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राजेश जब राजनगर के मिशन हाई स्कूल का प्राचार्य था तब कल्लर भी उसी स्कूल में पढता था। तब से ही वे एक दूसरे को जानते थे। बंगलोर में वे दोनों एक ही होटल में रुके थे और सुबह शाम प्रशिक्षण केन्द्र व होटल के बीच एक साथ ही आते जाते थे। स्वभाव में एकदम विपरीत होते हुए भी वे दोनों एक दूसरे से बहुत घुले-मिले थे।
इस प्रशिक्षण के बाद मुझे आरा में पोस्टिंग मिली थी। बाकी सब साथी भी देश भर में बिखरी शाखाओं में बिखर जाने वाले थे। राजेश चेन्नई जा रहा था। वह तो कहीं भी रहकर खुश था। ज़्यादातर लोगों को अपने मन मुताबिक पोस्टिंग मिल गयी थीं। सभी लड़कियों को अपने-अपने गृह नगर में ही रहने को मिला था। यह पोस्टिंग्स सिर्फ़ चार महीने के लिए थीं। इनमें हमें कोई सरकारी निवास नहीं मिलने वाला था। अलबत्ता किराए के नाम पर हर महीने एकमुश्त तय रकम ज़रूर मिलनी थी। छोटे नगरों में मिलने वाली रकम किराए के लिए काफी थी। मगर आरा जैसे मध्यम आकार के नगर में न तो चार महीने के लिए कोई घर मिलता और न ही किसी घर का किराया उस रकम में पूरा पड़ने वाला था।
राजेश ने बताया कि कल्लर को भी आरा में ही एक और ब्रांच में जाना है। कल्लर - और कुछ हद तक राजेश भी - चाहता था कि मैं और कल्लर किसी ठीक-ठाक से होटल में साथ ही रहें। दोनों का मासिक किराया मिलाकर इतना पैसा बन जायेगा कि किसी रहने लायक होटल में एक सूइट मिल सके। मैं कल्लर जैसे लड़के के साथ रह सकूंगा इसमें मुझे शक था। शराब और मांसाहार उसकी दैनिक खुराक में शामिल थे और मैं ठहरा शुद्ध शाकाहारी। वह चेन-स्मोकर और मैं टी-टोटलर। मगर वह तो चिपक सा ही गया। राजेश ने हम दोनों को साथ बैठाकर समझाया कि नए शहर में साथ रहना हम दोनों के ही हित में है और विपरीत आदतें होने के कारण हम लोगों को एक दूसरे के अनुभव से बहुत कुछ सीखने की गुंजाइश भी है। वैसे भी बैंकिंग एक ऐसा व्यवसाय हैं जिसमें न तो किसी का भरोसा ही किया जा सकता है और न ही भरोसे के बिना काम चल सकता है।
राजेश की बात हम दोनों की मगज में धंस गयी। हमने एक दूसरे को बर्दाश्त करने का वायदा किया और प्रशिक्षण पूरा होने पर एक ही रेल से एकसाथ आरा पहुँच गए। कल्लर ने हमारे साथ के एक और प्रशिक्षु के द्वारा किसी से पहले से ही कहकर एक होटल में एक कमरा भी बुक कर लिया था। शुरू में तो मुझे थोड़ी कठिनाई हुई। फ़िर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। कुछ ही दिनों में मैंने देखा कि कल्लर दोस्त बनाने में काफी माहिर था। थोड़े ही दिनों में हम दोनों शहर में काफी लोकप्रिय हो गए।
