Saturday, January 3, 2009

पिट्सबर्ग का पानी [इस्पात नगरी ६]

इस्पात नगरी पिट्सबर्ग पर यह नई कड़ी मेरे वर्तमान निवास स्थल से आपका परिचय कराने का एक प्रयास है। अब तक की कड़ियाँ यहाँ उपलब्ध हैं: खंड 1; खंड 2; खंड 3; खंड 4; खंड 5
[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा. हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है.]



[प्रदूषण से काले पड़े इस गिरजाघर के पत्थरों का मूल रंग ही खो गया है]

मैंने अब तक पिट्सबर्ग के बारे में जो लिखा, आपने पसंद किया इसका धन्यवाद। पिछली बार बातों में ही ज़िक्र आ गया था माउंट वॉशिंग्टन (कोल हिल) का। वहाँ से कोयला खनन होता था और पहले तो स्थानीय फोर्ट पिट में प्रयोग में आ जाता था और बाद में मिलों में प्रयुक्त होने लगा और नदी परिवहन द्वारा दूसरे क्षेत्रों को निर्यात भी होने लगा। द्विवेदी जी ने इस बात पर हैरानी व्यक्त की है कि प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग चीन क्यों चले गए। बहुत से कारण हैं - कुछ मैं समझ सकता हूँ, कुछ का अंदाज़ लगा सकता हूँ और कुछ मेरी समझ और अंदाज़ के बाहर के भी हो सकते हैं। जितना मैं जानता हूँ उसके हिसाब एक पंक्ति का उत्तर है, "क्योंकि अमेरिका में लोग अपनी जीवन शैली चुनने को स्वतंत्र हैं जबकि चीन जैसे कम्युनिस्ट-तानाशाही में गरीब, मजबूर और मजलूम जनता को वह सब चुपचाप सहना पड़ता है जो कि साम्यवादी-पूंजीपति वर्ग (याने कि सरकार, नीति-निर्धारक नेता, अधिकारी और शक्तिशाली धनपति वर्ग) अपने निहित स्वार्थ के लिए उन पर थोपता है।" शायद आपको याद हो कि ओलंपिक खेलों के दौरान तिब्बत में दमन करने के अलावा चीन ने बहुत से कारखाने भी अस्थायी रूप से बंद कर दिए थे ताकि विदेशी मेहमानों को वहाँ का प्रदूषण दिखाई न दे।

[धुंए से काला पडा हुआ पिट्सबर्ग विश्व विद्यालय का "कथीड्रल ऑफ़ लर्निंग" भवन]

विस्तार से कहूं तो जब अमेरिका के लोगों ने प्रदूषण के दुष्प्रभावों को पहचानना शुरू किया तो यहाँ पर बहुत से परिवर्तन आए। प्रदूषण रोकने के लिए कठोर नियम बने और उनका पालन न कर सकने वालों को अपनी दुकानें समेटनी पड़ीं। नयी जानकारियाँ आने पर तम्बाकू आदि पर आधारित व्यवसायों का नीति-नियंत्रण शुरू हुआ, अनेकों दवाओं पर प्रतिबन्ध लगे, नए बाँध बनने बंद हो गए, और चेर्नोबिल आदि की दुर्घटनाओं के बाद से तो कोई नया परमाणु बिजलीघर भी नहीं बना। प्रजातंत्र में धर्महीन साम्यवाद, अक्षम रजवाडों या निरंकुश सैनिक शासनों की तरह विरोधियों पर टैंक चलाने की कोई गुंजाइश नहीं है।

शायद इन्हीं सुधारों का परिणाम है कि घर से बाहर निकलते ही मैं हिरणों के झुंड को बस्ती के बीच से सड़कों पर होते हुए गुज़रता हुआ देख पाता हूँ। सड़कों के किनारे घास के बड़े समतल टुकडों पर अन्य बहुत से पक्षियों के साथ-साथ कृष्ण-हंस (सुरखाब) के झुंड के झुंड बैठे हुए दीखते हैं। घर से दफ्तर आते-जाते प्रदूषण-रहित साफ़ नीला आसमान दिखाई दे तो अच्छा लगता है। वैसे भी पिट्सबर्ग में साल में सिर्फ़ ९५ दिन ही आसमान खुला होता है, जैसे कि आज था वरना तो वर्षा या बर्फ लगी ही रहती है। नीचे के दृश्य में देखिये बर्फ से ढँकी हुई एक गली का चित्र:

माफ़ कीजिए, आज मेंने जल-परिवहन के बारे में लिखने का सोचा था मगर बात प्रदूषण से आगे न जा सकी। अगली कड़ी में मैं आपको बताऊंगा पिट्सबर्ग के अनोखे इन्क्लाइन परिवहन की और उसके बाद यहाँ की अनोखी उभयचर बस-नौका (डक=बत्तख) के बारे में। और उसके बाद किसी दिन यहाँ के भारतीय जीवन की - यानी मन्दिर, भारतीय भोजन, गीत-संगीत और पन्द्रह अगस्त की। तब तक के लिए - आज्ञा दीजिये।

==========================================
इस्पात नगरी से - अन्य कड़ियाँ
==========================================

16 comments:

  1. इसे पढ़ना बहुत अच्छा लगा। बाकी के लेख भी पढ़ने पड़ेंगे।

    ReplyDelete
  2. पिट्सबर्ग के अतीत और वर्तमान से जुड़े विभिन्‍न पहलुओं के बारे में आप बहुत अच्‍छी जानकारी दे रहे हैं। नेट पर कम आने की वजह से पिछली कडियां नहीं पढ़ पाया था, आज उन पर भी एक नजर डाली। मनमोहक चित्रों ने श्रृंखला की सार्थकता और बढ़ा दी है।
    अनुराग भाई, हमारी भी कामना है कि नया साल आपके और आपके परिवार के लिए खुशियों और सफलता से भ्‍ारा हो। हार्दिक शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  3. पहले तो मैं आप से क्षमा चाहूँगा कि मेरे कारण आप को अपने लेखों की कार्यसूची को दो बार तोड़ना पड़ा। मैं ने पाठक होने के अधिकार से अपने प्रश्न आप के सामने रखे थे। मुझे प्रसन्नता है कि आप ने उन के त्वरित उत्तर भी दिए।

    मुझे क्षमा करेंगे, मेरी आज के उत्तर से कुछ असहमति है। क्यों कि आप ने अमरीका के प्रजातंत्र को प्रदूषण वाले उद्योगों के पलायन का कारण बताया और उन का चीन पहुँचना वहाँ की तानाशाही या सरकारी पूंजीवाद को बताया। मैं इस से सहमत नहीं। क्यों कि भारत में तो प्रजातंत्र है, पर यहाँ मेरे निवास स्थान कोटा में चम्बल के उस किनारे एक थर्मल बिजली घर की छह यूनिटें खड़ी हैं, सातवीं निर्माणाधीन है। जब कि इस किनारे नगर है और चिमनियों से धुंए सी निकली कोयले की राख और कोयले के कण लगातार नगर में बरसते रहते हैं। छतें काली हो गई हैं। गर्मी में कोई छत पर सो नहीं सकता, सुबह तक बिस्तर समेत भूतिया हो जाए।

    इस कारखाने का विरोध भी हुआ। पर्यावरण के लिए कानून भी है, मुकदमे भी हुए। लेकिन विकास के नाम पर बिजलीघर शहर की छाती पर लाद दिए गए।

    वास्तव में यह अमरीका की अर्थशक्ति के कारण है कि वहाँ से प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को उन्हों ने विकासशील देशों पर लाद दिया है। मुनाफा अमरीकी पूंजीपति चीन और भारत में उद्योग लगा कर भी कमा रहा है। बस इन देशों को लाभ इतना है कि कुछ लोगों को रोजगार मिला है।

    वास्तविकता तो यह है कि अमरीका ने दुनिया के विकासशील और अविकसित देशों को अपना कूड़ाघर बना लिया है। भारत जैसे देश और उस के निवासी विकासशील होने की कीमत चुका रहे हैं।

    ReplyDelete
  4. आदरणीय द्विवेदी जी,
    आपने अपनी टिप्पणी में अपने प्रश्न का उत्तर स्वयं ही दे दिया है. उत्तर का एक पहलू आपके पास पहले से है यह मैं जानता था मगर मैंने आपके दिए हुए अवसर का लाभ उठाकर आपके उत्तर से छिपे रहे पहलू को ही उजागर करने की कोशिश की है. जो साम्यवादी दल सर्वहारा का नाम लेते हुए उनकी कृषी योग्य भूमि को जबरन छीनकर उद्योगपतियों को बेचते हैं और विरोध करने वालों को गोलियों से भून डालते हैं वही साम्यवादी दल भारत के परमाणु ऊर्जा करार का विरोध भी करते हैं - और उसके इस पक्ष को जनता से छिपाकर रखते हैं की उस करार से देश की ऊर्जा की एक बड़ी ज़रूरत वायु प्रदूषण के बिना पूरी हो सकेगी.

