गुरुपूर्णिमा पर एक गुरु की याद
मास्साब ने गुरु को सदा जटायु कहकर ही बुलाया, शायद उसके केश से जटा शब्द सोचा और फिर वहाँ से जटायु। थोड़ी बहुत हिंसा वे सभी बच्चों के साथ करते रहते थे लेकिन गुरु के साथ विशेष हिंस्र हो जाते थे। कभी दोनों कान हाथ से पकड़कर उसे एक झटके से अपने चारों और घुमाना, कभी झाड़ियों से इकट्ठी की गई पतली संटियों से सूतना, तो कभी मुर्गा बनाकर पीठ पर ईंटें रखा देना।
लेकिन एक बार वह मेरे कारण पिटा था। सीमाब विष्णुशर्मा नहीं पढ़ पा रहा था। मैं उसे श और ष का अंतर बताने लगा कि अचानक सन्नाटा छा गया। स्पष्ट था कि मुनव्वर मास्साब कक्षा में आ चुके थे। आते ही हमारी बेंच के दूसरे सिरे पर बैठे गुरु को बाल पकड़कर खींचा और पेट में दो-तीन मुक्के लगा दिये।
"मैंने किया क्या सर?" उसने मासूमियत से पूछा। जी भर कर पीट लेने के बाद उसे सीट पर धकेलकर उन्होने उस दिन का पाठ पढ़ाया और कक्षा छोड़ते हुए उससे कहते गए, "आइंदा मेरे क्लास में सीटी बजाने की ज़ुर्रत मत करना जटायु"
बरसों से दबी रही आभार की भावना बाहर आ ही गई, "सचमुच गुरु हो तुम। साथ पढ़ने से ज़्यादा तो वह स्कूल छूटने के बाद सीखा है तुमसे।"
आज इतने सालों के बाद भी मन पर घाव कर रही उस चोट के बोझ को उतारने को बेताब था मैं, "याद है उस दिन सीटी की आवाज़? वह मेरी थी।"
"हा, हा, हा!" बिलकुल पहले जैसे ही हंसने लगा वह, "वह तो मैं तभी समझ गया था, तेरे श्श्श को तो पूरी क्लास ने साफ सुना था।"
"तो कहा क्यों नहीं?"
"क्योंकि बात सीटी की नहीं थी, कभी भी नहीं थी। बात तेरी भी नहीं थी, बात मेरी थी, मेरे अलग दिखने की थी।"
"मैं आज तक बहुत शर्मिंदा हूँ उस बात पर। मुझे खड़े होकर कहना चाहिए था कि वह मैं था।"
"इतनी सी बात को भी नहीं भूला तू अब तक? तेरी आवाज़ मास्साब को सुनाई भी नहीं देती। इतना मगन होकर मेरी पिटाई करते थे वे। रात गई बात गई। रब की किरपा है, हम सब अपनी-अपनी जगह खुश हैं, यही बहुत है। मास्साब भी जहां भी हों खुश रहें।"
वही निश्छल मुस्कान, ज़रा भी कड़वाहट नहीं। आज गुरु पूर्णिमा पर याद आया कि मैंने तो गुरु से बहुत कुछ सीखा। काश मास्साब भी इंसानियत का पाठ सीख पाते।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।बरसों का खोया हुआ मित्र इस तरह अचानक मिल जाये तो खुशी और आश्चर्य का वर्णन संभव नहीं। कहने को हम लोग मात्र तीन साल ही साथ पढे थे लेकिन उतने समय में भी मेरे बालमन को बहुत कुछ सिखा गया था वह एक साथी। बाकी सब ठीक था, बस मुनव्वर मास्साब को उसके सिक्ख होने की वजह से कुछ ऐसी शिकायत थी जिसे हम बच्चे भी दूर से ही भाँप लेते थे। गलत लगती थी लेकिन बड़ों की गलतियों को कैसे रोकें, इतनी अक्ल नहीं थी। न ही ये समझ थी कि इस बात को घर या स्कूल के बड़ों को बताकर उनकी सलाह और सहयोग लिया जाये।
एक गुरु की भेंट (नमन) |
लेकिन एक बार वह मेरे कारण पिटा था। सीमाब विष्णुशर्मा नहीं पढ़ पा रहा था। मैं उसे श और ष का अंतर बताने लगा कि अचानक सन्नाटा छा गया। स्पष्ट था कि मुनव्वर मास्साब कक्षा में आ चुके थे। आते ही हमारी बेंच के दूसरे सिरे पर बैठे गुरु को बाल पकड़कर खींचा और पेट में दो-तीन मुक्के लगा दिये।
"मैंने किया क्या सर?" उसने मासूमियत से पूछा। जी भर कर पीट लेने के बाद उसे सीट पर धकेलकर उन्होने उस दिन का पाठ पढ़ाया और कक्षा छोड़ते हुए उससे कहते गए, "आइंदा मेरे क्लास में सीटी बजाने की ज़ुर्रत मत करना जटायु"
बरसों से दबी रही आभार की भावना बाहर आ ही गई, "सचमुच गुरु हो तुम। साथ पढ़ने से ज़्यादा तो वह स्कूल छूटने के बाद सीखा है तुमसे।"
आज इतने सालों के बाद भी मन पर घाव कर रही उस चोट के बोझ को उतारने को बेताब था मैं, "याद है उस दिन सीटी की आवाज़? वह मेरी थी।"
"हा, हा, हा!" बिलकुल पहले जैसे ही हंसने लगा वह, "वह तो मैं तभी समझ गया था, तेरे श्श्श को तो पूरी क्लास ने साफ सुना था।"
"तो कहा क्यों नहीं?"
"क्योंकि बात सीटी की नहीं थी, कभी भी नहीं थी। बात तेरी भी नहीं थी, बात मेरी थी, मेरे अलग दिखने की थी।"
"मैं आज तक बहुत शर्मिंदा हूँ उस बात पर। मुझे खड़े होकर कहना चाहिए था कि वह मैं था।"
"इतनी सी बात को भी नहीं भूला तू अब तक? तेरी आवाज़ मास्साब को सुनाई भी नहीं देती। इतना मगन होकर मेरी पिटाई करते थे वे। रात गई बात गई। रब की किरपा है, हम सब अपनी-अपनी जगह खुश हैं, यही बहुत है। मास्साब भी जहां भी हों खुश रहें।"
वही निश्छल मुस्कान, ज़रा भी कड़वाहट नहीं। आज गुरु पूर्णिमा पर याद आया कि मैंने तो गुरु से बहुत कुछ सीखा। काश मास्साब भी इंसानियत का पाठ सीख पाते।