आरा में हम दोनों ने एक दूसरे को बेहतर पहचाना। मुझे पता लगा कि वह बहुत सा पैसा इसलिए कमाना चाहता है ताकि जीवन भर अभावों में रहे उसके बूढ़े माता-पिता अपना शेष जीवन सुख से गुजार सकें। वह जीवन में सफलता इसलिए पाना चाहता है ताकि अपने बचपन की मित्र अनिता के सामने शादी का प्रस्ताव रख सके। मैंने पाया कि शोर-शराबे के शौकीन उस कुछ-कुछ उच्छ्रन्खल लड़के के भी अपने बहुत से ख्वाब हैं। तथाकथित फैशन और आधुनिकता के पीछे भागने वाला कल्लर भी अपने से ज़्यादा अपने माँ-बाप के लिए जीना चाहता था। वह यह भी चाहता था कि अपनी छोटी बहन को अच्छी तरह पढा-लिखा सके।
मेरी अगली पोस्टिंग लखनऊ में थी। मैं खुश था कि राजेश भी वहीं पास के एक कसबे में आ रहा था। इसी बीच में कल्लर को सिटीबैंक से नौकरी का बुलावा आया और उसने अपना त्यागपत्र दे दिया। वह कहता था कि वह सिटीबैंक में भी रुकने वाला नहीं है। जो कंपनी भी उसे ज़्यादा पैसा देती रहेगी, वह वहाँ जाता रहेगा - सरकारी, लोक, निजी, छोटी, बड़ी, देशी, विदेशी, चाहे जैसा भी उपक्रम हो। जिस दिन मैं आरा से लखनऊ के लिए चला, उससे दो हफ्ते पहले ही वह अपनी नई नौकरी के लिए दिल्ली जा चुका था। उस ज़माने में सेल फ़ोन का प्रचलन नहीं था सो हम लोग ज़्यादा संपर्क में नहीं रहे।
लखनऊ में राजेश से अक्सर मुलाक़ात होती रहती थी। फ़ोन पर तो लगभग रोजाना ही बात होती थी। आज जब मैंने फ़ोन पर उसके "हेल्लो" सुनी तो इसे रोजाना का आम फ़ोन काल ही समझा। क्या पता था कि वह कल्लर के बारे इतनी बड़ी ख़बर सुनाने वाला था। आगरा के चार महीने के प्रवास के दौरान मैंने कल्लर नाम के उस ऊपर से शोर-शराबा करते रहने वाले लड़के को नज़दीक से देखा था। कुछ सहनशक्ति तो मैंने भी विकसित की थी और शायद उसकी प्रकृति में भी मेरे साथ रहने से कुछ परिवर्तन आए थे।
राजेश के चेहरे पर मुर्दनी छाई हुई थी। उसने आते ही चुपचाप एक अंग्रेजी समाचारपत्र की कतरन मेरे सामने रख दी। कतरन में कल्लर के जाने की ख़बर को विस्तार से दिया हुआ था। श्रीनगर के एक बाग़ में कुछ आतंकवादियों ने दिनदहाडे राजनगर के मूल निवासी एक सरकारी अफसर श्रीमान कल्लर को पकड़कर उसका नाम पूछा जब नाम से समझ नहीं आया तो उसका धर्म पूछा। जैसे ही हमलावरों को यह तसल्ली हो गयी कि वह मुसलमान नहीं है तब पहले तो उन्होंने उसे इतना पीटा कि वह अपने होश खो बैठा और उसके बाद उसे पहले ही खदेड़ दिए गए विस्थापित पंडितों से खाली कराये गए एक लकडी के मकान में डालकर ज़िंदा ही जला दिया। दो दिन बाद किसी स्थानीय व्यक्ति ने गुमनाम फ़ोन करके एक मकान में आग लगने की सूचना दी। बाद में सारा किस्सा खुला और यह ख़बर अखबारों की सुर्खी बनी।
हे भगवान्, एक मासूम व्यक्ति का इतना भयावह अंत! सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वह आतंकवादियों के धर्म का नहीं था। यह स्वीकार कर पाना भी असंभव था कि आज के सभ्य समाज में भी जाहिलिया युग के हैवान न सिर्फ़ छुट्टे घूम रहे हैं बल्कि जिसे चाहें, जब चाहें, अपनी हैवानियत का निशाना भी बना सकते हैं।
जब मैंने राजेश को याद दिलाया कि कल्लर तो सिटीबैंक में था तब उसने बताया कि वह दिल्ली छोड़कर एक सरकारी नौकरी में श्रीनगर चला गया था। जब मैंने यह शंका व्यक्त की कि राजनगर से उस नाम का कोई और व्यक्ति भी तो हो सकता है जो भारत सरकार की नौकरी में हो तो राजेश ने बताया कि वह राजनगर के आदिवासी ईसाई समुदाय को बहुत अच्छी तरह से जानता है। और यह व्यक्ति हमारे कल्लर के अतिरिक्त और कोई नहीं है।
उन दिनों मैंने विनोबा भावे के गीता प्रवचन पढ़ना शुरू किया था। मैं घर से दफ्तर आते-जाते रोजाना ही वह पुस्तक पढता था। दो दिन पहले ही पुस्तक पूरी हुई थी और उस समय मेरी मेज़ पर रखी थी। मैंने उस कतरन को उसी पुस्तक में रख दिया। शाम को मैं पुस्तक अपने साथ घर ले गया। घर जाकर मैंने उस कतरन को कितनी बार पढा, मैं बता नहीं सकता। मैंने कल्लर पर पड़ने वाले हर प्रहार को अपने ऊपर महसूस किया। हाथ-पाँव तोडे गए इंसान को ज़िंदा जला दिया जाना कैसे सहन हुआ होगा, मैं सोच भी नहीं पाता था। ईश्वर अपनी संतानों पर ऐसे अत्याचार क्यों होने देता है, यह बात समझ ही न आती थी। बार-बार ईश्वर के अस्तित्व को ही सिरे से नकारने को जी करता था।
आपको शायद सुनने में विरोधाभास सा लगे मगर मुझे ईश्वर के प्रति क्षोभ से मुक्ति भी ईश्वर के प्रति दृढ़ आस्था से ही मिली। धीरे-धीरे समय बीता। मैं नौकरी में स्थायी हो गया। दिल्ली में स्थानान्तरण हुआ, शादी हुई, परिवार बना। कल्लर की बात ध्यान से उतर चुकी थी कि एक दिन वही किताब पत्नी के हाथ लगी। कतरन पढ़कर वह सहम सी गयी। फ़िर पूछा तो मैंने सारी बात बतायी। तब तक शायद मैंने कभी भी उससे कल्लर के बारे में कोई बात नहीं की थी। बहुत देर तक हम दोनों चुपचाप रहे फ़िर मैंने कतरन उसके हाथ से लेकर वापस उसी किताब में रख दी और किताब को अपनी जगह पर वापस पहुँचा दिया।
अगले दिन मैं अपने एक निकटस्थ सहकर्मी प्रशांत को काम के सिलसिले में कुछ बात बताकर हटा ही था कि मैंने जो देखा उससे मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं।
[क्रमशः]
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राजेश जब राजनगर के मिशन हाई स्कूल का प्राचार्य था तब कल्लर भी उसी स्कूल में पढता था। तब से ही वे एक दूसरे को जानते थे। बंगलोर में वे दोनों एक ही होटल में रुके थे और सुबह शाम प्रशिक्षण केन्द्र व होटल के बीच एक साथ ही आते जाते थे। स्वभाव में एकदम विपरीत होते हुए भी वे दोनों एक दूसरे से बहुत घुले-मिले थे।
इस प्रशिक्षण के बाद मुझे आरा में पोस्टिंग मिली थी। बाकी सब साथी भी देश भर में बिखरी शाखाओं में बिखर जाने वाले थे। राजेश चेन्नई जा रहा था। वह तो कहीं भी रहकर खुश था। ज़्यादातर लोगों को अपने मन मुताबिक पोस्टिंग मिल गयी थीं। सभी लड़कियों को अपने-अपने गृह नगर में ही रहने को मिला था। यह पोस्टिंग्स सिर्फ़ चार महीने के लिए थीं। इनमें हमें कोई सरकारी निवास नहीं मिलने वाला था। अलबत्ता किराए के नाम पर हर महीने एकमुश्त तय रकम ज़रूर मिलनी थी। छोटे नगरों में मिलने वाली रकम किराए के लिए काफी थी। मगर आरा जैसे मध्यम आकार के नगर में न तो चार महीने के लिए कोई घर मिलता और न ही किसी घर का किराया उस रकम में पूरा पड़ने वाला था।