    ReplyDelete
  5. अतीत और वर्तमान से जुड़े विभिन्‍न पहलुओं के बारे में आप बहुत अच्‍छी जानकारी दे रहे हैं।

    ReplyDelete
  6. बहुत शानदार जानकारी मिल रही है. ऐसी श्रंखला तो चालू ही रहनी चाहिये, चाहे तो इसे साप्ताहिक पिटस्बर्ग नाम दे कर साप्ताहिक कर दिया जाये. बहुत जानकारीपरक है ये .

    रामराम.

    ReplyDelete
  7. इतनी विस्तृत और रोचक जानकारी भरे लेख के लिए आभार। नव वर्ष मंगलमय हो।

    ReplyDelete
  8. खुला आसमान और पक्षी अब यहाँ तो देखने कहीं शहर के बाहर ही जाना पड़ता है :)..अच्छा लगा वहां का प्रदूषण रहित वातवरण पढ़ कर

    ReplyDelete
  9. अच्छी जानकारियाँ मिल रही हैं !

    ReplyDelete
  10. ***और चेर्नोबिल आदि की दुर्घटनाओं के बाद से तो कोई नया परमाणु बिजलीघर भी नहीं बना।****
    जी अब बनेगा भी नही, ओर चीन की तरह ही अब यह परमाणु बिजली घर भारत की शोभा बढायेगे, यही फ़र्क है एक आजाद ओर.... देश के लोगो का.बुश साहब इसी लिये बेताब थे, ओर हमारे मनमोहन जी देश को भुलावे मे डाल कर अब वहा का गन्द भारत मे डालेगे.
    आप ने बहुत ही सुंदर ढंग से अपने यहां का विवरण दिया.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  11. ताऊ, आपका सुझाव बहुत अच्छा है. मैं बहुत से विषयों पर लिखना अब तक इसीलिये छोड़ता रहा था कि शुरू करो तो एक श्रंखला सी बन जाती है और श्रंखला बीच में न टूटे इसके लिए कई अन्य सामयिक विषय छूट जाते हैं- ठीक है, "इस्पात नगरी से..." को साप्ताहिक करने का सुझाव आज से लागू. बाकी के दिनों में हमेशा की तरह कुछ भी चलता रहेगा.

    ReplyDelete
  12. Wah bandhuwar, jaankaari achhi lagi or अनंत शुभकामनाएं..........

    ReplyDelete
  13. अमेरिका के बारे मैं नयी नयी जानकारी मिल रही है
    पढ़ कर अच्छा लग रहा है

    ReplyDelete
  14. आपकी प्रस्‍तुति और उस पर द्विवेदीजी की टिप्‍पणियों ने मुझ जैसे समस्‍त पाठकों का भला किया ।
    अच्‍छी जानकारियां ।

    ReplyDelete
  15. ऐसा नहीं है, कि बाद में कोई परमाणु बिजली घर नहीं बना . मेरे ही शहर में भारत सरकार का रक्षा उपक्रम Centre of Advance Technology में एक लघु परमाणु रियेक्टर (प्रयोगों के लिये)बना है.

    कुछ साल पहले तक इन्दौर एक प्रदूषण रहित , अच्छे जलवायु युक्त शहर हुआ करता था. मगर अभी अभी ये छुपी जुबान में कहा जा रहा है, कि जब से C A T यहां आया है, और परमाणु कचरे का प्रबंधन किया जा रहा है,हमारे यहा खांसी, और दमा की एलर्गी के केसेस पिछले २० सालों से बहुत बढ गये है. बात वही , विकास का ये महादानव क्य क्या लील जायेग, अभी देखना है.

    एक बात और. थर्मल पावर स्टेशन का प्रोजेक्ट करने वाली ग्लोबल संस्था Alstom के लिये नई तकनीक के Static Ash Collectors को डिज़ाईन करने (सप्लाई के लिये) उनके मुख्यालय फ़िनलॆड में जाने का मौका मिला. पता चला कि सिर्फ़ विकसनशील (Developing) देशों में ही उनके प्रोजेक्ट चल रहे है.( भारत भी).कार्बन क्रेडिट के मायाजाल से वे कहीं कहीं Developed देशों में भी पैर जमा रहे है.

    साप्ताहिकी का इन्तेज़ार रहेगा.

    ReplyDelete

मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।