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Saturday, August 23, 2014

जोश और होश - बोधकथा

चेले मीर ने सारे दांव सीख लिए थे। जीशीला भी था, फुर्तीला भी। नौजवान था, मेहनती था, बलवान तो होना ही था। फिर भी जो इज्ज़त उस्ताद पीर की थी, उसे मिलती ही न थी। गैर न भी करें, उस्ताद भी उसे बहुत होशियार नहीं समझते थे और सटीक से सटीक दांव पर भी और अधिक होशियार रहने की ही सलाह देते थे।

बहुत सोचा, बहुत सोचा, दिन भर, फिर रात भर सोचा और निष्कर्ष यह निकाला कि जब तक वह शागिर्द बना रहेगा, उसे कोई भी उस्ताद नहीं मानेगा। आगे बढ़ना है तो उसे शागिर्दी छोडकर जाना पड़ेगा। लेकिन उसके शागिर्दी छोड़ने भर से उस्ताद की उस्तादी तो छूटने वाली नहीं न। फिर?

उस्ताद को चुनौती देनी होगी, उसे हराना पड़ेगा। उस्ताद की इज्ज़त इसलिए है क्योंकि वह आज तक किसी से हारा नहीं है। चुनौती नहीं स्वीकारेगा तो बिना लड़े ही हार जाएगा। और अगर मान ली, तब तो मारा ही जाएगा। सारे दांव तो सिखा चुका है, और अब बूढ़ी हड्डियों में इतना दम नहीं बचा है कि लंबे समय तक लोहा ले सके।

लीजिये जनाब, युवा योद्धा ने अखाडा छोड़कर गुरु को ललकार कर मुक़ाबला करने की चुनौती भेज दी। उस्ताद ने हँसकर मान भी ली और यह भी कहा कि पहले भी कुछ चेले नौजवानी में ऐसी मूर्खता कर चुके हैं। उनमें से कई मुक़ाबले के दिन कब्रिस्तान सिधार गए और कुछ आज भी बेबस चौक पर भीख मांगते हैं। युवा योद्धा इन बातों से बहकने वाला नहीं था। मुक़ाबले में समय था फिर भी टाइमटेबल बनाकर गुरु के सिखाये सारे गुरों का अभ्यास लगन से करने लगा।

(चित्र: अनुराग शर्मा)
एक दिन सपने में देखा कि उस्ताद से मुक़ाबला है। वह ज़मीन पर पड़ा है और उस्ताद ने तलवार उसकी गर्दन पर टिकाई हुई है। उसने आश्चर्य से पूछा, "इन बूढ़े हाथों में इतनी ताकत कैसे?" उस्ताद ने सिंहनाद कराते हुए कहा, "ताकत मेरी नहीं मेरे गुरू के सूत्र द्वारा बनवाई गई इस तलवार की है।"  बेचैनी में आँख खुली तो फिर नींद न आई। सुबह उठते ही पुराने अखाड़े पहुँचकर ताका-झाँकी करने लगा। गाँव का लुहार उसके सामने ही अखाड़े में गया। उस्ताद उसे अक्सर बुलाते थे। उस्ताद की तलवारें अखाड़े की भट्टी में उनके निर्देशन में ही बनती थीं। शाम को जब लुहार बाहर निकला तो चेले ने पूछा, "क्या करने गया था?" लुहार ने बताया कि उस्ताद पाँच फुट लंबी तलवार बनवा रहे हैं, आज ही पूरी हुई है।

जोशीले चेले ने सोने का एक सिक्का लुहार के हाथ में रखकर उसी समय आठ फुट लंबी तलवार मुकाबले से पहले बनाकर लाने का इकरार करा लिया और घर जाकर चैन से सोया।

दिन बीते, मुकाबला शुरू हुआ। गुरु की कमर में पाँच फुट लंबी म्यान बंधी थी तो चेले की कमर में आठ फुट लंबी। तुरही बजते ही दोनों के हाथ तलवार की मूठ पर थे। चेले के हाथ छोटे पड़ गए, म्यान से आठ फुटी तलवार बाहर निकल ही न सकी तब तक उस्ताद ने नई पाँच फुटी म्यान से अपनी पुरानी सामान्य छोटी सी तलवार निकालकर उसकी गर्दन पर टिका दी।

होश के आगे जोश एक बार फिर हार गया था।

[समाप्त]

Monday, August 25, 2008

कह के या कर के?

मुग़ल बादशाह की फौज के लिए भर्ती चल रही थी। वैसे तो काम सेनाध्यक्षों और मित्र राजाओं की देखरेख में चल रहा था मगर बीच-बीच में बादशाह ख़ुद भी आकर देख-परख जाते थे। एक सहयोगी राजा साहब की सिफारिश के साथ आए दो सूरमा भर्ती से पहले बादशाह से आमने-सामने बात करना चाहते थे।

मुलाक़ात तय हुई तो पता लगा कि दोनों वीर बादशाह की नौकरी तो करेंगे मगर कुछ सम्माननीय शर्तों के साथ। एक शर्त यह भी थी कि उनकी तनख्वाह उनकी मर्जी से ही तय हो। और उनकी मर्जी उस समय के हिसाब से काफी ज्यादा थी। रकम सुनकर बादशाह को कुछ आश्चर्य हुआ। उसने इतने अधिक पैसे लेने का कारण जानना चाहा।

"हुज़ूर, कह कर बताएं या कर के दिखाएँ," उनमें से एक वीर ने पूछा।

"कहने से करना भला," बादशाह ने सोचा, "हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या"

"करके ही देख लेते हैं - दूध का दूध, पानी का पानी हो जायेगा। "

फ़िर क्या था, बादशाह की सहमति होते ही दोनों वीरों ने अपनी-अपनी तलवार निकाली। जब तक बादशाह को कुछ समझ आता दोनों ने एक झटके में एक दूसरे का सर उड़ा दिया।

खेल खतम,पैसा हजम ...