राजेश ने बताया कि कल्लर को भी आरा में ही एक और ब्रांच में जाना है। कल्लर - और कुछ हद तक राजेश भी - चाहता था कि मैं और कल्लर किसी ठीक-ठाक से होटल में साथ ही रहें। दोनों का मासिक किराया मिलाकर इतना पैसा बन जायेगा कि किसी रहने लायक होटल में एक सूइट मिल सके। मैं कल्लर जैसे लड़के के साथ रह सकूंगा इसमें मुझे शक था। शराब और मांसाहार उसकी दैनिक खुराक में शामिल थे और मैं ठहरा शुद्ध शाकाहारी। वह चेन-स्मोकर और मैं टी-टोटलर। मगर वह तो चिपक सा ही गया। राजेश ने हम दोनों को साथ बैठाकर समझाया कि नए शहर में साथ रहना हम दोनों के ही हित में है और विपरीत आदतें होने के कारण हम लोगों को एक दूसरे के अनुभव से बहुत कुछ सीखने की गुंजाइश भी है। वैसे भी बैंकिंग एक ऐसा व्यवसाय हैं जिसमें न तो किसी का भरोसा ही किया जा सकता है और न ही भरोसे के बिना काम चल सकता है।
राजेश की बात हम दोनों की मगज में धंस गयी। हमने एक दूसरे को बर्दाश्त करने का वायदा किया और प्रशिक्षण पूरा होने पर एक ही रेल से एकसाथ आरा पहुँच गए। कल्लर ने हमारे साथ के एक और प्रशिक्षु के द्वारा किसी से पहले से ही कहकर एक होटल में एक कमरा भी बुक कर लिया था। शुरू में तो मुझे थोड़ी कठिनाई हुई। फ़िर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। कुछ ही दिनों में मैंने देखा कि कल्लर दोस्त बनाने में काफी माहिर था। थोड़े ही दिनों में हम दोनों शहर में काफी लोकप्रिय हो गए।
आरा में हम दोनों ने एक दूसरे को बेहतर पहचाना। मुझे पता लगा कि वह बहुत सा पैसा इसलिए कमाना चाहता है ताकि जीवन भर अभावों में रहे उसके बूढ़े माता-पिता अपना शेष जीवन सुख से गुजार सकें। वह जीवन में सफलता इसलिए पाना चाहता है ताकि अपने बचपन की मित्र अनिता के सामने शादी का प्रस्ताव रख सके। मैंने पाया कि शोर-शराबे के शौकीन उस कुछ-कुछ उच्छ्रन्खल लड़के के भी अपने बहुत से ख्वाब हैं। तथाकथित फैशन और आधुनिकता के पीछे भागने वाला कल्लर भी अपने से ज़्यादा अपने माँ-बाप के लिए जीना चाहता था। वह यह भी चाहता था कि अपनी छोटी बहन को अच्छी तरह पढा-लिखा सके।
मेरी अगली पोस्टिंग लखनऊ में थी। मैं खुश था कि राजेश भी वहीं पास के एक कसबे में आ रहा था। इसी बीच में कल्लर को सिटीबैंक से नौकरी का बुलावा आया और उसने अपना त्यागपत्र दे दिया। वह कहता था कि वह सिटीबैंक में भी रुकने वाला नहीं है। जो कंपनी भी उसे ज़्यादा पैसा देती रहेगी, वह वहाँ जाता रहेगा - सरकारी, लोक, निजी, छोटी, बड़ी, देशी, विदेशी, चाहे जैसा भी उपक्रम हो। जिस दिन मैं आरा से लखनऊ के लिए चला, उससे दो हफ्ते पहले ही वह अपनी नई नौकरी के लिए दिल्ली जा चुका था। उस ज़माने में सेल फ़ोन का प्रचलन नहीं था सो हम लोग ज़्यादा संपर्क में नहीं रहे।
