Showing posts with label यशस्वी. Show all posts
Showing posts with label यशस्वी. Show all posts

Tuesday, April 17, 2012

अमर महानायक तात्या टोपे (1814-1859)

तात्या टोपे की समाधि
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के महानायक रामचन्द्र पांडुरंग राव योलेकर से शायद ही कोई अपरिचित हो। जी हाँ, अपनी वीरता और रणनीति के लिये विख्यात महानायक कमांडर तात्या टोपे का वास्तविक नाम यही था।

1814 में योले (या यवले/यउले/यवला) ग्राम में एक देशस्थ कुलकर्णी परिवार में जन्मे तात्या अपने माता-पिता श्रीमती रुक्मिणी बाई व पाण्डुरंग त्र्यम्बक राव भट्ट़ मावलेकर की एकमात्र संतति थे। तात्या का परिवार सन 1818 में नाना साहब पेशवा के साथ ही बिठूर आ गया था। अंग्रेज़ों द्वारा हर कदम पर भारत और भारतीयों के विरुद्ध खेली जा रही चालों के विरुद्ध एक देशव्यापी अभियान संगठित रूप से चलाने में नाना के साथ तात्या का एक बड़ा योगदान था। यह अभियान 1857 के संग्राम से काफ़ी पहले से आरम्भ होकर तात्या टोपे की मृत्यु तक निर्बाध चलता रहा।

लाल कमल अभियान 1857
तात्या टोपे के परिवार की वर्तमान पीढी के श्री पराग टोपे ने कुनबे के अन्य सदस्यों व इतिहासकारों के सहयोग से 1857 के संग्राम के कुछ छिपे हुए पन्नों को रोशन करने का प्रयास किया है। उनके अध्ययन और परिवार में चल रही कथाओं के अनुसार 1857 के संग्राम के तयशुदा आरम्भ से कहीं पहले ही तात्या ने ब्रिटिश सेना के भारतीय प्लाटूनों को कमल भेजकर उनकी भागीदारी, संख्या और सैन्यबल सुनिश्चित करना आरम्भ कर दिया था। भागीदारी में सहमति देने वाले सैनिकों द्वारा कमल की पंखुड़ियाँ रखी जाने के बाद खाली डंडियाँ गिनकर सेना का आगत गमनागमन तय किया गया। डंडियों से निकले कमलगट्टों के मखाने के साथ रोटियों को ग्रामप्रधानों में बाँटकर सेना के संचलन के समय उनके सम्भावित मार्ग पर रसद की आपूर्ति सुनिश्चित करने का काम किया गया। रोटियाँ और कमल बँटने की घटनाओं का ज़िक्र कई इतिहास ग्रंथों में मिलता है परंतु उसका विस्तृत स्पष्टीकरण अन्यत्र नहीं दिखता।

अंग्रेज़ों के लिये सबसे आश्चर्य की बात थी तात्या के दस्तों का संचलन। छापामार युद्ध के माहिर तात्या हर जगह मौजूद थे। खासकर वहाँ, जहाँ अंग्रेज़ों की गणना के अनुसार उतने कम समय में पहुँचा ही न जा सकता हो। उस समय में चम्बल या नर्मदा नदी के एक ओर की सेना का पलक झपकते दूसरी ओर पहुँच जाना किसी आश्चर्य से कम न था। एक बार भारी ब्रिटिश गोलीबारी के बीच भी उनके दस्ते नर्मदा पार करके सलामत निकल गये थे। तात्या टोपे और उनके सिपाहियों के बारे में दंतकथाओं का अम्बार है, विशेषकर मध्य भारत में।

टोपे परिवार, परम्परागत वेशभूषा में (ऑपरेशन रेड लोटस से साभार)
तात्या के विरोधी भी तात्या के सैन्य-संचलन के क़ायल थे। कई ब्रिटिश इतिहासकारों का विश्वास है कि यदि सिन्धिया सरीखे कुछ राजा अंग्रेज़ों के पक्ष में न आये होते तो 1857 में भारत से गोरों का सफ़ाया निश्चित था। ऐतिहासिक कथा यह है कि 7 अप्रैल 1859 को अपने शिविर में सोते हुए तात्या को उनके साथी नरवर के राजा मानसिंह के विश्वासघात की सहायता से अंग्रेज़ों ने बन्दी बना लिया गया। 8 अप्रैल को वे शिवपुरी में जनरल मीड के शिविर में एक युद्धबन्दी थे। 1857 के डेढ वर्ष बाद अभी भी यत्र-तत्र संघर्षरत भारतीय सैनिकों का मनोबल तोड़ने के लिये तात्या टोपे को फ़ांसी देना तो तय था, तो भी शिवपुरी में सैनिक अदालत की काग़ज़ी कार्यवाही पूरी की गयी। फ़ांसी देने से पहले बन्दी तात्या से लिखवाये गये बयानों में उनका नाम तात्या टोपे (नाना साहेब के कार्यकर्ता) लिखा गया है। स्वाधीनता संग्राम में अपनी भागीदारी स्वीकार करते हुए उन्होंने लिखा कि वे अपने देश के महाराज नाना साहेब की ओर से अपनी देशरक्षा के लिये लड़े हैं और वे किसी अन्य सत्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं। न ही उन्होंने अपने जीवन में किसी असैनिक को चोट पहुँचाई है। 15 अप्रैल 1859 को उन्हें मृत्युदंड की सज़ा सुनाई गयी और आज ही के दिन ... 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी जेल की चार नम्बर बैरक में फांसी दी गयी थी। कहा जाता है कि उन्हें दो बार फ़ांसी पर लटकाकर अंग्रेज़ों ने अपनी संतुष्टि की थी।

डॉ. राजेश टोपे से एक अविस्मरणीय मुलाकात
इसके बाद बदला लेने के उद्देश्य से अंग्रेज़ सेना के साथ नरवर और ग्वालियर के शासक भी तात्या के परिवारजनों को ढूंढने में लग गये। लम्बे समय तक इस स्वाभिमानी परिवार के सदस्य अपने नाम और वेशभूषा बदलकर अनेक ग़ैर-पारम्परिक पेशों को चुनकर देशभर में भटकते रहे। गर्व की बात यह है कि वर्षों के उत्पीड़न के बावजूद भी स्वस्थ परम्पराओं का सम्मान करने वाला यह परिवार आज सुशिक्षित और समृद्ध हैं। तात्या टोपेज़ ऑपरेशन रेड लोटस के लेखक पराग टोपे अमेरिका में रहते हैं। डॉ राजेश टोपे आयरलैंड में रहे हैं परंतु अधिकांश टोपे परिवारजन भारत में ही रहते हैं।

पराग टोपे के अनुसार तात्या को कभी पकड़ा नहीं जा सका था और वे दरअसल एक छापामार युद्ध में शहीद हुए थे। उनकी शहादत के बाद युद्ध की शैली, सैन्य संचलन आदि में अचानक एक बड़ा अंतर आया। उनकी प्रतीकात्मक फ़ांसी अंग्रेज़ों की एक ज़रूरत थी जिसके बिना स्वतंत्रता संग्राम का पूर्ण पटाक्षेप कठिन था। इस प्रक्रिया के नाट्य रूपांतर में नरवर के राजा ने एक नरबलि देकर अपने गौर प्रभुओं की सहायता की। फ़ांसी लगे व्यक्ति ने अपनी आयु 55 वर्ष बताई थी जबकि उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार उस समय तात्या की आयु 45-46 वर्ष की होनी थी। सत्य जो भी हो, जन्मभूमि की ओर आँख उठाने वालों के छक्के छुड़ा देने वाले तात्या जैसे वीर संसार भर के स्वतंत्रताप्रिय देशभक्तों की नज़र में सदा अमर रहेंगे।

अमर हो स्वतंत्रता!
सम्बन्धित कड़ियाँ
* तात्या टोपे - अधिकारिक वैब साइट
* तात्या टोपे - हिन्दी विकीपीडिया
* तात्या टोपे प्रशंसक पृष्ठ - फ़ेसबुक
* फाँसी नहीं दी गई थी तात्या टोपे को
* प्रेरणादायक जीवन-चरित्र

Tuesday, September 27, 2011

नायकत्व क्या है - सारांश और विमर्श

.
आपके सहयोग से एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, नायकत्व को पहचानने का। पाँच कड़ियाँ हो चुकी हैं, पर बात अभी रहती है। भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4;  भाग 5; ... और अब आगे:


न्यूयॉर्क में नेहरु व कास्त्रो; आज कौन कहाँ हैं? 
अपनी चार और छह वर्षीया बेटियों के साथ न्यूयॉर्क नगर के एक मेट्रो स्टेशन पर खड़ा अधेड़ व्यक्ति जब निकट आती ट्रेन के आगे कुछ फ़ुट भर की दूरी से कूद गया तो लोगों के विस्मय का ठिकाना न रहा। पाँच डब्बे उसके ऊपर से गुज़र जाने के बाद ट्रेन रुकी तो लोगों ने उसकी आवाज़ सुनी, "मेरी बेटियों को बता दीजिये कि हम ठीक हैं।"

बिजली काट दी गयी और रक्षाकर्मी नीचे उतर गये। ट्रेन से चोट खाने में कुछ सेंटीमीटर ही बचे श्री वेज़्ली ऑट्री (Wesley Autrey) को सुरक्षित निकाल लिया गया। ऐंठन और चक्कर आने से बेहोश होकर ट्रेन के नीचे गिरे बीस वर्षीय युवक कैमरॉन हॉलोपीटर (Cameron Hollopeter) की जान भी बच गयी थी क्योंकि समय रहते एक साहसी नायक अपनी नन्ही बेटियों को पीछे छोड़कर अपनी जान पर खेल गया था। हमारे चहुँ ओर बिखरे अनेक नायकों की तरह वेज़्ली के उदाहरण ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया कि नायकों के लिये अवसरों की कोई कमी नही है।

