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Thursday, March 14, 2019

सत्य - लघु कविता

(अनुराग शर्मा)

सत्य नहीं कड़वा होता
कड़वी होती है कड़वाहट

पराजय की आशंका और
अनिष्ट की अकुलाहट

सत्यासत्य नहीं देखती
मन पर हावी घबराहट

कड़वाहट तो दूर भागती
सुनते ही सत्य की आहट

Monday, June 9, 2014

सत्य पर एक नज़र - दो कथाओं के माध्यम से

1. दो सत्यनिष्ठ (संसार की सबसे छोटी बोधकथा)
चोटी पर बैठा सन्यासी चहका, "धूप है"।  तलहटी का गृहस्थ बोला, "नहीं, सर्दी है"।  ऊपर चढ़ते पर्वतारोही ने कहा, "ठंड घट रही है।"
2. निबंध - लघुकथा

बच्चा खुश था। उसने न केवल निबंध प्रतियोगिता में भाग लिया बल्कि इतना अच्छा निबंध लिखा कि उसे कोई न कोई पुरस्कार मिलने की पूरी उम्मीद थी। "एक नया दिन" प्रतियोगिता के आयोजक खुश थे। सारी दुनिया से निबंध पहुँचे थे, प्रतियोगिता को बड़ी सफलता मिली थी। आकलन के लिए निबंधों के गट्ठे के गट्ठे शिक्षकों के पास भेजे गए ताकि सर्वश्रेष्ठ निबंधों को इनाम मिल सके।

परीक्षक जी का हँस-हँस के बुरा हाल था। कई निबंध थे ही इतने मज़ेदार। उदाहरण के लिए इस एक निबंध पर गौर फरमाइए।

दिन निकल आया था। सूरज दिखने लगा। दिखता रहा। एक घंटे, दो घंटे, दस घंटे, बीस घंटे, एक दिन पाँच दिन, दो सप्ताह, चार हफ्ते, एक महीना, दो महीने, ....

शुरुआत से आगे पढ़ा ही नहीं गया, रिजेक्ट करके एक किनारे पड़ी रद्दी की पेटी में डाल दिया।  

उत्तरी स्वीडन के निवासी बालक को यह पता ही न था कि कोई विद्वान उसके सच को कोरा झूठ मानकर पूरा पढे बिना ही प्रतियोगिता से बाहर कर देगा।

हमारे संसार का विस्तार वहीं तक है जहाँ तक हमारे अज्ञान का प्रकाश पहुँच सके।          

Sunday, March 16, 2014

कालचक्र - कविता

(अनुराग शर्मा)

बनी रेत पर थीं पदचापें धारा आकर मिटा गई
बने सहारा जो स्तम्भ, आंधी आकर लिटा गई

बीहड़ वन में राह बनाते, कर्ता धरती लीन हुए
कूप खोदते प्यास मिटाने स्वयं पंक की मीन हुए

कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
कितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं

छूटा हाथ हुआ मन सूना खालीपन और लाचारी है
आगे आगे गुरु चले अब कल शिष्यों की बारी है

मिट्टी में मिट्टी मिलती अब जली राख़ की ढेर हुई
हो गहराई रसातली या शिला हिमालय सुमेर हुई

कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया

Thursday, May 23, 2013

सच्चे फांसी चढ़दे वेक्खे - कहानी

ग्राहक: कोई नई किताब दिखाओ भाई
विक्रेता: यह ले जाइये, मंत्री जी की आत्मकथा, आधे दाम में दे दूंगा
ग्राहक: अरे, ये आत्मकथाएँ सब झूठी होती हैं
विक्रेता: ऐसा ज़रूरी नहीं, इसमें 25% सच है, 25% झूठ
ग्राहक: तो बाकी 50% कहाँ गया?
विक्रेता: उसी के लिये 50% की छूट दे रहा हूँ भाई...
बैंक में हड़बड़ी मची हुई थी। संसद में सवाल उठ गए थे। मामा-भांजावाद के जमाने में नेताओं पर आरोप लगाना तो कोई नई बात नहीं है लेकिन इस बार आरोप ऐसे वित्तमंत्री पर लगा था जो अपनी शफ़्फाक वेषभूषा के कारण मिस्टर "आलमोस्ट" क्लीन कहलाता था। आलमोस्ट शब्द कुछ मतकटे पत्रकारों ने जोड़ा था जिनकी छुट्टी के निर्देश उनके अखबार के मालिकों को पहुँच चुके थे। बाकी सारा देश मिस्टर शफ़्फाक की सुपर रिन सफेदी की चमकार बचाने में जुट गया था।

सरकारी बैंक था सो सामाजिक बैंकिंग की ज़िम्मेदारी में गर्दन तक डूबा हुआ था। सरकारी महकमों और प्रसिद्धि को आतुर राजनेताओं द्वारा जल्दबाज़ी में बनाई गई किस्म-किस्म की अधकचरी योजनाओं को अंजाम तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी ऐसे बैंकों पर ही थी। एक रहस्य की बात बताऊँ, चुनावों के नतीजे उम्मीदवार के बाहुबल, सांप्रदायिक भावना-भड़काव, पार्टी की दारू-पत्ती वितरण क्षमता के साथ-साथ इस बात पर भी निर्भर करते थे कि इलाके की बैंक शाखा ने कितने छुटभइयों को खुश किया है।

पैसे बाँटने की नीति सरकारी अधिकारी और नेता बनाते थे लेकिन उसे वापस वसूलने की ज़िम्मेदारी तो बैंक के शाखा स्तर के कर्मचारियों (भारतीय बैंकिंग की भाषा के विपरीत इस कथा में "कर्मचारी" शब्द में अधिकारी भी शामिल हैं) के सिर पर टूटती थी। पुराने वित्तमंत्री आस्तिक थे सो जब कोई त्योहार आता था, अपने लगाए लोन-मेले में अपनी पार्टी और अपनी जाति के अमीरों में बांटे गए पैसे को लोन-माफी-मेला लगाकर वापसी की परेशानी से मुक्त करा देते थे। लेकिन "आस्तिक" दिखना नए मंत्री जी के गतिमान व्यक्तित्व और शफ़्फाक वेषभूषा के विपरीत था। उनके मंत्रित्व कल में बैंक-कर्मियों की मुसीबतें कई गुना बढ़ गईं क्योंकि नए लोन-मेलों के बाद की नियमित लोन-माफी की घोषणा होना बंद हो गया। बेचारे बैंककर्मियों को इतनी तनख्वाह भी नहीं मिलती थी कि चन्दा करके देश के ऋण-धनी उद्योगपतियों के कर्जे खुद ही चुका दें।

बैंकर दुखी थे। मामला गड़बड़ था। वित्तमंत्री ने न जाने किस धुन में आकर सरकारी बैंकों  की घाटे में जाने की प्रवृत्ति पर एक धांसू बयान दिया था और लगातार हो रहे घाटे पर कड़ाई से पेश आने की घोषणा कर डाली। जोश में उन्होने घाटे वाले खाते बंद करने पर बैंकरों को पुरस्कृत करने की स्कीम भी घोषित कर दी। इधर नेता का मुस्कराता हुआ चेहरा टीवी पर दिखा और उधर कुछ सरफिरे पत्रकारों की टोली ने बैंक का पैसा डकारकर कान में तेल डालकर सो जाने वाले उस नगरसेठ के उन दो खातों की जानकारी अपने अखबार में छाप दी जो संयोग से नेताजी का मौसेरा भाई होता था।

विदेश में अर्थशास्त्र पढे मंत्री जी को बैंकों के घाटे के कारणों जैसे कि बैंकों की सामाजिक-ज़िम्मेदारी, उन पर लादी गई सरकारी योजनाओं की अपरिपक्वता, नेताओं और शाखाओं की अधिकता, स्टाफ और संसाधनों की कमी, क़ानूनों की ढिलाई और बहुबलियों का दबदबा आदि के बारे में जानकारी तो रही होगी लेकिन शायद उन्हें अपने भाई भतीजों के स्थानीय अखबारों पर असर की कमी के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी। अखबार का मामला सुलट तो गया लेकिन साढ़े चार  साल से हाशिये पर बैठे विपक्ष के हाथ ऐसा ब्रह्मास्त्र लग गया जिसका फूटना ज़रूरी था।
 
संसद में प्रश्न उठा। सरकारी अमला हरकत में आ गया। पत्रकारों की नौकरी चली गई। एक के अध्यापक पिता नगर पालिका के प्राइमरी स्कूल में गबन करने के आरोप में स्थानीय चौकी में धर लिए गए। दूसरे की पत्नी पर अज्ञात गुंडों ने तेज़ाब फेंक दिया। नेताजी के भाई ने उसी अखबार में अपने देशप्रेम और वित्तीय प्रतिबद्धता के बारे में पूरे पेज का विज्ञापन एक हफ्ते तक 50% छूट पर छपवाया।

