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Saturday, January 14, 2017

द्रोणाचार्य, अर्जुन और एकलव्य

आचार्य द्रोण को छल से ऐसे किशोर का अंगूठा काटने की कोई ज़रूरत नहीं थी, जो उनके इशारे पर अपना सर काटकर रख देता।
मित्र गिरिजेश राव ने वाल्मीकि रामायणपाठ के दौरान उल्लेख किया कि, "युद्ध में हर बार राम लक्ष्मण द्वारा गोह के चर्म से बने हस्त-त्राण पहनकर धनुष बाण चलाने का उल्लेख है। त्वरित गति से कम समय में ही अधिक बाण चला लेने की दक्षता और बाण चढ़ाने में अंगूठे के प्रयोग में सामंजस्य नहीं बैठता। कोई और तकनीक अवश्य रही होगी जो बारम्बारता के कारण अंगूठे को घायल होने से बचाती होगी। सम्भवत: आज की तरह ही अंगूठे का प्रयोग न होता रहा हो।"
कांची के कैलाशनाथ मंदिर में अंगूठा बचाते धनुर्धर अर्जुन 
कितने ही लोगों ने रामायण पढ़ी है, कितने तो उसके विद्वान भी हैं। लेकिन सबकी दृष्टि अलग होती है और उनके अवलोकन भी। हम तमसो मा ज्योतिर्गमय की संस्कृति के वाहक हैं। हमारे अंक, अहिंसा, योग, शर्करा, हीरे, धातुकर्म, संगीत, शिल्प, शाकाहार, विश्व-बंधुत्व, शवदाह आदि जैसे कितने ही तत्व भारत के बाहर कभी आश्चर्य से देखे गए और कभी दुत्कारे भी गए। लेकिन ज्यों-ज्यों अन्य क्षेत्र संस्कृति के प्रकाश से आलोकित हुए, भारतीय परम्पराओं की स्वीकृति और सम्मान दोनों ही बढ़े।

गिरिजेश के रामायण अवलोकन से भारतीय शास्त्रों से संबन्धित एक कुटिल ग्रंथि निर्कूट होती है। यह ग्रंथि है महाभारत में एकलव्य और द्रोणाचार्य के संबंध का भ्रम। सामान्य समझ यह है कि द्रोणाचार्य ने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के लिए उससे श्रेष्ठ धनुर्धर एकलव्य का अंगूठा ले लिया।

मुझे नहीं लगता कि संसार के सर्वश्रेष्ठ गुरु परशुराम के शिष्य और अपने समय के अजेय योद्धाओं के आचार्य द्रोण को छल से ऐसे किशोर का अंगूठा काटने की कोई ज़रूरत थी, जो उनके इशारे पर अपना सर काटकर रख देता। क्षणिक सम्वाद में एक अन्जान शिष्य को एक दुर्लभ सूत्र दे देने की बात समझ आती है। मांगने का अर्थ सदा काटना भर नहीं होता। एक आचार्य को जानता हूँ जो गुरुदक्षिणा में अपने सिगरेटखोर शिष्यों की धूम्रपान की लत मांग लेते थे।
अथ गुणमुष्टयः
पताका वज्रमुष्टिश्च सिंहकणीं तथैव च। मत्सरी काकतुण्डी च योजनीया यथाक्रमम् ॥८३॥
दीर्घा तु तर्जनी यत्र आश्रिताङ्गुष्ठमूलकम्। पताका  सा च विज्ञेया नलिका दूरमोक्षणे ॥८४॥
तर्जनी मध्यमामध्यमङ्गुष्ठो विशते यदि। वज्रमुष्टिस्तु सा ज्ञेया स्थूले नाराचमोक्षणे ॥८५॥
अङ्गुष्ठनखमूले तु तर्जन्यग्रं सुसंस्थितम्। मत्सरी सा च विज्ञेया चित्रलक्ष्यस्य वेधने ॥८६॥
अङ्गुष्ठाग्रे तु तर्जन्या मुखं यत्र निवेशितम्। काकतुण्डी च विज्ञेया सूक्ष्मलक्ष्येषु योजिता ॥८७॥ (धनुर्वेदः)*
आधुनिक धनुर्धरी में अंगूठा छूए बिना तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने की विधि को मेडिटरेनियन बो ड्रा कहा जाता है। धनुर्वेद में स्पष्ट रूप से इंगित इस विधि के खोजकर्ता सम्भवतः आचार्य द्रोण हैं और एकलव्य का अंगूठा मांगने का प्रतीकात्मक अर्थ उसे यह विधि बताना ही है। वरना अंगूठा क्या, एकलव्य तो द्रोणाचार्य के इशारे भर से अपना शीश दे देता। अंगूठा लेने का सांकेतिक अर्थ यही है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे शिष्य स्वीकारते हुए अँगूठे के बिना धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया और गुरुदक्षिणा में अंगूठा देने के बाद एकलव्य तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीरंदाजी करने की आधुनिक भूमध्य शैली (Mediterranean bow draw) से तीर चलाने लगा। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है।