उस रात अपने काम पर जाने से पहले वह 50 वर्षीय मज़दूर अस्पताल में भर्ती कैमरॉन से मिला और पत्रकारों के हुज़ूम के पूछने पर इतना ही बोला, "कोई अनोखी बात नहीं, मैंने केवल अपना कर्तव्यपालन किया है।"

निम्न सारणी में मैंने नायकों के कुछ सर्वमान्य गुण दर्शाने का प्रयास किया है। किसी विशेष क्रम में नहीं हैं। आपके सुझावों व सलाह के अनुसार यथायोग्य सुधार करता रहूँगा। देखिये और अपने विचारों से अवगत कराइये:

गुण  कुछ उदाहरण गुण विस्तार विलोम
साहस प्रत्येक नायक साहस के बिना नायकत्व ... असम्भव स्वार्थ, भय, शिथिलता
व्यक्तिगत स्वतंत्रता दैवी तंत्र में हर देवता स्वतंत्र है जबकि आसुरी/राक्षसी व्यवस्था में शक्ति का एक दमनकारी केन्द्र वैचारिक, आर्थिक, व्यक्तिगत, शैक्षणिक आदि हर प्रकार की स्वतंत्रता का सम्मान, असहमति का आदर तानाशाही, दमन, असहिष्णुता, अनुचित बलप्रयोग; जनजीवन सत्ताधीश के नियंत्रण में 
आंकलन, रणनीति, कार्य-निष्पादन प्रत्येक नायक स्थिति का सही आकलन, उसके अनुसार रणनीति का निर्माण और कार्य निष्पादन हिंसा, बाहुबल, रक्तिम क्रांति, बारूद की पूजा
धैर्य, सहनशक्ति, संयम प्रत्येक नायक जल्दी का काम शैतान का, सहज पके सो मीठा होय जल्दबाज़ी, अधीरता
निस्वार्थ भाव, उदारता, परोपकार, जनसेवा प्रत्येक नायक इदम् न मम्,
सर्वे भवंतु सुखिनः,
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय
निहित स्वार्थ, लोभ, व्यक्तिगत लाभ की आशा
विश्वास, श्रद्धा प्रत्येक नायक काम तो होगा ही, पहली आहुति कौन दे शंका, अस्थिर मन, दुविधा
एकाग्रता प्रत्येक नायक असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥
अधूरा मन, चित्त की चंचलता, मोह, लोभ, अंतर्द्वन्द्व 
वीरता प्रत्येक नायक परशुराम से लेकर मंगल पाण्डे तक भय, स्वार्थ, मोह, कायरता, आतंक
सातत्य प्रत्येक नायक गीता के अनुसार "अभ्यास" कभी हाँ, कभी न, डांवाडोल मन
निश्चय, दृढता, संकल्प, इच्छाशक्ति, नि:शंकभाव भगवान राम, गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, चन्द्रशेखर आज़ाद, भगवतीचरण वोहरा, नेताजी, एब्राहम लिंकन जनहित में जो ठान लिया वह होके रहेगा, लक्ष्यबेधन की सफलता में कोई शंका नहीं किस्म-किस्म के प्रारूप, आधा-अधूरा मन, भय से सत्ता/शक्ति/अधिकारी की बात मानना
शुचिता, पारदर्शिता, सत्य, ईमानदारी राजा हरिश्चन्द्र, विनोबा भावे, अनेक संत न झूठ की ज़रूरत न बेनामी सौदे, न विचारधारा के संकीर्ण बिन्दु, न दुराव, न छिपाव, दोस्ती, दुश्मनी सब स्पष्ट, ग्लासनोस्त  छल, सत्ता हथियाने तक विचारधारा के कलुषित पक्ष छिपाकर रखना। ऐसा एजेंडा जिसे छिपाना पड़े
सृजन, नवीनता विनोबा, गांधी, भीकाजी कामा, राधानाथ सिकदरराम चन्द्र शर्मा, बिन्देश्वर पाठक जयपुर पांव, सुलभ शौचालय, हिमालय त्रिकोणमिति सर्वेक्षण, भूदान और सविनय अवज्ञा जैसे आन्दोलन पुरानी समस्याओं का नूतन हल ढूंढने की लालसा और क्षमता के उदाहरण हैं लकीर के फ़कीर, मानसिक दिवालियापन, कट्टरपंथ
ज़िम्मेदारी का भाव, स्वीकारोक्ति रामप्रसाद बिस्मिल, राणा प्रताप, दलाई लामा अपने काम की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर, मिशन असफल होने पर ईमानदार स्वीकारोक्ति और कारण-निवारण आँकलन क्षमता का अभाव, दोषारोपण परिस्थितियों या अन्य पक्ष को; आंगन टेढा
यज्ञभाव, समन्वयीकरण, लोकतंत्र जॉर्ज वाशिंगटन, लेख वालेसा, गोर्बाचोफ़, अटल बिहारी वाजपेयी, गांधी, अन्ना हज़ारे, नाना साहेब, नेताजी मिलजुलकर विमर्श, लक्ष्य-निर्धारण, और उद्देश्य-प्राप्ति, भेद को मिटाकर साम का सम्मान, मतभेद व विविधता का आदर, व्यक्तिवाद का अभाव तानाशाही, भेद, द्वेष, अलगाववाद, विभाजन, विघटन, फिरकापरस्ती
निष्ठा, समर्पण नेताजी, शहीदत्रयी, तात्या टोपे, भरत, हनुमान, लक्ष्मण, विभीषण, मीरा, अजीमुल्ला खां छोटे उद्देश्यों के मुकाबले विस्तृत उद्देश्यों में निहित होती है, कई बार इसे ग़लती से स्वामिभक्ति समझा जा सकता है। बहसें, बाधायें, हुज्जत, हीन भावना, कुंठा, स्वामिभक्ति, व्यक्तिवाद, व्यक्तिपूजा
ज्ञान, जाँच, खोज, ज्ञानपिपासा, बहुमुखी प्रतिभा एच.एस.आर.ए. के अधिकांश क्रांतिकारी, भगवान राम, भगवान कृष्ण, ल्योंआर्दो दा विंची नायक जीवनभर सीखते-सिखाते हैं,  खुली जानकारी व्यवस्था; सत्ता की नहीं सत्य की खोज  अन्धश्रद्धा, विचारधारा/कल्ट/धर्म/जाति का परचम
शक्ति, बल, क्षमता प्रत्येक नायक सोने का दिल काफ़ी नहीं ... केवल अच्छा ही नहीं, सक्षम भी होना दौर्बल्य, अक्षमता, प्रमाद
क्षमा, वात्सल्य, प्रेम, करुणा बुद्ध, महावीर, प्रभु यीशु, मदर टेरेसा, रामानंद वसुधैव कुटुम्बकम् हिन्सा, क्रूरता, अहंकार, स्वाभिमान
निर्लिप्तता, निरपेक्षता दुर्गा भाभी, खुदीराम बासु गीता के अनुसार "वैराग्य" स्वार्थ, लोभ, अहंकार, पक्षपात
भावनात्मक परिपक्वता भारतीय ग्रंथों के अधिकांश नायक, भारतीय स्वतंत्रता सेनानी जोश नहीं होश से काम करना. भावनाओं से नहीं, विचार-विमर्श-मंत्रणा से कार्य निष्पादन, धीर, गंभीर, छवि से बेफिक्र प्रपंच, जोश में होश खो बैठना, उकसावे में आ जाना, भड़क जाना, आत्मविश्वास में कमी
त्याग, बलिदान मीरा, अरस्तू, यीशु, सीता, गुरु अर्जुन देव, रानी लक्ष्मीबाई, चाफेकर बन्धु आदि तन मन धन न्योछावर करने को तैयार, कर्मण्येवाधिकारस्ते ... स्वार्थ, लाभ-हानि का हिसाब, दूसरों से तुलना
न्यायप्रियता प्रत्येक नायक आदिशंकर और मण्डन मिश्र के शास्त्रार्थ में श्रीमती मिश्र का निर्णायक बनना महापुरुषों की न्यायप्रियता का अनूठा उदाहरण है माइट इज़ राइट; मेरा देश/धर्म/जाति/परिवार/विचार ही श्रेष्ठ; संकीर्णता, क्रूरता, मूर्खता 
मन्यु प्रत्येक नायक दधीचि से लेकर भगत सिंह तक क्रोध, आवेश, असहिष्णुता, अधैर्य, निर्बलता, संकीर्णता, क्रूरता, मूर्खता, अहंकार

हरि अनत हरि कथा अनंता!
ऐसा लगता है मानो नायकों में पवित्रता का अंश कुछ अधिक ही निखरकर आया हो। लिखने का अंत नहीं है परंतु कहीं तो रुकना ही होगा, इसलिये यहाँ इस शृंखला का समापन करता हूँ। भूल-चूक सुधारने के लिये आप पर विश्वास है। ज़रा अपने प्रिय नायक/नायिका का नाम तो बताइये और सम्भव हो तो उसे आदर करने का कारण भी।
[समाप्त]
==========================
सम्बन्धित कड़ियाँ
==========================
प्रेरणादायक जीवन-चरित्र
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 1
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 2
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 3
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 4
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 5
डॉक्टर रैंडी पौष (Randy Pausch)
११ सितम्बर के बहाने ...