लखनऊ में राजेश से अक्सर मुलाक़ात होती रहती थी। फ़ोन पर तो लगभग रोजाना ही बात होती थी। आज जब मैंने फ़ोन पर उसके "हेल्लो" सुनी तो इसे रोजाना का आम फ़ोन काल ही समझा। क्या पता था कि वह कल्लर के बारे इतनी बड़ी ख़बर सुनाने वाला था। आगरा के चार महीने के प्रवास के दौरान मैंने कल्लर नाम के उस ऊपर से शोर-शराबा करते रहने वाले लड़के को नज़दीक से देखा था। कुछ सहनशक्ति तो मैंने भी विकसित की थी और शायद उसकी प्रकृति में भी मेरे साथ रहने से कुछ परिवर्तन आए थे।
राजेश के चेहरे पर मुर्दनी छाई हुई थी। उसने आते ही चुपचाप एक अंग्रेजी समाचारपत्र की कतरन मेरे सामने रख दी। कतरन में कल्लर के जाने की ख़बर को विस्तार से दिया हुआ था। श्रीनगर के एक बाग़ में कुछ आतंकवादियों ने दिनदहाडे राजनगर के मूल निवासी एक सरकारी अफसर श्रीमान कल्लर को पकड़कर उसका नाम पूछा जब नाम से समझ नहीं आया तो उसका धर्म पूछा। जैसे ही हमलावरों को यह तसल्ली हो गयी कि वह मुसलमान नहीं है तब पहले तो उन्होंने उसे इतना पीटा कि वह अपने होश खो बैठा और उसके बाद उसे पहले ही खदेड़ दिए गए विस्थापित पंडितों से खाली कराये गए एक लकडी के मकान में डालकर ज़िंदा ही जला दिया। दो दिन बाद किसी स्थानीय व्यक्ति ने गुमनाम फ़ोन करके एक मकान में आग लगने की सूचना दी। बाद में सारा किस्सा खुला और यह ख़बर अखबारों की सुर्खी बनी।
हे भगवान्, एक मासूम व्यक्ति का इतना भयावह अंत! सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वह आतंकवादियों के धर्म का नहीं था। यह स्वीकार कर पाना भी असंभव था कि आज के सभ्य समाज में भी जाहिलिया युग के हैवान न सिर्फ़ छुट्टे घूम रहे हैं बल्कि जिसे चाहें, जब चाहें, अपनी हैवानियत का निशाना भी बना सकते हैं।
जब मैंने राजेश को याद दिलाया कि कल्लर तो सिटीबैंक में था तब उसने बताया कि वह दिल्ली छोड़कर एक सरकारी नौकरी में श्रीनगर चला गया था। जब मैंने यह शंका व्यक्त की कि राजनगर से उस नाम का कोई और व्यक्ति भी तो हो सकता है जो भारत सरकार की नौकरी में हो तो राजेश ने बताया कि वह राजनगर के आदिवासी ईसाई समुदाय को बहुत अच्छी तरह से जानता है। और यह व्यक्ति हमारे कल्लर के अतिरिक्त और कोई नहीं है।
उन दिनों मैंने विनोबा भावे के गीता प्रवचन पढ़ना शुरू किया था। मैं घर से दफ्तर आते-जाते रोजाना ही वह पुस्तक पढता था। दो दिन पहले ही पुस्तक पूरी हुई थी और उस समय मेरी मेज़ पर रखी थी। मैंने उस कतरन को उसी पुस्तक में रख दिया। शाम को मैं पुस्तक अपने साथ घर ले गया। घर जाकर मैंने उस कतरन को कितनी बार पढा, मैं बता नहीं सकता। मैंने कल्लर पर पड़ने वाले हर प्रहार को अपने ऊपर महसूस किया। हाथ-पाँव तोडे गए इंसान को ज़िंदा जला दिया जाना कैसे सहन हुआ होगा, मैं सोच भी नहीं पाता था। ईश्वर अपनी संतानों पर ऐसे अत्याचार क्यों होने देता है, यह बात समझ ही न आती थी। बार-बार ईश्वर के अस्तित्व को ही सिरे से नकारने को जी करता था।
आपको शायद सुनने में विरोधाभास सा लगे मगर मुझे ईश्वर के प्रति क्षोभ से मुक्ति भी ईश्वर के प्रति दृढ़ आस्था से ही मिली। धीरे-धीरे समय बीता। मैं नौकरी में स्थायी हो गया। दिल्ली में स्थानान्तरण हुआ, शादी हुई, परिवार बना। कल्लर की बात ध्यान से उतर चुकी थी कि एक दिन वही किताब पत्नी के हाथ लगी। कतरन पढ़कर वह सहम सी गयी। फ़िर पूछा तो मैंने सारी बात बतायी। तब तक शायद मैंने कभी भी उससे कल्लर के बारे में कोई बात नहीं की थी। बहुत देर तक हम दोनों चुपचाप रहे फ़िर मैंने कतरन उसके हाथ से लेकर वापस उसी किताब में रख दी और किताब को अपनी जगह पर वापस पहुँचा दिया।
अगले दिन मैं अपने एक निकटस्थ सहकर्मी प्रशांत को काम के सिलसिले में कुछ बात बताकर हटा ही था कि मैंने जो देखा उससे मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं।
[क्रमशः]
कहानी का दूसरा भाग और अधिक रोचक तथा जिज्ञासा बढाने वाला है। लगता है, आप 'चन्द्रकान्ता' का, इक्कीसवीं सदी का संस्करण प्रस्तुत कर रहे हैं। अगली कडी की प्रतीक्षा और अधिक आतुरता से है।
ReplyDeleteएक सूत्र वाक्य आपने बहुत ही सुन्दर दिया है - बैंकिंग ऐसा व्यवसाय है जिसमे किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता और बिना भरोसे के काम नहीं चलता।
मैंने कल्लर पर पड़ने वाले हर प्रहार को अपने ऊपर महसूस किया। हाथ-पाँव तोडे गए इंसान को ज़िंदा जला दिया जाना कैसे सहन हुआ होगा, मैं सोच भी नहीं पाता था। ईश्वर अपनी संतानों पर ऐसे अत्याचार क्यों होने देता है, यह बात समझ ही न आती थी। बार-बार ईश्वर के अस्तित्व को ही सिरे से नकारने को जी करता था।
ReplyDelete" उफ़! कितना दर्दनाक वाकया रहा होगा ये, पढ़कर मन व्याकुल हो गया है, जब ऐसा खर इंसानियत पर टूटता है तो सच कहा इश्वर का आस्तित्व भी झूठा ही लगता है ...... बहुत सम्वेदनशील कथानक ...आगे का इन्तजार...."
regards
कल्लर भी उसी स्कूल में पढ़ता था? आप का मतलब कहीं पढ़ाता से तो नही है। अगर पढ़ता था तो राजेश और कल्लर के बीच के संबंध पढ़ने और पढ़ाने वाले प्राचार्य जैसे नही लगते।
ReplyDeleteकहानी ने अच्छा प्रवाह पकडा है, और जैसा कि बैरागी जी ने भी कहा कुछ सुत्र बहुत बढिया हैं.
ReplyDeleteअंत म्र यह लिख कर कि "अगले दिन मैं अपने एक निकटस्थ सहकर्मी प्रशांत को काम के सिलसिले में कुछ बात बताकर हटा ही था कि मैंने जो देखा उससे मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं।
कहानी के सस्पेन्स को और बढा दिया है. इन्तजार रहेगा.
रामराम.
बहुत सुंदर ; बेहतरीन कथा अगली कड़ी का इंतज़ार है
ReplyDeleteकल्लर भी उसी स्कूल में पढ़ता था? आप का मतलब कहीं पढ़ाता से तो नही है। अगर पढ़ता था तो राजेश और कल्लर के बीच के संबंध पढ़ने और पढ़ाने वाले प्राचार्य जैसे नही लगते।
ReplyDelete~ तरुण
@तरुण जी,
आपकी टिप्पणियों के लिए धन्यवाद! मुझे नहीं मालूम कि किसी स्कूल के प्राचार्य और छात्र पाँच-छः साल बाद जब एक दूसरे से सहकर्मी के रूप में मिलें तो भी उनके बीच के सम्बन्ध किसी सेट सांचे में ढले ही लगने चाहिए मगर जितना मैंने देखा और जाना वही मैंने पहले पैराग्राफ में कहा है, "बंगलोर में वे दोनों एक ही होटल में रुके थे और सुबह शाम प्रशिक्षण केन्द्र व होटल के बीच एक साथ ही आते जाते थे। स्वभाव में एकदम विपरीत होते हुए भी वे दोनों एक दूसरे से बहुत घुले-मिले थे।"
@सीमा जी,
ReplyDeleteशायद दूसरों के दर्द को महसूस कर सकने की यही क्षमता हम नश्वर जीवों को बेहतर इंसान बनाती है (संतों की बात और हो सकती है - मुझे पता नहीं). शर्म की बात है कि फ़िर भी हमारे बीच के कुछ लोग दूसरों के साथ वह सब आराम से कर गुज़रते हैं जो खुद के लिए एक क्षण भी बर्दाश्त न कर सकें.
@तरुण जी, मनोरिया जी, विष्णु जी और रामपुरिया जी,
उत्साह बढ़ाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!
@विष्णु जी और रामपुरिया जी,
यहाँ भी और पहले भी आप दोनों की पोस्ट्स, समीक्षाओं और विस्तृत टिप्पणियों से मेरे लेखन में पहले से काफी सुधार आया है, धन्यवाद!
रोमांच बरकरार है................
ReplyDeleteअगली कड़ी का इंतज़ार है..........
इतनी लम्बी कहानी के बावजूद प्रवाह भरपूर है, इस हेतु आप बधाई के पात्र हैं।
ReplyDeleteसस्पेंस.... ! शीर्षक और आखिरी लाइन सस्पेंस बढ़ा ही रहे हैं.
ReplyDeleteहे भगवान्, एक मासूम व्यक्ति का इतना भयावह अंत! सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वह आतंकवादियों के धर्म का नहीं था,लेकिन एक ्तरफ़ तो इस धर्म वाले चिल्लते है कि आतंकवादियो का कोई धर्म नही, ओर वोही लोग इन आतंकवादियो को सहारा देते है, फ़लने फ़ुलने मै मदद करते है,
ReplyDeleteआप की कहानी ने तो रोंगटे खडे कर दिये,ओर बहुत उदास कर दिया, चलिये अगली कडी का इन्तजार है,
धन्यवाद
अनुराग जी, माफी चाहूँगा। कि मैं आपकी इस पोस्ट नही पढ रहा। क्योंकि मैं एक साथ ही पूरी कहानी पढूँगा। टुकडो में मैं कहानी नही पढता। आशा है यह पहले की कहानी तरह अच्छी होगी।
ReplyDeleteकहानी रोमांचक और सामयिक लगती है । शायद आपकी कहानी में कल्लर पुन: पुर्नजीवित हो जाएं । कम से कम एक निरीह नागरिक को तो आप आंतकवादियों से बचा ही सकेंगें ।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा संस्मरण, प्रवाह में बंध गयी हूँ, लेकिन आगे की कड़ी मिल नहीं रही है मार्गदर्शन करें, वैसे भी रांची मेरी धमनियों में बहती है, उसकी हर बात मेरे लिए सिर्फ अच्छी है, आपको पहली बार पढ़ रही हूँ, सबने इतना कुछ कहा है आपके लिए तो मेरे लिए ज्यादाकुछ बचा ही नहीं है, इसलिए जो भी बची-खुची तारीफ है सब आपको समर्पित करती हूँ, बस इतना बता दीजिये आगे की घटना कहाँ पढ़ सकती हूँ
ReplyDeleteसविनय
स्वप्न मंजूषा 'अदा'
http://swapnamanjusha.blogspot.com/