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Saturday, July 23, 2016

23 जुलाई लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक

लोकमान्य के नाम से प्रसिद्ध नेता बाल गंगाधर टिळक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में हुआ था. वे एक विद्वान गणितज्ञ और दर्शन शास्त्री होने के साथ-साथ महान देशभक्त भी थे. ब्रिटेन से भारत की स्वतंत्रता की नींव रखने वाले महापुरुषों में वे अग्रगण्य थे.

उनके व्याकरणशास्त्री पिता को पुणे में शिक्षणकार्य मिलने पर वे बचपन में ही पुणे आ गये जो बाद में उनकी कर्मभूमि बना.

सन् 1876 में उन्होंने डेकन कॉलेज से गणित और संस्कृत में स्नातक की डिग्री ली और 1879 में वे मुम्बई विश्वविद्यालय से कानून के स्नातक हुए. पश्चिमी शिक्षा पद्धति से शिक्षित लोकमान्य टिळक  पश्चिम के अंधे अनुकरण के विरोधी थे.

उन्होंने पुणे में एक स्कूल आरम्भ किया जो बाद में डिग्री कॉलेज तक विकसित भी हुआ और उनकी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र भी बना. 1884 में उन्होंने लोकशिक्षा के उद्देश्य से  डेकन एजूकेशन सोसायटी (Deccan Education Society) की स्थापना की. अंग्रेज़ी के महत्व को पहचानकर उन्होंने भारतीयों के अंग्रेज़ी सीखने पर भी विशेष ज़ोर दिया.

जनजागरण के उद्देश्य से उन्होंने मराठी में "केसरी" तथा अंग्रेज़ी में  "मराठा" शीर्षक से समाचारपत्र निकाले. दोनों अखबारों ने जनता को जागृत करते हुए देश में आज़ादी की भावना को प्रखर किया. ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अपने लिये खतरनाक मानते हुए 1897 में पहली बार गिरफ़्तार कर 18 मास जेल में रखा.

टिळक ने 1805 के बंग-भंग का डटकर विरोध किया. विदेशी उत्पादों के बहिष्कार का उनका आंदोलन जल्दी ही राष्ट्रव्यापी हो गया. उनके सविनय अवज्ञा के सिद्धांत को गांधीजी ने भी अपनाया और इस प्रकार सत्याग्रह के बीज पनपे.  

लोकमान्य टिळक एक सजग और तार्किक व्यक्ति थे. कोई भी बात हो वे तर्क नहीं छोडते थे. वे हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे परंतु धार्मिक हिंदू जुलूसों पर मुस्लिम हमले के बारे में उन्होंने 10 सितम्बर 1898 को लिखा:

अगर मुस्लिम नमाज़ के समय हिंदुओं के भजन आदि बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं तो वे ट्रेन, जहाज़ और दुकानों में नमाज़ कैसे पढते हैं? यह कहना गलत है कि नमाज़ के समय मस्जिद के सामने से भजन आदि गाते हुए निकलना अधार्मिक है.

लोकमान्य टिळक का शवदाह पद्मासन में हुआ 
दंगे-फ़साद से पहले हिंदूजन मुहर्रम जैसे उत्सवों में बढ-चढकर भाग लेते थे परंतु हिंदू उत्सवों को अपने घरों में ही सीमित रखते थे. शिवरात्रि, जन्माष्टमी, रामनवमी, रक्षा बंधन हों या गणेश चतुर्थी, हिंदू समाज उन्हें अपने अपने घरों में व्यक्तिगत उत्सव जैसे ही मनाते थे. टिळक ने गणेशोत्सव को भी एक सामाजिक रूप देने का आह्वान किया जिसकी परम्परा आज पूरे महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि बाहर भी एक सुदृढ रूप ले चुकी है.

1895 में पुणे की एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने रायगढ में शिवाजी के स्मारक के पुनर्निर्माण के लिये एक स्मारक कोष की घोषणा की. लेकिन धार्मिक तनाव देखते हुए यह भी याद दिलाया कि समय बदल गया है और तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में हिंदू और मुसलमान दोनों ही पिछड रहे हैं. सन् 1916 में  हिंदू मुस्लिम एकता बनाने और अंग्रेज़ों के विरुद्ध साझा संघर्ष चलाने के उद्देश्य से उन्होंने  मुहम्मद अली जिन्नाह के साथ लखनऊ समझौते (Lucknow Pact) पर हस्ताक्षर किये.

लोकमान्य टिळक के हस्ताक्षर

सन् 1907 में अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें एक बार फिर गिरफ़्तार कर छह वर्ष तक म्यानमार की माण्डले जेल में रखा जहाँ उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ श्रीमद्भग्वद्गीतारहस्य का लेखन किया. सन् 1893 में उनकी द ओरायन (The Orion; or, Researches into the Antiquity of the Vedas), तथा 1903 में आर्कटिक होम इन द वेदाज़ (The Arctic Home in the Vedas) नामक पुस्तकें प्रकाशित हुईं.

सन् 1914 में उन्होंने भारतीय स्वराज्य समिति (Indian Home Rule League) की स्थापना की और 1916 में उनका प्रसिद्ध नारा "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा" प्रसिद्ध हुआ. 1918 में वे लेबर पार्टी से भारत की स्वतंत्रता के लिये सहयोग लेने ब्रिटेन गये.

लोकमान्य टिळक ने आज़ादी की किरण नहीं देखी. उनका देहावसान 1 अगस्त सन् 1920 को मुम्बई में हुआ. महात्मा गांधी ने उन्हें कहा "नव भारत का निर्माता" और नेहरू जी ने उन्हें "भारतीय स्वाधीनता संग्राम का जनक" बताया.


Saturday, June 11, 2016

बिस्मिल का पत्र अशफ़ाक़ के नाम - इतिहास के भूले पन्ने

सताये तुझ को जो कोई बेवफ़ा बिस्मिल।
तो मुँह से कुछ न कहना आह कर लेना।।
हम शहीदाने-वफा का दीनो ईमां और है।
सिजदा करते हैं हमेशा पांव पर जल्लाद।।


मैंने इस अभियोग में जो भाग लिया अथवा जिनको जिन्दगी की जिम्मेदारी मेरे सिर पर थी, उन में से सब से ज्यादा हिस्सा श्रीयुत अशफाकउल्ला खां वारसी का है। मैं अपनी कलम से उन के लिये भी अन्तिम समय में दो शब्द लिख देना अपना कर्तव्य समझता हूं।

अशफ़ाक,

मुझे भली भांति याद है कि मैं बादशाही एलान के बाद शाहजहाँपुर आया था, तो तुम से स्कूल में भेंट हुई थी। तुम्हारी मुझसे मिलने की बड़ी हार्दिक इच्छा थी। तुम ने मुझ से मैनपुरी षडयन्त्र के सम्बन्ध में कुछ बातचीत करना चाही थी। मैंने यह समझा कि एक स्कूल का मुसलमान विद्यार्थी मुझ से इस प्रकार की बातचीत क्यों करता है, तुम्हारी बातों का उत्तर उपेक्षा की दृष्टि से दिया था। तुम्हें उस समय बड़ा खेद हुआ था। तुम्हारे मुख से हार्दिक भावों का प्रकाश हो रहा था।

तुम ने अपने इरादे को यों ही नहीं छोड़ दिया, अपने इरादे पर डटे रहे। जिस प्रकार हो सका कांग्रेस में बातचीत की। अपने इष्ट मित्रों द्वारा इस बात का वि्श्वास दिलाने की कोशिश की कि तुम बनावटी आदमी नही, तुम्हारे दिल में मुल्क की खिदमत करने की ख्वाहि्श थी। अन्त में तुम्हारी विजय हुई। तुम्हारी कोशिशों ने मेरे दिल में जगह पैदा कर ली। तुम्हारे बड़े भाई मेरे उर्दू मिडिल के सहपाठी तथा मित्र थे। यह जान कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। थोड़े दिनों में ही तुम मेरे छोटे भाई के समान हो गये थे, किन्तु छोटे भाई बन कर तुम्हें संतोष न हुआ।

तुम समानता के अधिकार चाहते थे, तुम मित्र की श्रेणी में अपनी गणना चाहते थे। वही हुआ? तुम मेरे सच्चे मित्र थे। सब को आश्चर्य था कि एक कटटर आर्य समाजी और मुसलमान का मेल कैसा? मैं मुसलमानों की शुद्धि करता था। आर्यसमाज मन्दिर में मेरा निवास था, किन्तु तुम इन बातों की किंचितमात्र चिन्ता न करते थे। मेरे कुछ साथी तुम्हें मुसलमान होने के कारण कुछ घृणा की दृष्टि से देखते थे, किन्तु तुम अपने निश्चय में दृढ़ थे। मेरे पास आर्यसमाज मन्दिर में आते-जाते थे। हिंदू-मुसलिम झगड़ा होने पर तुम्हारे मुहल्ले के सब कोई तुम्हें खुल्लम खुल्ला गालियां देते थे, काफिर के नाम से पुकारते थे, पर तुम कभी भी उन के विचारों से सहमत न हुये।

सदैव हिन्दू मुसलिम ऐक्य के पक्षपाती रहे। तुम एक सच्चे मुसलमान तथा सच्चे स्वदेश भक्त थे। तुम्हें यदि जीवन में कोई विचार था, तो यही था कि मुसलमानों को खुदा अकल देता कि वे हिन्दुओं के साथ मेल कर के हिन्दोस्तान की भलाई करते। जब मैं हिन्दी में कोई लेख या पुस्तक लिखता तो तुम सदैव यही अनुरोध करते कि उर्दू में क्यों नहीं लिखते, जो मुसलमान भी पढ़ सकें ?

तुमने स्वदेश भक्ति के भावों को भी भली भांति समझाने के लिये ही हिन्दी का अच्छा अध्ययन किया। अपने घर पर जब माता जी तथा भ्राता जी से बातचीत करते थे, तो तुम्हारे मुँह से हिन्दी शब्द निकल जाते थे, जिससे सबको बड़ा आश्चर्य होता था। तुम्हारी इस प्रकार की प्रकृति देख कर बहुतों को संदेह होता था, कि कहीं इस्लाम-धर्म त्याग कर शुद्धि न करा ले। पर तुम्हारा हृदय तो किसी प्रकार से अशुद्ध न था, फिर तुम शुद्धि किस वस्तु की कराते ? तुम्हारी इस प्रकार की प्रगति ने मेरे हृदय पर पूर्ण विजय पा ली। बहुधा मित्र मण्डली में बात छिड़ती कि कहीं मुसलमान पर विश्वास करके धोखा न खाना।

तुम्हारी जीत हुई, मुझ में तुम में कोई भेद न था। बहुधा मैंने तुमने एक थाली में भोजन किये। मेरे हृदय से यह विचार ही जाता रहा कि हिन्दू मुसलमान में कोई भेद है। तुम मुझ पर अटल विश्वास तथा अगाध प्रीति रखते थे, हां ! तुम मेरा नाम लेकर नहीं पुकार सकते थे। तुम तो सदैव राम कहा करते थे। एक समय जब तुम्हें हृदय-कम्प का दौरा हुआ, तुम अचेत थे, तुम्हारे मुँह से बारम्बार राम, हाय राम! के शब्द निकल रहे थे। पास खड़े हुए भाई बान्धवों को आश्चर्य था कि राम, राम कहता है।

कहते थे कि अल्लाह, अल्लाह कहो, पर तुम्हारी राम-राम की रट थी। उसी समय किसी मित्र का आगमन हुआ, जो राम के भेद को जानते थे। तुरन्त मैं बुलाया गया। मुझसे मिलने पर तुम्हें शान्ति हुई,  तब सब लोग राम-राम के भेद को समझे। अन्त में इस प्रेम, प्रीति तथा मित्रता का परिणाम क्या हुआ ? मेरे विचारों के रंग में तुम भी रंग गये। तुम भी एक कट्टर क्रान्तिकारी बन गये।  अब तो तुम्हारा दिन-रात प्रयत्न यही था, कि जिस प्रकार हो सके मुसलमान नवयुवकों मंस भी क्रान्तिकारी भावों का प्रवेष हो सके। वे भी क्रान्तिकारी आन्दोलन में योग दे।

जितने तुम्हारे बन्धु तथा मित्र थे, सब पर तुमने अपने विचारों का प्रभाव डालने का प्रयत्न किया। बहुधा क्रान्तिकारी सदस्यों को भी बड़ा आश्चर्य होता कि मैने कैसे एक मुसलमान को क्रान्तिकारी दल का प्रतिष्ठित सदस्य बना लिया। मेरे साथ तुमने जो कार्य किये, वे सराहनीय हैं! तुम ने कभी भी मेरी आज्ञा की अवहेलना न की। एक आज्ञाकारी भक्त के समान मेरी आज्ञा पालन में तत्पर रहते थे। तुम्हारा हृदय बड़ा विशाल था। तुम्हारे भाव बड़े उच्च थे।

मुझे यदि शान्ति है तो यही कि तुमने संसार में मेरा मुँह उज्जवल कर दिया। भारत के इतिहास में यह घटना भी उल्लेखनीय हो गई, कि अशफाकउल्ला ख़ाँ ने क्रान्तिकारी आन्दोलन में योग दिया। अपने भाई बन्धु तथा सम्बन्धियों के समझाने पर कुछ भी ध्यान न दिया। गिरफतार हो जाने पर भी अपने विचारों में दृढ़ रहा ! जैसे तुम शारीरिक बलशाली थे, वैसे ही मानसिक वीर तथा आत्मा से उच्च सिद्ध हुए। इन सबके परिणाम स्वरूप अदालत में तुमको मेरा सहकारी ठहराया गया, और जज ने हमारे मुकदमें का फैसला लिखते समय तुम्हारे गले में भी जयमाल फांसी की रस्सी पहना दी।

प्यारे भाई तुम्हे यह समझ कर सन्तोष होगा कि जिसने अपने माता-पिता की धन-सम्पत्ति को देश-सेवा में अर्पण करके उन्हें भिखारी बना दिया, जिसने अपने सहोदर के भावी भाग्य को भी देश सेवा की भेंट कर दिया, जिसने अपना तन मन धन सर्वस्व मातृसेवा में अर्पण करके अपना अन्तिम बलिदान भी दे दिया, उसने अपने प्रिय सखा अशफाक को भी उसी मातृभूमि की भेंट चढ़ा दिया।

असगर हरीम इश्क में हस्ती ही जुर्म है।
रखना कभी न पांव, यहां सर लिये हुये।।

सहायक काकोरी शडयन्त्र का भी फैसला जज साहब की अदालत से हो गया। श्री अशफाकउल्ला खां वारसी को तीन फांसी और दो काले पानी की आज्ञायें हुईं। श्रीयुत शचीन्द्रनाथ बख़्शी को पांच काले पानी की आज्ञायें हुई।

- राम

[Content courtesy: Dr. Amar Kumar; इस प्रामाणिक पत्र के लिये स्वर्गीय डॉ. अमर कुमार का आभार]

Saturday, December 14, 2013

"क्यूरियस केस ऑफ केजरीवाल" - राजनीतिक परियोजना प्रबंधन

बहुसंख्य भारतीय जनता इतनी निराशा और अज्ञान में जीती है कि कब्रों पे चादर चढ़ाती है, आसाराम और रामपाल से मन्नतें मांग लेती है, ज़ाकिर नायक जैसों को धर्म का विशेषज्ञ समझती है और कई बार तो जेहादी-माओवादी आतंकियों और लेनिन-स्टालिन-सद्दाम-हिटलर जैसे दरिंदों तक को जस्टिफ़ाई करने लगती है। जनता के एक बड़े समूह की ऐसी दबी-कुचली पददलित भावनाओं को भुनाना बहुत सस्ता काम है ...
राजनीतिक सफलता के कुछ सूत्र

1) परेटो सिद्धांत (Pareto principle) - 80% प्रभाव वाले 20% काम करो, बस्स! - कम लागत में बड़ी इमारत बनाओ। शिवाजी ने छोटे किलों से आरंभ किया। मिज़ोरम (राज्य) का खबरों में आना कठिन है, गंगाराम (अस्पताल) ज़रूर आसान है। चूंकि दिल्ली सत्ता और मीडिया, दोनों के केंद्र में है, मीडिया को मणिपुर, अरुणाचल या कश्मीर तक जाने का कष्ट नहीं करना पड़ता। जब एक दिल्ली शहर को कब्ज़ाकर देशभर को आसानी से प्रभावित किया जा सकता है तो येन-केन-प्रकारेण वही करना ठीक है, मीडिया को भी फायदा है, घर बैठे खबर "बन" जाती है, और बाहर निकलने की जहमत बच जाती है।

2) जन-प्रभाव वाले महत्वाकांक्षी व्यक्तियों को सपने दिखाकर साथ लाओ - अन्ना हज़ारे से बाबा रामदेव तक, किरण बेदी से अग्निवेश तक, कलबे जवाद से तौकीर रज़ा तक ... कोई अनशन करे, कोई लाठी खाये, किसी का तम्बू उजड़े, सबका सीधा लाभ आप तक ही पहुँचे।

3) उन जन-प्रभाव वाले महत्वाकांक्षी व्यक्तियों के तेज को हरकर अपने में समाहित करो - किरण बेदी, अग्निवेश आदि का अनैतिक आचरण उजागर हुआ या कराया गया; बेचारे बाबा रामदेव की छवि तो ऐसी डूबी या डुबाई गई कि फिर कभी राजनीति में न घुस सकेंगे, अन्ना हज़ारे के प्रभाव का भरपूर उपयोग कर बाद में उन्हें दूध की मक्खी जैसे छिटक दिया गया। और यह क्रम आगे भी चलता रहेगा। काम में आने के बाद लोग लात मारकर निकले जाते रहेंगे - कुल मिलाकर सभी प्रभावशाली व्यक्तियों के प्रभाव का लाभ केवल केजरीवाल को मिलना चाहिए।

4) शत्रु-मित्र-तटस्थ सभी को शुभ संकेत दो - कॉङ्ग्रेस खुश थी क्योंकि बीजेपी के वोट कट रहे थे, बीजेपी खुश थी क्योंकि कॉङ्ग्रेस के खिलाफ माहौल बन रहा था, सपा और बसपा खुश क्योंकि वे सोच रहे थे कि बिल्लियों की लड़ाई में वे चांदी काट लेंगे। दुनिया भर में पिटने के बाद भारत और नेपाल में भी अपनी साख गँवाकर हाशिये पर पड़े कम्युनिस्टों की खाली केतली में भी उम्मीदों का ज्वार चढ़ने लगा। हालांकि ऐसे संकेत हैं कि बीजेपी ने अपनी हानि को चुनाव से कुछ समय पहले भाँप तो लिया था लेकिन वे उसकी प्रभावी काट नहीं सोच सके।

5) बीच-बीच में अपना मखौल उड़वाओ - अलग दिखने के लिए अजीब सी वेषभूषा अपनाओ। कम खतरनाक दिखने के लिए अजीब-अजीब से बयान देते रहो। खिल्ली ज़्यादा उड़े या विरोध कड़ा हो जाये तो पलटी खा लो। लेकिन प्रतिद्वंदियों को मस्त रहने दो, कभी चौकन्ने न होने पाएँ।

6) रोनी सूरत बनाए रखो - हार गए तो भाव कम नहीं होगा। जीतने के बाद तो पाँचों उंगलियाँ घी में होनी हैं।

7) करो वही जो सब करते हैं और खुद तुम जिसका विरोध करते दिखते हो, लेकिन कम मात्रा में धीरे-धीरे करो और इतनी होशियारी (या मक्कारी) से करो कि अगर स्टिंग ऑपरेशन भी हो जाये तो बेशर्मी से उसका विरोध कर सको।

8) संदेश प्रभावी रखो - विरोधियों को जेल भिजाने की धमकी दो इससे उन पर समर्थन का दवाब बना रहेगा। अगर कोई समर्थन न करे तो उसे भी शर्तनामा भेज दो, इससे अपने पक्ष में हवा बनती है।

9) सम्मोहन करो - झाड़ू-पंजे का स्पष्ट संबंध भी ऐसा धुंधला कर दो कि चमकता सूरज भी न दिखे, जब समर्थन देने-लेने के निकट सहयोग का संबंध स्पष्ट हो तब भी यह सहयोग न दिख पाये।

10) अपनी मंशा कभी ज़ाहिर न होने दो - चुनाव से काफी पहले से तैयारी चुनाव की करते रहो लेकिन बात भ्रष्टाचार, समाजवाद, महंगाई आदि की करो।

11) ऊँचे सपने दिखाओ - नालों, मलबे, कूड़े, रिश्वत, बदबू, और अव्यवस्था में गले तक डूबी राजधानी में व्यवस्था की नहीं, हेल्पलाइन की बात करो, लोकपाल की बात करो, मुफ्त पानी-बिजली की बात करो, जिन नेताओं से जनता त्रस्त है, उन्हें जेल भिजाने की बात करो। धरती पर स्वर्ग लाने के सपने दिखाओ  ... एक शहर भले न संभाले, पूरा देश बदलने की बात करो।

12) युवा शक्ति का भरपूर प्रयोग करो - कैच देम यंग - सच यह है कि युवा कुछ करना चाहता है, परिवर्तन का कारक बनने को व्यग्र है। देश-विदेश में जो कोई भी देश की दुर्दशा से चिंतित है उसे अपने लाभ के लिए हाँको। कम्युनिस्ट समूह इस शक्ति का शोषण अरसे से करते रहे हैं, तुम बेहतर दोहन करो।

13) आधुनिक बनो - यंत्रणा नहीं, यंत्र का प्रयोग करो - आधुनिक तकनीक, इन्टरनेट, सोशल मीडिया, डिजिटल इंगेजमेंट, एनजीओ, स्वयंसेवा, धरना, प्रदर्शन आदि के प्रभाव को पहचानो। असंगतियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताओ। विपक्षियों पर इतनी बार आरोप लगाओ कि वह खुद ही सफाई देते फिरें ...

14) पुरानी अस्तियों को नई पैकिंग दो - अन्ना को "गांधी" का नाम दो, "गांधी टोपी" को "आम आदमी" तक पहुँचाओ, "मैं अन्ना हूँ" की जगह "मैं आम आदमी हूँ" लिखो। तानाशाही को स्व-राज का नाम दो।

अंतिम पर अनंतिम सूत्र 

15) बेशर्म बने रहो - सबको पता है बिजली मुफ्त नहीं हो सकती, पानी भी सबको नहीं मिलेगा, भ्रष्टाचारी नेता और नौकरशाह जेल नहीं जाएंगे - अव्वल तो ज़िम्मेदारी लेने से बचो। गले पड़ ही जाये तो पोल खुलने पर अपनी असफलता का ठीकरा एक काल्पनिक शत्रु, जैसे "सब मिले हुए हैं जी", "पूंजीवाद", "सड़ेला सिस्टम", "अल्पमत" या "कानूनी अड़चनें" पर फोड़ दो और सत्ता पर डटे रहो ... फिर भी बात न बने और असलियत खुलने को हो तो इस्तीफा देकर शहीद बन जाओ ... और फिर ...

... और फिर यदि न घर के रहो न घाट के तो केजरीवाल-टर्न लेकर जनता से फिर अपना पद मांगने लगो ... इस देश की जनता बड़ी भावुक है, छः महीने में किसी के भी कुकर्म भुला देती है।

अब कुछ सामयिक पंक्तियाँ / एक कविता
हर चुनाव के लिए मुकर्रर हो
 एक सपना
 हर बार नया
 जो दिखाये
 शिखर की ऊँचाइयाँ
 साथ ही रक्खे
 जमीनी सच्चाईयों से
 बेखबर ....
 
बाबा रामदेव के मंच से सात दिन में शीला दीक्षित की सरकार के लोगों के खिलाफ अदालती आदेश लाने का वायदा
* संबन्धित कड़ियाँ *
केजरीवाल - दो साल की बिना काम की तनख्वाह - नौ लाख रुपये
आतंकवाद पर सवाल किया तो स्टूडियो छोड़कर भागे केजरीवाल
साँपनाथ से बचने को नागनाथ पालने की गलतियाँ
दलाल और "आप" की टोपी
केजरीवाल कम्युनिस्ट हैं - प्रकाश करात
अग्निवेश का असली चेहरा
किरण ने जो किया वह न तो चोरी है न भ्रष्टाचार - केजरीवाल

Wednesday, August 8, 2012

दिल है सोने का, सोने की आशा

एमसी मेरीकॉम
अपनी श्रेणी में कई बार विश्वविजेता रहीं मणिपुर की मैरीकॉम से भारत को बड़ी उम्मीदें थीं। काँस्य लाकर भी उन्होंने देश को गर्व का एक अवसर तो दिया ही है साथ ही एक बार यह सोचने को बाध्य किया है कि ओलिम्पिक स्वर्ण पाने के लिये विश्वविजेता होना भर काफ़ी नहीं है। कुछ और भी चाहिये। वह क्या है? आम भारतीयों के बीच आपसी सहयोग और सहनशीलता का रिकॉर्ड देखते हुए दल के रूप में खेले जाने वाले खेलों में तो भारत को अधिक उम्मीद लगाना शायद बचपना ही होगा। लेकिन कम से कम अपनी खुद की ज़िम्मेदारी ले सकने वाली व्यक्तिगत स्पर्धाओं में भारतीयों के चमकने के अवसर बनाये जा सकते हैं। तैराकी जैसे खेलों में तो तकनीक की भूमिका इतनी अधिक है कि भारत जैसे अव्यवस्थित देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचने के लिये यात्रा बहुत लम्बी है। हाँ, तीरन्दाज़ी, निशानेबाज़ी, भारोत्तोलन, कुश्ती, मुक्केबाज़ी आदि खेलों के लिये हमारे पास सक्षम खिलाड़ियों की कमी होनी नहीं चाहिये। फिर कमी कहाँ है? शायद हर जगह। खिलाड़ियों के चुनाव, प्रशिक्षण, सुविधायें, पोषण, चिकित्सा, प्रतिस्पर्धाओं से लेकर धन, आत्मविश्वास, राजनीति, और नीति-क्रियान्वयन तक हर जगह सुधार की बड़ी गुंजाइश है।

मैरीकॉम एक-दो बार नहीं पाँच बार (2002, 2005, 2006, 2008 और 2010) विश्व चैम्पियन रह चुकी हैं। लेकिन उन्होंने ये सभी स्वर्ण पदक 46 और 48 किलो की श्रेणियों में जीते है। वर्तमान ओलंपिक स्पर्धाओं में यह भार वर्ग है ही नहीं। यदि उन्हें खेलना होता तो अर्हता के लिये अपना भार बढाकर 51 किलो करना पड़ता जिससे वे फ्लाईवेट श्रेणी में भाग लेने की पात्र बनतीं। उन्होंने यही किया। मुझे नहीं पता कि उन्हें यह जानकारी कब मिली और अपना भार 10% बढाने के लिये उन्हें कितना समय और सहायता मिली। लेकिन इतना स्पष्ट है कि यह निर्णय लेने का मतलब है कि इस बार उनका सामना अपनी नियत श्रेणी से अगली श्रेणी के और अधिक भारी वर्ग के प्रतियोगियों से था जो कि उनकी स्पर्धा को और कठिन करता है। भविष्य में ऐसी चुनौतियों को देख पाने और बेहतर हैंडल करने की सुनियोजित रणनीति आवश्यक है।

दीपिका कुमारी
तीरंदाजी प्रतिस्पर्धा में झारखंड की 18 वर्षीय दीपिका कुमारी की कहानी इतनी मधुर नहीं रही। धनुर्विद्या में प्रथम सीडेड दीपिका को लंदन ओलम्पिक से खाली हाथ आना पड़ा यह खबर शायद उतनी खास नहीं है जितनी यह कि झारखंड के उप मुख्यमंत्री उनका प्रदर्शन देखने के लिये पाँच अन्य व्यक्तियों के साथ आठ दिन तक ब्रिटेन की यात्रा पर थे। एक ऑटो रिक्शा चालक शिव नारायण महतो की बेटी पेड़ों से आम तोड़ने के लिये घर पर बनाये तीर कमान से अपनी यात्रा आरम्भ करके प्रथम सीड तक पहुँच पाती है लेकिन उसका खेल "देखने" के लिये मंत्री जी की विदेश यात्रा से देश की खेल प्राथमिकतायें तो ज़ाहिर होती ही हैं।

एक अन्य स्पर्धा में अमेरिकी टीम द्वारा अपील करने पर पहले विजयी घोषित किये गये भारतीय खिलाड़ी को फ़ाउल्स के आधार पर हारा घोषित किया गया। भारतीय स्रोतों से कहा जा रहा है कि प्रतिद्वन्द्वी अमेरिकी खिलाड़ी ने भी बिल्कुल वही ग़लतियाँ की थीं। यदि यह बात सच है तब हमारे अधिकारी शायद अपना पक्ष सामने रखने में पीछे रह गये। स्पष्ट है कि खिलाड़ियों को खेल सिखाने के साथ अधिकारियों को अपील आदि के नियम सिखाना भी ओलम्पिक की तैयारी का ज़रूरी भाग होना चाहिये।

मिन क्षिया
खेलों में चीन की प्रगति के बारे में काफ़ी चर्चा होती है। 2004 में एथेंस और 2008 में बीजिंग में स्वर्ण जीतने के बाद 26 वर्षीया मिनक्षिया जब लंडन में गोताखोरी का स्वर्ण जीत चुकी तब उसके परिवार ने उसे खबर दी कि उसके दादा और दादी गुज़र चुके हैं तथा उसकी माँ पिछले आठ वर्षों से कैंसर का इलाज करा रही है। चीन के कड़े नियमों में जहाँ किसी परिवार को दूसरा बच्चा पैदा करने की आज्ञा भी नहीं है, किसी खिलाड़ी को ओलम्पिक स्पर्धा से पहले पारिवारिक हानि के समाचार सुनाना शायद खतरे से खाली नहीं होगा। यह घटना कितनी भी अमानवीय लगे यहाँ उल्लेख करने का अभिप्राय केवल यही दर्शाना है कि कुछ देशों के लिये अपने राष्ट्रीय गौरव के सामने नागरिकों के मानवीय अधिकारों को कुचलना सामान्य सी बात है। हमें चीन के स्तर तक गिरने की ज़रूरत नहीं लेकिन उससे पहले भी इतना कुछ है करने के लिये कि यदि हो जाये तो अनेक स्पर्धाओं - विशेषकर व्यक्तिगत - के पदक हमारी झोली में आ सकते हैं। वह दिन जल्दी ही आये, इंतज़ार है। शुभकामनायें!

[The images in this post have been taken from various news sources on Internet.]

Tuesday, April 17, 2012

अमर महानायक तात्या टोपे (1814-1859)

तात्या टोपे की समाधि
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के महानायक रामचन्द्र पांडुरंग राव योलेकर से शायद ही कोई अपरिचित हो। जी हाँ, अपनी वीरता और रणनीति के लिये विख्यात महानायक कमांडर तात्या टोपे का वास्तविक नाम यही था।

1814 में योले (या यवले/यउले/यवला) ग्राम में एक देशस्थ कुलकर्णी परिवार में जन्मे तात्या अपने माता-पिता श्रीमती रुक्मिणी बाई व पाण्डुरंग त्र्यम्बक राव भट्ट़ मावलेकर की एकमात्र संतति थे। तात्या का परिवार सन 1818 में नाना साहब पेशवा के साथ ही बिठूर आ गया था। अंग्रेज़ों द्वारा हर कदम पर भारत और भारतीयों के विरुद्ध खेली जा रही चालों के विरुद्ध एक देशव्यापी अभियान संगठित रूप से चलाने में नाना के साथ तात्या का एक बड़ा योगदान था। यह अभियान 1857 के संग्राम से काफ़ी पहले से आरम्भ होकर तात्या टोपे की मृत्यु तक निर्बाध चलता रहा।

लाल कमल अभियान 1857
तात्या टोपे के परिवार की वर्तमान पीढी के श्री पराग टोपे ने कुनबे के अन्य सदस्यों व इतिहासकारों के सहयोग से 1857 के संग्राम के कुछ छिपे हुए पन्नों को रोशन करने का प्रयास किया है। उनके अध्ययन और परिवार में चल रही कथाओं के अनुसार 1857 के संग्राम के तयशुदा आरम्भ से कहीं पहले ही तात्या ने ब्रिटिश सेना के भारतीय प्लाटूनों को कमल भेजकर उनकी भागीदारी, संख्या और सैन्यबल सुनिश्चित करना आरम्भ कर दिया था। भागीदारी में सहमति देने वाले सैनिकों द्वारा कमल की पंखुड़ियाँ रखी जाने के बाद खाली डंडियाँ गिनकर सेना का आगत गमनागमन तय किया गया। डंडियों से निकले कमलगट्टों के मखाने के साथ रोटियों को ग्रामप्रधानों में बाँटकर सेना के संचलन के समय उनके सम्भावित मार्ग पर रसद की आपूर्ति सुनिश्चित करने का काम किया गया। रोटियाँ और कमल बँटने की घटनाओं का ज़िक्र कई इतिहास ग्रंथों में मिलता है परंतु उसका विस्तृत स्पष्टीकरण अन्यत्र नहीं दिखता।

अंग्रेज़ों के लिये सबसे आश्चर्य की बात थी तात्या के दस्तों का संचलन। छापामार युद्ध के माहिर तात्या हर जगह मौजूद थे। खासकर वहाँ, जहाँ अंग्रेज़ों की गणना के अनुसार उतने कम समय में पहुँचा ही न जा सकता हो। उस समय में चम्बल या नर्मदा नदी के एक ओर की सेना का पलक झपकते दूसरी ओर पहुँच जाना किसी आश्चर्य से कम न था। एक बार भारी ब्रिटिश गोलीबारी के बीच भी उनके दस्ते नर्मदा पार करके सलामत निकल गये थे। तात्या टोपे और उनके सिपाहियों के बारे में दंतकथाओं का अम्बार है, विशेषकर मध्य भारत में।

टोपे परिवार, परम्परागत वेशभूषा में (ऑपरेशन रेड लोटस से साभार)
तात्या के विरोधी भी तात्या के सैन्य-संचलन के क़ायल थे। कई ब्रिटिश इतिहासकारों का विश्वास है कि यदि सिन्धिया सरीखे कुछ राजा अंग्रेज़ों के पक्ष में न आये होते तो 1857 में भारत से गोरों का सफ़ाया निश्चित था। ऐतिहासिक कथा यह है कि 7 अप्रैल 1859 को अपने शिविर में सोते हुए तात्या को उनके साथी नरवर के राजा मानसिंह के विश्वासघात की सहायता से अंग्रेज़ों ने बन्दी बना लिया गया। 8 अप्रैल को वे शिवपुरी में जनरल मीड के शिविर में एक युद्धबन्दी थे। 1857 के डेढ वर्ष बाद अभी भी यत्र-तत्र संघर्षरत भारतीय सैनिकों का मनोबल तोड़ने के लिये तात्या टोपे को फ़ांसी देना तो तय था, तो भी शिवपुरी में सैनिक अदालत की काग़ज़ी कार्यवाही पूरी की गयी। फ़ांसी देने से पहले बन्दी तात्या से लिखवाये गये बयानों में उनका नाम तात्या टोपे (नाना साहेब के कार्यकर्ता) लिखा गया है। स्वाधीनता संग्राम में अपनी भागीदारी स्वीकार करते हुए उन्होंने लिखा कि वे अपने देश के महाराज नाना साहेब की ओर से अपनी देशरक्षा के लिये लड़े हैं और वे किसी अन्य सत्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं। न ही उन्होंने अपने जीवन में किसी असैनिक को चोट पहुँचाई है। 15 अप्रैल 1859 को उन्हें मृत्युदंड की सज़ा सुनाई गयी और आज ही के दिन ... 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी जेल की चार नम्बर बैरक में फांसी दी गयी थी। कहा जाता है कि उन्हें दो बार फ़ांसी पर लटकाकर अंग्रेज़ों ने अपनी संतुष्टि की थी।

डॉ. राजेश टोपे से एक अविस्मरणीय मुलाकात
इसके बाद बदला लेने के उद्देश्य से अंग्रेज़ सेना के साथ नरवर और ग्वालियर के शासक भी तात्या के परिवारजनों को ढूंढने में लग गये। लम्बे समय तक इस स्वाभिमानी परिवार के सदस्य अपने नाम और वेशभूषा बदलकर अनेक ग़ैर-पारम्परिक पेशों को चुनकर देशभर में भटकते रहे। गर्व की बात यह है कि वर्षों के उत्पीड़न के बावजूद भी स्वस्थ परम्पराओं का सम्मान करने वाला यह परिवार आज सुशिक्षित और समृद्ध हैं। तात्या टोपेज़ ऑपरेशन रेड लोटस के लेखक पराग टोपे अमेरिका में रहते हैं। डॉ राजेश टोपे आयरलैंड में रहे हैं परंतु अधिकांश टोपे परिवारजन भारत में ही रहते हैं।

पराग टोपे के अनुसार तात्या को कभी पकड़ा नहीं जा सका था और वे दरअसल एक छापामार युद्ध में शहीद हुए थे। उनकी शहादत के बाद युद्ध की शैली, सैन्य संचलन आदि में अचानक एक बड़ा अंतर आया। उनकी प्रतीकात्मक फ़ांसी अंग्रेज़ों की एक ज़रूरत थी जिसके बिना स्वतंत्रता संग्राम का पूर्ण पटाक्षेप कठिन था। इस प्रक्रिया के नाट्य रूपांतर में नरवर के राजा ने एक नरबलि देकर अपने गौर प्रभुओं की सहायता की। फ़ांसी लगे व्यक्ति ने अपनी आयु 55 वर्ष बताई थी जबकि उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार उस समय तात्या की आयु 45-46 वर्ष की होनी थी। सत्य जो भी हो, जन्मभूमि की ओर आँख उठाने वालों के छक्के छुड़ा देने वाले तात्या जैसे वीर संसार भर के स्वतंत्रताप्रिय देशभक्तों की नज़र में सदा अमर रहेंगे।

अमर हो स्वतंत्रता!
सम्बन्धित कड़ियाँ
* तात्या टोपे - अधिकारिक वैब साइट
* तात्या टोपे - हिन्दी विकीपीडिया
* तात्या टोपे प्रशंसक पृष्ठ - फ़ेसबुक
* फाँसी नहीं दी गई थी तात्या टोपे को
* प्रेरणादायक जीवन-चरित्र

Friday, April 6, 2012

नेताजी, गांधीजी और राष्ट्रपिता पर प्रश्न

स्वातंत्र्य-वीर नेताजी व राष्ट्रपिता
पिछले कई दिनों से राष्ट्रपिता चर्चा में हैं। आश्चर्य इस बात पर नहीं है कि राष्ट्रपिता चर्चा में हैं। आश्चर्य इस बात पर भी नहीं है कि इस प्रश्न से कई लोगों के दिल में राष्ट्रभक्ति की चिंगारी फिर से स्फुरित होने लगी है। सच पूछिये तो आश्चर्य है ही नहीं, हाँ दुःख अवश्य है। एक नन्हीं सी बच्ची को अपने राष्ट्र और राष्ट्रपिता के बारे में किये गये इस सामान्य से प्रश्न का जवाब न घर में मिला न विद्यालय में। शर्म की हद तब हो गयी जब सरकार के प्रतिनिधियों की ओर से भी इस सीधे से सवाल का सीधा जवाब नहीं मिला।

पूरी कहानी तो शायद आप सबको पता ही होगी। फिर भी आगे बढने से पहले पूरे किस्से पर फिर से एक सरसरी नज़र मार लेना ठीक ही है। लखनऊ में पांचवीं क्लास में पढने वाली बच्ची ऐश्वर्या पाराशर ने यह जानना चाहा कि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता कब बने? पाँचवीं कक्षा की छात्रा है, शायद बच्ची ने सोचा हो कि राष्ट्रपिता कोई सरकारी उपाधि है। घर में, स्कूल में और अन्य सम्भावित स्थानों में भी जब उसे संतोषजनक उत्तर नहीं मिला तो मामला सूचनाधिकार कानून तक पहुँचा। सरकार से एक आवेदन किया गया। प्रधानमंत्री कार्यालय ने पत्र को गृहमंत्रालय के पास भेजा। गृहमंत्रालय ने कहा कि इस पत्र का उत्तर देना उनका काम नहीं है। अंत में यह सवाल राष्ट्रीय अभिलेखागार के पास पहुँचा और जवाब मिला कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि दिये जाने के बारे में उनके पास कोई दस्तावेज़ या आधिकारिक जानकारी नहीं है।

नमक सत्याग्रह (6-4-1930)
सरकार के काम करने के तरीके को दर्शाने के लिये यह एक आदर्श उदाहरण है। जिन लोगों पर प्रश्नों के उत्तर देने की ज़िम्मेदारी है वे इस कार्यक्रम का क्रियाकर्म कितनी सुघड़ता से कर रहे हैं, यह इस एक घटना से स्पष्ट है। सरकारी खानापूर्ति कोई नई बात नहीं है, इसलिये मैने भी इस विषय पर लिखने के बारे में ज़्यादा नहीं सोचा। मगर अभी कुछ भाई गांधीजी को राष्ट्रपिता मानने के बजाय नेताजी सुभाषचन्द्रबोस को राष्ट्रपिता मानने की बात करते सुनाई दिये। इस मांग ने एक बार फिर याद दिलाया कि हमें अपने राष्ट्रीय नायकों के बारे में कितनी जानकारी है। एक नन्ही बच्ची के मासूम प्रश्न के बहाने ही सही, यदि हम अपने अतीत को पहचानने का थोड़ा भी प्रयास कर सकें तो बहुत खुशी की बात है।

अपने समय के अनेक नवयुवकों की तरह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत गांधीजी की छत्रछाया में की थी। समय कुछ ऐसा चला कि दोनों के उद्देश्य समान होते हुए भी उनके मार्ग जुदा हो गये। फिर भी नेताजी के हृदय में गांधीजी के लिये सम्मान अंतपर्यंत बना रहा। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय गांधीजी को नज़रबन्द करके पुणे के आग़ाखाँ महल में रखा गया था। उसी नज़रबन्दी के दौरान 22 फ़रवरी 1944 को कस्तूरबा गांधी का देहावसान हो गया। यह समाचार मिलने के कुछ समय बाद 4 जून 1944 को रंगून से आज़ाद हिन्द रेडियो के प्रसारण में नेताजी ने भारत छोड़ो का सन्दर्भ देते हुए भारत में किये जा रहे (अहिंसक) आन्दोलन के आज़ादी दिलाने में कारगर होने के बारे में आशंका व्यक्त करते हुए गांधीजी को राष्ट्रपिता कहकर उनके आशीर्वाद से आज़ाद हिंद फ़ौज़ का कार्यक्रम जारी रखने की बात की।
"Father of our Nation in this holy war for India's liberation, we ask for your blessings and good wishes." ~ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
उल्लेखनीय है कि इस प्रसारण से लगभग दो वर्ष पहले गांधीजी ने नेताजी को देशभक्तों के राजकुमार ("Prince among the Patriots) नाम से सम्बोधित किया था। एक बच्ची के मासूम प्रश्न ने राष्ट्र के दो महानायकों की याद और उनके बीच के भावनात्मक सम्बन्धों की याद ताज़ा करा दी, उसके लिये ऐश्वर्या का आभार!

संयोग से आज डांडी मार्च की वर्षगांठ भी है। जी हाँ, 6 अप्रैल 1930 को प्रातः 6:30 पर गांधीजी ने नमक कानून तोड़ा था और तभी पहली बार भारत में एक बड़ा जन समुदाय स्वाधीनता संग्राम के पक्ष में खुलकर सामने आया था।

  अमर हो स्वतंत्रता!
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Saturday, May 15, 2010

बुद्ध हैं क्योंकि भगवान परशुराम हैं

Bhagvan Parashu Ram Jamdagneya
1970 की हिन्दी फिल्म का पोस्टर
ज भगवान् परशुराम के जन्म दिन यानी अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर यूँ ही डॉ. मनोज मिश्र द्वारा मा पलायनम पर 5 हफ़्ते पहले पर पोस्ट किया गया आलेख क्या परशुराम क्षत्रिय विरोधी थे? याद आ गया। आलेख में यह दर्शाया गया था कि भगवान् परशुराम क्षत्रियों के नहीं बल्कि निरंकुश और अत्याचारी शासकों के विरुद्ध थे।

शास्त्रों में जहाँ भी उनका उल्लेख है वहाँ यह बात स्पष्ट समझ में आती है कि वे अत्याचार और निरंकुशता के खिलाफ ही सीना तान कर खड़े हुए थे। मगर इसका मतलब यह नहीं कि वे हिंसा को अहिंसा से ऊपर मानते थे। आम जनता को अनाचारियों के पापों से बचाने के लिए उन्होंने सहस्रबाहु को नर्मदा नदी के किनारे महेश्वर में मारा जहाँ आज भी उसकी समाधि और शिव मन्दिर है।

राजकुमार विश्वामित्र के भांजे परशुराम राज-परिवार में नहीं बल्कि ऋषि आश्रम में जन्मे थे और उनका पालन पूर्ण अहिंसक और सात्विक वातावरण में हुआ था। इसलिए उनके द्वारा अन्याय के खिलाफ हिंसा का प्रयोग कुछ लोगों के लिए वैसा ही आश्चर्यजनक है जैसा कि गौतम बुद्ध या महावीर जैसे राजकुमारों का बचपन से अपने चारों ओर देखी और भोगी गयी हिंसा के खिलाफ खड़े हो जाना। अंतर केवल इतना है कि बुद्ध या महावीर जैसे राजकुमारों ने जब हिंसा का परित्याग किया तो कालान्तर में उनके अनुयायी इतने अतिवादी हुए कि उनकी नयी परम्परा का पूर्णरूपेण पालन आम गृहस्थों के लिए असंभव हो गया और दैनंदिन जीवन के लिए अव्यवहारिक जीवनचर्या के लिए गृहस्थों से अलग, भिक्षुकों की आवश्यकता पडी। इसके विपरीत भगवान् परशुराम ने स्वयं अविवाहित रहते हुए भी कभी अविवाहित रहने या अहिंसा के नाम पर हिंसक समुदायों या शासकों के विरोध से बचने जैसी बात नहीं की। उल्लेखनीय है कि महाभारत के दो महावीर भीष्म और कर्ण उनके ही शिष्य थे। समरकला के पौराणिक गुरु द्रोणाचार्य के दिव्यास्त्र भी परशुराम-प्रदत्त ही हैं।

अनाचार रोकने के लिये उन्हें हिंसा का सहारा लेना पडा फिर भी उन्होंने न सिर्फ 21 बार इसका प्रायश्चित किया बल्कि जीती हुई सारी धरती दान करके स्वयं ही देश निकाला लेकर महेंद्र पर्वत पर चले गए और राज्य कश्यप ऋषि के संरक्षण में विभिन्न क्षत्रिय कुलों को दिये। इस कृत्य की समता भगवान् राम द्वारा श्रीलंका जीतने के बावजूद विभीषण का राजतिलक करने में मिलती है। मारे गए राजाओं के स्त्री-बच्चों के पालन-पोषण और समुचित शिक्षा की व्यवस्था विभिन्न आश्रमों में की गयी और इन बाल-क्षत्रियों ने ही बड़े होकर अपने-अपने राज्य फिर से सम्भाले। भृगुवंशी परशुराम ऋग्वेद, रामायण, महाभारत और विभिन्न पुराणों में एक साथ वर्णित हुए चुनिन्दा व्यक्तित्वों में से एक हैं। ऋग्वेद में परशुराम के पितरों की अनेकों ऋचाएं हैं परन्तु 10.110 में राम जामदग्नेय के नाम से वे स्वयं महर्षि जमदग्नि के साथ हैं।

जब भी भगवान् परशुराम की बात आती है तब-तब उनके परशु और समुद्र से छीनकर बसाए गए परशुराम-क्षेत्र का ज़िक्र भी आता है। गोवा से कन्याकुमारी तक का परशुराम क्षेत्र समुद्र से छीना गया था या नहीं यह पता नहीं मगर परशुराम इस मामले में अग्रणी ज़रूर थे कि उन्होंने परशु (कुल्हाड़ी) का प्रयोग करके जंगलों को मानव बस्तियों में बदला। मान्यता है कि भारत के अधिकांश ग्राम परशुराम जी द्वारा ही स्थापित हैं। राज्य के दमन को समाप्त करके जनतांत्रिक ग्राम-व्यवस्था का उदय उन्हीं की सोच दिखती है। उनके इसी पुण्यकार्य के सम्मान में भारत के अनेक ग्रामों के बाहर ब्रह्मदेव का स्थान पूजने की परम्परा है। यह भी मान्यता है कि परशुराम ने ही पहली बार पश्चिमी घाट की कुछ जातियों को सुसंकृत करके उन्हें सभ्य समाज में स्वीकृति दिलाई। पौराणिक कथाओं में यह वर्णन भी मिलता है कि जब उन्होंने भगवान् राम को एक पौधा रोपते हुए देखा तब उन्होंने काटे गए वृक्षों के बदले में नए वृक्ष लगाने का काम भी शुरू किया। कोंकण क्षेत्र का विशाल सह्याद्रि वन क्षेत्र उनके वृक्षारोपण द्वारा लगाया हुआ है। हिंडन तट का पुरा महादेव मन्दिर, कर्नाटक के सात मुक्ति स्थल और केरल के 108 मंदिर उनके द्वारा स्थापित माने जाते हैं। साम्यवादी केरल में परशुराम एक्सप्रेस का चलना किसी आश्चर्य से कम नहीं है।

जिस प्रकार हिमालय काटकर गंगा को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय भागीरथ को जाता है उसी प्रकार पहले ब्रह्मकुण्ड (परशुराम कुण्ड) से और फिर लौहकुन्ड (प्रभु कुठार) पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय परशुराम जी को जाता है। दुर्जेय ब्रह्मपुत्र का नामकरण इस ब्राह्मणपुत्र के नाम पर ही हुआ है। यह भी कहा जाता है कि गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से धरा पर लाये थे।

परशुराम क्षेत्र के निर्माण के समय भगवान परशुराम का आश्रम माने जाने वाले सूर्पारक (मुम्बई के निकट सोपारा ग्राम) में महात्मा बुद्ध ने तीन चतुर्मास बिताये थे। कभी कभी मन में आता है कि अगर शाक्यमुनि बुद्ध के शिष्यों ने अहिंसा के अतिवाद को नहीं अपनाया होता तो बौद्धों का परचम शायद आज भी चीन से ईरान तक लहरा रहा होता। न तो तालेबानी दानव बामियान के बुद्ध को धराशायी कर पाते और न ही चीन के माओवादी दरिन्दे तिब्बती महिलाओं का जबरन बंध्याकरण कर पाए होते। इस निराशा के बीच भी खुशी की बात यह है कि सुदूर पूर्व के क्षेत्रों में बौद्ध धर्म आज भी जापान तक जीवित है और इस अहिंसक धर्म को जीवित रखने का श्रेय भगवान् परशुराम के सिवा किसी को नहीं दिया जा सकता है।

परशुराम क्षेत्र के धुर दक्षिण, केरल में जाएँ तो परशुराम द्वारा प्रवर्तित एक कला आज भी न सिर्फ जीवित बल्कि फलीभूत होती दिखती है। वह है विश्व की सबसे पुरानी समर-कला 'कलरिपयट्टु।' दुःख की बात है कि जूडो, कराते, तायक्वांडो, ताई-ची आदि को सर्वसुलभ पाने वाले अनेकों भारतीयों ने कलारि का नाम भी नहीं सुना है। भगवान् परशुराम को कलारि (प्रशिक्षण शाला/केंद्र) का आदिगुरू मानने वाले केरल के नायर समुदाय ने अभी भी इस कला को सम्भाला हुआ है।

बौद्ध भिक्षुओं ने जब भारत के उत्तर और पूर्व के सुदूर देशों में जाना आरंभ किया तो वहाँ के हिंसक प्राणियों के सामने इन अहिंसकों का जीवित रहना ही असंभव सा था और तब उन्होंने परशुराम-प्रदत्त समर-कलाओं को न केवल अपनाया बल्कि वे जहाँ-जहाँ गए, वहाँ स्थानीय सहयोग से उनका विकास भी किया। और इस तरह कलरिपयट्टु ने आगे चलकर कुंग-फू से लेकर जू-जित्सू तक विभिन्न कलाओं को जन्म दिया। इन दुर्गम देशों में बुद्ध का सन्देश पहुँचाने वाले परशुराम की सामरिक कलाओं की बदौलत ही जीवित, स्वस्थ और सफल रहे।

कलारि के साधक निहत्थे युद्ध के साथ-साथ लाठी, तलवार, गदा और कटार उरमि की कला में भी निपुण होते हैं। इनकी उरमि इस्पात की पत्ती से इस प्रकार बनी होती थी कि उसे धोती के ऊपर कमर-पट्टे (belt) की तरह बाँध लिया जाता था। कई लोगों को यह सुनकर आश्चर्य होता है कि लक्ष्मण जी ने विद्युत्जिह्व दुष्टबुद्धि नामक असुर की पत्नी श्रीमती मीनाक्षी उर्फ़ शूर्पनखा के नाक कान एक ही बार में कैसे काट लिए। लचकदार कटारी से यह संभव है। केरल के वीर नायक सेनानी उदयन कुरूप अर्थात ताच्चोली ओथेनन के बारे में मशहूर था कि उनकी फेंकी कटार शत्रु का सर काटकर उनके हाथ में वापस आ जाती थी।

किसी भी कठिन समय में भारतीय संस्कृति की रक्षा के निमित्त सामने आने वाले सात प्रातः स्मरणीय चिरंजीवियों में परशुराम का नाम आना स्वाभाविक है:

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमानश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ॥
(श्रीमद्‍भागवत महापुराण)

एक बार फिर, अक्षय तृतीया की शुभकामनाएँ! भगवान् परशुराम की जय!
अपडेट: परशुराम जी से सम्बन्धित वाल्मीकि रामायण के तीन श्लोक
(सुन्दर हिन्दी अनुवाद के लिये आनन्‍द पाण्‍डेय जी का कोटिशः आभार)

वधम् अप्रतिरूपं तु पितु: श्रुत्‍वा सुदारुणम्
क्षत्रम् उत्‍सादयं रोषात् जातं जातम् अनेकश: ।।१-७५-२४॥

अन्‍वय: पितु: अप्रतिरूपं सुदारुणं वधं श्रुत्‍वा तु रोषात् जातं जातं क्षत्रम् अनेकश: उत्‍सादम्।।

अर्थ: पिता के अत्‍यन्‍त भयानक वध को, जो कि उनके योग्‍य नहीं था, सुनकर मैने बारंबार उत्‍पन्‍न हुए क्षत्रियों का अनेक बार रोषपूर्वक संहार किया।।

पृथिवीम् च अखिलां प्राप्‍य कश्‍यपाय महात्‍मने
यज्ञस्‍य अन्‍ते अददं राम दक्षिणां पुण्‍यकर्मणे ॥१-७५-२५॥

अन्‍वय: राम अखिलां पृथिवीं प्राप्‍य च यज्ञस्‍यान्‍ते पुण्‍यकर्मणे महात्‍मने कश्‍यपाय दक्षिणाम् अददम् ।

अर्थ: हे राम । फिर सम्‍पूर्ण पृथिवी को जीतकर मैने (एक यज्ञ किया) यज्ञ की समाप्ति पर पुण्‍यकर्मा महात्‍मा कश्‍यप को दक्षिणारूप में सारी पृथिवी का दान कर दिया ।

दत्‍वा महेन्‍द्रनिलय: तप: बलसमन्वित:
श्रुत्‍वा तु धनुष: भेदं तत: अहं द्रुतम् आगत: ।।१-७५-२5॥

अन्‍वय: दत्‍वा महेन्द्रनिलय: तपोबलसमन्वित: अहं तु धनुष: भेदं श्रुत्‍वा तत: द्रुतम् आगत: ।।

अर्थ: (पृथ्‍वी को) देकर मैने महेन्द्रपर्वत को निवासस्‍थान बनाया, वहाँ (तपस्‍या करके) तपबल से युक्‍त हुआ। धनुष को टूटा हुआ सुनकर वहाँ से मैं अतिशीघ्रता से आया हूँ ।।

भगवान् परशुराम श्रीराम चन्‍द्र को लक्ष्‍य करके उपर्युक्त बातें कहते हैं।  इसके तुरंत बाद ही उन्‍हें विष्‍णु के धनुष पर प्रत्‍यंचा चढा कर संदेह निवारण का आग्रह करते हैं। शंका समाधान हो जाने पर विष्‍णु का धनुष राम को सौंप कर तपस्‍या हेतु चले जाते हैं ।।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* परशुराम स्तुति
* परशुराम स्तवन
* अक्षय-तृतीया - भगवान् परशुराम की जय!
* परशुराम और राम-लक्ष्मण संवाद
* मटामर गाँव में परशुराम पर्वत
* भगवान् परशुराम महागाथा - शोध ग्रंथ
* ग्वालियर में तीन भगवान परशुराम मंदिर
* अरुणाचल प्रदेश का जिला - लोहित
* बुद्ध पूर्णिमा पर परशुराम पूजा

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