Saturday, September 24, 2011

नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 5

.
आपके सहयोग से एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, नायकत्व को पहचानने का। चार कड़ियाँ हो चुकी हैं, पर बात अभी रहती है। भाग 1भाग 2भाग 3; भाग 4;  अब आगे:
लीक-लीक कायर चलैं, लीकहि चलैं कपूत
लीक छोड़ तीनौं चलैं, शायर-सिंह-सपूत॥
नायक विचारवान होते हैं, अभिनव मार्ग बनाते हैं, पुरानी समस्याओं के नूतन हल प्रस्तुत करते हैं। उनकी उपस्थिति से जड़ समाज को जागृति मिलती है। उनकी बहुत सी बातें शीशे की तरह साफ़ दिख जाती हैं परंतु बहुत से गुणों को ठीक प्रकार समझने के लिये हमें स्वयं भी थोड़ा ऊपर उठना पडेगा। याज्ञवल्क्य की वह कथा शायद आप लोगों को याद हो जब आश्रम के लिये धन की आवश्यकता पड़ने पर वे राजा जनक के दरबार में पहुँचते हैं और वहाँ चल रही शास्त्रार्थ प्रतियोगिता के विजेता को मिलने वाले स्वर्ण व गोधन साथ ले चलने का आदेश अपने शिष्यों को देते हैं। विद्वान प्रतियोगी इसे उनका अहंकार जानकर पूछते हैं कि क्या वे अपने को वहाँ उपस्थित सभी प्रतियोगियों से बेहतर समझते हैं, तब वे इसे विनम्रता से नकारते हुए कहते हैं कि उनके आश्रम को गायों की आवश्यकता है। उस प्रतियोगिता में उपस्थित अधिकांश विद्वज्जन इसे उनका अभिमान और हेकड़ी मान कर शास्त्रार्थ के लिये ललकारते हैं और अंततः याज्ञवल्क्य विजयी होकर सारी गायें अपने आश्रम ले जाते हैं।

इस सामान्य सी दिखने वाली कहानी को प्रतियोगी विद्वज्जनों की नज़र से बाहर आकर एक भिन्न दृष्टि से देखें तो दिखता है कि याज्ञवल्क्य को सम्मान पाने या प्रतियोगिता में अपने को सिद्ध करने में कोई रुचि नहीं थी। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ वेन डायर इस प्रवृत्ति को "दूसरों की बनाई छवि से मुक्ति" कहते हैं। याज्ञवल्क्य की रुचि स्वर्ण या गोधन में भी नहीं थी परंतु वह उस समय एक आदर्श उद्देश्य की आवश्यकता थी, ठीक वैसे ही जैसे गंगा को गोमुख से गंगासागर तक लाना भागीरथ के लिये। याज्ञवल्क्य को न केवल अपनी क्षमता का बल्कि सभा के अन्य प्रतियोगियों की योग्यता का भी सही आँकलन था। अपनी विजय का विश्वास ही नहीं बल्कि ज्ञान होते हुए भी उन्होंने बहस में दूसरों को हराने से बचने का प्रयास किया और चुनौती दिए जाने पर भी अपनी योग्यता का ढिंढोरा पीटने के बजाय "आवश्यकता" की विनम्र बात की। इसके विपरीत उनके प्रतिद्वन्द्वी प्रतियोगी उनकी सदाशयता, सदुद्देश्य, विनम्रता, आँकलन क्षमता को न देख सके और उनमें उस स्वार्थ और अहंकार को देखते रहे जो याज्ञवल्क्य में नहीं बल्कि स्वयं उनमें उछालें ले रहा था। देखने वाली नज़र न हो तो सरलता भी अहंकार ही लगती है और इस प्रकार हमारी नज़र धुन्धली हो जाती है।
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारन, साधुन धरा शरीर।। ~ संत कबीरदास
निर्लिप्तता और सर्वस्व त्याग तो नायकों का नैसर्गिक गुण है। मानव शवों की प्रसिद्ध "बॉडीज़" प्रदर्शनी के पिट्सबर्ग आने की बात पर स्थानीय अजायबघर के एक कर्मचारी को जब यह पता लगा कि मृतकों के शव चीन सरकार द्वारा अनैतिक रूप से अधिगृहीत किये गये हैं तो उन्होंने इसका विरोध किया। कानूनी बहस शुरू होने पर यह सिद्ध हुआ कि कि यदि अधिग्रहण के देश (चीन) के कानून का पालन किया गया है तो फिर यह शव अधिग्रहण अमेरिका में भी कानूनी ही माना जायेगा। प्रदर्शनी नहीं रुकी परंतु उस कर्मचारी ने "एक अनैतिक कार्य" का भाग बनने के बजाय नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। दूसरी ओर पशुप्रेम पर भाषण देने वाले एक ब्लॉग परिचित ने किस्सा लिखा जिसमें अपने एक क्लाइंट की निन्दा करते हुए उन्होंने उसके घर में होने वाले पशु-अत्याचार का ज़िक्र किया। मज़े की बात यह है कि वहाँ रहते हुये उन्होंने न तो अपने क्लाइंट से इस बारे में कोई बात की और न ही उनके दिमाग़ में एक बार भी उस कॉंट्रैक्ट को छोड़ने का विचार आया। सत्पुरुष इस प्रकार का दोहरा व्यवहार नहीं करते। वे मन-वचन-कर्म से ईमानदार और पारदर्शी होते हैं और निहित स्वार्थ और प्रलोभनों से विचलित नहीं होते। धन, लाभ, व्यक्तिगत स्वार्थ, और दूसरों की कीमत पर अपना उत्थान उनकी प्रेरणा कभी नहीं हो सकते। बात चाहे पशु-प्रेम की हो, बाल-श्रम की, नागरिक समानता की या नारी-अधिकारों की, नायकों का क्षेत्र सीमित या विस्तृत कैसा भी हो सकता है परंतु उनकी दृष्टि सदा उदात्त ही रहती है, कभी संकीर्ण नहीं होती।

प्रलोभन की तलवार दुधारी होती है। कई बार वह कुविचार की प्रेरणा बनता है और कई बार सत्कर्म में बाधा। लिखना, बोलना, उपदेश देना आसान होगा पर सत्पथ पर चलना "इदम् न मम्" के बिना शायद ही सम्भव हुआ हो।

साहस, धैर्य और सहनशीलता के बिना कैसा नायक? राणा प्रताप घास की रोटी खाकर लड़े, गुरु अर्जुन देव को भूखा प्यासा रखकर खौलते पानी, सुलगते लोहे और जलती रेत में डाला गया, प्रभु यीशु को चोरों और अपराधियों के साथ क्रॉस पर टांगा गया, मीरा को विष दिया गया मगर इनको इनके पथ से डिगाया न जा सका। नायक मानवमात्र की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के जीते-जागते प्रतिमान होते हैं। मानव मन की स्वतंत्रता और सम्मान में उनका दृढ विश्वास रहता है।

ग़रीबनवाज़ भगवान की भक्तवत्सलता से नायकों ने शरणागत-रक्षा का गुण अपनाया है। वे सबको अपनाते हैं। बुद्ध ने अंगुलिमाल को अपनाया। कभी मानव-उंगलियों का हार पहनने वाला दानव अहिंसा का ऐसा पुजारी बना कि पत्थरों से चूर होकर जान दे दी परंतु उफ़ नहीं की। न क्षोभ हुआ न हाथ उठाया। चाणक्य ने शत्रुपक्ष के राक्षस को उसकी योग्यता के अनुरूप सम्मान और ज़िम्मेदारी सौंपी। मुझे तो द्वेष से मुक्ति भी नायकत्व की एक अनिवार्य शर्त लगती है। गीता में इसी गुण को अद्रोह कहा गया है।

सामान्य दुर्गुणों यथा काम, क्रोध, लोभ, लोभ और मोह आदि को तो हम सभी आसानी से पहचान सकते हैं परंतु उनके अलावा भी अनेक दुर्गुण ऐसे हैं जिनको त्यागे बिना नायकत्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। क्रूरता, सत्तारोहण की इच्छा, तानाशाही, अहंकार, दोषारोपण, कुंठा, हीन भावना, आहत होने का स्वभाव, अन्ध-स्वामिभक्ति आदि ऐसे ही दुर्गुण हैं।
[क्रमशः] [अगली कड़ी में सम्पन्न]
==========================
सम्बन्धित कड़ियाँ
==========================
प्रेरणादायक जीवन-चरित्र
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 1
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 2
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 3
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 4
डॉक्टर रैंडी पौष (Randy Pausch)
महानता के मानक (प्रवीण पाण्डेय)
मैं कोई सांख्यिकीय नहीं हूं! (देवदत्त पटनायक)

Sunday, September 18, 2011

नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 4

.
आपके सहयोग से एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, नायकत्व को पहचानने का। तीन कड़ियाँ हो चुकी हैं, पर बात अभी रहती है। भाग 1; भाग 2; भाग 3; अब आगे:

वीरांगना दुर्गा भाभी
नायकों को सुपर ह्यूमन दर्शाना मेरा उद्देश्य नहीं है। वे भी हमारे-आपके बीच से ही आते हैं लेकिन कुछ अंतर के साथ। जैसा कि हमने पहले देखा कि वे अपनी नहीं दूसरों की सोचते हैं। कार्य कितना भी कठिन हो वे अपनी सोच को कार्यरूप करने का साहस रखते हैं और बाधा कैसी भी आयें, सफल कार्य-निष्पादन की क्षमता और कुशलता रखते हैं। और यह सब काम वे सबको साथ लेकर करते हैं। नायक स्पूनफ़ीड नहीं करते बल्कि समाज को सक्षम बनाते हैं। वे विघ्नसंतोषी नहीं बल्कि सृजनकारी होते हैं। वे न्यायप्रिय होते हैं और सत्यनिष्ठा को अन्य निष्ठाओं के ऊपर रखते हैं। इन सबके साथ उनका चरित्र पारदर्शी होता है क्योंकि वे मन-वचन-कर्म से ईमानदार होते हैं। जो होते हैं, वही दिखते हैं, वही कहते हैं, वही करते हैं। उनका उद्देश्य सत्तारोहण नहीं बल्कि जनसेवा होता है। वे समाज पर अपनी विचारधारा और तानाशाही थोपते नहीं। खलनायकों को उनके चमचे भले ही विश्व का सबसे बड़ा विचारक बताते हों, नायकों का सम्मान जनता स्वयं करती है क्योंकि वे जनसामान्य के सपनों को साकार करने की राह बनाते हैं।
सूरा सोहि सराहिये जो लड़े दीन के हेत, पुरजा-पुरजा कट मरे तऊँ न छाँड़े खेत ~संत कबीर

रानी लक्ष्मीबाई (ब्रिटिश लाइब्रेरी)
झांसी की रानी अबला नहीं थीं। आज़ाद हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे। भारत के अधिसंख्य क्रांतिकारियों ने जीवन के तीन दशक भी नहीं छुए। हम सब जीवन भर सीखते हैं, फिर भी सर्वस्व न्योछावर करना नहीं सीख पाते। कुछ लोग तो मानो बात-बात पर आहत होने, शिकायत करने की कसम ही खाकर बैठे होते हैं। नायक घुलने वाली मिट्टी के नहीं बनते। वे अपने साथ दूसरों के जीवन को भी आकार देते हैं।  उम्र के साथ हम सभी के अनुभव बढते हैं, परंतु नायक ज्ञानपिपासु होते हैं। ज्ञान महत्वपूर्ण है इसलिये बहुत कुछ जानते हुए भी नायक जीवन भर सीखते हैं। वे हमसे बेहतर सीखते हैं क्योंकि वे परस्पर विरोधी विचारधाराओं में से भी जनोपयोगी बिन्दु चुन पाते हैं। उनके साहस और उदारता जैसे गुण उनसे असम्भव कार्य निष्पादित करा पाते हैं। साहस को पूर्ण करने के लिये नायकों के पास धैर्य भी बहुतायत में होता है और उन्हें इन गुणों का संतुलन भी आता है। नायकों की आँकलन क्षमता उनकी एक विशेषता है। वे अपनी क्षमता का सही आँकलन कर पाते हैं और साथ ही अपने सामने रखी चुनौतियों का भी। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ नायक के कर्म का फल उसके जीवनकाल में समाज को नहीं मिल पाता है। इससे उनका आँकलन ग़लत सिद्ध नहीं होता। वे जानते हैं कि कार्यसिद्धि में समय लगेगा परंतु यदि वे आरम्भिक आहुति न दें तो शायद वह कार्य असम्भव ही रह जाये। कुल मिलाकर नायक असम्भव को सम्भव बनाने की प्रक्रिया जानते हैं।
अष्टादशपुराणानां सारं व्यासेन कीर्तितम् परोपकार: पुण्याय पापाय परपीड़नम्।।
(परोपकार पुण्य है और परपीड़ा पाप है)

कठिन समय = नायक की पहचान
कठिन समय नायक उत्पन्न तो नहीं करता परंतु कठिन समय में एक नायक की परीक्षा आसानी से हो जाती है। भारत का स्वाधीनता संग्राम हो, विभाजन या देश पर कम्युनिस्ट चीन का अक्रमण, जीवन में कठिन समय आते ही हैं। सभ्य समाज को खलनायक अपना ऐसा निकृष्टतम रूप दिखाते हैं कि आम आदमी बेबसी महसूस करता है। ऐसे समय पर नायकों की पहचान आसानी से हो जाती है। जिनकी तैयारी है, जो सक्षम भी हैं और इच्छुक भी, वे ऐसे समय पर स्वतः ही आगे आ जाते हैं। इसके अतिरिक्त, कई बार ऐसे अवसर भी आते हैं जब नायक अपना समय चुनते हैं। वे धैर्य और संयम के साथ सही समय की प्रतीक्षा करते हैं। वे जोश से नहीं होश से संचालित होते हैं। नायक प्रकाश-दाता भी हैं और पथ-निर्माता भी। नायकों के विभिन्न स्तर हो सकते हैं और नायकों के अपने नायक भी होते हैं। हम चाहें तो उनकी इस व्यक्तिगत रुचि में उनसे असहमत भी हो सकते हैं। रामायण से उदाहरण लें तो हनुमान जी अपने आप में एक नायक भी हैं पर उनके नायक श्रीराम हैं। इसी प्रकार गांधी को नायक न मानने वाला कोई व्यक्ति विनोबा भावे या नेताजी सुभाष को अपना नायक मानता रह सकता है, भले ही वे दोनों ही गांधीजी को जीवनपर्यंत अपना नायक मानते रहे।

विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति: परेषां परिपीडनाय खलस्य साधोर्विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।
(साधु का ज्ञान, धन व शक्ति जनसामान्य के विकास, समृद्धि व रक्षा के लिये होती है)

जगप्रसिद्ध जननायक महात्मा गांधी
जहाँ खलनायकों के बहुत से गुण आनुवंशिक हो सकते हैं वहीं नायकों के गुणों के पीछे अभी तक ऐसी कोई जानकारी नहीं है। तो भी स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन हमें अपनी छोटी-मोटी चिंताओं से ऊपर उठने का अवसर देता है। जो व्यक्ति हर बात को अपने ऊपर आक्षेप समझेगा, जिसकी दुनिया "मैं" से आगे नहीं हो वह एक साधारण मानव भी बन पाये तो ग़नीमत है। नायक जन-गण के हित के बारे में सोचते हैं । पिछली कडी में हमने देखा कि जब नेताजी अपनी बेटी को छोडकर गये तब वह मात्र चार सप्ताह की थी। अनिता ने अपने पिता को नहीं देखा लेकिन उन्होंने अपने को भाग्यशाली बताते हुए अन्य भारतीयों की पीडा को बड़ा बताया। भगत सिंह के परिवार में उनसे पहले कई क्रांतिकारी हो चुके थे। चन्द्रशेखर आज़ाद का परिवार भूखे रहकर भी अपनी ईमानदारी से कोई समझौता करने को तैयार नहीं हुआ। गांधी जी अपनी जमी-जमाई प्रैक्टिस छोडकर आये परंतु आज़ादी के बाद अपनी संतति के लिये भी कोई पद लेने की आवश्यकता नहीं समझी। इन सब उदाहरणों से नायक के विकास में उसके परिवेश की भूमिका दिखाई देती है।
नाक्षरं मंत्ररहितं नमूलंनौषधिम् अयोग्य पुरूषं नास्ति योजकस्तत्रदुर्लभ:।।
(नायक हर व्यक्ति में छिपी सम्भावना देख सकते हैं)

चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊँ
दूसरों का नायकत्व स्वीकार पाना भी सबके बस की बात नहीं है। नायकों में कमी ढूंढना बडा आसान है। वे भी इंसान हैं। वक्र दृष्टि फेंकिये कोई न कोई कमी नज़र आ जायेगी। नायकों को हममें कमी नहीं दिखती, तभी तो वे हमें अंगीकार कर पाते हैं। जहाँ खलनायक अक्सर भेदवादी होते हैं और समाज को बाँटने के लिये नये-नये "वाद" उत्पन्न करते हैं वहीं नायक समन्वय में विश्वास करते हैं। उनके लिये समाज के एक अंग के विकास का अर्थ दूसरे अंग का ह्रास नहीं होता। नायक की क्रांति में नरसंहार नहीं होता है बल्कि उसका उद्देश्य नरसंहार जैसे दानवी कृत्यों को यथासम्भव रोकना होता है। परशुराम ने निरंकुश और निर्दय शासकों की हिंसा को रोका और चन्द्रशेखर आज़ाद और रामप्रसाद बिस्मिल ने ब्रिटिश राज की हिंसा को रोका। गांधी का मार्ग भले ही भगतसिंह से भिन्न रहा हो परंतु अहिंसा के प्रति उनके विचार एकसमान थे। एक आस्तिक के शब्दों में कहूँ तो खलनायक समाज को विभक्त करते हैं जबकि नायक भक्त होते हैं। वे अपने को समाज का अभिन्न अंग मानकर समाज में रहते हुए, उसकी अच्छाइयों का विस्तार करते हुए उसके उत्थान की बात करते हैं। खलनायक असंतोष और विद्वेष भड़काते हैं जबकि नायक दूसरे पक्ष को समझने की दृष्टि प्रदान करते हैं। खलनायक संकीर्ण होते हैं जबकि नायक "सर्वे भवंतु सुखिनः ..." के मार्ग पर चलते हैं।
वीर सावरकर - प्रथम दिवस आवरण

ऐसा लगता है कि नायकों में परोपकार की प्रवृत्ति होती है। लेकिन यह प्रवृत्ति एक सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है। अनुकूल वातावरण उत्पन्न करके हम इसे बढावा दे सकते हैं। इसी प्रकार विभिन्न कौशल सीखकर और बच्चों को सिखाकर हम अपनी और उनकी क्षमतायें और आत्मविश्वास बढा सकते हैं।  मुझे लगता है कि नायकत्व के निम्न गुण सीखे जा सकते हैं और उनकी उन्नति और प्रसार के लिये हमें वातावरण बनाना ही चाहिये: स्वास्थ्य, साहस, करुणा, परोपकार, दान, उदारता, समन्वय, सामाजिक ज़िम्मेदारी, विभिन्न कौशल।

इस विषय पर विमर्श के लिये इतना कुछ है कि कभी पूरा न हो परंतु अपनी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए मैं अगली दो कड़ियों में इस शृंखला के समापन का वायदा करके यहाँ से विदा लेता हूँ। चलते-चलते बस एक प्रश्न: क्या आपने अपने आस-पास बिखरे नायकत्व को पहचाना है?

[क्रमशः]
[सभी चित्र/स्कैन अनुराग शर्मा द्वारा :: Snapshots by Anurag Sharma]

==========================
सम्बन्धित कड़ियाँ
==========================
* प्रेरणादायक जीवन-चरित्र
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 1
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 2
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 3
* डॉक्टर रैंडी पौष (Randy Pausch)
* महानता के मानक

Friday, September 9, 2011

11 सितम्बर के बहाने ...

न्यू यॉर्क अग्निशमन दस्ता

11 सितम्बर के आतंकवादी आक्रमण की दशाब्दी निकट है। इसी दिन 2001 में हम धारणा, धर्म और विचारधारा के नाम पर निर्दोष हत्याओं के एक दानवी कृत्य के गवाह बने थे। इसी दिन खलनायकों ने अपना रंग दिखाकर साढे तीन हज़ार निर्दोष नागरिकों की जान ली थी, वहीं दूसरी ओर नायकों की भी कमी नहीं थी। न्यूयॉर्क प्रशासन, विशेषकर पुलिस व अग्निशमन विभाग ने उस दिन जो अदम्य साहस दिखाया था वह आज भी प्रेरणा देता है। 11 सितम्बर 2001 को जिस प्रकार अमेरिका की जनता ने एकजुट होकर अपनी अदम्य इच्छा-शक्ति का प्रदर्शन किया था वह अनुकरणीय है। साढे तीन हज़ार निर्दोष लोगों की हत्या, लेकिन बदले की कोई कार्यवाही नहीं। न दंगे न हिंसा, न किसी समुदाय के विरुद्ध दुष्प्रचार। लोग चुपचाप सहायता कार्यों में जुट गये। लगभग सभी नगरों में रक्तदाता, चिकित्सक ऐवम स्वयंसेवक आदेश के इंतज़ार के लिये तैयार खडे थे। वह एक घटना संसार में बहुत से बदलाव लाई। आज न ओसामा न सद्दाम है, न तालेबान और न ही पाकिस्तान का सैनिक तानाशाह। भारत और अमेरिका के सम्बन्ध भी अब वैसे हैं जैसे कि विश्व के दो महानतम और स्वतंत्र लोकतन्त्रों के आरम्भ से ही होने चाहिए थे। मानवता पर 9-11 जैसे संकट आते रहे हैं परंतु हमने सदा ही सिर ऊंचा करके कठिन समयों का सामना किया है। 9-11-2001 के शहीदों को मेरा नमन।

खतरे रहेंगे और सामना करने वाले नायक भी
अग्निशमन दस्ते की बात पर याद आया कि अमेरिका में अधिकांश नगरों के अग्निशमन दस्ते कर्मचारियों से नहीं बल्कि समाजसेवकों से संचालित होते हैं। अपने जीवनयापन के लिये कोई नौकरा या व्यवसाय करने वाले स्वयंसेवी आवश्यकता के समय फ़ायरट्रक लेकर चल पड़ते हैं। वास्तव में यहाँ जनसेवा का कार्य काफी व्यवस्थित और संगठित है। लोकोपकार की आर्थिक व्यवस्था तो सुदृढ़ है ही, जनसेवा के अन्य भी अनेक रूप हैं। यथा मरीज़ों की शारीरिक अंगों की आवश्यकता और उसे प्रकार दाताओं की राष्ट्रीय सूचियाँ उपलब्ध रहती हैं। अंगदान को सहमत वयस्कों के ड्राइवर्स लाइसेंस पर यह बात अंकित होती है ताकि दुर्घटना की स्थिति में अंगों को इंतज़ार करते मरीजों तक यथासंभव शीघ्रता से पहुचाया जा सके और अंग प्रत्यारोपण का कार्य आवश्यकतानुसार सुचारु रूप से चलता रहे। यह व्यवस्था दो-चार दिन में तो नहीं बनी होगी। पीढियाँ लगी हैं। आज कुछ कुंठित लोग भले ही अमेरिका को विश्व का दादा कहकर हल्ला मचा लें लेकिन कोई भी यह नकार नहीं सकता कि इस राष्ट्र के पीछे शताब्दियों का चरित्र निर्माण छिपा है। चरित्र निर्माण की यह प्रक्रिया बचपन से ही अमेरिकी जीवन का अंग बन जाता है। जहाँ जीवन में नैतिकता का स्तर ही ऊँचा हो वहाँ सम्भावनायें प्रबल होंगी ही।

लॉक्स ऑफ़ लव - बच्चों द्वारा केशदान
अमेरिका से तुलना करता हूँ तो भारत में बच्चों में समाजकार्य की चेतना की कमी दिखती है। अमेरिका में छोटे-छोटे बच्चे भी अपनी शैक्षिक या धार्मिक संस्थाओं के सहारे सेवाकार्य से जुडे रहते हैं जिनमें अनाथालयों में समय देने से लेकर वृद्धगृहों में एकाकी लोगों से जाकर मिलना और सांस्कृतिक कार्यक्रम करने जैसे कार्य शामिल हैं। वृक्षारोपण, रक्तदान, पक्षियों को दाना देना जैसी बातें तो यहाँ सामान्य जीवन का भाग ही लगती हैं। छोटे बच्चे कुछ और नहीं तो अपने सिर के बाल ही लम्बे करके फिर दान दे देते हैं ताकि उनसे कैंसर पीड़ितों के विग बन सकें। पुरानी पुस्तकों से लेकर नये खिलौनों तक, दान की प्रवृत्ति बचपन से ही प्रोत्साहित की जाती है।

वह दिन याद रहे
यहाँ शारीरिक श्रम का भी बहुत महत्व है। लोग अपने घर के अधिकांश कार्य स्वयं ही करते हैं। मज़दूरों को अच्छी दिहाड़ी भी मिलती है और श्रम को सम्मान भी। हमारे देश में भी त्याग, साहस, करुणा, प्रेरणा और प्रेम की कोई कमी नहीं है। बल्कि भारत की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के कारण यह बहुत आसान है। लेकिन हमें ऐसी व्यवस्था का निर्माण तो करना होगा जहाँ बच्चे आरम्भ से ही समाज के प्रति सकारात्मक दायित्वों से जुड़ सकें।

दूसरी बात जो देखने को मिलती वह है नेतृत्व की दृढ इच्छाशक्ति. हमारा जहाज़ कंधार में खड़ा था। तालेबान के पास कोई वायुसेना नहीं थी। पाकिस्तान के अलावा उसे किसी राष्ट्र की मान्यता भी प्राप्त नहीं थी परन्तु हमने कमांडो कार्यवाही करने के बजाय उन खूंख्वार आतंकवादियों को छोड़ा जिन्होंने बाद में और अधिक नृशंस कार्यवाहियाँ कीं। इसके विपरीत अमेरिका को 9-11 के बाद निर्णय लेने में एक मिनट भी नहीं लगा। हमें भी अपने नेताओं में नेतृत्व क्षमता और दृढनिश्चय की मांग करनी चाहिए।

[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
===================
सम्बन्धित कड़ियाँ
===================
911 स्मारक 

नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 3

.
पिछली दो कड़ियों में हमने देखा कि नायक निर्भय और उदार होते हैं, साहस रखते हैं और त्याग के लिये तत्पर रहते हैं। दोनों प्रविष्टियों पर आयी टिप्पणियों से विचारों की अन्य बहुत सी खिडकियाँ खुलीं। हमने देखा कि नायक होने का दिखावा देर तक नहीं चलता। जीवन में नायक बनने का अवसर आने पर खरा टिकता है और खोटा साफ़ हो जाता है। नायक गढ़े नहीं जा सकते, वे अपने कर्म के बल पर टिकते हैं। मढ़े या गढ़े हुए नायक का पहले अगर गलती से सम्मान हो भी गया हो तो बाद में और अधिक छीछालेदर होती है। विमर्श में नायकों द्वारा दूसरों के सम्मान, शरणागत-वत्सलता और क्षमा का ज़िक्र भी आया और यह भी स्पष्ट हुआ कि नायक अहं को पीछे छोडकर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय कर्म करते हैं। अभिषेक ओझा ने दूरदर्शिता की बात की। गौरव अग्रवाल और सलिल वर्मा ने क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, उद्यम, साहस, धैर्यं, बुद्धि, शक्ति, और पराक्रम की बात की। संजय अनेजा ने वीरता और बर्बरता का अंतर स्पष्ट किया। स्वामिभक्ति पर जहाँ दोनों प्रकार के विचार मिले वहीं शिल्पा जी ने कहा कि "वीरता, साहस, निर्भयता त्याग" किसी नायक में अपेक्षित होते हुए भी अनिवार्य नहीं हैं। मैने इस बात पर काफ़ी विचार किया लेकिन अब तक ऐसा कोई नायक सोच नहीं पाया जिसमें इन गुणों का अभाव रहा हो। क्या आप ऐसे कुछ लोकनायकों का नाम याद दिला सकते हैं?
भाग 1भाग 2अब आगे:
नायक, नायक बन ही नहीं पाए यदि उसमें क्षमाभाव नहीं हो। नायक समूह का नेतृत्व करता है, समूह में सभी प्रकार के दृष्टिकोण होते है। विरोधी संशय, प्रतिघात और परिक्षण भी। क्षमायुक्त समाधान ही उसे नायक पद प्रदान करने में समर्थ है। महानता की आभा का स्रोत क्षमा ही है। ~ हंसराज सुज्ञ
अनिता बोस (आभार: हिन्दुस्तान)
सप्ताहांत में कुछ मित्रों से बात हुई। जिन्होंने अपने-अपने नायक में वचन और कर्म की ईमानदारी देखी। ऐसा लगता है कि नायकों में एक प्रकार की पारदर्शिता पाई जाती है। हमारे एक परिचित संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों को कपोल-कल्पना कहते हैं लेकिन कई बार देखा है कि वे दूसरों की बात काटने के लिये उन्हीं ग्रंथों के सन्दर्भ देते हैं जिन्हें वे झूठा बताते हैं। ऐसे कृत्य में बेईमानी छिपी है। इसी प्रकार यदि ईश्वर और नैतिकता में विश्वास न रखने वाला व्यक्ति अपने लाभ के लिये धर्म के ऊपरी चिह्न तिलक आदि लगा ले किसी धार्मिक ट्रस्ट का नियंत्रक बन जाये तो यह भी एक प्रकार का छल ही हुआ। नायक की कथनी और करनी एक होती है। हो सकता है कि समय के साथ नायक के विचार बदलें, तब उसके वचन और कर्म भी उसी प्रकार बदलते हैं परंतु किसी भी क्षण उसके वचन और कर्म में भेद नहीं होता। मसलन यदि मैं किसी व्यक्ति से मुफ़्त में कुछ न लेने की बात करता हूँ तो मैं अपने नियोक्ता से बिना ब्याज़ मिलने वाला ऋण भी नहीं लूंगा। इसी प्रकार भ्रष्टाचारियों से घिरे रहकर स्वयं को स्वच्छ बताने में ईमानदारी नहीं दिखती।
जब पिता मुझे छोडकर गये तब मैं चार सप्ताह की थी। स्वतंत्रता संग्राम में अनेक लोगों ने त्याग करने के साथ कष्ट भी भोगे हैं, हम तो भाग्यशाली थे। ~ अनिता बोस फ़ैफ़ (नेताजी की पुत्री)
नायक का जीवन दूसरों के उत्थान को समर्पित होता है। उसे दूसरों के विकास की, उनकी आवश्यकताओं की समझ और उन्हें साथ लेने की व्यवहार-कुशलता भी होती है। वानर भालू तो राम के साथ चले ही, नन्ही गिलहरी भी चल पडी, राम के विराट व्यक्तित्व के सामने उसे कोई क्षुद्रत्व महसूस नहीं हुआ। गांधी और अन्ना इस मामले में समान हैं कि उनके साथ वे लोग भी आसानी से जुड सके जो किसी अन्य आन्दोलन में भागीदारी नहीं कर पाते। ऐसे नायक व्यापक जनसमूह को अपने साथ बान्ध पाते हैं, यहाँ तक कि परस्पर विरोधी विचारधारायें भी उनके सामने मिलकर चलती हैं। बादशाह खान और मौलाना आज़ाद को गांधीजी के अहिंसावाद में बौद्ध, जैन, हिन्दू या सिख विचारधारा का प्रक्षेपण नहीं दिखाई दिया।

नायक असम्भव को सम्भव कर दिखाते हैं। वे अति-सक्षम होते हैं। नायक सोने के दिल से संतुष्ट होने वाला जीव नहीं है उसे कुशल हाथ और सुदृढ पाँव भी चाहिये। उनमें ज्ञान के साथ दूरदृष्टि भी होती है। अधिक काम करने के बजाय वे कुशल काम कर दिखाते हैं। शिवाजी की सेना बहुत छोटी थी, न उतने अस्त्र थे न धन। तो उन्होंने छापामार युद्ध किये। तात्या टोपे को भारतीय सैनिकों की रसद की चिंता थी इसलिये उन्होंने उनके कूच के मार्ग में पडने वाले सभी ग्राम-प्रमुखों को आस-पास के ग्रामों की सहायता से रोटी का इंतज़ाम करने की ज़िम्मेदारी पहले ही विचार करके सौंपी। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के छोटे से संगठन ने अंग्रेज़ों की सेना, पुलिस और खुफ़िया संस्थाओं की नाक में दम कर दिया था।

उद्यमेन हि सिध्यंति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मुखे मृगाः॥

सोते शेर के मुख में हिरण नहीं घुसते। इसी प्रकार मनोरथ सिद्धि कर्म से होती है। नायक स्वयं कर्म करते हैं और अपने साथियों और अनुगामियों से असम्भव को सम्भव करा लेते हैं। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जैसे शहीदों के आदर्श गुरु गोविन्द जब कहते हैं, "चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊँ, तब गोविन्द सिंह नाम कहाऊँ" तो वे ऐसा असम्भव कर दिखाने की क्षमता रखते हैं। मानवाधिकार विहीन समाज और अपनी बर्बरता के लिये मशहूर तुर्क, अफ़ग़ान बाज़ों को मासूम चिड़ियों से तुड़ाकर, सतलज से काबुल तक निशान साहिब फ़हरा देना क्या किसी आम आदमी के लिये सम्भव होता?

नेताजी और राजनेता (आभार: पीटीआइ)
नायक जन-गण के बीच आशा और उल्लास का संचार करते हैं। वे उन्हें मृत्यु से छुड़ाकर अमृत्व की ओर ले जाते हैं। रोज़ घुट-घुटकर मरने, अपनी अंतरात्मा के विरुद्ध काम करने से बचाकर सत्यनिष्ठा के उस मार्ग पर लाते हैं जहाँ व्यक्ति अपना सर्वस्व त्यागकर भी अपने को भाग्यशाली समझता है। नायकों की विशेषता यह है कि वे जिसका जीवन छू लेते हैं वही बदल जाता है। राम अपने साथ हनुमान को भी भगवान बना देते हैं। नेताजी गांधीजी से अनेक मतभेद होते हुए भी उन्हें राष्ट्रपिता की उपाधि दे देते हैं। फूलमाला पहनकर बैंड बजवाकर जेल जाने वाले कॉंग्रेसियों पर हँसने वाले चन्द्रशेखर आज़ाद मोतीलाल नेहरू की शवयात्रा में शरीक़ होते हैं और अहिंसावादी गान्धी के अनुयायी चन्द्रशेखर आज़ाद की शवयात्रा में इलाहाबाद की गलियों में तिल भर की जगह नहीं छोडते हैं। दूसरे शब्दों में, नायक व्यक्तिगत मतभेदों को ताख पर रखकर व्यापक उद्देश्यों के लिये काम करते हैं और अपने साथियों का भी निरंतर विकास करते रहते हैं। यदि कोई निरंतर अपना या अपने सीमित गुट का विकास कर रहा हो तो वह तानाशाह हो सकता है मगर नायक हरगिज़ नहीं। ऐसे व्यक्ति सत्ता भले ही हथिया लें सम्मान के अधिकारी नहीं होते, उनका बारूद खत्म होते ही उनका तख्ता और उनकी मूर्तियाँ उखाड़ दी जाती हैं। इसके उलट, नायकों का यश न केवल स्थायी होता है, वह लोगों के हृदय से आता है। उनमें किसी प्रकार का दवाब नहीं होता। माओवादी और जिहादी रोज़ गले काट रहे हैं तो भी उन्हें जन-समर्थन नहीं मिलता जबकि नेताजी की आवाज़ पर 50,000 से अधिक लोग अंग्रेज़ी सेना का मुकाबला करने आज़ाद हिन्द सेना में शामिल हो गये थे। ऐसे जननायकों के तत्कालीन विरोधी भी एक दिन अपनी भूल का प्रायश्चित कर उन्हें फूल-माला चढाते हैं।
कम्युनिस्टों द्वारा नेताजी के ग़लत आंकलन के लिये मैं क्षमा मांगता हूँ ~ बुद्धदेव भट्टाचार्य (कोलकाता, 23 जनवरी 2003)
यह तो स्पष्ट है कि नायक अकेले नहीं पडते। उनके साथ जनता होती है। उनके साथ अन्य नायक भी होते हैं। नायकों के साथ आने पर जनता का विकास तो होता ही है, नायक स्वयं भी एक दूसरे के आलोक से आलोकित होते हैं। नायकों की छत्रछाया में दूसरी पंक्ति सदा तैयार रहती है, "बिस्मिल" गये तो "आज़ाद" आ गये। नायक प्रतियोगिता नहीं करते, वे संरक्षक होते हैं। वे रत्नाकर को महर्षि वाल्मीकि और विभीषण को लंकेश बनाते हैं। उनका भी कोई प्रेरणा पुंज होता है और वे भी चाणक्य की तरह नये चन्द्रगुप्त मौर्य विकसित करते हैं।

विजेतव्या लंका चरणतरणीयो जलनिधिः
विपक्षः पौलस्त्य रणभुवि सहायाश्च कपयः ।
तथाप्येको रामः सकलमवधीद्राक्षसकुलम
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महता नोपकरणे॥

सवा लाख से एक लड़ाने की बात हो या वानरों से राक्षस तुड़ाने की, नायकों की कार्यसिद्धि में अस्त्र-शस्त्र से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका उनके मनोबल की होती है। संकल्प और दृढ इच्छाशक्ति के बिना नायक बन पाना असम्भव सा ही है। गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल आज तक याद किये जाते हैं क्योंकि भारत के एकीकरण में उनकी इच्छाशक्ति का बडा योगदान रहा। अशिक्षा, ग़रीबी, आतंकवाद, भेद-भाव, सूखा, बाढ, कश्मीर आदि के मुद्दे आज तक हमें सता रहे हैं क्योंकि नेतृत्व में इच्छाशक्ति न होने पर सब संसाधन बेकार हैं। जब एक नगर के लिये पूरे राज्य सरीखा मंत्रिमण्डल हो और वह सदन भी सुरक्षा व्यवस्था सुधारने के बजाय अपने वेतन भत्ते बढ़ाने में ज़्यादा रुचि रखता हो तब अदालत परिसर में बम फ़टने से दुख कितना भी हो आश्चर्य नहीं होता है। राष्ट्र को शासक मंत्रिमण्डलों की नहीं नायकों की आवश्यकता है, क्षमता, साहस, उदारता, ईमानदारी और इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। यह कमी कैसे पूरी हो?

अब तक हमने नायकों के निम्न गुणों पर दृष्टि डाली है: निर्भयता, उदारता, साहस, त्याग, निस्स्वार्थ भाव, निर्लिप्तता, सत्यनिष्ठा, मानवता, क्षमा/करुणा, उदात्तमन, ईमानदारी, व्यवहार-कुशलता, जनता का साथ। असम्भव को सम्भव करने की क्षमता, परस्पर विकास, संरक्षण/मेंटॉर, बिना दवाब के जनसमर्थन, उद्देश्य की व्यापकता, दृढ इच्छाशक्ति/मनोबल। आपकी टिप्पणियों में वर्णित कई गुण अभी भी छूट गये हैं। उन पर भी बात होगी। मुझे लगता है कि ज्ञान/समझ/अनुभव भी नायकों का गुण होना चाहिये। आपको क्या लगता है? क्या एक सफल नायक के लिये शक्ति भी आवश्यक है?
[क्रमशः]

Saturday, September 3, 2011

नायक किस मिट्टी से बनते हैं - भाग 2

.
अन्ना बनना है तो शब्द और कृति को एक करो ... शुद्ध आचार, निष्कलंक जीवन, त्याग करना सीखो, कोई कुछ कहे तो अपमान सहना सीखो ~अन्ना हज़ारे (27 अगस्त 2011, रामलीला मैदान)

पिछली प्रविष्टि और आपकी टिप्पणियों में हमने नायकत्व की नीँव के कुछ रत्नों का अवलोकन किया। देवेन्द्र जी ने स्पष्ट किया कि सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी यदि व्यक्ति मैं और मेरे में ही सिमटा हुआ है तो उसके नायक हो पाने की सम्भावना नहीं है। शिल्पा जी ने भी यही बात एक उदाहरण के साथ प्रस्तुत की और अली जी ने भी कल्याण या फिर लोक कल्याण कहकर इसी बिन्दु को उभारा। "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" की भावना के बिना बड़ा बनना वाकई कठिन है।

साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग पर कुछ बात हुई। निस्वार्थ प्रवृत्ति, दूसरों के सम्मान की रक्षा, कर्मयोग आदि जैसे सद्गुणों का ज़िक्र आया। आगे बढने से पहले आइये उदारता, त्याग और निस्वार्थ भावना के अंतर पर एक नज़र डालते हैं।

निस्वार्थ होने का अर्थ है स्वार्थरहित होकर काम करना। अच्छी भावना है। हम सब ही सत्कार्य के लिये अपना समय, श्रम ज्ञान और धन देना चाहते हैं। कोई नियमित रक्तदान करता है और किसी ने नेत्रदान या अंगदान का प्रण लिया है। विनोबा ने एक इंच भूमि का स्वामित्व रखे बिना ही विश्व के महानतम भूदान यज्ञ का कार्य सम्पन्न कराया। भारत में लोग गर्मियों में प्याऊ लगाते हैं और पिट्सबर्ग में मेरे पडोसी पक्षियों के लिये विशेषरूप से बने बर्डफ़ीडर में खरीदकर दाना रखते हैं। हृदय में उदारता हो तो निस्वार्थ भाव से कर्म करना नैसर्गिक हो जाता है। उदारता और त्याग का सम्बन्ध भी गहन है। दिल बड़ा हो तो त्याग आसान हो जाता है। याद रहे कि सत्कार्य के लिये भी चन्दा मांगना उदारता नहीं हैं, आगे बढकर दान देना अवश्य उदारता हुई। चन्दा इकट्ठा करना, चन्दा देना या उसका सदुपयोग करना, यह सभी निस्वार्थ हो सकते हैं। त्याग अनेक प्रकार के हो सकते हैं। स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने सुखी भविष्य के साथ अपने तन, मन, धन सबका त्याग राष्ट्रहित में कर दिया। विनोबा जेल में थे तब भी उस समय का सदुपयोग उन्होंने अपराधी कैदियों के लिये गीता के नियमित प्रवचन करने में किया।

माता-पिता अक्सर अपनी संतति के लिये छोटे-बडे त्याग करते हैं। लोग अपने सहकर्मियों, पडोसियों, अधिकारियों के लिये भी छोटे-मोटे त्याग कर देते हैं लेकिन उसमें अक्सर स्वार्थ छिपा होता है। मंत्री जी ने चुनाव से ठीक पहले सारे प्रदेश के इंजीनियर बुलाकर अपने शहर में बडे निर्माणकार्य कराये। सरकारी पैसा, सरकारी कर्मचारी, सरकारी समय का दुरुपयोग हुआ और अन्य नगरों के साथ अन्याय भी हुआ। लेकिन यदि मंत्री जी कहें कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत समय का त्याग तो किया तो उसके पीछे चुनाव जीतने का स्वार्थ था। कुछ लोग सदा प्रबन्धन की कमियाँ गिनाते रहते हैं, उन्हें हर शिक्षित, धनी या सम्पन्न व्यक्ति शोषक लगता है। वे हर समिति की निगरानी चाहते हैं। वे कहते हैं कि उनका उद्देश्य जनता को जागरूक करना है। लेकिन यदि ये लोग जनता के असंतोष को भड़काकर अपनी कुंठा निकालते हों या हिंसा फ़ैलाकर अपनी स्वार्थसिद्धि करें तो उसमें स्वार्थ भी है और उदारता व त्याग का अभाव भी। ऐसे खलनायकों के मुखौटे लम्बे समय तक टिकते नहीं। क्योंकि निस्वार्थ कर्म के बिना सच्चा नायक बना ही नहीं जा सकता।

आचार्य विनोबा भावे
(11 सितम्बर, 1895 - 15 नवंबर, 1982)
भारत में जातिगत, धर्मगत दंगे तो होते ही हैं, कई बार हिंसा के पीछे क्षेत्र, भाषा और आर्थिक कारण भी होते हैं। हिन्दुओं को मुस्लिम बस्ती से गुज़रते हुए भय लगता है। कानपुर के दंगों में जब हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे से डरकर भाग रहे थे, गणेश शंकर विद्यार्थी दंगे की आग में कूदकर निर्दोष नागरिकों की जान बचा रहे थे। 25 मार्च 1931 को धर्मान्ध दंगाइयों ने उनकी जान ले ली परंतु उनकी उदार भावना को न मिटा सके। जब आम लोग डरकर छिप रहे थे तब विद्यार्थी जी अपना आत्म-त्याग करने सामने आये क्योंकि उनके पास नायकों का एक अन्य स्वाभाविक गुण निर्भयता भी था। उदारता का पौधा निर्भयता की खाद पर पलता है। माओवाद से सताये जा रहे इलाकों में रात में ट्रेनें तक नहीं निकलतीं। वर्तमान नेता अपने लाव-लश्कर के साथ भी ऐसे स्थानों की यात्रा की कल्पना नहीं कर सकते। 18 अप्रैल 1951 को नलगोंडा (आन्ध्रप्रदेश) में भूदान आन्दोलन की नींव रखने से पहले और बाद में विनोबा ने निर्भयता से न केवल कम्युनिस्ट आतंकवाद से प्रभावित क्षेत्रों की पदयात्रायें कीं और जनता से मिले बल्कि ज़मीन्दारों को भी अपनी पैतृक भूमि को भूमिहीनों को बांटने के लिये मनाया। विनोबा को न भूपतियों के आगे हाथ फैलाने में झिझक थी और न ही आतंकियों की बन्दूकों का डर। अपनी जान की सलामती रहने तक कोई भी जन-नायक होने का भ्रम उत्पन्न कर सकता है, लेकिन भय और नायकत्व का 36 का आंकड़ा है।

बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ब्रिटिश सरकार की निर्दयता को अच्छी प्रकार पहचानते हुए भी आत्मसमर्पण करते हैं। शांतिकाल में भर्ती हुआ कोई सैनिक युद्धकाल में शांति की चाह कर सकता है परंतु उन लाखों भारतीयों के बारे में सोचिये जो द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की प्रत्यक्ष भागीदारी या ज़िम्मेदारी न होने पर भी भारत की आज़ादी की शर्त पर जान हथेली पर रखकर एशिया और यूरोप के मोर्चों पर निकल पडे। उनमें से न जाने कितने कभी वापस नहीं आये। वे सभी वीर हमारे नायक हैं।

दो महानायक: नेताजी और बादशाह खान
कभी परम्परा की आड में, कभी धर्म के बहाने से, कभी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर और कभी राजनीतिक सम्बन्ध की ओट में कापुरुष अपने खलनायकत्व का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर पकडे गये बहुत से जर्मन युद्धापराधियों ने अपने क्रूरकर्म को स्वामिभक्ति कहकर सही ठहराने का प्रयास किया था। स्वामिभक्ति का यह बहाना भी कायरता का एक नमूना है। क्या स्वामिभक्ति सत्यनिष्ठा के आडे आ सकती है या यह भय और कायरता को छिपाने का बहाना मात्र है?

मदर टेरेसा
26 अगस्त 1910 - 5 सितम्बर 1997
दो विश्व युद्धों में 1070 जीवन न्योछावर करने वाली गढवाल रेजिमेंट के पेशावर में तैनात सत्यनिष्ठ सिपाहियों ने अप्रैल 1930 में खान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ की गिरफ़्तारी का विरोध कर रहे निहत्थे पठान सत्याग्रहियों पर गोली चलाने के आदेश को मानने से इनकार कर दिया था। इस काण्ड में चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में 67 भारतीय सिपाहियों का कोर्टमार्शल हुआ था जिनमें से कई को आजीवन कारावास की सज़ा हुई थी। और इससे पहले 1857 की क्रांति में भी वीर भारतीय सैनिकों ने सत्यनिष्ठा को स्वामिभक्ति से कहीं ऊपर रखा।

क्या आप सहमत हैं कि साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग वीरों के अनिवार्य गुण हैं? क्या वीर नायक सदैव ही सत्यनिष्ठा को अन्ध स्वामिभक्ति से ऊपर रखते हैं? एक नायक में और क्या ढूंढते हैं आप? परोपकार, समभाव, करुणा, प्रेम, दृढता, ज्ञान?  एक अन्य भारतीय कथन है, "क्षमा वीरस्य भूषणं", क्या आपको लगता है कि क्षमा भी नायकों का गुण हो सकता है?

[क्रमशः]

Saturday, August 27, 2011

नायक किस मिट्टी से बनते हैं?

कुछ लोगों की महानता छप जाती है, कुछ की छिप जाती है।

28 अगस्त 1963 को मार्टिन लूथर किंग
(जू) ने प्रसिद्ध "मेरा स्वप्न" भाषण दिया था

उडीसा का चक्रवात हो, लातूर का भूकम्प, या हिन्द महासागर की त्सुनामी, लोगों का हृदय व्यथित होता है और वे सहायता करना चाहते हैं। बाढ़ में किसी को बहता देखकर हर कोई चाहता है कि उस व्यक्ति की जान बचे। कुछ लोग तैरना न जानने के कारण खड़े रह जाते हैं और कुछ तैरना जानते हुए भी। कुछ तैरना जानते हैं और पानी में कूद जाते हैं, कुछ तैरना न जानते हुए भी कूद पड़ते हैं।

भारत का इतिहास नायकत्व के उदाहरणों से भरा हुआ है। राम और कृष्ण से लेकर चाफ़ेकर बन्धु और खुदीराम बसु तक नायकों की कोई कमी नहीं है। भयंकर ताप से 60,000 लोगों के जल चुकने के बाद बंगाल का एक व्यक्ति जलधारा लाने के काम पर चलता है। पूरा जीवन चुक जाता है परंतु उसकी महत्वाकान्क्षी परियोजना पूरी नहीं हो पाती है। उसके पुत्र का जीवनकाल भी बीत जाता है। लेकिन उसका पौत्र भागीरथ हिमालय से गंगा के अवतरण का कार्य पूरा करता है। एक साधारण तपस्वी युवा सहस्रबाहु जैसे शक्तिशाली राजा के दमन के विरुद्ध खड़ा होता है और न केवल आततायियों का सफ़ाया करता है बल्कि भारत भर में आततायी शासनों की समाप्ति कर स्वतंत्र ग्रामीण सभ्यता को जन्म देता है, कुल्हाड़ी से जंगल काटकर नई बस्तियाँ बसाता है, समरकलाओं को विकसित करके सामान्यजन को शक्तिशाली बनाता है और ब्रह्मपुत्र जैसे महानद का मार्ग बदल देता है।

भारत के बाहर आकर देखें तो आज भी श्रेष्ठ नायकत्व के अनेक उदाहरण मिल जाते हैं। दक्षिण अफ़्रीका की बर्बर रंगभेद नीति खत्म होने की कोई आशा न होते हुए भी बिशप डेसमंड टुटु उसके विरोध में काम करते रहे और अंततः भेदभाव खत्म हुआ। अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने भी भेदभावरहित विश्व का एक ऐसा ही स्वप्न देखा था। पोलैंड के दमनकारी कम्युनिस्ट शासन द्वारा किये जा रहे गरीब मज़दूरों के शोषण के विरुद्ध एक जननेता लेख वालेसा आवाज़ देता है और कुछ ही समय में जनता आतताइयों का पटरा खींच लेती है। चेन रियेक्शन ऐसी चलती है कि सारे यूरोप से कम्युनिज़्म का सूपड़ा साफ़ हो जाता है।

महाराणा प्रताप हों या वीर शिवाजी, एक नायक एक बड़े साम्राज्य को नाकों चने चबवा देता है, एक अकेला चना कई भाड़ फोड़ देता है। एक तात्या टोपे, एक मंगल पाण्डेय, एक लक्ष्मीबाई, ईस्ट इंडिया कम्पनी का कभी अस्त न होने वाला सूरज सदा के लिये डुबा देते हैं।

हमारे नये आन्दोलन की प्रेरणा गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, वाशिंगटन, लाफ़ायत, गैरीबाल्डी, रज़ा खाँ और लेनिन हैं।
~ भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त
कुछ लोग सत्कर्म न कर पाने का दोष धन के अभाव को देते हैं जबकि कुछ लोग धन के अभाव में (या धन-दान के साथ-साथ) नियमित रक्तदान करते हैं। कुछ लोग बिल गेट्स द्वारा विश्व भर में किये जा रहे जनसेवा कार्यों से प्रेरणा लेते हैं और कुछ लोग उसे पूंजीवाद की गाली देकर अपनी अकर्मण्यता छिपा लेते हैं। स्वतंत्रता सेनानियों को ही देखें तो दुर्गा भाभी, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद सरीखे लोगों को शायद हर कोई नायक ही कहे लेकिन कुछ नेता ऐसे भी हैं जिनका नाम सुनते ही लोग तुरंत ही दो भागों में बँट जाते हैं।

सहस्रबाहु, हिरण्यकशिपु, हिटलर, माओ, लेनिन, स्टालिन, सद्दाम हुसैन, मुअम्मर ग़द्दाफ़ी जैसे लोगों को भी कुछ लोगों ने कभी नायक बताया था। वे शक्तिशाली थे, उन्होंने बडे नरसंहार किये थे और जगह-जगह पर अपनी मूर्तियाँ लगाई थीं। शहरों के नाम बदलकर उनके नाम पर किये गये थे। लेकिन अंत में हुआ क्या? बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले। उनके पाप का घड़ा भरते ही इनकी मूर्तियाँ खंडित करने में महाबली जनता ने क्षण भर भी न लगाया।
नायकत्व की बात आते ही बहुत से प्रश्न सामने आते हैं। नायकत्व क्या है? क्या एक का नायक दूसरे का खलनायक हो सकता है? और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न, नायक कैसे बनते हैं? और खलनायक कैसे बनते हैं?
खलनायक बनने के बहुत से कारण होते हैं। अहंकार, असहिष्णुता, स्वार्थ, कुंठा, विवेकहीनता, स्वामिभक्ति, ग़लत विचारधारा, अव्यवस्था, कुसंगति, संस्कारहीनता, ... सूची बहुत लम्बी हो जायेगी। आपको भी खलनायकों के कुछ अन्य दुर्गुण याद आयें तो अवश्य बताइये।

बहुत सी बातें ऐसी भी हैं जो खलनायकत्व का कारण तो नहीं हैं पर इस दुर्गुण को हवा अवश्य दे सकती हैं। इनमें से एक है अनोनिमिटी। डाकू अपना चेहरा ढंककर निर्भय महसूस करते हैं और आभासी जगत में कई लोग बेनामी होने की सुविधा का दुरुपयोग करते हैं। कुछ अपना सीमित परिचय देते हुए भी अपनी राजनीतिक विचारधारा को कुटिलता से छिपाकर रखते हैं ताकि उनकी विचारधारा के प्रचार और विज्ञापनों को भी लोग निर्मल समाचार समझकर पढते रहें।

निरंकुश शक्ति भी खलनायकों की दानवता को कई गुणा बढ़ा देती है। सभ्यता के विकास के साथ ही समाज में सत्ता की निरंकुशता के दमन की व्यवस्था करने के प्रयास होते रहे हैं। राजाओं पर अंकुश रखने के लिये मंत्रिमण्डल बनाना हो या श्रम, ज्ञान और पूंजी पर से सत्ता का नियंत्रण हटाना हो, आश्रम व्यवस्था द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक ज़िम्मेदारियों से जोड़ना हो या उससे भी आगे बढ़कर राजाविहीन गणराज्यों की प्रणाली बनानी हो, भारतीय परम्परा द्वारा सुझाये और सफलतापूर्वक अपनाये गये ऐसे कई उपाय हैं जिनसे तानाशाही के बीज को अंकुरित होने से पहले ही गला दिया जाता था। आसुरी व्यवस्था में जहाँ शासक सर्वशक्तिमान होता था वहीं सुर/दैवी व्यवस्था में मुख्य शासक की भूमिका केवल एक प्रबन्धक की रह गयी। सभी विभाग स्वतंत्र, सभी जन स्वतंत्र। सबके व्यक्तित्व, गुण और विविधता का पूर्ण सम्मान और निर्बन्ध विकास। असतो मा सद्गमय की बात करते समय सबकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात याद रखना बहुत ज़रूरी है। तानाशाही की बात करने वाली विचारधारा में अक्सर व्यक्तिगत विकास, व्यक्तिगत सम्मान, व्यक्तिगत सम्पत्ति, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सम्बन्ध, और विचारों के दमन की ही बात होती है। मरने के लिये मज़दूर, किसान और नेतागिरी के लिये कलाकार, लेखक, वकील, पत्रकार और बन्दूकची? सत्ता हथियाने के बाद उन्हीं का दमन जिनके विकास के नाम पर सत्ता हथियायी गयी हो? यह सब चिह्न खलनायकत्व की, दानवी और तानाशाही व्यवस्थाओं की पहचान आसान कर देते हैं। आसुरी व्यवस्था की पहचान अपने पराये के भेद और परायों के प्रति घृणा, असहिष्णुता और अमानवीय दमन से भी होती है।

जहाँ खलनायकत्व और तानाशाही को पहचानना आसान है वहीं नायकत्व को परिभाषित करना थोडा कठिन है। दो गुण तो मुझे अभी याद आ रहे हैं। पहला तो है निर्भयता। निर्भय हुए बिना शायद ही कोई नायक बना हो। परशुराम से लेकर बुद्ध तक, चाणक्य से लेकर मिखाइल गोर्वचोफ़ तक, पन्ना धाय से रानी लक्ष्मीबाई तक, जॉर्ज वाशिंगटन से एब्राहम लिंकन तक, बुद्ध से गांधी तक सभी नायक निर्भय रहे हैं। क्या आपको कोई ऐसा नायक याद है जो भयभीत रहता हो?

मेरी नज़र में नायकत्व का दूसरा महत्वपूर्ण और अनिवार्य गुण है, उदारता। उदार हुए बिना कौन जननायक बन सकता है। हिटलर, माओ या स्टालिन जैसे हत्यारे अल्पकाल के लिये कुछ लोगों द्वारा भले ही नायक मान लिये गये हों, आज दुनिया उनके नाम पर थू-थू ही करती है। निर्भयता और उदारता के साथ साहस और त्याग स्वतः ही जुड जाते हैं।

मिलजुलकर नायकत्व के अनिवार्य और अपक्षित गुणों को पहचानने का प्रयास करते हैं अगली कड़ी में। क्या आप इस काम में मेरी सहायता करेंगे?

[क्रमशः]

[मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) का चित्र नोबल पुरस्कार समिति के वेबपृष्ठ से साभार]