अंगूठे के बिना धनुर्धरी करने वाला 'मेडिटरेनीयन बो ड्रा' आज सर्वमान्य है। कांची के कैलाशनाथ मंदिर में अंगूठा बचाते धनुर्धर अर्जुन दृष्टव्य हैं। वर्तमान ईराक के क्षेत्र के प्रसिद्ध ऐतिहासिक शासक असुर बनिपाल के पाषाण चित्रण में भी मेडिटरेनीयन बो ड्रा स्पष्ट दिखाई देता है। भूमध्य क्षेत्र का भारत से क्या सम्बंध है? असुर वर्तमान असीरिया के वासी थे। असुरों के गुरु भृगुवंशी शुक्राचार्य थे। जामदग्नेय परशुराम शुक्राचार्य के वंश में जन्मे थे। द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या परशुराम से सीखी और एकलव्य के शिष्यत्व को मान्यता देने के लिये उसकी धनुर्विद्या से अंगूठे की भूमिका हटवा दी। पलभर के सम्पर्क में अपने शिष्य की दक्षता में ऐसा जादुई परिवर्तन करना आचार्यत्व की पराकाष्ठा है। भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा से हम इतना कट गये हैं कि अपने अतीत की सरल सी घटना में भी अनिष्ट की आशंका ढूंढते हैं, गुरुत्व में छल ढूँढते हैं। हमें यह भी ध्यान देना होगा कि प्राचीन भारतीय संस्कृति को भारत के वर्तमान राजनैतिक-भौगोलिक क्षेत्र तक सीमित समझना भी हमारी दृष्टि को सीमित ही करेगा।
*धनुर्वेद के संदर्भ के लिये आचार्य विक्रमार्क अंतर्वेदी का आभार

Saturday, August 23, 2014

जोश और होश - बोधकथा

चेले मीर ने सारे दांव सीख लिए थे। जीशीला भी था, फुर्तीला भी। नौजवान था, मेहनती था, बलवान तो होना ही था। फिर भी जो इज्ज़त उस्ताद पीर की थी, उसे मिलती ही न थी। गैर न भी करें, उस्ताद भी उसे बहुत होशियार नहीं समझते थे और सटीक से सटीक दांव पर भी और अधिक होशियार रहने की ही सलाह देते थे।

बहुत सोचा, बहुत सोचा, दिन भर, फिर रात भर सोचा और निष्कर्ष यह निकाला कि जब तक वह शागिर्द बना रहेगा, उसे कोई भी उस्ताद नहीं मानेगा। आगे बढ़ना है तो उसे शागिर्दी छोडकर जाना पड़ेगा। लेकिन उसके शागिर्दी छोड़ने भर से उस्ताद की उस्तादी तो छूटने वाली नहीं न। फिर?

