(अनुराग शर्मा)
बनी रेत पर थीं पदचापें धारा आकर मिटा गई
बने सहारा जो स्तम्भ, आंधी आकर लिटा गई
बीहड़ वन में राह बनाते, कर्ता धरती लीन हुए
कूप खोदते प्यास मिटाने स्वयं पंक की मीन हुए
कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
कितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं
छूटा हाथ हुआ मन सूना खालीपन और लाचारी है
आगे आगे गुरु चले अब कल शिष्यों की बारी है
मिट्टी में मिट्टी मिलती अब जली राख़ की ढेर हुई
हो गहराई रसातली या शिला हिमालय सुमेर हुई
कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया
बनी रेत पर थीं पदचापें धारा आकर मिटा गई
बने सहारा जो स्तम्भ, आंधी आकर लिटा गई
बीहड़ वन में राह बनाते, कर्ता धरती लीन हुए
कूप खोदते प्यास मिटाने स्वयं पंक की मीन हुए
कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
कितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं
छूटा हाथ हुआ मन सूना खालीपन और लाचारी है
आगे आगे गुरु चले अब कल शिष्यों की बारी है
मिट्टी में मिट्टी मिलती अब जली राख़ की ढेर हुई
हो गहराई रसातली या शिला हिमालय सुमेर हुई
कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया