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Friday, September 23, 2011

क्षमा वीरस्य भूषणम् -एक पत्रोत्तर के बहाने ...

कितना ढूंढा हाथ न आया सच का एक क़तरा भी
कहने को उनके खत में बहुत कुछ लिखा था
भारतीय समाज में अनेक खूबियाँ हैं। कुछ अच्छी बातें तो सभी धर्मों में नायकों, संतों और उपदेशकों द्वारा कही और सही गयी हैं। बहुत सी भारतीय संस्कृति की अपनी अनूठी विशेषतायें हैं। लेकिन कई ऐसी भी हैं जिनमें भिन्न उद्गमों से आये विचार गड्डमड्ड से हो गये हैं और इस प्रक्रिया में सद्विचार की मूलभावना की ऐसी-तैसी हो गयी है। बहसबाज़ी के प्रति मेरी स्पष्ट नापसन्द होते हुए भी कई बार यह "ऐसी-तैसी" मुझे भीड़ की मुखालफ़त करने को मजबूर करती है। इसी परम्परा में आज सत्यवादिता और क्षमा पर दो शब्द कहने को बाध्य हुआ हूँ। सत्य पर जहाँ-तहाँ टिप्पणियों या कविताओं के बीच बात होती रही। क्षमा पर काफ़ी पहले एक लघु-आलेख "छोटन को उत्पात" लिख चुका हूँ। मगर अपनी भाषा को लेकर खबरों में बने रहने वाले एक ब्लॉग पर आज मेरा नाम लेकर लिखे गये एक पत्र देखकर इस विषय पर ऐसा कुछ कहना ज़रूरी सा हो गया है जिससे मैं अब तक बचना चाह रहा था। कुछ ज़रूरी यात्राओं पर हूँ। लेकिन फिर भी अपने व्यक्तिगत समय को निचोड़कर आपसे बात करने बैठा हूँ। पत्र तो एक बहाना है क्योंकि पत्रलेखक को तो बस अपनी बात कहनी थी। इस नाते मुझे उत्तर देने की कोई बाध्यता नहीं थी लेकिन मुझ पर विश्वास करने वाले अपने मित्रों और पाठकों के प्रति आदर व्यक्त करने के लिये मैं पत्र में वर्णित बेतुके और झूठे आरोपों के कारण एक बार यहाँ पर अपना उत्तर लिखना एक आवश्यकता और अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझता हूँ।

सत्यवादिता का दावा बहुत से लोग करते दिखते हैं। "हम तो खरी कहते हैं", "बिना लाग लपेट के बोलते हैं", और "सच तो कड़वा ही होता है" जैसे वाक्यों का उद्घोष अक्सर सुनाई देता है। सत्यवादिता का झूठा दावा करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि सत्यनिष्ठा सत्य कहने से ज़्यादा सत्य सुनने, सोचने और करने में निहित है। अधिकांश लोग कड़वा इसलिये नहीं बोलते क्योंकि वही सच है बल्कि इसलिये बोलते हैं क्योंकि "सच" का उतना कड़वा भाग ही उस समय के उनके निहित स्वार्थ की सिद्धि में सहायक होता है। सच का ऐसा वीभत्स परचम लहराने वाले अक्सर अन्य समयों पर जाने-अनजाने ही सत्य की हत्या सी करते रहते हैं। सत्यनिष्ठ बनना है तो हमें पहले तो सत्य को बेहतर समझने की शक्ति विकसित करनी पड़ेगी और साथ ही कड़वा कहने की तरह ही सत्य सुनना भी सीखना पड़ेगा।

क्षमा वीरों का आभूषण है। वीर अत्याचार नहीं करते, ग़लतियों से बचते हैं परंतु जहाँ आवश्यक है वहाँ क्षमा मांगने में संकोच नहीं करते। इसके उलट प्रकृति के लोग अपनी हर बेवकूफ़ी को झूठ, उद्दंडता और शेखी से ढंकने और लीपापोती में ही लगे रहते हैं। वीर के लिये अपनी ग़लतियों की क्षमा मांगना जैसा नैसर्गिक और सहज है क्षमादान वैसी सामान्य घटना नहीं है क्योंकि वीरों के लिये क्षमा ऐसा भूषण है जिसको कागज़ के टुकडों जैसे बांटते नहीं फ़िरा जा सकता है। ऐसा भी हुआ है कि किसी ज़िद्दी बच्चे ने हर बार खुद ही ग़लती करके और फ़िर हल्ला मचाकर ज़बर्दस्ती दसरों से माफ़ी मंगवाने की कोशिश की है। भारतीय परिवेश में ऐसा भी देखा गया है जब उस ज़िद्दी बच्चे के माँ-बाप-भाई-बहिन-मित्रों ने दूसरे पक्ष को यह कहकर कन्विंस करने का प्रयास किया है कि, "यह तो पागल है, आप ही मान जाओ।" भले लोग अक्सर इस झांसे में आ जाते हैं पर यह नहीं समझते कि अनुचित माफ़ीनामों की मुण्डमाल अपने गले में लटकाये ये दबंग/बुली बच्चे ही आगे बढ़कर अपनी अनुचित मांग पर समर्पण न करने वाली लड़कियों के चेहरे पर तेज़ाब फ़ेंकने की हद तक पहुँच जाते हैं।

इंसान ग़लतियों का पुतला है। मेरे जीवन में भी ग़लतियाँ हुई हैं। मैंने उन्हें पहचानकर सुधारने का प्रयास किया है और जहाँ आवश्यकता हुयी, क्षमा भी मांगी है। लेकिन बचपन में भी ऐसे उद्दंड बुलीज़ की ज़िद पर अनैतिक समर्पण करने के बजाय उनके माताओं-पिताओं को उनकी ग़लती के लिये आगाह किया है।

जिस पत्र का ज़िक्र ऊपर है वह मैंने आज दिव्या के "ज़ीलज़ेन" ब्लॉग पर अपने नाम लिखा देखा है। टेक्स्ट निम्न है:
अनुराग जी ,
आप मेरे अपनों को मुझसे तोड़कर मुझे कमज़ोर करना चाहते हो । सभी को अपने साथ मिला लेना चाहते हो। सबको मेल लिख-लिख कर और फोन करके तथा उनके घर जाकर उन्हें अपना बनाना चाहते हो? कोई बात नहीं। ईश्वर आपको इतनी शक्ति दे की आप सभी से प्रेम कर सको। दिव्या से नफरत निभाने के फेर में आपने कुछ लोगों के साथ मित्रता करने की सोची, यही ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी उपलब्धि समझूंगी।
मुझे तो अकेले ही चलने की आदत है। बस कुछ के साथ आत्माओं का मिलन हो चुका है, वहां फोन आदि की ज़रुरत नहीं पड़ती है। मेरे दुःख में वे रो पड़ते हैं और मुझे खुश देखकर भी उनकी आँखें छलछला पड़तीं हैं।
किसी को फोन कर सकूँ इतना पैसा ही नहीं है मेरे पास। नौकरी नहीं करती हूँ न इसीलिए सरकारी फोन जो मुफ्त में मिलता है बड़े ओहदे वालों को, वह भी सुविधा नहीं है मेरे पास। और फिर सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है की मैं 'स्त्री' हूँ । किसी को फोन करुँगी तो वह एक अलग ही समस्या खड़ी कर देगा। लेकिन मेरे पास स्पष्टवादिता और पारदर्शिता है। वही मेरी ताकत है, और वही मेरा गहना।
आपने मुझे 'schizophrenic' और 'paranoid' कहा, फिर भी जाइए आपको माफ़ किया !
Zeal
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ज़ीलज़ेन दिव्या को मेरा उत्तर:

आश्चर्य है कि एक तरफ आप मुझे माफी देने की बात कर रही हैं साथ ही उसी प्रविष्टि में मुझे संबोधित पत्र से ठीक ऊपर समाज की तमाम स्त्रियों की दुर्दशा के लिए मुझे ज़िम्मेदार ठहराते हुए आप आदरणीय भोला जी को मुझे कभी माफ़ न करने की सलाह भी दे रही हैं:
यदि मैं आपकी जगह होती तो बेटी का अपमान करने वाले को कभी माफ़ न करती। इन्हें माफ़ कर दिया जाता है इसीलिए समाज में स्त्रियों की दुर्दशा है।
मुझे यह स्पष्ट नहीं हुआ कि आपकी इन दो परस्पर विरोधाभासी बातों में से कौन सी बात सही है। वैसे भी, इस पत्र में कहे गये शब्दों के बारे में आप कितनी गम्भीर हैं यह इस पोस्ट से नहीं ज़ीलज़ेन पर इसके बाद आने वाली प्रविष्टियों से पता लगेगा।

आपने मुझे माफ़ किया? किस ज़ुर्म के लिये? जी नहीं, ग़लती आपकी है तो माफ़ी भी आप पर ही उधार रहती है, और आपको ही मांगनी चाहिये - मुझसे ही नहीं उन सभी से जिनपर आपने झूठे लांछन लगाये हैं या समय-असमय हैरास या बुली किया है। एक माफ़ी विशेषकर स्वर्गीय डॉ. अमर कुमार से मांगने को बकाया है जिन पर आपने लम्बे समय तक हैरास करने का आरोप लगाया, बैन किया और उनके भयंकर पीड़ा से जूझते हुए होने पर भी उन्हें आपके ब्लॉग पर की गयी अपनी बीसियों टिप्पणियाँ हटाने को बाध्य किया। लगे हाथ एक माफ़ी अपने पितातुल्य भोला जी से भी मांग लीजिये जिनके व्यक्तिगत पत्र को अपने ब्लॉग पर रखकर आपने एक भोले पिता के साथ भयंकर विश्वासघात किया है।

दूसरी बात यह कि मुझे क्षमा करने का अधिकार आपको दिया किसने? सच्चे-झूठे आरोप लगाने वालों को सज़ा या माफ़ी का अधिकार होता तो अदालतों में जजों की आवश्यकता ही न होती और क्षमादान की अर्ज़ी बड़ी अदालतों और राष्ट्रपति आदि के पास न जाकर मुहल्लों (आजकल कतिपय ब्लॉग्स पर भी) के अन्धेरे कोनों में अपनी गुंडागर्दी के क़सीदे पढ रहे भर्हासियों के पास जाया करतीं। कुछ असभ्य समाजों में शायद ऐसा सही भी समझा जाता हो, परंतु मैं ऐसी असभ्यता को सिरे से अस्वीकार करने वालों में से हूँ। पहले आपने समय-समय पर अनेक ब्लॉगरों को अपशब्द कहे, फिर शिष्ट भाषा में लिखी मेरी हालिया टिप्पणी को बदबूदार कहा और मुझे अपशब्द कहे। उसके बाद मेरे ब्लॉग पर रखे एक व्यंग्य को अपना अपमान बताकर स्वयं और कुछ अन्य व्यक्तियों द्वारा अपने ब्लॉग पर पुनः अपशब्द कहे गये और भोले भाले पाठकों की भावनाओं को भड़काया गया। ... और अब पत्र के नाम पर एक नया ड्रामा?

मुझे इस विषय में आप से बात करने की कोई इच्छा नहीं है। फिर भी यदि आप इस मामले को आगे बढाना ही चाहती हैं तो आपके ब्लॉग पर रखी माता-पिताओं की लम्बी सूची में से किसी ज़िम्मेदार और समझदार व्यक्ति को या फ़िर अपने वकील को मुझे सम्पर्क करने को कहें। अन्यथा, आप अपनी ओर से सीधे मुझे सम्बोधित करके कुछ भी कहने से बचें, यही हम सबके लिये ठीक होगा।
मैंने किसी भी पोस्ट या टिप्पणी में आपको 'schizophrenic' और 'paranoid' नहीं कहा है। व्यंग्य, कल्पना और वास्तविकता के अंतर को पहचानिए और मुझपर बिला वजह के दोषारोपण से बचिए।
आपकी एक पिछली पोस्ट में आपने "अपने" ईश्वर द्वारा मुझे शीघ्र ही सज़ा देने का आह्वान किया गया था उसके साथ आपके इस पत्र में व्यक्त मुझे शक्ति देने की प्रार्थना कुछ ठीक बैठ नहीं रही है, कृपया अपने विचारों को थोड़ा ठोंक बजा लें। अनेक लोगों के खिलाफ़ अंट-शंट लिखने के बाद आपने मेरे खिलाफ़ ऊल-जलूल आलेख और टिप्पणियाँ लिखीं तो सब ठीक था और मेरा एक जनरल व्यंग्य पढते ही दुनिया इतनी उलट-पुलट हो गयी कि आपके "प्राइवेट" ईश्वर को दखल देने की आवश्यकता पड़ गयी? आपने इससे पिछली पोस्ट में भी यह आरोप लगाया कि मैं आपके खिलाफ़ षडयंत्र करके आपके मित्रों को अपने खेमे में ले जा रहा हूँ। याद दिला दूँ कि मैं एक व्यस्त व्यक्ति हूँ, मुझे आपके खिलाफ़ षडयंत्र करने की फ़ुर्सत नहीं है क्योंकि यह ब्रह्माण्ड आपका चक्कर नहीं लगाता है। और भी ग़म हैं ज़माने में ...। मैं क्या करता हूँ, यह जानना ही चाहती हैं तो मेरा ब्लॉग ध्यान से पढिये, मेरी आवाज़ में विनोबा भावे के शब्द सुनिये और अगर कुछ हल्का-फुल्का चाहिये तो मेरी पढ़ी हुई कहानियाँ सुनिये। संसार बहुत बड़ा है और इसमें आप और आपके ब्लॉग के आरोप-प्रत्यारोपों के अलावा भी बहुत कुछ है। मसलन, यदि कोई सत्य का दूसरा पहलू जानने को उत्सुक हो तो, गिरिजेश राव की हालिया प्रविष्टि हौं प्रसिद्ध पातकी भी पढी जा सकती है, आँखें खोलने वाली है। वैसे बात माफ़ी की चल रही है तो यह भी याद दिला दूँ कि आपके ब्लॉग पर जिस प्रकार डॉ. अजित गुप्ता जी का नाम माँ की सूची में लिखने के बावजूद तथाकथित भाइयों से उनका अपमान करवाया गया वह दुर्व्यवहार काफ़ी असभ्य और गरिमाहीन था।
माँ शब्द की गरिमा बनाये रखने के लिये यदि आपके ब्लॉग पर अपनी सभ्यता के नमूने दिखाते ये भाई उसी ब्लॉग पर अपनी माँ से लिखित में माफ़ी मांगेंगे तब आपकी उस कागज़ी सूची में कुछ दम अवश्य दिखेगा वरना शब्दों का क्या है, रबड की ज़ुबान और प्लास्टिक के कीबोर्ड का क्या भरोसा ...
और जहाँ तक लोगों से मिलने की बात है, मैं किससे मिलता हूँ, कहाँ जाता हूँ, इसका अधिकार आपने कब से ले लिया? किस नाते से? ज़रूरत नहीं है फिर भी इतना स्पष्ट कर दूँ कि आपकी सूची के जिन लोगों को छीन लेने का आरोप आप लगा रही हैं मैंने उनकी पहल का मित्रवत उत्तर दिया है जो कि एक सभ्य और सहृदय व्यक्ति से अपेक्षित है। यदि आपको यह लगता है कि आपके लम्बे समय के मित्र, भाई और पिता मेरी एक बात से आपका पक्ष छोड़कर मेरी ओर आ गये हैं तो क्या इससे आपको अपने और मेरे विषय में कुछ अंतर पता नहीं लगा? अपने भाइयों और पिताओं की निर्णय-क्षमता पर विश्वास करके उन्हें सम्मान देना सीखिये, सूचियाँ तो धोबी को देने वाले कपड़ों की भी बनती हैं। आपको भले ही न हो पर मुझे यक़ीन है कि ऐसे लोग आपका भला चाहते हैं न कि वे लोग जो झूठी वाहवाहियाँ लिखकर आपको चने के झाड़ पर चढाते रहे हैं। आपके सच्चे शुभचिंतकों को मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनायें!

ज़ीलज़ेन पर वह तथाकथित बदबूदार टिप्पणी
बदबूदार टिप्पणी का सुगन्धित जवाब
ज़ीलज़ेन के प्रकरण पर यह मेरी इकलौती पोस्ट है। इस मुद्दे को यहीं समाप्त करते हुए जागरूक मित्रों का हार्दिक धन्यवाद अवश्य देना चाहूँगा। सतह से नीचे जाकर सत्य को पहचानना और सत्य के लिये खड़े होना आज भी उतना ही ज़रूरी है। यदि उन व्यक्तिगत पोस्ट्स को भुला भी दिया जाए जिनमें दिव्या ने कुछ ब्लॉगरों की व्यक्तिगत ईमेल और स्वास्थ्य संबंधी गुप्त जानकारियों को ज़ीलज़ेन ब्लॉग पर लहराया था तो भी याद रहे, बीते कल में श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी और डॉ. कुमार की बारी थी, आज अजित जी, शिल्पा मेहता और मेरी है, कल आपकी भी हो सकती है, शायद होगी ही।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* हौं प्रसिद्ध पातकी
* 'ओढ़नीया ब्लॉगिंग' चालू आहे ...
* सबका कारण एक है!
* अब कुपोस्ट से आगे क्या?
* सत्यमेव जयते - कविता
* नानृतम् - कविता
* सत्य के टुकड़े - कविता
* छोटन को उत्पात
* हमें तुम रोको मत पथ में
* उपेक्षा नहीं, प्रेम और सहानुभूति
* ए ब्यूटिफ़ुल माइन्ड
* टसुए बहाने का हुनर...

Tuesday, September 23, 2008

गरजपाल की चिट्ठी [गतांक से आगे]

[अब तक की कथा पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें]

समय बीतता गया। अहसान अली और शीशपाल का जोश भी काफी हद तक ठंडा पड़ गया। हाँ, गरजपाल बिल्कुल भी नहीं बदले। न तो उन्होंने किसी सहकर्मी से दोस्ती की और न ही चिट्ठी लिखने का राज़ किसी से बांटा। ज़्यादातर लोग गरजपाल के बिना ही खाना खाने के आदी हो गए। इसी बीच सुनने में आया कि गरजपाल का तबादला उनके गाँव के नज़दीक के दफ्तर में हो गया है। किसी को कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा। पड़ता भी कैसे? गरजपाल की कभी किसी से नज़दीकी ही नहीं रही। पता ही न चला कब उनके जाने का दिन भी आ गया। दफ्तर में सभी जाने वालों के लिए एक अनौपचारिक सा विदाई समारोह करने का रिवाज़ था। सो तैयारियां हुईं। उपहार भी लाये गए और भाषण भी लिखे गए। नत्थूलाल एंड कंपनी तो कभी भी साथ बैठकर खाना न खाने की वजह से गरजपाल को विदाई पार्टी देने के पक्ष में ही नहीं थे। मगर हमारे प्रबंधक महोदय जी अड़ गए कि पार्टी नहीं होगी और उपहार नहीं आयेंगे तो "मन्नै के मिलेगा?"

आखिरकार प्रबंधक महोदय की बात ही चली। विदाई समारोह भी हुआ और उसमें गरजपाल किसी शर्माती दुल्हन की तरह ही शरीक हुए। काफी भाषण और झूठी तारीफें झेलनी पड़ीं। जहां कुछ लोगों ने उनकी शान में कसीदे पढ़े, वहीं कुछेक ने दबी जुबान से उनके खाना साथ में न खाने की आदत पर शिकवा भी किया। ज़्यादातर लोगों ने दबी-ढँकी आवाज़ में गरजपाल की चिट्ठी का ज़िक्र भी कर डाला। इधर किसी की जुबान पर चिट्ठी का नाम आता और उधर गरजपाल जी का चेहरा सुर्ख हो जाता। एहसान अली ने एक "लिखे जो ख़त तुझे" गाया तो सखाराम ने खतो-किताबत पर मुम्बईया अंदाज़ में एक टूटा-फूटा शेर पढा। समारोह की शोभा तो गयाराम जी बने जिन्होंने एक पंजाबी गीत गाया जिसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होता:


मीठे प्रिय परदेस चले
दूजा मीत बनाना नहीं
याद हमारी जब भी आए
ख़त लिखते शर्माना नहीं
चिट्ठी लिखें, डाक में डालें
गैर के हाथ थमाना नहीं
जीते रहे तो फिर मिलेंगे
मरे तो दिल से भुलाना नहीं।

तुर्रा यह कि हर भाषण, शेर, ग़ज़ल या गीत में गरजपाल की चिट्ठी ज़रूर छिपी बैठी थी। मानो यह गरजपाल की विदाई न होकर उनकी चिट्ठियों का मर्सिया पढा जा रहा हो। सबके बाद में गरजपाल जी ने भी दो शब्द कहे। आश्चर्य हुआ जब उन्होंने हमें बहुत अच्छा मित्र बताया और आशा प्रकट की कि उनकी मैत्री हमसे यूँ ही बनी रहेगी। अंत में प्रबंधक महोदय ने उन्हें सारे कर्मचारियों की ओर से (अपना कमीशन काटकर) एक बेशकीमती पेन, कुछ खूबसूरत पत्र पैड और बहुत से रंग-बिरंगे लिफाफे उपहार में दिए। यूँ समझिये कि पूरा डाकखाना ही दे दिया सिवाय एक डाकिये और डाक टिकटों के।

अगले दिन के लंच में कोई मज़ा ही न था। शीशपाल तो दफ्तर ही न आया था। एहसान अली को बड़ा अफ़सोस था कि गरजपाल की जासूसी में कुछ बड़ी कमी रह ही गयी। वरना तो इतने दिनों में वासंती की असलियत खुल ही जाती। दो-चार दिनों में सब कुछ सामान्य होने लगा। गरजपाल तो हमारे दिमाग से लगभग उतर ही चुके थे कि दफ्तर की डाक में कई रंग-बिरंगे लिफाफे दिखाई पड़े। एहसान अली की आँखे मारे खुशी के उल्लू की तरह गोल हो गयीं। वे चिट्ठियों को उठा पाते उससे पहले ही शीशपाल ने उन्हें लपक लिया। हमें लगा कि अब तो गरजपाल की चिट्ठी का भेद खुला ही समझो। मगर ऐसा हुआ नहीं। लिफाफों पर लिखी इबारत को पढा तो पता लगा कि दफ्तर के हर आदमी के नाम से एक-एक चिट्ठी थी। भेजने वाले कोई और नहीं गरजपाल जी ही थे। उन्होंने हमारी दोस्ती का धन्यवाद भेजा था और लिखा था कि नयी जगह बहुत बोर है और वे हम सब के साथ को बहुत मिस करते हैं। वह दिन और आज का दिन, हर रोज़ गरजपाल की एक न एक चिट्ठी किसी न किसी कर्मचारी के नाम एक रंगीन लिफाफे में आयी हुई होती है। शायद लंच का आधा घंटा वह खाना खाने के बजाय हमारे लिए पत्र-लेखन में ही बिताते हैं।

Saturday, September 20, 2008

गरजपाल की चिट्ठी

दफ्तर के सारे कर्मचारी मेज़ के गिर्द इकट्ठे होकर खाना खा रहे थे और इधर-उधर के किस्से सुना रहे थे। रोज़ का ही नियम था। दिन का यह आधा घंटा ही सबको अपने लिए मिल पाता था। सब अपना-अपना खाना एक दूसरे के साथ बांटकर ही खाते थे। अगर आपको इस दफ्तर के किसी भी कर्मचारी से मिलना हो तो यह सबसे उपयुक्त समय था। पूरे स्टाफ को आप यहाँ पायेंगे सिवाय एक गरजपाल के। गरजपाल जी इस समय अपनी सीट पर बैठकर चिट्ठियाँ लिख रहे होते हैं। सारी मेज़ पर तरह-तरह के रंग-बिरंगे छोटे-बड़े लिफाफे फैले रहते थे। लंच शुरू होने के बाद कुछ देर वे चौकन्नी निगाहों से इधर-उधर देखते थे। जब उन्हें इत्मीनान हो जाता था कि सब ने खाना शुरू कर दिया है तो उनका पत्र-लेखन शुरू हो जाता था। जब तक हम लोग खाना खाकर वापस अपनी जगहों पर आते, गरजपाल जी अपनी चिट्ठियों को एक थैले में रखकर नज़दीकी डाकघर जा चुके होते थे।

शुरू में तो मैंने उन्हें हमारे सामूहिक लंच में लाने की असफल कोशिश की थी। ज़ल्दी ही मुझे समझ आ गया कि गरजपाल जी एकांत के यह तीस मिनट अपनी खतो-किताबत में ही इस्तेमाल करना पसंद करते हैं। वे निपट अकेले थे। अधेड़ थे मगर शादी नहीं हुई थी। न बीवी न बच्चा। माँ-बाप भी भगवान् को प्यारे हो चुके थे। आगे नाथ न पीछे पगहा। पिछले साल ही दिल्ली से तबादला होकर यहाँ आए थे। प्रकृति से एकाकी व्यक्तित्व था, दफ्तर में किसी से भी आना-जाना न था। सिर्फ़ मतलब की ही बात करते थे। मुझ जैसे जूनियर से तो वह भी नहीं करते थे।

पूरे दफ्तर में उनके पत्र-व्यवहार की चर्चा होती थी। लोग उनसे घुमा फिराकर पूछते रहते थे। एकाध लोग लुक-छिपकर पढने की कोशिश भी करते थे मगर सफल न हुए। ऐसी अफवाह थी कि बड़े बाबू एहसान अली ने तो चपरासी शीशपाल को बाकायदा पैसे देकर निगरानी के काम पर लगा रखा है। मगर गरजपाल जी आसानी से काबू में आने वाले नहीं थे। लोग अपना हर व्यक्तिगत काम दफ्तर के चपरासियों से कराते थे मगर मजाल है जो गरजपाल जी ने कभी अपनी एक भी चिट्ठी डाक में डालने का काम किसी चपरासी को सौंपा हो।

शीशपाल ने बहुत बार अपना लंच जल्दी से पूरा करके उनका हाथ बँटाने की कोशिश की मगर गरजपाल जी की चिट्ठी उसके हाथ कभी आयी। उसकी सबसे बड़ी सफलता यह पता लगाने में थी कि यह चिट्ठियाँ दिल्ली जाती हैं। सबने अपने-अपने अनुमान लगाए। किसी को लगता था कि उनके परिवार के कुछ रिश्तेदार शायद अभी भी काल से बचे रह गए थे। मगर यह कयास जल्दी ही खारिज हो गया क्योंकि किसी बूढे ताऊ या काकी के लिए रंग-बिरंगे लिफाफों की कोई ज़रूरत न थी। काफी सोच विचार के बाद बात यहाँ आकर ठहरी के ज़रूर दिल्ली में उनका कोई चक्कर होगा।

कहानियाँ इससे आगे भी बढीं। कुछ कल्पनाशील लोगों ने उनकी इस अनदेखी अनजानी महिला मित्र के लिए एक नाम भी गढ़ लिया - वासंती। वासंती के नाम की चिट्ठी जाती तो रोज़ थी मगर किसी ने कभी वासंती की कोई चिट्ठी आते ने देखी। शीशपाल आने वाली डाक का मुआयना बड़ी मुस्तैदी से करता था। जिस दिन वह छुट्टी पर होता, एहसान अली वासंती की चिट्ठी ढूँढने की जिम्मेदारी ख़ुद ले लेते। कहने की ज़रूरत नहीं कि उनका काम कभी बना नहीं। वासंती की चिट्ठी किसी को कभी नहीं मिली। हाँ, कभी-कभार गरजपाल जी के पुराने दफ्तर के किसी सहकर्मी का पोस्ट-कार्ड ज़रूर आ जाता था।

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