बैंक के ऊपर भाईसाहब के घाटे में गए दोनों ऋणों को तीन दिन में बंद करने का आदेश आ गया। जब बैंक-प्रमुख की झाड़ फोन के कान से टपकी तो शाखा प्रमुख अपने केबिन में सावधान मुद्रा में खड़े होकर रोने लगे। उसी वक़्त प्रभु जी प्रकट हुए। बेशकीमती सूट में अंदर आए भाईसाहब के साथ आए सभी लोग महंगी वेषभूषा में थे। उनके दल के पीछे एक और दल था जो इस बैंक के कर्मियों जैसा ही सहमा और थका-हारा दीख रहा था।

डील तय हो चुकी थी। भाईसाहब ने एक खाता तो मूल-सूद-जुर्माना-हर्जाना मिलाकर फुल पेमेंट करके ऑन द स्पॉट ही बंद करा दिया। इस मेहरबानी के बदले में बैंक ने उनका दूसरा खाता बैंक प्रमुख और वित्त मंत्रालय प्रमुख के मूक समझौते के अनुसार सरकारी बट्टे-खाते में डालकर माफ करने की ज़िम्मेदारी निभाई। शाखा-प्रमुख को बैंक के दो बड़े नॉन-परफोरमिंग असेट्स के कुशल प्रबंधन के बदले में प्रोन्नति का उपहार मिला और अन्य कर्मियों को मंत्रालय की ताज़ा मॉरल-बूस्टर योजना के तहत सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी का नकद पुरस्कार। मौसेरे भाई के तथाकथित अनियमितताओं वाले दोनों खातों के बंद हो जाने के बाद मंत्री जी ने भरी संसद में सिर उठाकर बयान देते हुए विपक्ष को निरुत्तर कर दिया।

एक मिनट, इस कहानी का सबसे प्रमुख भाग तो छूट ही गया। दरअसल एक और व्यक्ति को भी प्रोन्नति पुरस्कार मिला। भाईसाहब के साथ बैंक में पहुँचे थके-हारे दल का प्रमुख नगर के ही एक दूसरे सरकारी बैंक का शाखा-प्रमुख था। उसे नगर में उद्योग-विकास के लिए ऋण शिरोमणि का पुरस्कार मिला। भाई साहब के बंद हुए खाते का पूरा भुगतान करने के लिए उसकी शाखा ने ही उन्हें एक नया लोन दिया था।
[समाप्त]

Wednesday, January 9, 2013

इंडिया बनाम भारत बनाम महाभारत ...

मशरिक़, भारत, इंडिया, और हिंदुस्तान
ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं ...
अपराध इतना शर्मनाक था कि कुछ बोलते नहीं बन रहा था। इस घटना ने लोगों को ऐसी गहरी चोट पहुँचाई कि कभी न बोलने वाले भी कराह उठे। सारा देश तो मुखरित हुआ ही देश के बाहर भी लोगों ने इस घटना का सार्वजनिक विरोध किया। फिर भी कई लोग ऐसा बोले कि सुन कर तन बदन में आग लग गई।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली मे "निर्भया" के विरुद्ध हुए दानवी कृत्य को "भारत बनाम इंडिया" का परिणाम बताया तो समाजवादी पार्टी के अबू आजमी भी फटाफट उनके समर्थन में आ खड़े हुए। अबू आजमी ने कहा कि महिलाओं को कुछ ज्यादा ही आजादी दे दी गई है। ऐसी आजादी शहरों में ज्यादा है। इसी वजह से यौन-अपराध की घटनाएँ बढ़ रही हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति अविवाहित महिलाओं को गैर मर्दो के साथ घूमने की अनुमति नहीं देती है। अबू आजमी ने कहा कि जहाँ वेस्टर्न कल्चर का प्रभाव कम है वहाँ ऐसे मामले भी कम हैं।

