भारतीय संस्कृति में माता और पिता के बाद "गुरुर्देवो भवः" कहकर गुरु का ही प्रमुख स्थान है। संत कबीर ने तो गुरु को माता-पिता बल्कि परमेश्वर से भी ऊपर स्थान दे दिया है। शिक्षक दिवस पर गुरुओं, अध्यापकों और शिक्षकों की याद आना लाजमी है। बहुत से लोग हैं जिनके बारे में लिखा जा सकता है। मगर अभी-अभी अपने बरेली के धीरू सिंह की पोस्ट पर (शायद) बरेली के ही एक गुरुजी का कथन "बिना धनोबल के मनोबल नही बढ़ता है" पढा तो वहीं के श्रीमान डी पी जौहरी की याद आ गयी।
डी पी जौहरी की कक्षा में पढने का सौभाग्य मुझे कभी नहीं प्राप्त हुआ। मगर पानी में रहकर मगर की अनदेखी भला कैसे हो सकती है। सो छिटपुट अनुभव अभी भी याद हैं। प्रधानाचार्य जी से उनकी कभी बनी नहीं, वैसे बनी तो अन्य अध्यापकों, छात्रों से भी नहीं। यहाँ तक कि पास पड़ोस के दुकानदारों से भी मुश्किल से ही कभी बनी हो मगर प्रधानाचार्य से खासकर ३६ का आंकडा रहा। उन दिनों दिल्ली में सस्ते और भड़कीले पंजाबी नाटकों का चलन था जिनके विज्ञापन स्थानीय अखबारों में आया करते थे। उन्हीं में से एक शीर्षक चुनकर वे हमारे प्रधानाचार्य को पीठ पीछे "चढी जवानी बुड्ढे नूँ" कहकर बुलाया करते थे।
एक दिन जब वे प्राधानाचार्य के कार्यालय से मुक्कालात करके बाहर आए तो इतने तैश में थे कि बाहर खड़े चपरासी को थप्पड़ मारकर उससे स्कूल का घंटा छीना और छुट्टी का घंटा बजा दिया। आप समझ सकते हैं कि छात्रों के एक वर्ग-विशेष में वे कितने लोकप्रिय हो गए होंगे। एक दफा जब वे सस्पेंड कर दिए गए थे तो स्कूल में आकर उन्होंने विशिष्ट सभा बुला डाली सिर्फ़ यह बताने के लिए कि सस्पेंशन में कितना सुख है। उन्होंने खुलासा किया कि बिल्कुल भी काम किए बिना उन्हें आधी तनख्वाह मिल जाती है और बाक़ी आधी तो समझो बचत है जो बाद में इकट्ठी मिल ही जायेगी। तब तलक वे अपनी भैंसों का दूध बेचने के धंधे पर बेहतर ध्यान दे पाएंगे।
बाद में पूरी तनख्वाह मिल जाने के बाद उन्होंने भैंस-सेवा का काम अपने गुर्गों को सौंपकर सरस्वती-सेवा में फ़िर से हाथ आज़माना शुरू किया। हाई-स्कूल की परीक्षा में ड्यूटी लगी तो एक छात्र ने उनसे शिकायत की, "सर वह कोने वाला लड़का पूरी किताबें रखकर नक़ल कर रहा है। "
डी पी ने शिकायत करने वाले लड़के से हिकारत से कहा, "उसने नामा खर्च किया है, इसलिए कर रहा है, तुम भी खर्चो तो तुम भी कर लेना।"
और उसी कक्ष में बैठे हुए हमने कहा, "गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु..."
डी पी जौहरी की कक्षा में पढने का सौभाग्य मुझे कभी नहीं प्राप्त हुआ। मगर पानी में रहकर मगर की अनदेखी भला कैसे हो सकती है। सो छिटपुट अनुभव अभी भी याद हैं। प्रधानाचार्य जी से उनकी कभी बनी नहीं, वैसे बनी तो अन्य अध्यापकों, छात्रों से भी नहीं। यहाँ तक कि पास पड़ोस के दुकानदारों से भी मुश्किल से ही कभी बनी हो मगर प्रधानाचार्य से खासकर ३६ का आंकडा रहा। उन दिनों दिल्ली में सस्ते और भड़कीले पंजाबी नाटकों का चलन था जिनके विज्ञापन स्थानीय अखबारों में आया करते थे। उन्हीं में से एक शीर्षक चुनकर वे हमारे प्रधानाचार्य को पीठ पीछे "चढी जवानी बुड्ढे नूँ" कहकर बुलाया करते थे।
एक दिन जब वे प्राधानाचार्य के कार्यालय से मुक्कालात करके बाहर आए तो इतने तैश में थे कि बाहर खड़े चपरासी को थप्पड़ मारकर उससे स्कूल का घंटा छीना और छुट्टी का घंटा बजा दिया। आप समझ सकते हैं कि छात्रों के एक वर्ग-विशेष में वे कितने लोकप्रिय हो गए होंगे। एक दफा जब वे सस्पेंड कर दिए गए थे तो स्कूल में आकर उन्होंने विशिष्ट सभा बुला डाली सिर्फ़ यह बताने के लिए कि सस्पेंशन में कितना सुख है। उन्होंने खुलासा किया कि बिल्कुल भी काम किए बिना उन्हें आधी तनख्वाह मिल जाती है और बाक़ी आधी तो समझो बचत है जो बाद में इकट्ठी मिल ही जायेगी। तब तलक वे अपनी भैंसों का दूध बेचने के धंधे पर बेहतर ध्यान दे पाएंगे।
बाद में पूरी तनख्वाह मिल जाने के बाद उन्होंने भैंस-सेवा का काम अपने गुर्गों को सौंपकर सरस्वती-सेवा में फ़िर से हाथ आज़माना शुरू किया। हाई-स्कूल की परीक्षा में ड्यूटी लगी तो एक छात्र ने उनसे शिकायत की, "सर वह कोने वाला लड़का पूरी किताबें रखकर नक़ल कर रहा है। "
डी पी ने शिकायत करने वाले लड़के से हिकारत से कहा, "उसने नामा खर्च किया है, इसलिए कर रहा है, तुम भी खर्चो तो तुम भी कर लेना।"
और उसी कक्ष में बैठे हुए हमने कहा, "गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु..."