Sunday, March 16, 2014

कालचक्र - कविता

(अनुराग शर्मा)

बनी रेत पर थीं पदचापें धारा आकर मिटा गई
बने सहारा जो स्तम्भ, आंधी आकर लिटा गई

बीहड़ वन में राह बनाते, कर्ता धरती लीन हुए
कूप खोदते प्यास मिटाने स्वयं पंक की मीन हुए

कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
कितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं

छूटा हाथ हुआ मन सूना खालीपन और लाचारी है
आगे आगे गुरु चले अब कल शिष्यों की बारी है

मिट्टी में मिट्टी मिलती अब जली राख़ की ढेर हुई
हो गहराई रसातली या शिला हिमालय सुमेर हुई

कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया

16 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (17-03-2014) को "रंगों की बरसात लिए होली आई है" (चर्चा अंक-1551) में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    रंगों के पर्व होली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. चलता ही जा रहा है। कभी लगता है, तेज चल रहा है...

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  3. समय का चक्र घूम रहा है जो आया वह निकल गया - यही अनवरत क्रम !

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  4. उफ! सत्य लपेटे भ्रम पाया...।
    यह विचलित करता है!

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  5. कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
    कितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं ..
    जीवन के इस खेल को कलि बाखूबी समझती है ... हर हाल में खुश रहती है ..
    आपको और परिवार में सभी को होली की हार्दिक बधाई ...

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  6. सबसे अधिक रहस्यमयी कोई है तो समय।

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  7. @ आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया
    धुंधली दृष्टी को तो जीवन का ऊपरी फैलाव ही दिखायी देता है लेकिन जीवन जहाँ से ऊर्जा ग्रहण कर पुष्पित पल्लवित होता है उन जड़ों को देखने के लिए तो ध्यान की दृष्टी अनिवार्य है !
    सभी सटीक पंक्तियाँ कुछ ज्यादा ही खास लगी यह पंक्ति !

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  8. जगती का अनुपम प्राणी मानव इस पृथ्वी पर क्यों कर आया
    यह रहस्य तो बना हुआ है किसने क्या खोया क्या पाया ?
    कोहमस्मि यह प्रश्न तरंगित हुआ हमेशा मानव-मन में
    उत्तर पाता रहा मनुज नित आश्रम के पावन जीवन में ॥

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  9. वाह . . . .
    कवितायेँ लिखते रहिये अनुराग भाई , आपमें एक खूबसूरत कवि छिपा है ! :)
    मंगलकामनाएं !!

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  10. कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
    आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया

    समय से बाहर हुए बिना कोई समय को जान नहीं सकता..

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  11. काल चक्र अपनी गति से चलता है सतत , इसे भ्रम से क्या ,सत्य से क्या !!

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  12. कोहरे भरी सुबहें हैं जीवन की, पथ तो ढूढ़ना ही है।

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  13. अर्थपूर्ण और वैचारिक भाव.....

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  14. बेहतरीन और बहुत कुछ लिख दिया आपने..... सार्थक अभिवयक्ति..

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