ये हैं देश के राष्ट्रपति के सपूत!
इससे पहले राष्ट्रपति के पुत्र एवं कॉंग्रेस के सांसद अभिजीत मुखर्जी ने राजधानी दिल्ली के सामूहिक बलात्कार के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों में शामिल महिलाओं को अत्यधिक रंगी पुती बताकर विवाद खड़ा कर दिया। जनता की तीव्र प्रतिक्रिया के बाद अभिजीत ने अपनी टिप्पणी वापस ले ली। इसी प्रकार मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री कैलाश विजयवर्गीय पहले बेतुके और संवेदनहीन बयान देकर फिर उनके लिए माफी भी मांग चुके हैं। विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय सलाहकार अशोक सिंघल ने भी अपराध का ठीकरा महिलाओं के सिर फोड़ते हुए पाश्चात्य जीवन शैली को ही दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न का जिम्मेदार ठहराकर अमेरिका की नकल पर अपनाए गए रहन-सहन को खतरे की घंटी बताया।

इंडिया कहें, हिंदुस्तान कहें या भारत, सच्चाई यह है कि ये अपराध इसलिए होते हैं कि भारत भर में प्रशासन जैसी कोई चीज़ नहीं है। हर तरफ रिश्वतखोरी, लालच, दुश्चरित्र और अव्यवस्था का बोलबाला है। जिस पश्चिमी संस्कृति को हमारे नेता गाली देते नहीं थकते वहाँ एक आम आदमी अपना पूरा जीवन भ्रष्टाचार को छूए बिना आराम से गुज़ार सकता है। उन देशों में अकेली लड़कियाँ आधी रात में भी घर से बाहर निकलने से नहीं डरतीं जबकि सीता-सावित्री (और नूरजहाँ?) के देश में लड़कियाँ दिन में भी सुरक्षित नहीं हैं। मैंने गाँव और शहर दोनों खूब देखे हैं और मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में तो कानून नाम का जीव उतना भी नहीं दिखता जितना शहरों में। वर्ष 1983 से 2009 के बीच बलात्कार के दोषी पाये गए दुष्कर्म-आरोपियों में तीन-चौथाई मामले ग्रामीण क्षेत्र के थे। देश भर में केवल बलात्कार के ही हजारों मामले अभी भी न्याय के इंतज़ार में लटके हुए हैं।
अहल्या द्रौपदी तारा सीता मंदोदरी तथा
पंचकन्‍या स्‍मरेन्नित्‍यं महापातकनाशनम्‌
भारत में राजनीति तो पहले ही इतनी बदनाम है कि विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के नमूनों में से किसी से भी संतुलित कथन की कोई उम्मीद शायद ही किसी को रही हो। ऐसे संजीदा मौके पर भी ऐसी बातें करने वालों को न तो भारत के बारे में पता है न पश्चिम के बारे में, न नारियों के बारे में, न अपराधियों के, और न ही व्यवस्था के बारे में कोई अंदाज़ा है। तानाशाही प्रवृत्ति के राजनेताओं से महिलाओं या पुरुषों की आज़ादी की बात की तो अपेक्षा भी करना एक घटिया मज़ाक जैसा है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, विशेषकर महिलाओं के प्रति ऐसी सोच इन लोगों की मानसिकता के पिछड़ेपन के अलावा क्या दर्शा सकती है? लेकिन जले पर सबसे ज़्यादा नमक छिड़का अपने को भारतीय संस्कृति का प्रचारक बताने वाले बाबा आसाराम ने। आसाराम ने एक हाथ से ताली न बजने की बात कहकर मृतका का अपमान तो किया ही, बलात्‍कारियों के लिए कड़े कानून का भी इस आधार पर विरोध किया कि कानून का दुरुपयोग हो सकता है। आधुनिक बाबाओं का पक्षधर तो मैं कभी नहीं था लेकिन इस निर्दय और बचकाने बयान के बाद तो उनके भक्तों की आँखें भी खुल जानी चाहिए।
घटना के लिए वे शराबी पाँच-छह लोग ही दोषी नहीं थे। ताली दोनों हाथों से बजती है। छात्रा अपने आप को बचाने के लिए किसी को भाई बना लेती, पैर पड़ती और बचने की कोशिश करती। ~आसाराम बापू
पश्चिम, मग़रिब, या वैस्ट
पश्चिमी संस्कृति में रिश्वत लेकर गलत पता लिखाकर बसों के परमिट नहीं बनते, न ही पुलिस नियमित रूप से हफ्ता वसूलकर इन हत्यारों को सड़क पर ऑटो या बस लेकर बेफिक्री से घूमने देती है। न तो वहाँ लड़कियों को घर से बाहर कदम रखते हुए सहमना पड़ता हैं और न ही उनके प्रति अपराध होने पर राजनीतिक और धार्मिक नेता अपराध रोकने के बजाय उल्टे उन्हें ही सीख देने निकल पड़ते हैं। लेकिन बात इतने पर ही नहीं रुकती। पश्चिमी देशों के कानून के अनुसार सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति दिखने पर पुलिस को सूचना न देना गंभीर अपराध है। कई राज्यों में पीड़ित की यथासंभव सहायता करना भी अपेक्षित है। इसके उलट भारत में अधिकांश दुर्घटनाग्रस्त लोग दुर्घटना से कम बल्कि दूसरे लोगों की बेशर्मी और पुलिस के निकम्मेपन के कारण ही मरते हैं। खुदा न खास्ता पुलिस घटनास्थल पर पीड़ित के जीवित रहते हुए पहुँच भी जाये तो अव्वल तो वह आपातस्थिति के लिए प्रशिक्षित और तैयार ही नहीं होती है, ऊपर से उसके पास "हमारे क्षेत्र में नहीं" का बहाना तैयार रहता है। किसी व्यक्ति को आपातकालीन सहायता देने वाले व्यक्ति को कोई कानूनी अडचन या खतरा नहीं हो यह तय करने के लिए भारत या इंडिया के कानून और कानून के रखवालों का पता नहीं लेकिन पश्चिमी देशों में "गुड समैरिटन लॉं" के नियम उनके सम्मान और सुरक्षा का पूरा ख्याल रखते हैं।

