(अनुराग शर्मा)
बनी रेत पर थीं पदचापें धारा आकर मिटा गई
बने सहारा जो स्तम्भ, आंधी आकर लिटा गई
बीहड़ वन में राह बनाते, कर्ता धरती लीन हुए
कूप खोदते प्यास मिटाने स्वयं पंक की मीन हुए
कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
कितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं
छूटा हाथ हुआ मन सूना खालीपन और लाचारी है
आगे आगे गुरु चले अब कल शिष्यों की बारी है
मिट्टी में मिट्टी मिलती अब जली राख़ की ढेर हुई
हो गहराई रसातली या शिला हिमालय सुमेर हुई
कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया
बनी रेत पर थीं पदचापें धारा आकर मिटा गई
बने सहारा जो स्तम्भ, आंधी आकर लिटा गई
बीहड़ वन में राह बनाते, कर्ता धरती लीन हुए
कूप खोदते प्यास मिटाने स्वयं पंक की मीन हुए
कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
कितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं
छूटा हाथ हुआ मन सूना खालीपन और लाचारी है
आगे आगे गुरु चले अब कल शिष्यों की बारी है
मिट्टी में मिट्टी मिलती अब जली राख़ की ढेर हुई
हो गहराई रसातली या शिला हिमालय सुमेर हुई
कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया
वाह ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (17-03-2014) को "रंगों की बरसात लिए होली आई है" (चर्चा अंक-1551) में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
रंगों के पर्व होली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी आभार!
Deleteचलता ही जा रहा है। कभी लगता है, तेज चल रहा है...
ReplyDeleteसमय का चक्र घूम रहा है जो आया वह निकल गया - यही अनवरत क्रम !
ReplyDeleteउफ! सत्य लपेटे भ्रम पाया...।
ReplyDeleteयह विचलित करता है!
कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
ReplyDeleteकितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं ..
जीवन के इस खेल को कलि बाखूबी समझती है ... हर हाल में खुश रहती है ..
आपको और परिवार में सभी को होली की हार्दिक बधाई ...
सबसे अधिक रहस्यमयी कोई है तो समय।
ReplyDelete@ आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया
ReplyDeleteधुंधली दृष्टी को तो जीवन का ऊपरी फैलाव ही दिखायी देता है लेकिन जीवन जहाँ से ऊर्जा ग्रहण कर पुष्पित पल्लवित होता है उन जड़ों को देखने के लिए तो ध्यान की दृष्टी अनिवार्य है !
सभी सटीक पंक्तियाँ कुछ ज्यादा ही खास लगी यह पंक्ति !
जगती का अनुपम प्राणी मानव इस पृथ्वी पर क्यों कर आया
ReplyDeleteयह रहस्य तो बना हुआ है किसने क्या खोया क्या पाया ?
कोहमस्मि यह प्रश्न तरंगित हुआ हमेशा मानव-मन में
उत्तर पाता रहा मनुज नित आश्रम के पावन जीवन में ॥
वाह . . . .
ReplyDeleteकवितायेँ लिखते रहिये अनुराग भाई , आपमें एक खूबसूरत कवि छिपा है ! :)
मंगलकामनाएं !!
कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
ReplyDeleteआँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया
समय से बाहर हुए बिना कोई समय को जान नहीं सकता..
काल चक्र अपनी गति से चलता है सतत , इसे भ्रम से क्या ,सत्य से क्या !!
ReplyDeleteकोहरे भरी सुबहें हैं जीवन की, पथ तो ढूढ़ना ही है।
ReplyDeleteअर्थपूर्ण और वैचारिक भाव.....
ReplyDeleteबेहतरीन और बहुत कुछ लिख दिया आपने..... सार्थक अभिवयक्ति..
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