सदाबहार मौसम वाले भाई संजय अनेजा ने खाचिड़ी की कहानी सुनाकर बचपन की याद दिला दी। अपना बचपन उतना धर्म-निरपेक्ष नहीं रहा था, शायद इसीलिये बचपन की चार सबसे पुरानी यादें उस जगह (रामपुर) की हैं जिसका नाम ही देश के एक आदर्श व्यक्तित्व "पुरुषोत्तम" के नाम पर है। इन यादों में से एक मन्दिर, एक गुरुद्वारा और एक पुस्तकालय की है। चौथी अपने एक हमउम्र मित्र के साथ शाम के समय पुलिया पर बैठकर समवेत स्वर में "बम बम भोले" कहने की है। श्रावणमास में "बम बम" भजने का आनन्द ही और है लेकिन लगता है कि मेरी जन्मभूमि अब उतनी धर्मनिरपेक्ष नहीं रही।
आज भी याद है कि बरेली में दिन का आरम्भ ही मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से होता था। अज़ान ही नहीं बल्कि अलस्सुबह उनपर धार्मिक गायन प्रारम्भ हो जाता था। आकाशवाणी रामपुर पर भी सुबह आने वाले धार्मिक गीतों के कार्यक्रम में कम से कम एक मुस्लिम भजन भी होता ही था। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही समुदाय समान रूप से जातियों में विभाजित थे। हमारी गली में ब्राह्मण, बनिये और कायस्थ रहते थे। उस गली के अलावा हर ओर विभिन्न जातियों के मुसलमान रहा करते थे। भिश्ती, नाई, दर्ज़ी, बढई, घोसी, क़साई, राजपूत, और न जाने क्या-क्या? मुसलमानों के बीच कई जातियाँ - जिन्हें वे ज़ात कहते थे - ऐसी भी थीं जो हिन्दुओं में होती भी नहीं थीं। उस ज़माने में कुछ जातियों ने धर्म की दीवार तोड़कर जाति-सम्बन्धी अंतर्धार्मिक संगठन बनाने के प्रयास भी किये थे मगर मज़हब की दीवार शायद बहुत मजबूत है। अगर ऐसा न होता तो इस सावन पर बरेली के शाहाबाद मुहल्ले में साल में बस एक बार शिव के भजन बजाये जाने पर दिन में पाँच बार लाउडस्पीकरों पर नमाज़ पढने वाला वर्ग भड़कता क्यों? हर साल अपना समय बदलने वाला रमज़ान क्या हज़ारों साल से अपनी जगह टिके सावन को रोक देगा? यह कौन सी सोच है? यह क्या होता जा रहा है मेरे शहर को?
मेरा शहर? यह आग तो हर जगह लगी हुई है। बरेली के बाद फैज़ाबाद में दंगा होने की खबरें आईं। लेकिन जो खबर अपना ड्यू नहीं पा सकी वह थी असम में बंगलाभाषी मुसलमानों द्वारा हज़ारों मूलनिवासियों के गाँव के गाँव फूंक डालने की। ऐसा कैसे हो जाता है जब किसी क्षेत्र के मूल निवासी अपने ही देश, गाँव, घर में असुरक्षित हो जाते हैं? दूसरी भाषा, धर्म, प्रदेश और देश के लोग बाहर से आकर जो चाहे कर सकते हैं? और यह पहली बार तो नहीं है जब बंगाली मुसलमानों ने सामूहिक रूप से असमी आदिवासियों के साथ इस तरह का कृत्य किया है।
लगभग इसी प्रकार की हिंसा का विलोमरूप महाराष्ट्र में हिन्दीभाषियों के विरुद्ध हुई हिंसा के रूप में देखने को मिला था। हर समुदाय दूसरे समुदाय से आशंकित है। लेकिन इस आशंका के बीच भी कुछ समुदाय ऐसे क्यों हैं कि वे हिंसक भी हैं और फिर अपने को सताया हुआ भी बताते रहते हैं?
श्रावण के पहले सोमवार पर श्रीनगर के एक प्राचीन शिव मन्दिर में अर्चना करते दलाई लामा का एक चित्र इंटरनैट पर आने के मिनटों बाद ही मुसलमान नामों की प्रोफ़ाइलों से उनके ऊपर गाली-गलौज शुरू हो गई। कई गालीकारों ने म्यानमार के दंगों में मुसलिम क्षति की बात भी की थी। यह बात समझ आती है कि कम्युनिस्ट चीन के साये में पल रहे म्यानमार के तानाशाही शासन में न जाने कब से सताये जा रहे बौद्धों के दमन के समय मुँह सिये बैठे लोग मुसलमानों की बात आते ही मुखर हो गये लेकिन इस मामले से बिल्कुल असम्बद्ध दलाई लामा को विलेन बनाने का प्रयास किसने शुरू किया यह बात समझ नहीं आती। अपने देश में भी राष्ट्रीय समस्याओं से आँख मून्दकर अमन का राग अलापने वाले लोग अब म्यानमार में मुसलमानों के इन्वॉल्व होते ही मियाँमार-मियाँमार चिल्लाना शुरू हो गये हैं।
हिंसा-प्रतिहिंसा ग़लत है, निन्दनीय है। पर ऐसा क्यों होता है कि अपनी हिंसक मनोवृत्ति और हिंसक प्रतीकों को दूसरों से मनवाने की ज़िद लिये बैठे लोगों से भरे समुदाय को दुनिया भर में बस अपने धर्म के पालकों के प्रति हुआ अन्याय ही दिखता है? कोई आँख इतनी बदरंग कैसे हो सकती है? वैसे हिंसा और धर्म का एक और सम्बन्ध भी है। जहाँ एक वर्ग धर्मान्ध होकर हिंसा कर रहा है वहीं हिंसक-विचारधारा वाला एक दूसरा वर्ग किसी भी धर्म को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। अपने को मज़दूरों का प्रतिनिधि बताने वाली इस विचारधारा ने अब तक न जाने कितने देशों में कम्युनिज़्म लाने के नाम पर इंसानों को कीड़ों-मकौड़ों की तरह कुचला है। ऐसे ही लोगों ने पिछले दिनों मनेसर में हिंसा का वह नंगा नाच किया है जिसकी किसी सभ्य समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मारुति सुज़ूकी के मानव संसाधन महाप्रबन्धक अवनीश कुमार देव को मनेसर परिसर के अंदर चल रही वार्ता के दौरान जिस प्रकार जीवित जलाया गया उससे आसुरी शक्तियों के मन का मैल और उसका बड़ा खतरा एक बार फिर जगज़ाहिर हुआ है।
दिल्ली में मेट्रो स्टेशन के लिये गहरी खुदाई होने पर मृद्भांडों की खबर मिलते ही मुस्लिम समुदाय सभी नियम कानूनों को ताक़ पे रखकर, नियमों और न्यायालय के आदेश का खुला उल्लंघन करके न केवल सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेता है बल्कि वहाँ रातों-रात एक नई मस्जिद भी बना दी जाती है। तब सिकन्दर बख्त का वह कथन याद आता है जिसमें उन्होंने ऐसा कुछ कहा था कि इस देश में बहुसंख्यक समाज डरकर रहता है क्योंकि अपने को अल्पसंख्यक कहने वालों ने देश के टुकड़े तक कर दिये और बहुसंख्यक उसे रोक भी न सके। तथाकथित अल्पसंख्यक और भी बहुत कुछ कर रहे हैं। मज़े की बात यह है कि यह "अल्पसंख्यक" वर्ग जैन, सिख, पारसी, बौद्ध और विभिन्न जनजातियों आदि जैसा अल्पसंख्यक नहीं है। विविधता भरे इस देश में यह समुदाय हिन्दुओं के बाद सबसे बड़ा बहुसंख्यक है।
समाज में हिंसा और असंतोष बढता जा रहा है इतना तो समझ में आता है। लेकिन दुख इस बात का है कि प्रशासन और व्यवस्था नफ़रत के इस ज़हरीले साँप को इतनी ढील क्यों दे रही है? समय रहते इसे काबू में किया जाये। रस्सी को इतना ढीला मत छोड़ो कि पूरा ढांचा ही भरभराकर गिर जाये। एक बार लोगों के मन में यह बात आ गयी कि प्रशासन के निकम्मेपन के चलते जनता को अपनी, अपने परिवार, देश, धर्म, संस्कृति, इंफ़्रास्ट्रक्चर, व्यवसाय की ज़िम्मेदारी व्यक्तिगत स्तर पर खुद ही उठानी है तो आज के अनुशासनप्रिय लोग भी आत्मरक्षा के लिये प्रत्याघात पर उतर आयेंगे और फिर हालात काफ़ी खराब हो सकते हैं।
किसका पाकिस्तान, किसका हिन्दुस्तान, किसकी धरती, किसका देश
(पाकिस्तानी पत्रकार हसन निसार)
* क़ौमी एकता - लघुकथा
* हिन्दी बंगाली भाई भाई - कहानी
* मैजस्टिक मूंछें - चिंतन
* खजूर की गुलामी - शीबा असलम फ़हमी
* जामा मस्जिद में दलाई लामा - मानसिक हलचल
* मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन ऑफ असम [मूसा]
आज भी याद है कि बरेली में दिन का आरम्भ ही मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से होता था। अज़ान ही नहीं बल्कि अलस्सुबह उनपर धार्मिक गायन प्रारम्भ हो जाता था। आकाशवाणी रामपुर पर भी सुबह आने वाले धार्मिक गीतों के कार्यक्रम में कम से कम एक मुस्लिम भजन भी होता ही था। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही समुदाय समान रूप से जातियों में विभाजित थे। हमारी गली में ब्राह्मण, बनिये और कायस्थ रहते थे। उस गली के अलावा हर ओर विभिन्न जातियों के मुसलमान रहा करते थे। भिश्ती, नाई, दर्ज़ी, बढई, घोसी, क़साई, राजपूत, और न जाने क्या-क्या? मुसलमानों के बीच कई जातियाँ - जिन्हें वे ज़ात कहते थे - ऐसी भी थीं जो हिन्दुओं में होती भी नहीं थीं। उस ज़माने में कुछ जातियों ने धर्म की दीवार तोड़कर जाति-सम्बन्धी अंतर्धार्मिक संगठन बनाने के प्रयास भी किये थे मगर मज़हब की दीवार शायद बहुत मजबूत है। अगर ऐसा न होता तो इस सावन पर बरेली के शाहाबाद मुहल्ले में साल में बस एक बार शिव के भजन बजाये जाने पर दिन में पाँच बार लाउडस्पीकरों पर नमाज़ पढने वाला वर्ग भड़कता क्यों? हर साल अपना समय बदलने वाला रमज़ान क्या हज़ारों साल से अपनी जगह टिके सावन को रोक देगा? यह कौन सी सोच है? यह क्या होता जा रहा है मेरे शहर को?
मेरा शहर? यह आग तो हर जगह लगी हुई है। बरेली के बाद फैज़ाबाद में दंगा होने की खबरें आईं। लेकिन जो खबर अपना ड्यू नहीं पा सकी वह थी असम में बंगलाभाषी मुसलमानों द्वारा हज़ारों मूलनिवासियों के गाँव के गाँव फूंक डालने की। ऐसा कैसे हो जाता है जब किसी क्षेत्र के मूल निवासी अपने ही देश, गाँव, घर में असुरक्षित हो जाते हैं? दूसरी भाषा, धर्म, प्रदेश और देश के लोग बाहर से आकर जो चाहे कर सकते हैं? और यह पहली बार तो नहीं है जब बंगाली मुसलमानों ने सामूहिक रूप से असमी आदिवासियों के साथ इस तरह का कृत्य किया है।
लगभग इसी प्रकार की हिंसा का विलोमरूप महाराष्ट्र में हिन्दीभाषियों के विरुद्ध हुई हिंसा के रूप में देखने को मिला था। हर समुदाय दूसरे समुदाय से आशंकित है। लेकिन इस आशंका के बीच भी कुछ समुदाय ऐसे क्यों हैं कि वे हिंसक भी हैं और फिर अपने को सताया हुआ भी बताते रहते हैं?
श्रावण के पहले सोमवार पर श्रीनगर के एक प्राचीन शिव मन्दिर में अर्चना करते दलाई लामा का एक चित्र इंटरनैट पर आने के मिनटों बाद ही मुसलमान नामों की प्रोफ़ाइलों से उनके ऊपर गाली-गलौज शुरू हो गई। कई गालीकारों ने म्यानमार के दंगों में मुसलिम क्षति की बात भी की थी। यह बात समझ आती है कि कम्युनिस्ट चीन के साये में पल रहे म्यानमार के तानाशाही शासन में न जाने कब से सताये जा रहे बौद्धों के दमन के समय मुँह सिये बैठे लोग मुसलमानों की बात आते ही मुखर हो गये लेकिन इस मामले से बिल्कुल असम्बद्ध दलाई लामा को विलेन बनाने का प्रयास किसने शुरू किया यह बात समझ नहीं आती। अपने देश में भी राष्ट्रीय समस्याओं से आँख मून्दकर अमन का राग अलापने वाले लोग अब म्यानमार में मुसलमानों के इन्वॉल्व होते ही मियाँमार-मियाँमार चिल्लाना शुरू हो गये हैं।
अवनीश कुमार देव |
दिल्ली में मेट्रो स्टेशन के लिये गहरी खुदाई होने पर मृद्भांडों की खबर मिलते ही मुस्लिम समुदाय सभी नियम कानूनों को ताक़ पे रखकर, नियमों और न्यायालय के आदेश का खुला उल्लंघन करके न केवल सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेता है बल्कि वहाँ रातों-रात एक नई मस्जिद भी बना दी जाती है। तब सिकन्दर बख्त का वह कथन याद आता है जिसमें उन्होंने ऐसा कुछ कहा था कि इस देश में बहुसंख्यक समाज डरकर रहता है क्योंकि अपने को अल्पसंख्यक कहने वालों ने देश के टुकड़े तक कर दिये और बहुसंख्यक उसे रोक भी न सके। तथाकथित अल्पसंख्यक और भी बहुत कुछ कर रहे हैं। मज़े की बात यह है कि यह "अल्पसंख्यक" वर्ग जैन, सिख, पारसी, बौद्ध और विभिन्न जनजातियों आदि जैसा अल्पसंख्यक नहीं है। विविधता भरे इस देश में यह समुदाय हिन्दुओं के बाद सबसे बड़ा बहुसंख्यक है।
समाज में हिंसा और असंतोष बढता जा रहा है इतना तो समझ में आता है। लेकिन दुख इस बात का है कि प्रशासन और व्यवस्था नफ़रत के इस ज़हरीले साँप को इतनी ढील क्यों दे रही है? समय रहते इसे काबू में किया जाये। रस्सी को इतना ढीला मत छोड़ो कि पूरा ढांचा ही भरभराकर गिर जाये। एक बार लोगों के मन में यह बात आ गयी कि प्रशासन के निकम्मेपन के चलते जनता को अपनी, अपने परिवार, देश, धर्म, संस्कृति, इंफ़्रास्ट्रक्चर, व्यवसाय की ज़िम्मेदारी व्यक्तिगत स्तर पर खुद ही उठानी है तो आज के अनुशासनप्रिय लोग भी आत्मरक्षा के लिये प्रत्याघात पर उतर आयेंगे और फिर हालात काफ़ी खराब हो सकते हैं।
गिरा के दीवारें जलाया मकाँ जो, मुड़ के जो देखा लगा अपना अपनाकोई वर्ग सताया हुआ क्यों होता है? लोग पीढियों तक क्यों रोते हैं? किसके किये का फल किसे मिलता है? लीबिया, सीरिया, ईराक़, ईरान, सूडान, सोमालिया और अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं, बल्कि पख्तून फ़्रंटियर, पाक कब्ज़े वाला कश्मीर, बलूचिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश का हाल भी देखिये। जो लोग आज़ादी से पहले भारत तोड़ने के मंसूबे बांध रहे थे, उनकी औलादें आज भी उनकी करनी को और अपनी क़िस्मत को रो रही हैं। कम लोगों को याद होगा कि बाद में पाकिस्तानी दमन के प्रतीक बने शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत तोड़कर पाकिस्तान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रकृति कैसे काम करती है, मुझे नहीं पता लेकिन इतना पता है कि स्वार्थी की दृष्टि संकीर्ण ही नहीं आत्मघातक भी होती है। जो लोग आज़ादी के दशकों बाद भी इस देश में आग लगाने के प्रयासों में लगे हैं उनकी कितनी आगामी पीढियाँ कितना रोयेंगी इसका अन्दाज़ भी उन्हें समय रहते ही लग जाये तो बेहतर है। जो लोग इतिहास की ग़लतियों से सबक़ नहीं लेते उन्हें वह सब फिर से भोगना पड़ता ही है।
किसका पाकिस्तान, किसका हिन्दुस्तान, किसकी धरती, किसका देश
(पाकिस्तानी पत्रकार हसन निसार)
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* मैजस्टिक मूंछें - चिंतन
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* जामा मस्जिद में दलाई लामा - मानसिक हलचल
* मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन ऑफ असम [मूसा]
मुझे तो अब लगने लगा है कि हिन्दुओं ने वाकई कोई सबक नहीं लिया इतिहास से| पृथ्वीराज चौहान ने दर्जन भर बार छोड़ा आतताई को, लेकिन उन्होंने क्या किया चौहान के साथ| यदि ताली एक हाथ से नहीं बजती तो भाई-भाई और सहिष्णुता भी एकतरफा नहीं हो सकती| राजेन्द्र नगर में भी अगर सुबह चार बजे मस्जिदों से इतनी तेज आवाज में धार्मिक उद्घोष सुनाई दे कि दो-तीन किलोमीटर दूर लोगों की (जिनमें छोटे बच्चे और मरीज भी शामिल हों) की नींद खुल जाये और आवाज कम करने की अपील पर फलां बारात और अलां जुलूस की दलीलें देकर यह बताया जाये कि अल्पसंख्यक होने के कारण उनके अधिकारों का हनन हो रहा है तो फिर ऐसी जगहों पर क्या आलम होगा जहाँ सनातनियों की संख्या बहुत कम होगी| म्यांमार के नाम पर तड़प उठने वालों को असम के दंगे नहीं दीखते| हाँलाकि उनका दोष भी नहीं है क्योंकि जब पद्म पुरुष्कार प्राप्त पत्रकार असम के दंगों की कवरेज को गुजरात के दंगों से जोड़ सकता है तो फिर औरों की मानसिकता के बारे में क्या कहा जाये|
ReplyDeleteदो टूक सत्य!!
ReplyDeleteआज आपने वह सब कह दिया, जो इस शाश्वत कौम को बहुत पहले मुखरता से कहने/करने/अपनाने की आवश्यकता थी।
बहुत दुःख होता है ऐसी घटनाएँ जानकर.
ReplyDelete...कुछ सिरफिरे लोगों की वज़ह से गंगा-जमनी संस्कृति को बदनाम किया जा रहा है !
सब राजनीतिक स्वार्थों का नतीजा है .... और शायद यह जारी ही रहेगा.....
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteजब हम ऐसी धारणाएं रखते हैं ( साथ ही इच्छाएं और मांगें ) करते हैं कि
Delete"कोई हमसे इसलिए नीचा है की हम इस परिवार / धर्म / देश / संस्कृति में जन्मे हैं, और वह दूसरे परिवेश में .... और इस गुनाह की सजा के रूप में उसे ख़त्म कर दिया जाए "
- तब यह जान लिया जाना चाहिए कि हम अपने चरम पर पहुँच कर अधोपतन की ओर अग्रसर हो चुके और हमारा अंतर्मन यह जानता है कि हम में कोई कमी है | तभी यह भय कि हम हार जायेंगे, और तभी यह दूसरे को हराने की लिप्सा पैदा होती है | हिन्दू मुस्लमान में भेद क्यों हो ? हिंदी अहिन्दीभाषी में क्यों ? क्योंकिं मुझे यदि "हिंदुत्व " की चिंता है ?
यदि राम को बचाने की चिंता है - तो इसका अर्थ ही यह कि राम के अपनी हीओ रक्षा कर पाने के प्रति मैं शंकित हूँ | उस राम के लिए - जिसे मैं सर्व शक्तिमान कहता / कहती हूँ !! ironic .....
USA में भी पहले गोरे और काले का भेद था - जिस तरह हमारे यहाँ वर्गभेद था | किन्तु गृहयुद्ध के बाद यह भेदभाव वाले क़ानून बदले | वे तो बंटे हुए समाज से ऐक्य की ओर अग्रसर हुए था, और हम - ? जहां पहले (स्वतंत्रता के पहले ) भारत में हिन्दू मुस्लिम एक थे , वहीँ "फूट दाल कर राज्य करो" के अंतर्गत बोये जहर के बीजों ने इतना असर किया कि पहले पाकिस्तान और भारत अलग हुए, फिर और भी बन्ताव की कोशिशें हो रही हैं - दोनों ही ओर से | हम भारत को एक से खंड खंड करने के प्रयासों में लगे हुए हैं |
सच कितना कड़वा है ..
ReplyDelete.... लेकिन लगता है कि मेरी जन्मभूमि अब उतनी धर्मनिरपेक्ष नहीं रही।
ReplyDeleteसचमुच अब कुछ भी तो पहले जैसा नहीं रहा..असम की हिंसा की बात आपने की जो बहुत ही दुखद है, टीवी पर हजारों लोगों को घर छोड़कर जाते देखना भीतर एक पीड़ा को भर जाता है. शासन कितना बेबस नजर आता है.
असम का हाल देख समझ ही नहीं आता कि कोई वोटों का इतना भूखा हो सकता है कि उन्हें पाने के लिए एक राज्य को सदियों के नर्क की तरफ धकेल दिया। इस स्थिति से बाहर निकलना अब असंभव लगता है।
ReplyDeleteजो विडीयो आपने दिखाया वह बहुत सही है। कई बार आपके ही ब्लॉग पर देख चुकी हूँ। हमारे यहाँ जो पाकिस्तान के अपने बनने वाले लोग रहते हैं उन्हें यह अवश्य देखना चाहिए।
घुघूती बासूती
सर्वप्रथम क्षमा चाहता हूँ कि काफी वक्त से अरूचि का शिकार होने की वजह से अपने अनेक पसंदीदा ब्लोगों पर भ्रमण लगभग नगण्य सा ही है , इसलिए आपके ब्लॉग पर भी नहीं आया ! आज आना हुआ तो यह टोपिक मिला शीर्षक भी आपने बहुत सुन्दर दिया !...... जब कभी अयोध्या का मसला गरम होता है तो मैं नोट करता हूँ कि इस देश में मौजूद बहुत सी जयचंदों की औलादे ये अयोध्या में मदिर के स्थान पर हास्पीटल बनाने की जोर-शोर से वकालात करते हैं ! मगर मैंने नोट किया कि इनमे से एक भी नमकहराम आगे आकर इन धर्मान्धो को यह न कह सका कि नमकहरामों, ये जो फूर्ति तुमने रातों रात मित्रो की जगह पर सुभाष पार्क में दिखाई और रातों रात मस्जिद खादी की ,इतनी मेहनत कहीं कोई स्कूल बनाने में खर्च करते तो आगे चलकर इनके बच्चे, जो ये लालू की सलाह पर साल में अधिकतम दो को मानकर पैदा करते है . लायक बनते, उन्हें आतंकवादी नहीं बनना पड़ता ! दो-तीन दिनों से असं का कोकराझार जिला बुरी तरह जल रहा है, वजह बांग्लादेश से आये विस्थापित मुस्लिमों की हिंसा, गोधरा की तरह ही यहाँ भी ये हरामखोर बहुत सी कहानियां गढ़ेंगे, किन्तु सच ये है कि पहले इन्होने ही बोडो आदिवासियों के एक नेता को मारा और प्रतिक्रियास्वरूप बोडो ने इनके दो लोगो को मार दिया, वहाँ से ये हिंसा का दौर शुरू हुआ ! वजह यह भी है कि असं के मूल निवासी डरे हुए है कि जिन बांग्लादेशी मुसलमानों को आजकल वर्मा (म्यांमार, मियाँमार ) के लोग वापस मार भगा रहे है, उन्हें भी कहीं असं के जंगलों में ही न बसा दिया जाए क्योंकि सत्तारूढ़ दल को देश से कुछ लेना देना नहीं उसे तो सिर्फ वोट चाहिए !
ReplyDeleteभाई गोदियाल जी मुस्लिमों की नापाक हरकतों पर भी सब मुंह में गोबर भर के बैठ जाते हैं....
Delete@जो लोग आज़ादी के दशकों बाद भी इस देश में आग लगाने के प्रयासों में लगे हैं उनकी कितनी पीढियाँ कितना रोयेंगी इसका अन्दाज़ भी उन्हें समय रहते ही लग जाये तो बेहतर है। जो इतिहास से सबक़ नहीं लेते उन्हें वह सब फिर से भोगना पड़ता ही है।
ReplyDeleteनहीं समझेंगे. इनलोगों की समझदानी बहुत छोटी है.
कुछ दिन पहले एक लेख पढ़ा था, मुझे लगता है बहुत से लोगों ने नहीं पढ़ा होगा| लिंक ये है -
ReplyDeletehttp://bhadesbharat.blogspot.in/2012/06/2002-1984.html
फिर आता हूँ बाद में|
धर्मांध जो न कराएं वह कम है ....
ReplyDeleteआपकी यह पोस्ट और उस पर आई टिप्पणियॉं पढकर या तो 'अन्धों का हाथी' वाली कहानी याद आती है या फिर तुलसी की चौपाई - जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी।'
ReplyDeleteअपनी पीडा में मुझे भी शामिल करने की कृपा करें।
सिकंदर साहब ने ठीक ही कहा था !
ReplyDeleteकारगिल युद्ध के शहीदों को याद करते हुये लगाई है आज की ब्लॉग बुलेटिन ... जिस मे शामिल है आपकी यह पोस्ट भी – देखिये - कारगिल विजय दिवस 2012 - बस इतना याद रहे ... एक साथी और भी था ... ब्लॉग बुलेटिन – सादर धन्यवाद
जिस धर्म में मानवतावाद की धज्जियाँ उड़ती हों वह धर्म नहीं हो सकता.उसे दुनिया के नकशे से हटा देना ही उचित है !
ReplyDelete+1
Deleteसही कह रहे हैं. बड़ी कोफ़्त हो रही है और चिंता भी.
ReplyDeleteमुझे नहीं लगता कि हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता जैसी कोई चीज है। या तो है गुंडागर्दी, उद्दंडता या फिर selective धर्मनिरपेक्षता।
ReplyDeleteyou are absolutely right. the present is selecting the negatives from the past instead of the positives, and is selfishly creating hells for the future... :(
Deleteखाचिड़ी की कहानी ने मुझे भी बचपन याद करा दिया....
ReplyDeleteवर्तमान की कटु सच्चाई निहित है आपके इस लेख में...वस्तुतः हम अव्यवस्थातंत्र में जी रहे हैं...
Appreciable post..... we are loosing something and waiting to loose for everything.....
ReplyDeleteलोकतन्त्र में संख्या पूजी जाती है, संस्कृति नहीं। पता नहीं भविष्य में क्या लिखा है?
ReplyDeleteजब से लोगो ने
ReplyDeleteधर्म , जाति , रंग , वर्ण
के भेद से जीना सिखा
मेरा ह्रदय
उन क्षणों से
जो सबके लिए
सदा खुला था
बिना किसी शर्म के
बंद हो गया .
आज मुझे कोई दुःख नहीं है
न जाने क्यूँ ?
देश का एक हिस्सा जल रहा था और समारोह उत्सव दिल्ली में हो रहे थे.
ReplyDeleteउसी दिन हमने अपने मीडिया के दोस्त से पुछा कि आज तो असम की खबर चलेगी दिन भर... उन्होंने बताया - मीडिया में नोर्थ ईस्ट की खबर नहीं आती !
कई पहलु हैं... सकारात्मक कोई नहीं !
बहुत ही चिंताजनक परिदृश्य .....ये सारा झमेला अब राजनीतिक निहितार्थ लिए हुए है ...
ReplyDeleteवोट की राजनीति ने सब कुछ तबाह कर दिया है -नैतिकता ,राष्ट्रप्रेम सब कुछ ..
अगर शीर्ष स्तर से इमानदार प्रयास नहीं हुए तो यह देश जल्दी ही आसाम जैसी स्थिति दूसरे
प्रान्तों में भी देखेगा खासकर जहाँ वोटों के लिए एक ख़ास समुदाय का लगातार तुष्टिकरण चल रहा है
जैसे वे ही इस देश के निर्माता हों ....
अगर आज को नहीं बदल पाए तो कल बहुत धुंधला होगा।
ReplyDeleteअगर आज को नहीं बदल पाए तो कल बहुत धुंधला होगा।
ReplyDelete'स्वार्थी की दृष्टि संकीर्ण ही नहीं आत्मघातक भी होती है।'
ReplyDeleteआत्मघात तक सीमित रह जाए तब भी कोई बात नहीं, लेकिन जब यह प्रवृत्ति ही बन जाए तो सबके लिए खतरनाक है| फल तो चाहे वृक्ष का हो या कर्मों का, भुगतना ही पडेगा| खुद भी भुगतेंगे और पीढियां भी भुगतेंगी| ये अलग बात है कि फल भोगते समय बीज का ध्यान नहीं रहता, जैसे गुजरात को लेकर स्यापा करते बुद्धिजीवियों का ये ध्यान नहीं आता कि इन दंगों का बीज गोधरा में डल गया था|
असम की स्थिति कुछ अपने ही घर में हुए बेगानों जैसी है. बंगला देश जब बना तब सेकुलर था. बाद में संविधान में रद्दो बदल हुई और वो इस्लामिक देश बन गया. इससे क्या होता खाने को कुछ है नहीं वहां. बंगला भाषी लोग ( ????) धीरे धीरे वहां से पलायन करने लगे और इस समस्या का जन्म हुआ. लोग , हज़ारों की सख्या में, हमारे देश में घुसे चले आ रहे हैं. बे रोक टोक. हमारी सारी बोर्डर सिक्यूरिटी बेकार साबित हुई है. और हम हैं की उन्हें अपने सर पर बैठा रहे हैं. वे लोग हमारे ही आदिवासिओं और मूलतः असम के रहने वालों को काट रहे हैं. कुछ करना चाहिए इस देश की सरकार को. यूं हाथ पर हाथ रखकर बैठने से तो कुछ होने वाला नहीं है...
ReplyDeleteअद्भुत समायोजन-उत्कृष्ट लेख। हृदय से आभार स्वीकार करें।
ReplyDeleteअनुराग जी, आपने बहुत कम कहा फिर भी कुछेक लोगों को बहुत-बहुत लग रहा है। ये वे हैं जो धर्मनिरपेक्ष ही होंगे। विडंबना यह है कि अब उनके धर्मसापेक्ष होने की सोची भी नहीं जा सकती। वे इस देश की विरासत मिटा डालें, वे यहां के मूल्यों को काट डालें, वे इस माटी को गाली दें, वे हमारे ही शीश पर पांव रख हमारे ही देवपुरुषों को कुचलें-कलंकित करें और हम बस आभार व्यक्त करें, ऐसे हम हो ही चले हैं। निरपेक्षता का भार सारा हम पर ही है। वे अपने कुकर्मों से पूजित हों, उनकी कट्टरता सराही जाए, उनके साथ मानवाधिकार संगठन हों, हम अपने ही घर में कुचले जाने को उनकी करुणा मान लें। वे मंदिर ढहा डालें, कारसेवकों को जला डालें, सत्ता के साए में हुंकार भरें और हम ओंकार का उच्चारण भी करें तो खौफ से भरे रहें। वे हमेशा समझेंगे कि परमात्मा की रक्षा आत्मा को बिना मारे हो सकेगी। वे ऐसी दलीलें देंगे कि मनुष्यता का उत्कर्ष भासित हो। उन्हें नहीं पता कि परमात्मा अब बलि ही लेगा, हजारों-लाखों युवाओं की। उन्हें नहीं पता कि जिस मनुजता की दुहाई वे दे रहे हैं, वो बड़े बलिदानों से ही आई है और अब उसी पर फिर खतरा है। उन्हें नहीं दिखता कि नग्नता किसी के देखने की मोहताज नहीं, कुछ लोगों के लिए यह उनकी प्रतिभा है, प्रतिष्ठा है और उनके एक-एक अंग-अवयव की अच्छी कीमत वे वसूल करते हैं। उन्हें यह भी नहीं पता कि अब अहिंसा फिर तभी आएगी जब पुनः महाभारत होगा-महाक्षय होगा। गहरी हिंसा से ही पुनः अहिंसा का पथ खुलेगा। भिन्न परिवेश-आचरण उन्हें दिख रहा है, उसमें रचा-पचा असुरत्व नहीं दिखता।
ReplyDeleteकोसीकला (मथुरा में ) हिन्दुओं कि हत्या, आगजनी, प्रतापगढ़ में हिन्दुओं की हत्या और अब आसाम जल रहा है... सब चुप हैं, सेकूलर, मीडिया भी...
ReplyDeleteराजदीप सरदेसाई जैसा चिरकुट पत्रकार कहता है कि हजार हिन्दुओं का क़त्ल करो तब चैनल पर खबर चलाऊंगा...
ऐसे लोगों का क्या किया जाये समझ नहीं आता.. यही हाल रहा तो हिन्दू मजबूरन प्रतिहिंसा का सहारा लेगा... वह भी बम फोड़ना शुरू कर देगा आखिर कब तक गोलियां खता रहेगा, कब तक विधर्मियों की शमशीर की भेंट चढ़ेगा
हमें कुछ तो समझने हो होंगे , हम कहाँ जा रहे है ? सुन्दर लेख
ReplyDeletehttp://gorakhnathbalaji.blogspot.com/2012/08/blog-post.html
बचपन में हम सांप्रदायिक दंगों पर बहुत गुस्सा होते थे, बाबरी कांड के वक्त हमारे स्कूल महीने भर के लिए बंद हो गए थे, समझ नहीं आता था, ये झगड़ा ये गुस्सा किन बातों पर है, अब समझ आता है, और दूसरों की कठोरता क्रूरता देखते हुए लगता है कि हम क्यों सौम्य रहें..लेख पढ़ते हुए सब याद आता है, दर्द होता है, पर कठोर हकीकत और सच्चाई भी सामने दिखती है, नहीं बदलेगा कुछ भी, पहले लगता था कि पढ़े लिखे लोग, शिक्षा...इनसे चीजें बदली जा सकती हैं, पर अब समझ आता है कि पढ़े लिखे लोगों में और कट्टरता होती है। मासूम बेगुनाह लोग, भावनाएं इनकी भेंट चढ़ जाती हैं। ये ऐसा विवाद है जिसका हल नहीं दिखता।
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