भारत की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले अक्सर हमारी पारिवारिक व्यवस्था और बड़ों के सम्मान का उदाहरण ज़रूर देते हैं। अपने से बड़ों के पाँव पड़ना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। अब ये बड़े किसी भी रूप में हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश, बंगाल या तमिलनाडु के मुख्यमंत्री हों या कॉंग्रेस की अध्यक्षा, पाँव पड़नेवालों की कतार देखी जा सकती है। बड़े-बड़े बाबा गुरुपूर्णिमा पर अपने गुरु के पाँव पड़े रहने का पुण्य त्यागकर अपने शिष्यों को अपना चरणामृत उपलब्ध कराने में जुट जाते हैं। बच्चे बचपन से यही देखकर बड़े होते हैं कि बड़े के पाँव पड़ना और छोटे का कान मरोड़ना सहज-स्वीकार्य है। ताकतवर के सामने निर्बल का झुकना सामान्य बात बन जाती है। पश्चिम में इस प्रकार की हिरार्की को चुनौती मिलना सामान्य बात है। मेरे कई अध्यापक मुझे इसलिए नापसंद करते थे क्योंकि मैं वह सवाल पूछ लेता था जिसके लिए वे पहले से तैयार नहीं होते थे। यकीन मानिए भारत में यह आसान नहीं था। लेकिन यहां पश्चिम में यह हर कक्षा में होता है और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता यहाँ सहज स्वीकार्य है, ठीक उसी रूप में जिसमें हमारे मनीषियों ने कल्पना की थी। सच पूछिए तो जो प्राचीन गौरवमय भारतीय संस्कृति हमारे यहाँ मुझे सिर्फ किताबों में मिली वह यहाँ हर ओर बिखरी हुई है। आश्चर्य नहीं कि पश्चिम में स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता। किसी की आँखें ही बंद हों तो कोई क्या करे?
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।।
दंड ही शासन करता है। दंड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दंड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दंड को ही धर्म कहा है। (अनुवाद आभार: अजित वडनेरकर)

पश्चिमी संस्कृति बच्चों की सुरक्षा पर कितनी गंभीर है इसकी झलक हम लोग पिछले दिनों देख ही चुके हैं जब नॉर्वे में दो भारतीय दम्पति अपने बच्चों के साथ समुचित व्यवहार न करने के आरोप में चर्चा में थे। रोज़ सुबह दफ्तर जाते हुए देखता हूँ कि चुंगी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की स्कूल बस खड़ी हो तो सड़क के दोनों ओर का ट्रैफिक तब तक पूर्णतया रुका रहता है जब तक कि सभी बच्चे सुरक्षित चढ़-उतर न जाएँ। लेकिन इसी "पश्चिमी" संस्कृति की दण्ड व्यवस्था में कई गुनाह ऐसे भी हैं जिनके साबित होने पर नाबालिग अपराधियों को बालिग मानकर भी मुकदमा चलाया जा सकता है और बहुत सी स्थितियों में ऐसा हुआ भी है। बच्चे जल्दी बड़े हो रहे हैं, शताब्दी पुराने क़ानूनों मे बदलाव की ज़रूरत है। वोट देने की उम्र बदलवाने को तो राजनेता फटाफट आगे आते हैं, बाकी क्षेत्रों मे वय-सुधार क्यों नहीं? चिंतन हो, वार्ता हो, सुधार भी हो। निर्भया के प्रति हुए अपराध के बाद तो ऐसे सुधारों कि आवश्यकता को नकारने का कोई बहाना नहीं बचता है।

मैंने शायद पहले कभी लिखा होगा कि विनम्रता क्या होती है इसे पूर्व के "पश्चिमी" देश जापान गए बिना समझना कठिन है। उसी जापान में जब मैंने अपनी एक अति विनम्र सहयोगी से यह जानना चाहा कि एक पूरा का पूरा राष्ट्र विनम्रता के सागर में किस तरह डूब सका तो उसने उसी विनम्रता के साथ बताया, "हम लोग तो एकदम जंगली थे ..."

"फिर?"

"फिर भारत से धर्म और सभ्यता यहाँ पहुँची और हम बदल गए।"

मैं यही सोच रहा था कि भारतीय सभ्यता के प्रति इतना आदर रखने वाले व्यक्ति जब दिल्ली हवाई अड्डे से बाहर आकर एक टैक्सी में बैठते होंगे तब जो सच्चाई उनके सामने आती होगी ... आगे कल्पना नहीं कर सका।
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितंमुखं
तत्‌ त्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये
सत्य का मुख स्वर्णिम पात्र से ढँका है, कृपया सत्य को उजागर करें।

आँख मूंदकर अपनी हर कमी, हर अपराध का दोष अंग्रेजों या पश्चिम को देने वालों ... बख्श दो इस महान देश को!

* संबन्धित कड़ियाँ *
- अहिसा परमो धर्मः
- कितने सवाल हैं लाजवाब?
- 2013 में आशा की किरण?
- बलात्कार, धर्म और भय

[आभार: चित्र व सूचनाएँ विभिन्न समाचार स्रोतों से]

Tuesday, January 12, 2010

सत्य के टुकड़े

निर्मल आनंद वाले भाई अभय तिवारी कम लिखते हैं मगर जो भी लिखते हैं उसमें दम होता है. हमारी तो उनसे अक्सर असहमति ही रहती है मगर एक विचारवान मौलिक चिन्तक से असहमत होने में भी मज़ा आता है. निर्मल आनंद उन कुछ ब्लोग्स में से है जिन्हें मैं नियमित पढता हूँ. हाँ, टिप्पणी कम करता हूँ असहमति को अपने तक ही रखने के उद्देश्य से. अभी उनकी कविता बँटा हुआ सत्य पढी और उसके विचार ने ही इस कविता को जन्म दिया. कई बार कुछ पढ़कर पूरक विचार पर ध्यान जाता है. इसे भी उस कविता की पूरक कविता ही समझिये.
(अनुराग शर्मा)

सत्य पहले भी बँटा हुआ था
फर्क बस इतना था कि
तब टुकड़े जोड़कर सीने की
कोशिश होती थी
पञ्च परमेश्वर करता था
सत्यमेव जयते
पाँच अलग-अलग सत्य जोड़कर
विषम संख्या का विशेष महत्त्व था
ताकि सत्य को टांगा न जा सके
हंग पार्लियामेंट की सूली पर
सत्य के टुकड़े मिलाकर
निर्माण करते थे ऋषि
अपौरुषेय वेद का
टुकड़े मिलकर बना था
सत्य का षड-दर्शन
देवासुर में बँटा सत्य
एकत्र हुआ था
समुद्र मंथन के लिए
और उससे निकले थे
रत्न भांति-भांति के
सत्य
हमेशा टुकड़ों में रहता है
यही उसकी प्रवृत्ति है
मेरे टुकड़े में
अपना मिलाओगे
तभी सत्य को पाओगे
तभी सत्य को पाओगे