उस्ताद को चुनौती देनी होगी, उसे हराना पड़ेगा। उस्ताद की इज्ज़त इसलिए है क्योंकि वह आज तक किसी से हारा नहीं है। चुनौती नहीं स्वीकारेगा तो बिना लड़े ही हार जाएगा। और अगर मान ली, तब तो मारा ही जाएगा। सारे दांव तो सिखा चुका है, और अब बूढ़ी हड्डियों में इतना दम नहीं बचा है कि लंबे समय तक लोहा ले सके।

लीजिये जनाब, युवा योद्धा ने अखाडा छोड़कर गुरु को ललकार कर मुक़ाबला करने की चुनौती भेज दी। उस्ताद ने हँसकर मान भी ली और यह भी कहा कि पहले भी कुछ चेले नौजवानी में ऐसी मूर्खता कर चुके हैं। उनमें से कई मुक़ाबले के दिन कब्रिस्तान सिधार गए और कुछ आज भी बेबस चौक पर भीख मांगते हैं। युवा योद्धा इन बातों से बहकने वाला नहीं था। मुक़ाबले में समय था फिर भी टाइमटेबल बनाकर गुरु के सिखाये सारे गुरों का अभ्यास लगन से करने लगा।

(चित्र: अनुराग शर्मा)
एक दिन सपने में देखा कि उस्ताद से मुक़ाबला है। वह ज़मीन पर पड़ा है और उस्ताद ने तलवार उसकी गर्दन पर टिकाई हुई है। उसने आश्चर्य से पूछा, "इन बूढ़े हाथों में इतनी ताकत कैसे?" उस्ताद ने सिंहनाद कराते हुए कहा, "ताकत मेरी नहीं मेरे गुरू के सूत्र द्वारा बनवाई गई इस तलवार की है।"  बेचैनी में आँख खुली तो फिर नींद न आई। सुबह उठते ही पुराने अखाड़े पहुँचकर ताका-झाँकी करने लगा। गाँव का लुहार उसके सामने ही अखाड़े में गया। उस्ताद उसे अक्सर बुलाते थे। उस्ताद की तलवारें अखाड़े की भट्टी में उनके निर्देशन में ही बनती थीं। शाम को जब लुहार बाहर निकला तो चेले ने पूछा, "क्या करने गया था?" लुहार ने बताया कि उस्ताद पाँच फुट लंबी तलवार बनवा रहे हैं, आज ही पूरी हुई है।

जोशीले चेले ने सोने का एक सिक्का लुहार के हाथ में रखकर उसी समय आठ फुट लंबी तलवार मुकाबले से पहले बनाकर लाने का इकरार करा लिया और घर जाकर चैन से सोया।

दिन बीते, मुकाबला शुरू हुआ। गुरु की कमर में पाँच फुट लंबी म्यान बंधी थी तो चेले की कमर में आठ फुट लंबी। तुरही बजते ही दोनों के हाथ तलवार की मूठ पर थे। चेले के हाथ छोटे पड़ गए, म्यान से आठ फुटी तलवार बाहर निकल ही न सकी तब तक उस्ताद ने नई पाँच फुटी म्यान से अपनी पुरानी सामान्य छोटी सी तलवार निकालकर उसकी गर्दन पर टिका दी।

होश के आगे जोश एक बार फिर हार गया था।

[समाप्त]

Saturday, July 12, 2014

गुरु - लघुकथा

गुरुपूर्णिमा पर एक गुरु की याद
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।
बरसों का खोया हुआ मित्र इस तरह अचानक मिल जाये तो खुशी और आश्चर्य का वर्णन संभव नहीं। कहने को हम लोग मात्र तीन साल ही साथ पढे थे लेकिन उतने समय में भी मेरे बालमन को बहुत कुछ सिखा गया था वह एक साथी। बाकी सब ठीक था, बस मुनव्वर मास्साब को उसके सिक्ख होने की वजह से कुछ ऐसी शिकायत थी जिसे हम बच्चे भी दूर से ही भाँप लेते थे। गलत लगती थी लेकिन बड़ों की गलतियों को कैसे रोकें, इतनी अक्ल नहीं थी। न ही ये समझ थी कि इस बात को घर या स्कूल के बड़ों को बताकर उनकी सलाह और सहयोग लिया जाये।

