1. दो सत्यनिष्ठ (संसार की सबसे छोटी बोधकथा)2. निबंध - लघुकथा
चोटी पर बैठा सन्यासी चहका, "धूप है"। तलहटी का गृहस्थ बोला, "नहीं, सर्दी है"। ऊपर चढ़ते पर्वतारोही ने कहा, "ठंड घट रही है।"
बच्चा खुश था। उसने न केवल निबंध प्रतियोगिता में भाग लिया बल्कि इतना अच्छा निबंध लिखा कि उसे कोई न कोई पुरस्कार मिलने की पूरी उम्मीद थी। "एक नया दिन" प्रतियोगिता के आयोजक खुश थे। सारी दुनिया से निबंध पहुँचे थे, प्रतियोगिता को बड़ी सफलता मिली थी। आकलन के लिए निबंधों के गट्ठे के गट्ठे शिक्षकों के पास भेजे गए ताकि सर्वश्रेष्ठ निबंधों को इनाम मिल सके।
परीक्षक जी का हँस-हँस के बुरा हाल था। कई निबंध थे ही इतने मज़ेदार। उदाहरण के लिए इस एक निबंध पर गौर फरमाइए।
दिन निकल आया था। सूरज दिखने लगा। दिखता रहा। एक घंटे, दो घंटे, दस घंटे, बीस घंटे, एक दिन पाँच दिन, दो सप्ताह, चार हफ्ते, एक महीना, दो महीने, ....
शुरुआत से आगे पढ़ा ही नहीं गया, रिजेक्ट करके एक किनारे पड़ी रद्दी की पेटी में डाल दिया।
उत्तरी स्वीडन के निवासी बालक को यह पता ही न था कि कोई विद्वान उसके सच को कोरा झूठ मानकर पूरा पढे बिना ही प्रतियोगिता से बाहर कर देगा।
हमारे संसार का विस्तार वहीं तक है जहाँ तक हमारे अज्ञान का प्रकाश पहुँच सके।
तलहटी और चोटी का द्वन्द्व पुराना है!
ReplyDeleteअब तो बहुत बार कापियाँ खुलती ही नहीं :)
ReplyDeleteहाँ बाहर के पन्ने पर नंबर दिये हुऐ जरूर नजर आते हैं जो परीक्षक का मूड कैसा था जाँचते समय बताते हैं ।
और अंधेरा कुएं में रहने वाले मेंढ़क की तरह !
ReplyDeleteप्रश्न तो उपजता है ...क्या परीक्षक सब कुछ जानते हैं ? जाने किस आधार पर, कैसा आकलन होता आ रहा है ?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर वाह
ReplyDeleteहर मेंढक का अपना कूप ..
ReplyDeleteहर नागरी का अपना भूप
Deleteभौगोलिक तथ्यों को नकारना वह भी अपने तथाकथित ज्ञान के आधार पर!! अपनी सीमाओं को दूसरे की अल्पज्ञता समझना अनादि काल से चला आ रहा है!!
ReplyDeleteइसीलिए ज्ञानी लोग कम्पटीशन के चक्कर में नहीं पड़ते...अपना राग खुद ही अलापते हैं...हा हा हा...
ReplyDeleteशायद इसीलिए ज्ञानियों से अपनी मुलाक़ात नहीं हो पाती है :(
Deleteनीग्रोज बस्तियों में एकाधिक स्टोर्स ना होने के मसले पर मैंने भी एक निबंध लिखा था कभी :)
ReplyDeleteलिंक दीजिये न, नहीं पढ़ा तो पढ़ लेंगे, पढ़ा हुआ तो दोहरा लेंगे
Deleteजी आभार!
ReplyDeleteवाह ! हमारे ज्ञान की सीमा ही हमें अज्ञानी बनाती है...
ReplyDeleteअच्छी लघुकथा।
ReplyDeleteहमारे ज्ञान की सीमा बनी अज्ञान की परिसीमा।
ReplyDeleteFacts are stranger than fiction - पूरी जानकारी किसी को कहाँ होती है , आकलन भी कभी पूरा नहीं हो सकता .तभी तो कहा है 'मंडे मुंडे मतिर्भिनः'
ReplyDeleteआजकल पुर्नमूल्यांकन का विकल्प भी मौजूद है।
ReplyDeleteHhmmm..
ReplyDeleteraj kapoor ka gana yaad aa raha hai, chashma utaro fir dekho yaaron duniya nai hai, chehra purana
ReplyDeleteजीवन के गहरे सच की और इंगित करती हैं दोनों लघु कथाएं ... ज्ञान की अपनी अपनी परिभाषाएं और अपना अपना सत्य है ...
ReplyDeleteहमारी बुद्धि जहाँ तक जाती है उससे कहीं आगे ज्ञान का सीमाहीन आकाश है जिसका कोई छोर नहीं....
ReplyDeletesaty
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