[अनुराग शर्मा]
[यह पोस्ट लिखते समय पिट्सबर्ग का तापमान शून्य से 13 डिग्री सेल्सियस नीचे है। और आज रात में (भारत में शुक्रवार की सुबह) यह शून्य से 20 अंश नीचे जाने वाला है ]
सर भी भारी नहीं ये दम भी आज घुटता नहीं,
ReplyDeleteबाद मुद्दत के मेरे अश्क बाँध तोड़ चले।
" भावुक अभिव्यक्ति...अश्को के बाँध टुटे तो सैलाब बह निकला ...बहुत सुंदर"
Regards
jab kabhi log bure -----bahut khoob likha hai badhaai
ReplyDeleteसर भी भारी नहीं ये दम भी आज घुटता नहीं,
ReplyDeleteबाद मुद्दत के मेरे अश्क बाँध तोड़ चले।
bahut shaandaar abhivyakti.
raam raam.
वाह।
ReplyDeleteछोड़ फूलों को परे कांटे जो उठाते हैं
ज़ख्म और दर्द ही हिस्से में उनके आते हैं ।
बहुत उम्दा। ये कुछ हमारे करीब लगा।
waah ji, majaa aa gaya, wah.
ReplyDeleteअच्छे अशआर हैं। पहला शेर बरबस ही 'बात निकली है तो दूर तलक जाएगी' की याद दिला देता है।
ReplyDeleteजब कभी लोग बुरे वक़्त से गुज़रते हैं
ReplyDeleteगैर बच जाते हैं अपने ही बुरे बनते हैं।
बहुत ही उम्दा बात कही आपने यही सच है ज़िन्दगी का सबसे बड़ा
nice, spcly 2nd para
ReplyDeleteवाह..बेजोड़। गजब के अशआर हैं, बात सीधे दिल में उतरती है। आम बोलचाल के शब्दों से बुनी आपकी शायरी की यह खासियत पाठकों को अपने प्रवाह में बहा ले जाती है।
ReplyDeleteये लाइन बड़ी अच्छी लगी:
ReplyDeleteगैर बच जाते हैं अपने ही बुरे बनते हैं।
और ये तो कभी-कभी हो जाता है :
बाद मुद्दत के मेरे अश्क बाँध तोड़ चले।
हर शेर एक से बढ कर एक. बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद
सर भी भारी नहीं ये दम भी आज घुटता नहीं,
ReplyDeleteबाद मुद्दत के मेरे अश्क बाँध तोड़ चले।
प्रभावित कर गयी यह अभिव्यक्ति !
Aap roj kuch na kuch likhte rahen, kya khoob likha hai.
ReplyDeleteअच्छे शेर हैं।
ReplyDeleteकविता पढ़ने पर जब नीचे का कोष्ठक में लिखा तापमान पढ़ा तो दशा की कल्पना नहीं कर पाया।
ReplyDeleteमैं तो यही सोचता रहा कि इस तापमान पर तेल की पटरियों की क्या दशा होती होगी। बस कौतूहल है।
सुंदर रचना के लिए साधुवाद.
ReplyDeleteसर भी भारी नहीं ये दम भी आज घुटता नहीं,
ReplyDeleteबाद मुद्दत के मेरे अश्क बाँध तोड़ चले।
चलो अच्छा ही हुआ, वर्ना यूं भी तो हो सकता था:
इक परिज़ाद की रुसवाई का डर है वरना,
हम भी सावन की तरह , खुल के बरसते यारों...
जब कभी लोग बुरे वक़्त से गुज़रते हैं
ReplyDeleteगैर बच जाते हैं अपने ही बुरे बनते हैं।
bahut sahi baat kahi hai aapne....
काफी दिनों बाद बेहतरीन अशआर पढे ।
ReplyDeleteशुभकामनाओं सहित अतुल
अनुराग भाई,
ReplyDeleteआपने खूब कहा जी ..
और ...
"मकर सँक्रात " गुजरा है
- तिल गुड खायेँ -
ठँड से भी बचाव और मिठास भी ..
आपके जाल घर पर पधारे सभी पाठकोँ को मकर सँक्रात की बधाई
अच्छे शेर हैं.
ReplyDeleteभई वाह... अनुराग जी.. अब समझ में आया कि ये शायरी की गरमी ही इस ठंड में बचा रही है आपको... खैर.. बढ़िया...
ReplyDeleteभई वाह अनुराग जी अब समझ में आया कि ये शायरी की गरमी ही इस ठंड में बचा रही है आपको खैर बढ़िया
ReplyDeleteभाई उत्तम. बहुत उम्दा शेर.
ReplyDeleteसर भी भारी नहीं ये दम भी आज घुटता नहीं,
ReplyDeleteबाद मुद्दत के मेरे अश्क बाँध तोड़ चले।
बहुत खूब अशआर लिखे हैं.
[sardi se bachey rahen..aur barf bari ka mazaa len...
जन्मदिन की बधाई का शुक्रिया अनुराग। मिठाई तो टोरांटो आने पर ही मिलेगी। प्लान बनाइये फ़ैमिली के साथ और आ जाइये।
ReplyDeleteछोटे छोटे बंद गहरे भावः बहुत सुंदर अनुराग जी
ReplyDeletePradeep Manoria
http://manoria.blogspot.com
http://kundkundkahan.blogspot.com
अनुराग जी
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत शेर हैं, संजो कर रखने के लिए
वाह...........
ReplyDeleteसुन्दर शेर.......
अनु