Saturday, October 18, 2008

सत्यमेव जयते - एक कविता

सच कड़वा है कहने वाले,
न जानें सच क्या होता है।

सच मीठा भी हो सकता है,
क्या जाने जो बस रोता है।

दोषारोप लगें कितने, सच
सिसकता है न रोता है।

सच तनकर चलते रहता है,
जब झूठ फिसलता होता है।

सच वैतरणी भी तरता है,
जहाँ झूठ लगाता गोता है।

सच की छाया तरसेगा ही
जो बीज झूठ के बोता है।


न तत्व वचन सत्यं, न तत्व वचनं मृषा ।
यद्भूत हितमत्यन्तम् तत्सयमिति कथ्यते॥
(महाभारत)
अर्थ: बात को ज्यों को त्यों कह देना सत्य नहीं है और न असत्य है। जिसमें प्रणियों का अधिक हित होता है, वही सत्य है।

Sunday, September 28, 2008

एक शाम बेटी के नाम

शाम का धुंधलका छा रहा था। हम लोग डैक पर बैठकर खाना खा रहे थे। बेटी अपने स्कूल के किस्से सुना रही थी। वह इन किस्सों को डी एंड डी टाक्स (डैड एंड डाटर टाक्स = पिता-पुत्री वार्ता) कहती है। आजकल हमारी पिता-पुत्री वार्ता पहले से काफी कम होती है। पिछले साल तक मैं सुबह दफ्तर जाने से पहले उसे कार से स्कूल छोड़ता था और लंच में जाकर उसे स्कूल से ले आता था। तब हमारी वार्ता खूब होती थी। वह अपने किस्से सुनाती थी और मेरे किस्से सुनने का आग्रह करती थी। यही वह समय होता था जब मुझे उसकी नयी कवितायें सुनने को मिलती थीं। उसने अपनी अंग्रेजी कहानी "मेरे जीवन का एक दिन" भी ऐसी ही एक वार्ता के दौरान सुनाई थी। जब से मेरा दफ्तर दूर चला गया है मैं रोज़ सुबह बस लेकर ऑफिस जाता हूँ। वह भी बस से स्कूल जाती है। हमारी वार्ता की आवृत्ति काफी कम हो गयी है। या कहें कि पहले रोज़ सुबह शाम होने वाली वार्ता सिर्फ़ सप्ताहांत की शामों तक ही सीमित रह गयी है।

उसने अपने क्लास के एक लड़के के बारे में बताया जो सब बच्चों के पेन-पेन्सिल आदि ले लेता है। जब उसने बताया कि एक दिन उस लड़के ने बेटी का कैलकुलेटर भी ले लिया तो मैंने पूछा, "बेटा, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके पास यह सब ज़रूरी समान खरीदने के लिए पैसे न हों?" बेटी ने नकारते हुए कहा कि उस लड़के के कपड़े तो बेशकीमती होते हैं।

आजकल अमेरिका की आर्थिक स्थिति काफी डावांडोल है। बैंक डूब रहे हैं, नौकरियाँ छूट रही हैं। भोजन, आवागमन, बिजली, गैस आदि सभी की कीमतें बढ़ती जा रही हैं. अक्सर ऐसी खबरें पढने में आती हैं जब इस बुरी आर्थिक स्थिति के कारण लोग बेकार या बेघर हो गए। कल तक मर्सिडीज़ चलाने वाले आज पेट्रोल-पम्प पर काम करते हुए भी नज़र आ सकते हैं। बच्ची तो बाहर की दुनिया की सच्चाई से बेखबर है। मेरे दिमाग में आया कि उस लड़के का परिवार कहीं ऐसी किसी स्थिति से न गुज़र रहा हो। मैंने बेटी को समझाने की कोशिश की और बात पूरी होने से पहले ही पाया कि वह कुछ असहज थी। मैंने पूछना चाहा, "आप ठीक तो हो बेटा?" मगर उसने पहले ही रूआंसी आवाज़ में पूछा, "आप ठीक तो हैं न पापा?"

"हाँ बेटा! मुझे क्या हुआ?" मैंने आश्चर्य से पूछा।

"मेरा मतलब है... आपका जॉब..." उसने किसी तरह से अटकते हुए कहा। बात पूरी करने से पहले ही उसकी आंखों से आंसू टप-टप बहने लगे। मैंने उसे गले से लगा लिया। उसकी मनोदशा जानकर मुझे बहुत दुःख हुआ। मैंने समझाने की भरपूर कोशिश की और कहा कि अगर मेरे साथ कभी ऐसा होता तो मैं उसे अपनी बेटी से, अपने परिवार से कभी छुपाता नहीं। मेरे इस वाक्य से उसकी भोली मुस्कान वापस आ गयी। यह जानकर खुशी हुई कि उसे अभी भी अपने पिता के सच बोलने पर पूरा भरोसा है।


Friday, July 25, 2008

रैंडी पौष का अन्तिम भाषण - Really achieving your childhood dreams

जो लोग डॉक्टर रैंडी पौष (रैण्डी पॉश) से पढ़े हैं या मिले भी हैं उनकी खुशनसीबी का तो क्या कहना। जिन लोगों ने सिर्फ़ उनका "अन्तिम भाषण" ही सुना-देखा, वे भी अपने को धन्य ही समझते हैं। पिट्सबर्ग में हुआ उनका "अन्तिम भाषण" एक करोड़ से अधिक लोगों द्वारा सुनने-देखने के कारण अपने आप में एक कीर्तिमान है।

23 अक्टूबर 1960 को जन्मे पौष जी पिट्सबर्ग में कार्नेगी मेलन विश्व विद्यालय में अध्यापन करते थे। 2006 में उन्हें पैंक्रियाज़ के कैंसर का पता लगा। बहुत अच्छा इलाज होने के बावजूद बीमारी शरीर के अन्य हिस्सों में भी फैलती रही। पिछले वर्ष उनके चिकित्सकों ने उनको पाँच महीने का समय दिया। 18 सितम्बर 2007 को कार्नेगी मेलन विश्व विद्यालय ने उनके मान में "अन्तिम भाषण" (The Last Lecture) का आयोजन किया।

बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातों से प्रभावित होने के मामले में मेरी बुद्धि थोड़ी सी ठस है। लेकिन मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि "अन्तिम भाषण" की कोटि का कुछ भी मैंने पिछले कई सालों में तो नहीं देखा, न सुना।

"अन्तिम भाषण" ज़िंदगी से हारे हुए, किसी पिटे हुए शायर का कलाम नहीं है। न ही यह मौत से भागने के प्रयास में किया गया करुण क्रंदन है। इसके विपरीत यह एक अति-सफल व्यक्ति का अन्तिम प्रवचन है - शायद वैसा ही जैसा अपने अन्तिम क्षणों में रावण ने राम को या भीष्म पितामह ने पांडवों को दिया था।


रीयली अचीविंग योर चाइल्डहुड ड्रीम्ज़

"अन्तिम भाषण" का आधिकारिक शीर्षक था - "अपने बचपन के सपनों को सार्थक कैसे करें" (Really achieving your childhood dreams)। प्रोफ़ेसर पौष ने इसको संपन्न करते हुए कहा कि यदि आप अपना जीवन सच्चाई से गुजारते हैं तो आपके कर्म (Karma) इस बात का ध्यान रखेंगे कि आपके सपने अपने आप हकीकत बनकर आप तक पहुँचे। पतंजलि ने योगसूत्र में इसी को सिद्धि कहा है जो कि पूर्णयोग से पहले की एक अवस्था है।

उनके भाषण में सफलता के कारक जिन गुणों पर ख़ास ज़ोर दिया गया है वे निम्न हैं: सपनों की खोज, खुश रहना, खुश रखना, ईमानदारी, अपनी गलती स्वीकार करना और उसको सुधारने के लिए दूर तक जाना, कृतज्ञता, वीरता, विनम्रता, सज्जनता, सहनशीलता, दृढ़ इच्छाशक्ति, दूसरों की स्वतन्त्रता का आदर, और इन सबसे ऊपर - दे सकने की दुर्दम्य इच्छाशक्ति।

"अन्तिम भाषण" पर आधारित उनकी पुस्तक एक साल से कम समय में ही 30 भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। अगर आपने "अन्तिम भाषण" का यह अविस्मरणीय अवसर अनुभव नहीं किया है तो एक बार ज़रूर देखिये। ध्यान से सुनेंगे और रोशनी को अन्दर आने से बलपूर्वक रोकेंगे नहीं तो यह भाषण आपके जीवन की दिशा बदल सकता है।

आज सुबह चार बजे रैंडी पौष इस दुनिया में नहीं रहे। मेरी ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे। यूट्यूब पर उनके इस "अन्तिम भाषण" के अनेक अंश उपलब्ध है. एक यहाँ लगा रहा हूँ - यदि आप में से कोई देखना चाहें तो।


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