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Sunday, April 9, 2017

असलियत - कविता

इश्क और मुश्क
छिपाए नहीं छिपते
न ही छिपते हैं
रक्तरंजित हाथ।
असलियत मिटती
नहीं है।
बहुत देर तक
नहीं छिपा सकोगे
बगल में छुरी।
भले ही
दिखावे के लिए
जपने लगो राम,
कुशलता से ढँककर
माओ, स्टालिन, पोलपोट
बारूदी सुरंग और
कलाश्निकोव को ...
अंततः टूटेंगे बुत तुम्हारे
और सुनोगे-देखोगे
सत्यमेव जयते

(अनुराग शर्मा)

Tuesday, February 28, 2017

फिरकापरस्त - एक कविता

(अनुराग शर्मा)

क्यूबा के कम्युनिस्ट राजवंश का प्रथम तानाशाह
बंदूकों से
उगलते हैं मौत
और जहर
रचनाओं से
जैसे कि जहर और
गोली में बुद्धि होती हो
अपने-पराये का
अंतर समझने की

खुशी से उछल रहे हैं कि
दुश्मनों के खात्मे के बाद
समेट लेंगे उनकी
सारी पूंजी
और दुनिया उनकी
मेहनत से बनी
गिराकर सारे बुत
बताएंगे खुद को खुदा
और बैठकर पिएंगे चुरुट
चलाएँगे हुक्म

समझते नहीं कि जहर
अपने फिरके आप बनाता है
बंदूक की नाल
खुद पर तन जाती है
जब सामने दुश्मन का
कोई चिह्न नहीं बचता
समाचार: अहिंसा का प्रवर्तक भारत झेलता है सर्वाधिक विस्फ़ोट, जेहाद, माओवाद के निशाने पर    

Thursday, December 29, 2016

राजनैतिक प्रश्नोत्तरी - व्यंग्य

बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री जीतन राम मांझी ने कहा, "दलित दारू पीना नहीं छोड़ सकते तो उसे दवा की तरह पियें" (स्रोत: एक पुरानी खबर)

आइये ज़रा देखें इस कथन के जवाब में आए कुछ काल्पनिक महापुरुषों के सटीक बयान

मोदी गोरमींट आने के 100 घंटे में सरकारी शराब की दुकानों में ताले पड़ जाएँगे - बाबा कामदेव

लिकर इंडिया की समस्या है, हिंदूस्थान में तो दूध घी और मृत संजीवनी सुरा की धाराएँ बहती हैं - श्री आवभगत जी

हमारी किताब में ही नहीं, आपके ग्रन्थों में भी अल्कोहल मना है - हम शराब की सब दुकानें और आयुर्वेद की सब फेक्टरी बंद करा देंगे। आम के बाग जलाकर खजूर उगाना ज़रूरी कर देंगे - हकीम अक्सर जमालघोटा

ये जो स्कॉच है, ये आपको पता नहीं होगा, हमारे देश में बनती थी, छिपकली और कॉकरोच से। तब इसे छिरोच कहते थे। सन् 1234 में सर वाल्टर स्कॉट उसका फार्मूला चुराकर जर्मनी ले गया था। तब से ये स्कॉच कहलाने लगी - वीडियो प्रवचन महाराज सुपरशिक्षित

अगर ये आरोप सही साबित हो जाएँ कि मेरी पार्टी में शराब की नदी बहती है तो चोरी गई बावली भैंस की कसम, मुझे चोरमीनार पर फाँसी लटका दिया जाये - कम खा रामपुरी

ये बयान अल्पसंख्यकों पर अत्याचार है। शराब को बढ़ावा देने वाली बात भगवा आतंकवाद का उदाहरण है। हम श्री राहुल जी महाराज से निवेदन करेंगे कि हमें फिर से राज्य का क्षत्रप मुख्यमंत्री बनाया जाये ताकि हम अपने अधिकार का दुरुपयोग करते हुए बासा आराबाम को करोड़ों की सरकारी ज़मीन एक रुपये में दे दें - न बाबा न बाबा पिछवाड़े बुड्ढा खाँसता

शराब बुरी बात है। चाय भी बुरी बात है। हम भी इसी देस के नागरिक हैं। चाय बनाना भी बुरी बात है और चाय पिलाना भी। खबरदार, चायवालों से होसियार, खरीदिए लौकी का अचार, इस बार, हर बार - अचार और मिशन

शराब तो पीनी ही चाहिए। लाल रंग की हो तो बहुत बढ़िया, रेड वाइन वगैरा। शराबबंदी की बात बाज़ारवाद का षडयंत्र है। शराब बंद हो जाएगी तो हमारी पार्टी की तो पार्टियाँ ही बंद हो जाएंगी। क्रांति की धार वोदका की बोतल से शुरू होकर ही बारूदी सुरंग पर खत्म हो पाती है। लिक़र के बिना हमारे नौजवान कहाँ जाएँगे? शराब पिये बिना उन्हें बम फोड़ना कौन सिखाएगा - कामरेड पी के लालबुझक्कड़

शराब रात में पीने की चीज़ है। दिन में हम हमेसा दूध पीता हूँ। आप भी पीजिए न, हमारा मुख्यमंत्री आवास वाला डेरी से खरीदकर - चारा खा लूँ परसाद

अगर स्टिंग ऑपरेशन करने में मुश्किल आये तो शराब पिलाकर आसानी से करें। लेकिन हमारे विधायकों को बख्श दें। सदन से ज़्यादा तो पहले ही जेल में पड़े रहते हैं - हरीश्चंद पछाड़ ईमानवाल

70 साल से रिज़र्व बैंक ने नोट छापे, गरीब लोग उन नोटों से शराब खरीदकर पीते हैं और फिर रोते हैं। मित रो, अब मत रो, हम नया गवर्नर लाकर पुराने नोट छपना बंद करा देंगे, जेब में 11 नोट रखकर चलना गैरकानूनी होगा। घर में 15 से ज़्यादा नोट रखने के लिये लाइसेंस लेना पडेगा। कार्ड स्वाइप मशीन लिये बिना चौराहे पर घूमते भिखारियों को पकडकर जेल भेज दिया जायेगा मित रो। हर सुबह एक समोसा और एक चाय खरीदने के लिये दो-दो हज़ार के नोट लेकर आने वाले 40-50 ग्राहकों के लिये भी पर्याप्त छुट्टा न रखने वाले दुकानदारों के कर की दर, बदर कर दी जायेगी, उनका आधार निराधार कर दिया जायेगा। - प्रधानयात्रामंत्री

शराब पीते पकड़े जाने वालों के लिये ऑनलाइन परमिट की व्यवस्था की गई है, कैशलैस रिश्वत के लिये घूसटीएम ऐप डाउनलोड करें, विकासमार्ग पर चलें - केशकर्तन मंत्रालय

[व्यंग्य जारी रहे]

Monday, May 19, 2014

ईमान की लूट - लघुकथा

लुटेरों के गैंग को उस बार लूट में अच्छी ख़ासी मात्रा में ईमानदारी मिल गई। लूट का माल बांटते समय झगड़ा होने लगा। कोई कहता कि मैं सबसे बड़ा हूँ इसलिए ईमानदारी में ज़्यादा हिस्सा लूँगा, कोई बोला कि सबसे चालाक होने के कारण सबसे बड़ा हिस्सा मुझे ही मिलना चाहिए।

सरदार ने कहा कि उसूलन तो आधा हिस्सा उसका है बाकी आधे में सारा गैंग जो चाहे करे। गांधीवादी ने कहा कि उसने सबसे अधिक थप्पड़ खाये हैं इसलिए उसे सबसे अधिक भाग का अधिकार  है। जिहादी बोला कि सबसे ज़्यादा सेकुलर होने के कारण उसका हक़ सबसे बड़ा है। माओवादी बोला कि उसने बम और IED फोड़कर अन्य सदस्यों से ज़्यादा खतरा उठाया है इसलिए उसका हक़ भी ज़्यादा है। मार्क्सवादी कहने लगा कि उसे 75% मिलना चाहिए क्योंकि बाकी जनता में तो सब बराबर के अधिकारी हैं, सो उन्हें 25% भी कम नहीं।

वकील बोला कि गैंग को बचाने के लिए झूठ बोलते-बोलते उसकी ईमानदारी सबसे पहले खर्च हो जाती है वहीं प्रोफेसर ने छात्रों को फुसलाकर केडर भर्ती करने के काम को सबसे कठिन बताया। अर्थगामी ने लारा दिया कि जितनी ज़्यादा ईमानदारी उसे मिलेगी, वह दल को निवेश पर उतना ही अधिक लाभांश दिलवाएगा। पत्रकार का कहना था कि प्रचार के लिए उसे ईमानदारी खसोटने में प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

सबने एक दूसरे पर बंदूकें तान दीं। गोलियां चलीं तो कुछ मर-खप गए। बचे हुए लुटेरे गंभीर रूप से घायल होकर भाग लिए। लुटे-पिटे सरदार अकेले रह गए। अब उनकी ईमानदारी भी सब खर्च हो गई है। सो ईमानदारी बैंक पर अगला ज़्यादा बड़ा हाथ मारने की सोच रहे हैं। तब तक उनके छिटके हुए गैंग पर कब्जा करने के लिए कई अन्य घायल अपनी अपनी ईमानदारी का बचा-खुचा कटोरा लिए नज़रें गढ़ाए बैठे हैं।

देखते हैं जनता किसकी ईमानदारी से लहलोट होने वाली है। जोतखी बाबा बोले कि बिना किसी भेदभाव के, पुराने ईमानदारी-लूट गैंग के जिस प्रमाणित सदस्य की किस्मत बुलंदी पर होगी, सरदार वही बनेगा।

Sunday, May 18, 2014

राजनैतिक व्यंग्य की दो लाइनाँ

संसार के सबसे बड़े लोकतन्त्र में जनमत की विजय के लिए हर भारतीय मतदाता को बधाई  
ताज़े-ताज़े लोकसभा चुनावों ने बड़े-बड़ों के ज्ञान-चक्षु खोल दिये। कई चुनाव विशेषज्ञों के लिए मोदी और भाजपा की जीत में हर विरोधी का सफाया हो जाना 1977 की चुनावी क्रान्ति से भी अधिक अप्रत्याशित रहा। रविश कुमार नामक रिपोर्टर को टीवी पर मायावती की एक रैली का विज्ञापन सा करते देखा था तब हँसी आ रही थी कि आँख के सामने के लट्ठ को भी तिनका बताने वालों की भी पूछ है हमारे भारत में। अब मायावती के दल का पूर्ण सफाया होने पर शायद रवीश पहली बार अपनी जनमानस विश्लेषण क्षमता पर ध्यान देंगे। क्योंकि खबर गरम है कि हाथी ने इस बार के चुनाव में अंडा दिया है।

इसी बीच अपने से असहमत हर व्यक्ति को फेसबुक पर ब्लॉक करने के लिए बदनाम हुए ओम थानवी पर भी बहुत से चुट्कुले बने। कुछ बानगी देखिये,
  • आठवें चरण के चुनाव में थानवी जी ने 64 सीटों को ब्लाक कर दिया
  • थानवी जी की लेखन शैली की वजह से जनसत्ता के पाठकों में इतना इजाफा हुआ कि आज उसे दो लोग पढ़ते हैं, एक हैं केजरीवाल और दुसरे हैं संपादक जी खुद। बाकी सब को थानवी जी ने ब्लॉक कर दिया है।
  • 16 मई को अगर मोदी पीएम बने तो थानवी जी भारत देश को ब्लाक करके पाकिस्तान चले जायेगे। 

हीरो या ज़ीरो?
जहाँ केजरीवाल के राखी बिडलान और सोमनाथ भारती जैसे साथी अपने अहंकार और बड़बोलेपन के कारण पहचाने गए वहीं स्वयं केजरीवाल ने अल्प समय में भारतीय राजनीति के विदूषक समझे जाने वाले लालू प्रसाद को गुमनाम कर दिया। केजरीवाल की फूहड़ हरकतों और उनसे लाभ की आशा में जुटे गुटों की जल्दबाज़ी ने कार्टूनिस्टों को बड़ा मसाला प्रदान किया। उनका हर असहमत के लिए, "ये सब मिले हुए हैं जी" कहने की अदा हो, अपने साथियों के मुँह पर खाँसते रहने का मनमोहक झटका, हर विरोधी को बेईमान कहने और अपने साथियों को ईमानदारी के प्रमाणपत्र बाँटने का पुरस्कारी-लाल अंदाज़ हो,  या फिर हर वायदे से पलटने का केजरीवाल-टर्न, जनता का मनोरंजन जमकर हुआ। वैसे तो वे 49 दिन के भगोड़े भी समझे जाते हैं लेकिन अपने पहले ही लोकसभा चुनाव में 400 जमानत जब्त कराने का जो अभूतपूर्व करिश्मा उन्होने कर दिखाया है उसके लिए उनके पार्टी सदस्य और देश कि जनता उन्हें सदा याद रखेंगे।

आज कुछ सीरियस लिखने का मूड नहीं है सो प्रस्तुत है इन्हीं चुनावों के अवलोकन से उपजा कुछ निर्मल हास्य। अगर आपको लगता है कि प्रस्तुत पोस्ट वन्य प्राणियों के लिए अहितकर है तो कृपया अपना मत व्यक्त करें, समुचित कारण मिलने पर पोस्ट हटा ली जाएगी।

दिल्ली छोड़ काशी को धावै,
सीएम रहै न पीएम बन पावै

खाँसियों  का  बड़ा सहारा है
फाँसियों ने तो सिर्फ मारा है

सूली से भय लगता है, थप्पड़ से काम चलाते हैं,
जब तक मूर्ख बना सकते जनता को ये बनाते हैं

टोपी मफ़लर फेंक दियो, झाड़ू दई छिपाय
न जाने किस मोड़ पे मतदाता मिल जाय।

पहले साबरमती उबारी
आई अब गंगा की बारी

इल्मी हारे, फ़िल्मी हारे, हारे बब्बर राज
लोकतन्त्र ऐसा चमका मेरे भारत में आज

स्विट्जरलैंड की खोज में बाबा हुए उदास
कालाधन की खान हैं सब दिल्ली के पास



संबन्धित कड़ियाँ
* क्यूरियस केस ऑफ केजरीवाल
आशा की किरण

Saturday, December 14, 2013

"क्यूरियस केस ऑफ केजरीवाल" - राजनीतिक परियोजना प्रबंधन

बहुसंख्य भारतीय जनता इतनी निराशा और अज्ञान में जीती है कि कब्रों पे चादर चढ़ाती है, आसाराम और रामपाल से मन्नतें मांग लेती है, ज़ाकिर नायक जैसों को धर्म का विशेषज्ञ समझती है और कई बार तो जेहादी-माओवादी आतंकियों और लेनिन-स्टालिन-सद्दाम-हिटलर जैसे दरिंदों तक को जस्टिफ़ाई करने लगती है। जनता के एक बड़े समूह की ऐसी दबी-कुचली पददलित भावनाओं को भुनाना बहुत सस्ता काम है ...
राजनीतिक सफलता के कुछ सूत्र

1) परेटो सिद्धांत (Pareto principle) - 80% प्रभाव वाले 20% काम करो, बस्स! - कम लागत में बड़ी इमारत बनाओ। शिवाजी ने छोटे किलों से आरंभ किया। मिज़ोरम (राज्य) का खबरों में आना कठिन है, गंगाराम (अस्पताल) ज़रूर आसान है। चूंकि दिल्ली सत्ता और मीडिया, दोनों के केंद्र में है, मीडिया को मणिपुर, अरुणाचल या कश्मीर तक जाने का कष्ट नहीं करना पड़ता। जब एक दिल्ली शहर को कब्ज़ाकर देशभर को आसानी से प्रभावित किया जा सकता है तो येन-केन-प्रकारेण वही करना ठीक है, मीडिया को भी फायदा है, घर बैठे खबर "बन" जाती है, और बाहर निकलने की जहमत बच जाती है।

2) जन-प्रभाव वाले महत्वाकांक्षी व्यक्तियों को सपने दिखाकर साथ लाओ - अन्ना हज़ारे से बाबा रामदेव तक, किरण बेदी से अग्निवेश तक, कलबे जवाद से तौकीर रज़ा तक ... कोई अनशन करे, कोई लाठी खाये, किसी का तम्बू उजड़े, सबका सीधा लाभ आप तक ही पहुँचे।

3) उन जन-प्रभाव वाले महत्वाकांक्षी व्यक्तियों के तेज को हरकर अपने में समाहित करो - किरण बेदी, अग्निवेश आदि का अनैतिक आचरण उजागर हुआ या कराया गया; बेचारे बाबा रामदेव की छवि तो ऐसी डूबी या डुबाई गई कि फिर कभी राजनीति में न घुस सकेंगे, अन्ना हज़ारे के प्रभाव का भरपूर उपयोग कर बाद में उन्हें दूध की मक्खी जैसे छिटक दिया गया। और यह क्रम आगे भी चलता रहेगा। काम में आने के बाद लोग लात मारकर निकाले जाते रहेंगे - कुल मिलाकर सभी प्रभावशाली व्यक्तियों के प्रभाव का लाभ केवल केजरीवाल को मिलना चाहिए।

4) शत्रु-मित्र-तटस्थ सभी को शुभ संकेत दो - कॉङ्ग्रेस खुश थी क्योंकि बीजेपी के वोट कट रहे थे, बीजेपी खुश थी क्योंकि कॉङ्ग्रेस के खिलाफ माहौल बन रहा था, सपा और बसपा खुश क्योंकि वे सोच रहे थे कि बिल्लियों की लड़ाई में वे चांदी काट लेंगे। दुनिया भर में पिटने के बाद भारत और नेपाल में भी अपनी साख गँवाकर हाशिये पर पड़े कम्युनिस्टों की खाली केतली में भी उम्मीदों का ज्वार चढ़ने लगा। हालांकि ऐसे संकेत हैं कि बीजेपी ने अपनी हानि को चुनाव से कुछ समय पहले भाँप तो लिया था लेकिन वे उसकी प्रभावी काट नहीं सोच सके।

5) बीच-बीच में अपना मखौल उड़वाओ - अलग दिखने के लिए अजीब सी वेषभूषा अपनाओ। कम खतरनाक दिखने के लिए अजीब-अजीब से बयान देते रहो। खिल्ली ज़्यादा उड़े या विरोध कड़ा हो जाये तो पलटी खा लो। लेकिन प्रतिद्वंदियों को मस्त रहने दो, कभी चौकन्ने न होने पाएँ।

6) रोनी सूरत बनाए रखो - हार गए तो भाव कम नहीं होगा। जीतने के बाद तो पाँचों उंगलियाँ घी में होनी हैं।

7) करो वही जो सब करते हैं और खुद तुम जिसका विरोध करते दिखते हो, लेकिन कम मात्रा में धीरे-धीरे करो और इतनी होशियारी (या मक्कारी) से करो कि अगर स्टिंग ऑपरेशन भी हो जाये तो बेशर्मी से उसका विरोध कर सको।

8) संदेश प्रभावी रखो - विरोधियों को जेल भिजाने की धमकी दो इससे उन पर समर्थन का दवाब बना रहेगा। अगर कोई समर्थन न करे तो उसे भी शर्तनामा भेज दो, इससे अपने पक्ष में हवा बनती है।

9) सम्मोहन करो - झाड़ू-पंजे का स्पष्ट संबंध भी ऐसा धुंधला कर दो कि चमकता सूरज भी न दिखे, जब समर्थन देने-लेने के निकट सहयोग का संबंध स्पष्ट हो तब भी यह सहयोग न दिख पाये।

10) अपनी मंशा कभी ज़ाहिर न होने दो - चुनाव से काफी पहले से तैयारी चुनाव की करते रहो लेकिन बात भ्रष्टाचार, समाजवाद, महंगाई आदि की करो।

11) ऊँचे सपने दिखाओ - नालों, मलबे, कूड़े, रिश्वत, बदबू, और अव्यवस्था में गले तक डूबी राजधानी में व्यवस्था की नहीं, हेल्पलाइन की बात करो, लोकपाल की बात करो, मुफ्त पानी-बिजली की बात करो, जिन नेताओं से जनता त्रस्त है, उन्हें जेल भिजाने की बात करो। धरती पर स्वर्ग लाने के सपने दिखाओ  ... एक शहर भले न संभाले, पूरा देश बदलने की बात करो।

12) युवा शक्ति का भरपूर प्रयोग करो - कैच देम यंग - सच यह है कि युवा कुछ करना चाहता है, परिवर्तन का कारक बनने को व्यग्र है। देश-विदेश में जो कोई भी देश की दुर्दशा से चिंतित है उसे अपने लाभ के लिए हाँको। कम्युनिस्ट समूह इस शक्ति का शोषण अरसे से करते रहे हैं, तुम बेहतर दोहन करो।

13) आधुनिक बनो - यंत्रणा नहीं, यंत्र का प्रयोग करो - आधुनिक तकनीक, इन्टरनेट, सोशल मीडिया, डिजिटल इंगेजमेंट, एनजीओ, स्वयंसेवा, धरना, प्रदर्शन आदि के प्रभाव को पहचानो। असंगतियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताओ। विपक्षियों पर इतनी बार आरोप लगाओ कि वह खुद ही सफाई देते फिरें ...

14) पुरानी अस्तियों को नई पैकिंग दो - अन्ना को "गांधी" का नाम दो, "गांधी टोपी" को "आम आदमी" तक पहुँचाओ, "मैं अन्ना हूँ" की जगह "मैं आम आदमी हूँ" लिखो। तानाशाही को स्व-राज का नाम दो।

अंतिम पर अनंतिम सूत्र 

15) बेशर्म बने रहो - सबको पता है बिजली मुफ्त नहीं हो सकती, पानी भी सबको नहीं मिलेगा, भ्रष्टाचारी नेता और नौकरशाह जेल नहीं जाएंगे - अव्वल तो ज़िम्मेदारी लेने से बचो। गले पड़ ही जाये तो पोल खुलने पर अपनी असफलता का ठीकरा एक काल्पनिक शत्रु, जैसे "सब मिले हुए हैं जी", "पूंजीवाद", "सड़ेला सिस्टम", "अल्पमत" या "कानूनी अड़चनें" पर फोड़ दो और सत्ता पर डटे रहो ... फिर भी बात न बने और असलियत खुलने को हो तो इस्तीफा देकर शहीद बन जाओ ... और फिर ...

... और फिर यदि न घर के रहो न घाट के तो केजरीवाल-टर्न लेकर जनता से फिर अपना पद मांगने लगो ... इस देश की जनता बड़ी भावुक है, छः महीने में किसी के भी कुकर्म भुला देती है।

अब कुछ सामयिक पंक्तियाँ / एक कविता
हर चुनाव के लिए मुकर्रर हो
 एक सपना
 हर बार नया
 जो दिखाये
 शिखर की ऊँचाइयाँ
 साथ ही रक्खे
 जमीनी सच्चाईयों से
 बेखबर ....
 
बाबा रामदेव के मंच से सात दिन में शीला दीक्षित की सरकार के लोगों के खिलाफ अदालती आदेश लाने का वायदा
* संबन्धित कड़ियाँ *
केजरीवाल - दो साल की बिना काम की तनख्वाह - नौ लाख रुपये
आतंकवाद पर सवाल किया तो स्टूडियो छोड़कर भागे केजरीवाल
साँपनाथ से बचने को नागनाथ पालने की गलतियाँ
दलाल और "आप" की टोपी
केजरीवाल कम्युनिस्ट हैं - प्रकाश करात
अग्निवेश का असली चेहरा
किरण ने जो किया वह न तो चोरी है न भ्रष्टाचार - केजरीवाल

Monday, July 1, 2013

मार्जार मिथक गाथा

(अनुराग शर्मा)

बिल्लियाँ जब भी फुर्सत में बैठती हैं, इन्सानों की ही बातें करती हैं। यदि आप कभी सुन पाएँ तो जानेंगे कि उनके अधिकांश लतीफे मनुष्यों के बेढंगेपन पर ही होते हैं। कहा जाता है कि बहुत पहले बिल्लियों के चुटकुले भी बहुरंगी होते थे। फिर धीरे-धीरे आत्म-केन्द्रित इंसान प्रकृति के साथ-साथ बिल्लियों के हास्य-व्यंग्य पर भी कब्जा करता गया और अब तो कोई पढ़ी-लिखी बिल्ली इंसान की कल्पना किए बिना ढंग से हँस भी नहीं सकती है। बिल्लियों के विपरीत इन्सानों के चुट्कुले अपने और दूसरे के बीच के अंतर से उत्पन्न होते हैं। उनमें अक्सर दूसरे देश, धर्म, प्रांत या मज़हब के इन्सानों का ज़िक्र होता है। कभी-कभी उनमें गधे या कुत्ते जैसे सरल प्राणी शामिल होते हैं लेकिन अक्सर तो इंसानी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह उनके लतीफों का दायरा भी सीमित ही रह गया है। लेकिन कुछ इंसान दूसरों से अलग हैं। वे इंसानी नस्ल के आगे भी सोचते हैं। मनुष्यमात्र की बात करना उनके लिए स्वार्थ का प्रतिमान है।

ऐसे टुन्नात्मिक प्रवृत्ति वाले लोगों का संसार बिल्ली-कुत्तों के दुख-दर्द, उनके राजनीतिक अधिकार, सरकार द्वारा मछलियों की अभिव्यक्ति के दमन और घोड़े-गदहे-जिराफ़ और गेहूँ-कमल-गुलाब की समानता के अधिकार के बारे में सोचता है। वे दुबले हुए जाते हैं इसीलिए आप सड़क पर खुजलाते आवारा कुत्तों को देख पाते हैं, वरना ज़ालिम नगर पालिका वाले उन्हें कब का पकड़ ले जाते। ये महात्मा लोग जीवित हैं इसीलिए गायें पोलीथीन की थैलियाँ खा सकती हैं, वरना तो भक्तजन गायों को भी पूजनीय देवी बनाकर मंदिरों और गौशालाओं में बांधकर रख देते। इन्हीं की दया से कर्तव्यनिष्ठ कसाई भेड़-बकरियों को मनुष्य की कैद से आज़ादी दिला पाते हैं। ये लोग आमतौर पर हम-आप जैसे अल्पज्ञ और नश्वर प्राणियों को घास नहीं डालते हैं। लेकिन थोड़ी पीने के बाद वे रहमदिल हो जाते हैं। ऊपर से अगर मुफ्त की मिल जाये फिर तो ये निस्वार्थ मनुष्य और भी दरियादिल दिखने लगते हैं।

ऐसी ही एक मुफ्तखोर पार्टी में जब दारूचन्द जी ने मेरे सलाम को इगनोर नहीं किया तो मेरा साहस बढ़ गया। मैं अपने कोला के गिलास को उनकी दारू के पास रखकर एक कुर्सी खींचकर उनके निकट बैठकर उनकी और उनकी मित्र मंडली की बातें ऐसे सुनता गया जैसे फेसबुक की मित्र-सूची से निकाला गया व्यक्ति अपने पुराने गैंग की वाल को पढ़ता है।

"मुहल्ले में चोरियाँ होने लगीं तो सबने कहा कि एक कुत्ता पाल लो।" ये सुरासिंह थे।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"चोर तो चोर, कुत्ते भी जब मेरे गली से गुज़रते थे, तो अपनी दुम दबाकर दूसरी ओर की दीवार से चिपककर चलते थे, ऐसे गरजता था मेरा टॉम।"
"गोल्डेन रिट्रीवर था कि जर्मन शेपर्ड?"
"बुलडॉग या लेब्रडोर होगा ... "
"अजी बिलकुल नहीं, मेरा टॉम तो शेर का मौसा है, एक खतरनाक बिलौटा।"
"आँय!" कुत्तापछाड़ बिलाव की बात सुनकर मेरा मुँह खुला का खुला रह गया लेकिन बाकी मंडली को कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ। बल्कि यह किस्सा सुनकर पियक्कड़ कुमार "पीके" को अपनी बिल्ली याद आ गई।

पीके की बिल्ली का पिंजरा
"मेरी बिल्ली तो बहुत मक्कार है। रात में अपना पिंजरा छोडकर मेरे बिस्तर में घुस जाती थी" पीके ने कहा।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"फिर क्या? मैंने कुछ दिन बर्दाश्त क्या किया उसकी तो हिम्मत बढ़ती ही गई। अब तो वह मुझे धकिया कर पूरे बिस्तर पर ही कब्जा करने लगी।"
"ऐसे ही होता है। लोग आते हैं आव्रजक बनकर, फिर देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन जाते हैं।
"आप चुप रहिये! हर बात में राजनीति ले आते हैं ...", लोगों ने सुरासिंह को झिड़का, "फिर? आगे क्या हुआ"
"अब तो मैं सोते समय 10-12 तकिये लेकर सोता हूँ। बिल्ली के पास आते ही एंटी-एयरक्रेफ्ट मिसाइल की तरह एक-एक करके उस पर फेंकना शुरू कर देता हूँ। अकल ठिकाने आ जाती है।

सब सुना रहे थे तो भला अंगूरी प्यारी कैसे चुप रहतीं? अपनी ज़ुल्फें झटककर बोलीं, "मेरी दुलारी तो बस गायब ही हो गई थी!"
"आपसे डरकर?"
"शटअप!"
"अरे इसे छोड़िए, नादान है। आप अपना किस्सा सुनाये" दारूचन्द ने बात सम्भाली।
"कई दिन से लापता थी। पुलिस में रिपोर्ट भी लिखाई। जब कुछ नहीं हुआ तो एक प्राइवेट डिटेक्टिव रखा। उसकी कई हफ्तों की खोज के बाद पड़ोसी नगर के रेसकोर्स में मिली। पड़ोसियों के कुत्ते को भगाकर ले गई थी।
"अरेSSS गज़्ज़ब!" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप तो काफी पिछड़े हुए लगते हैं। आपके पास तो बिल्ली नहीं होगी विलायत खाँ जी।"
"पिछड़े होंगे आप। हमारा तो पूरा खानदान ही बिल्लीपालक है। पुरखे शेर-चीते पालते थे। आज के जमाने में उन्हें खिलाने को गरीब लोग कहाँ ढूंढें, सो बिल्ली पालकर शौक पूरा कर रहे हैं।
"तो बिल्ली को खिलाने के लिए चूहे कहाँ ढूंढते हैं?"
"इत्ता टाइम कहाँ है अपने पास। पहले दूध पिलाते थे। अब तो हम कभी चाय पिला देते हैं कभी कॉफी। घटिया नस्ल की बिल्लियाँ कोक-पेप्सी भी पी लेती हैं लेकिन आला दर्जे की बिल्लियाँ रोज़ एक-दो पैग वोदका न पियें तो उन्हें नींद ही नहीं आती है।
"अच्छा! ये बात!" बाकियों ने समवेत स्वर में कहा।
"कभी ज़्यादा तंग करें तो मैं अपनी नशे की गोली भी खिला देता हूँ सुसरियों को।"
"क्या ज़माना आ गया है, आदमी तो आदमी, बिल्लियाँ भी नशा करती हैं।" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप बड़े चुप-चुप हैं, आपके घर में बिल्ली नहीं है क्या?"
"जी नहीं! गुज़र गई!"
"कैसे?" सभी ने आश्चर्य से एकसाथ पूछा।
"बड़ी महत्वाकांक्षी थी"
"अच्छा! कैसे गुज़री?" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।
"खबर फैली हुई थी कि चुनाव आ रहे हैं। सो अपने बच्चों को मुँह में दाबकर ..."
"इलेक्शन में खड़ी हो रही है?"
"चुनाव प्रचार को निकली?"
"ट्रक से कुचल गई?"
अरे नहीं, पूरी बात कहने तो दीजिये।"
"जी!"
"बाल बच्चों समेत गुजरात के लिए गुज़री है। सुना है कि मोदी पीएम बनेंगे तब सीएम की सीट खाली होगी न। हमारी बिल्ली की नज़र उसी पर है।"

[समाप्त]

Wednesday, August 8, 2012

दिल है सोने का, सोने की आशा

एमसी मेरीकॉम
अपनी श्रेणी में कई बार विश्वविजेता रहीं मणिपुर की मैरीकॉम से भारत को बड़ी उम्मीदें थीं। काँस्य लाकर भी उन्होंने देश को गर्व का एक अवसर तो दिया ही है साथ ही एक बार यह सोचने को बाध्य किया है कि ओलिम्पिक स्वर्ण पाने के लिये विश्वविजेता होना भर काफ़ी नहीं है। कुछ और भी चाहिये। वह क्या है? आम भारतीयों के बीच आपसी सहयोग और सहनशीलता का रिकॉर्ड देखते हुए दल के रूप में खेले जाने वाले खेलों में तो भारत को अधिक उम्मीद लगाना शायद बचपना ही होगा। लेकिन कम से कम अपनी खुद की ज़िम्मेदारी ले सकने वाली व्यक्तिगत स्पर्धाओं में भारतीयों के चमकने के अवसर बनाये जा सकते हैं। तैराकी जैसे खेलों में तो तकनीक की भूमिका इतनी अधिक है कि भारत जैसे अव्यवस्थित देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचने के लिये यात्रा बहुत लम्बी है। हाँ, तीरन्दाज़ी, निशानेबाज़ी, भारोत्तोलन, कुश्ती, मुक्केबाज़ी आदि खेलों के लिये हमारे पास सक्षम खिलाड़ियों की कमी होनी नहीं चाहिये। फिर कमी कहाँ है? शायद हर जगह। खिलाड़ियों के चुनाव, प्रशिक्षण, सुविधायें, पोषण, चिकित्सा, प्रतिस्पर्धाओं से लेकर धन, आत्मविश्वास, राजनीति, और नीति-क्रियान्वयन तक हर जगह सुधार की बड़ी गुंजाइश है।

मैरीकॉम एक-दो बार नहीं पाँच बार (2002, 2005, 2006, 2008 और 2010) विश्व चैम्पियन रह चुकी हैं। लेकिन उन्होंने ये सभी स्वर्ण पदक 46 और 48 किलो की श्रेणियों में जीते है। वर्तमान ओलंपिक स्पर्धाओं में यह भार वर्ग है ही नहीं। यदि उन्हें खेलना होता तो अर्हता के लिये अपना भार बढाकर 51 किलो करना पड़ता जिससे वे फ्लाईवेट श्रेणी में भाग लेने की पात्र बनतीं। उन्होंने यही किया। मुझे नहीं पता कि उन्हें यह जानकारी कब मिली और अपना भार 10% बढाने के लिये उन्हें कितना समय और सहायता मिली। लेकिन इतना स्पष्ट है कि यह निर्णय लेने का मतलब है कि इस बार उनका सामना अपनी नियत श्रेणी से अगली श्रेणी के और अधिक भारी वर्ग के प्रतियोगियों से था जो कि उनकी स्पर्धा को और कठिन करता है। भविष्य में ऐसी चुनौतियों को देख पाने और बेहतर हैंडल करने की सुनियोजित रणनीति आवश्यक है।

दीपिका कुमारी
तीरंदाजी प्रतिस्पर्धा में झारखंड की 18 वर्षीय दीपिका कुमारी की कहानी इतनी मधुर नहीं रही। धनुर्विद्या में प्रथम सीडेड दीपिका को लंदन ओलम्पिक से खाली हाथ आना पड़ा यह खबर शायद उतनी खास नहीं है जितनी यह कि झारखंड के उप मुख्यमंत्री उनका प्रदर्शन देखने के लिये पाँच अन्य व्यक्तियों के साथ आठ दिन तक ब्रिटेन की यात्रा पर थे। एक ऑटो रिक्शा चालक शिव नारायण महतो की बेटी पेड़ों से आम तोड़ने के लिये घर पर बनाये तीर कमान से अपनी यात्रा आरम्भ करके प्रथम सीड तक पहुँच पाती है लेकिन उसका खेल "देखने" के लिये मंत्री जी की विदेश यात्रा से देश की खेल प्राथमिकतायें तो ज़ाहिर होती ही हैं।

एक अन्य स्पर्धा में अमेरिकी टीम द्वारा अपील करने पर पहले विजयी घोषित किये गये भारतीय खिलाड़ी को फ़ाउल्स के आधार पर हारा घोषित किया गया। भारतीय स्रोतों से कहा जा रहा है कि प्रतिद्वन्द्वी अमेरिकी खिलाड़ी ने भी बिल्कुल वही ग़लतियाँ की थीं। यदि यह बात सच है तब हमारे अधिकारी शायद अपना पक्ष सामने रखने में पीछे रह गये। स्पष्ट है कि खिलाड़ियों को खेल सिखाने के साथ अधिकारियों को अपील आदि के नियम सिखाना भी ओलम्पिक की तैयारी का ज़रूरी भाग होना चाहिये।

मिन क्षिया
खेलों में चीन की प्रगति के बारे में काफ़ी चर्चा होती है। 2004 में एथेंस और 2008 में बीजिंग में स्वर्ण जीतने के बाद 26 वर्षीया मिनक्षिया जब लंडन में गोताखोरी का स्वर्ण जीत चुकी तब उसके परिवार ने उसे खबर दी कि उसके दादा और दादी गुज़र चुके हैं तथा उसकी माँ पिछले आठ वर्षों से कैंसर का इलाज करा रही है। चीन के कड़े नियमों में जहाँ किसी परिवार को दूसरा बच्चा पैदा करने की आज्ञा भी नहीं है, किसी खिलाड़ी को ओलम्पिक स्पर्धा से पहले पारिवारिक हानि के समाचार सुनाना शायद खतरे से खाली नहीं होगा। यह घटना कितनी भी अमानवीय लगे यहाँ उल्लेख करने का अभिप्राय केवल यही दर्शाना है कि कुछ देशों के लिये अपने राष्ट्रीय गौरव के सामने नागरिकों के मानवीय अधिकारों को कुचलना सामान्य सी बात है। हमें चीन के स्तर तक गिरने की ज़रूरत नहीं लेकिन उससे पहले भी इतना कुछ है करने के लिये कि यदि हो जाये तो अनेक स्पर्धाओं - विशेषकर व्यक्तिगत - के पदक हमारी झोली में आ सकते हैं। वह दिन जल्दी ही आये, इंतज़ार है। शुभकामनायें!

[The images in this post have been taken from various news sources on Internet.]

Saturday, September 20, 2008

गरजपाल की चिट्ठी

दफ्तर के सारे कर्मचारी मेज़ के गिर्द इकट्ठे होकर खाना खा रहे थे और इधर-उधर के किस्से सुना रहे थे। रोज़ का ही नियम था। दिन का यह आधा घंटा ही सबको अपने लिए मिल पाता था। सब अपना-अपना खाना एक दूसरे के साथ बांटकर ही खाते थे। अगर आपको इस दफ्तर के किसी भी कर्मचारी से मिलना हो तो यह सबसे उपयुक्त समय था। पूरे स्टाफ को आप यहाँ पायेंगे सिवाय एक गरजपाल के। गरजपाल जी इस समय अपनी सीट पर बैठकर चिट्ठियाँ लिख रहे होते हैं। सारी मेज़ पर तरह-तरह के रंग-बिरंगे छोटे-बड़े लिफाफे फैले रहते थे। लंच शुरू होने के बाद कुछ देर वे चौकन्नी निगाहों से इधर-उधर देखते थे। जब उन्हें इत्मीनान हो जाता था कि सब ने खाना शुरू कर दिया है तो उनका पत्र-लेखन शुरू हो जाता था। जब तक हम लोग खाना खाकर वापस अपनी जगहों पर आते, गरजपाल जी अपनी चिट्ठियों को एक थैले में रखकर नज़दीकी डाकघर जा चुके होते थे।

शुरू में तो मैंने उन्हें हमारे सामूहिक लंच में लाने की असफल कोशिश की थी। ज़ल्दी ही मुझे समझ आ गया कि गरजपाल जी एकांत के यह तीस मिनट अपनी खतो-किताबत में ही इस्तेमाल करना पसंद करते हैं। वे निपट अकेले थे। अधेड़ थे मगर शादी नहीं हुई थी। न बीवी न बच्चा। माँ-बाप भी भगवान् को प्यारे हो चुके थे। आगे नाथ न पीछे पगहा। पिछले साल ही दिल्ली से तबादला होकर यहाँ आए थे। प्रकृति से एकाकी व्यक्तित्व था, दफ्तर में किसी से भी आना-जाना न था। सिर्फ़ मतलब की ही बात करते थे। मुझ जैसे जूनियर से तो वह भी नहीं करते थे।

पूरे दफ्तर में उनके पत्र-व्यवहार की चर्चा होती थी। लोग उनसे घुमा फिराकर पूछते रहते थे। एकाध लोग लुक-छिपकर पढने की कोशिश भी करते थे मगर सफल न हुए। ऐसी अफवाह थी कि बड़े बाबू एहसान अली ने तो चपरासी शीशपाल को बाकायदा पैसे देकर निगरानी के काम पर लगा रखा है। मगर गरजपाल जी आसानी से काबू में आने वाले नहीं थे। लोग अपना हर व्यक्तिगत काम दफ्तर के चपरासियों से कराते थे मगर मजाल है जो गरजपाल जी ने कभी अपनी एक भी चिट्ठी डाक में डालने का काम किसी चपरासी को सौंपा हो।

शीशपाल ने बहुत बार अपना लंच जल्दी से पूरा करके उनका हाथ बँटाने की कोशिश की मगर गरजपाल जी की चिट्ठी उसके हाथ कभी आयी। उसकी सबसे बड़ी सफलता यह पता लगाने में थी कि यह चिट्ठियाँ दिल्ली जाती हैं। सबने अपने-अपने अनुमान लगाए। किसी को लगता था कि उनके परिवार के कुछ रिश्तेदार शायद अभी भी काल से बचे रह गए थे। मगर यह कयास जल्दी ही खारिज हो गया क्योंकि किसी बूढे ताऊ या काकी के लिए रंग-बिरंगे लिफाफों की कोई ज़रूरत न थी। काफी सोच विचार के बाद बात यहाँ आकर ठहरी के ज़रूर दिल्ली में उनका कोई चक्कर होगा।

कहानियाँ इससे आगे भी बढीं। कुछ कल्पनाशील लोगों ने उनकी इस अनदेखी अनजानी महिला मित्र के लिए एक नाम भी गढ़ लिया - वासंती। वासंती के नाम की चिट्ठी जाती तो रोज़ थी मगर किसी ने कभी वासंती की कोई चिट्ठी आते ने देखी। शीशपाल आने वाली डाक का मुआयना बड़ी मुस्तैदी से करता था। जिस दिन वह छुट्टी पर होता, एहसान अली वासंती की चिट्ठी ढूँढने की जिम्मेदारी ख़ुद ले लेते। कहने की ज़रूरत नहीं कि उनका काम कभी बना नहीं। वासंती की चिट्ठी किसी को कभी नहीं मिली। हाँ, कभी-कभार गरजपाल जी के पुराने दफ्तर के किसी सहकर्मी का पोस्ट-कार्ड ज़रूर आ जाता था।

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Saturday, August 23, 2008

ह्त्या की राजनीति

कल तक जिस गाँव में शमशान सा सन्नाटा छाया हुआ था आज वहाँ कुम्भ मेले जैसी गहमागहमी है। लोगों का हुजूम समुद्र की लहरों जैसा उछल रहा है। क्यों न हो, बर्बर समाज पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बर्बर प्रताप जो अपने लाव लश्कर के साथ आए हुए हैं।

उनकी शान का क्या वर्णन करूँ। अलग ही है। खानदानी रईस हैं। 50 गाँवों की ज़मींदारी थी। राजा साहब कहलाते थे। मगर गरीब जनता की सेवा का चस्का ऐसा लगा कि आज अगर कोई राजा कह दे तो शायद उसकी जुबान ही खिंचवा दें। उनका काम करने का तरीका भी आम नेताओं से बिल्कुल अलग है। भाषण तो देते ही हैं, गरीब जनता के ऊपर कविताएँ भी लिखते हैं और चित्रकारी भी करते हैं। गरीबों से इतना अपनापन मानते हैं कि सिर्फ़ भेड़ का सेवन करते हैं। उनकी नज़र में गाय-भैंस तो अमीरों के चोंचले हैं। लोग तो उनकी तारीफ़ में यहाँ तक कहते हैं कि अगर कोई कलाकार गाय का चित्र भी बना दे तो वे उसे तुंरत साम्प्रदायिक करार कर देंगे।

राजसी परिवार का कोई दंभ नहीं तभी तो महल के ऐशो-आराम छोड़कर आम सांसदों की तरह नई दिल्ली के सरकारी बंगले में रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के शहरी जजों का बस चले तो गरीबों के इस मसीहा को पिछले पाँच सालों से उस बंगले का किराया व बिल आदि न देने के इल्जाम में बेघर ही कर दें। मगर राजा साहब जानते हैं कि इस देश की बेघर, भूखी, नंगी और अनपढ़ जनता सब देखती और समझती है। वह अपने राजा साहब के साथ ऐसा अन्याय हरगिज़ न होने देगी।

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बर्बर प्रताप जी का हैलिकोप्टर अभी अभी नत्थू के खेत में उतरा है। वह बेचारा दूर एक कोने में सहमा सा खडा काले कपडों वाले बंदूकधारियों के दस्ते को देख रहा है। कल रात इसी दस्ते की निगरानी में पुलिसवालों ने उसके खेत की सारी अरहर काट डाली थी ताकि राजा साहब का हेलिकॉप्टर आराम से उतर सके। वह बेचारा सोच रहा है कि अगर उसकी पहुँच राजा साहब के किसी कारिंदे तक होती तो शायद महाजन क़र्ज़ अदायगी को अगली फसल तक टाल देता, वरना तो सल्फास की गोली ही उसका आख़री सहारा है।

लाउडस्पीकर की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ। राजा साहब मंच पर आ गए थे। मंच क्या पूरा किला ही लग रहा था। काले कपड़े वाले बंदूकधारी हर तरफ़ मोर्चा लेकर खड़े हुए थे। राजा साहब पिछले हफ्ते हुई काले प्रधान की ह्त्या का ज़िक्र कर रहे थे। काले हमारे गाँव का प्रधान था। अव्वल दर्जे का जालिम। गरीबों को उसके खेतों में बेगार तो करनी ही पड़ती थी, उनकी बहू बेटियाँ भी सुरक्षित नहीं थी। थाने में भी गरीबों की कोई सुनवाई न थी इसलिये लोग खून का घूँट पीकर रह जाते थे। मगर जब उसहैत की 10 साल की बेटी के साथ पैशाचिक कृत्य की ख़बर मिली तो सारा गाँव ही गुस्से से भर गया। सभी पागल हुए घूम रहे थे मगर किसी की भी इतनी हिम्मत न थी कि थाने में जाकर रपट भी लिखाए। सबको पता था कि जो भी जायेगा थानेदार उसी को मार-कूट कर अन्दर कर देगा। सुबह पता लगा कि उसी रात काले प्रधान का काम तमाम हो गया। गाँव के मर्द तो यह ख़बर मिलते ही भाग खड़े हुए, पुलिस का कहर टूटा औरतों और बच्चों पर। कई बच्चे तो अभी भी हल्दी-चूना लपेटे खाट पर पड़े हैं।


राजा साहब पुलिस के निकम्मेपन का ज़िक्र कर रहे थे। उन्होंने कहा कि गरीब लोग अपनी जान हथेली पर लिए हुए घूम रहे हैं। वे बोले कि पूरे प्रदेश में गुंडों- माफियाओं का राज हो गया है तथा कानून व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। काले प्रधान जैसे सत्पुरुषों की जान ही सुरक्षित नहीं है तो आम लोगों का तो कहना ही क्या। रोजाना ही डकैती, हत्या और बलात्कार हो रहे हैं। उन्होंने नई सरकार के कार्यकाल में कानून व्यवस्था की स्थिति ध्वस्त होने का आरोप लगाते हुए अपनी हत्या की आशंका भी जताई।

मंच से उतरने के बाद राजा साहब ने पत्रकारों से बात की और वहाँ भी अपनी ह्त्या की आशंका को दुहराया। पत्रकारों से बातचीत करते हुए उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि यह सरकार कभी भी उनकी हत्या करवा सकती है। उन्होंने काले प्रधान हत्याकांड को एक राजनीतिक साजिश करार दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि विजेता समाज पार्टी की सरकार के दौरान उनकी पार्टी कार्यकर्ताओं की सरकारी सुरक्षा वापस ली जा रही है। उनके लोगों की चुन-चुनकर हत्या हो रही है। उन्होंने कहा कि विजेता समाज पार्टी की सरकार सिर्फ शहरों पर ध्यान दे रही है और गाँवों के गरीब मजदूर महंगाई, बेरोजगारी और असुरक्षा के बीच पिस रहे हैं। इस सरकार का ग्रामीण जनता से कोई सरोकार नहीं है।


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चार दिन के बाद जब राजा साहब एक निकटवर्ती गाँव में एक और छुटभय्ये नेता के दशमे में गए तो उनके काफिले पर गंभीर हमला हुआ। उनके सभी बंदूकधारियों का काम तमाम हो गया। हमलावर उनके गोली-बन्दूक भी अपने साथ ले गए। पता लगा कि राजा साहब मृतक नेता के परिवार के भरण-पोषण के लिए पार्टी फंड से कई लाख रुपये भी लाये थे। हमलावर वह सारा रोकड़ा भी अपने साथ ही ले गए। देवी माँ की असीम कृपा थी कि राजा साहब का बाल भी बाँका न हुआ।

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इस बात को कई महीने गुज़र गए हैं। नेताओं पर बढ़ते हमलों का कारण पता करने के लिए जांच समिति भी बैठ चुकी है। पुलिस आज भी गाँव-गाँव जाकर लोगों को डरा-धमका रही है मगर आज तक किसी को यह पता नहीं चला कि ये सारी घटनाएँ राजा साहब के कारकुनों ने विजेता समाज पार्टी की सरकार के ऊपर राजनैतिक लाभ लेने के लिये कराई थीं।
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