एक गुरु की भेंट (नमन)
मास्साब ने गुरु को सदा जटायु कहकर ही बुलाया, शायद उसके केश से जटा शब्द सोचा और फिर वहाँ से जटायु। थोड़ी बहुत हिंसा वे सभी बच्चों के साथ करते रहते थे लेकिन गुरु के साथ विशेष हिंस्र हो जाते थे। कभी दोनों कान हाथ से पकड़कर उसे एक झटके से अपने चारों और घुमाना, कभी झाड़ियों से इकट्ठी की गई पतली संटियों से सूतना, तो कभी मुर्गा बनाकर पीठ पर ईंटें रखा देना।

लेकिन एक बार वह मेरे कारण पिटा था। सीमाब विष्णुशर्मा नहीं पढ़ पा रहा था। मैं उसे श और ष का अंतर बताने लगा कि अचानक सन्नाटा छा गया। स्पष्ट था कि मुनव्वर मास्साब कक्षा में आ चुके थे। आते ही हमारी बेंच के दूसरे सिरे पर बैठे गुरु को बाल पकड़कर खींचा और पेट में दो-तीन मुक्के लगा दिये।

"मैंने किया क्या सर?" उसने मासूमियत से पूछा। जी भर कर पीट लेने के बाद उसे सीट पर धकेलकर उन्होने उस दिन का पाठ पढ़ाया और कक्षा छोड़ते हुए उससे कहते गए, "आइंदा मेरे क्लास में सीटी बजाने की ज़ुर्रत मत करना जटायु"

बरसों से दबी रही आभार की भावना बाहर आ ही गई, "सचमुच गुरु हो तुम। साथ पढ़ने से ज़्यादा तो वह स्कूल छूटने के बाद सीखा है तुमसे।"

आज इतने सालों के बाद भी मन पर घाव कर रही उस चोट के बोझ को उतारने को बेताब था मैं, "याद है उस दिन सीटी की आवाज़? वह मेरी थी।"

"हा, हा, हा!" बिलकुल पहले जैसे ही हंसने लगा वह, "वह तो मैं तभी समझ गया था, तेरे श्श्श को तो पूरी क्लास ने साफ सुना था।"

"तो कहा क्यों नहीं?"

"क्योंकि बात सीटी की नहीं थी, कभी भी नहीं थी। बात तेरी भी नहीं थी, बात मेरी थी, मेरे अलग दिखने की थी।"

"मैं आज तक बहुत शर्मिंदा हूँ उस बात पर। मुझे खड़े होकर कहना चाहिए था कि वह मैं था।"

"इतनी सी बात को भी नहीं भूला तू अब तक? तेरी आवाज़ मास्साब को सुनाई भी नहीं देती। इतना मगन होकर मेरी पिटाई करते थे वे। रात गई बात गई। रब की किरपा है, हम सब अपनी-अपनी जगह खुश हैं, यही बहुत है। मास्साब भी जहां भी हों खुश रहें।"

वही निश्छल मुस्कान, ज़रा भी कड़वाहट नहीं। आज गुरु पूर्णिमा पर याद आया कि मैंने तो गुरु से बहुत कुछ सीखा। काश मास्साब भी इंसानियत का पाठ सीख पाते।

Sunday, March 16, 2014

कालचक्र - कविता

(अनुराग शर्मा)

बनी रेत पर थीं पदचापें धारा आकर मिटा गई
बने सहारा जो स्तम्भ, आंधी आकर लिटा गई

बीहड़ वन में राह बनाते, कर्ता धरती लीन हुए
कूप खोदते प्यास मिटाने स्वयं पंक की मीन हुए

कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
कितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं

छूटा हाथ हुआ मन सूना खालीपन और लाचारी है
आगे आगे गुरु चले अब कल शिष्यों की बारी है

मिट्टी में मिट्टी मिलती अब जली राख़ की ढेर हुई
हो गहराई रसातली या शिला हिमालय सुमेर हुई

कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया