Saturday, September 24, 2011

नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 5

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आपके सहयोग से एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, नायकत्व को पहचानने का। चार कड़ियाँ हो चुकी हैं, पर बात अभी रहती है। भाग 1भाग 2भाग 3; भाग 4;  अब आगे:
लीक-लीक कायर चलैं, लीकहि चलैं कपूत
लीक छोड़ तीनौं चलैं, शायर-सिंह-सपूत॥
नायक विचारवान होते हैं, अभिनव मार्ग बनाते हैं, पुरानी समस्याओं के नूतन हल प्रस्तुत करते हैं। उनकी उपस्थिति से जड़ समाज को जागृति मिलती है। उनकी बहुत सी बातें शीशे की तरह साफ़ दिख जाती हैं परंतु बहुत से गुणों को ठीक प्रकार समझने के लिये हमें स्वयं भी थोड़ा ऊपर उठना पडेगा। याज्ञवल्क्य की वह कथा शायद आप लोगों को याद हो जब आश्रम के लिये धन की आवश्यकता पड़ने पर वे राजा जनक के दरबार में पहुँचते हैं और वहाँ चल रही शास्त्रार्थ प्रतियोगिता के विजेता को मिलने वाले स्वर्ण व गोधन साथ ले चलने का आदेश अपने शिष्यों को देते हैं। विद्वान प्रतियोगी इसे उनका अहंकार जानकर पूछते हैं कि क्या वे अपने को वहाँ उपस्थित सभी प्रतियोगियों से बेहतर समझते हैं, तब वे इसे विनम्रता से नकारते हुए कहते हैं कि उनके आश्रम को गायों की आवश्यकता है। उस प्रतियोगिता में उपस्थित अधिकांश विद्वज्जन इसे उनका अभिमान और हेकड़ी मान कर शास्त्रार्थ के लिये ललकारते हैं और अंततः याज्ञवल्क्य विजयी होकर सारी गायें अपने आश्रम ले जाते हैं।

इस सामान्य सी दिखने वाली कहानी को प्रतियोगी विद्वज्जनों की नज़र से बाहर आकर एक भिन्न दृष्टि से देखें तो दिखता है कि याज्ञवल्क्य को सम्मान पाने या प्रतियोगिता में अपने को सिद्ध करने में कोई रुचि नहीं थी। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ वेन डायर इस प्रवृत्ति को "दूसरों की बनाई छवि से मुक्ति" कहते हैं। याज्ञवल्क्य की रुचि स्वर्ण या गोधन में भी नहीं थी परंतु वह उस समय एक आदर्श उद्देश्य की आवश्यकता थी, ठीक वैसे ही जैसे गंगा को गोमुख से गंगासागर तक लाना भागीरथ के लिये। याज्ञवल्क्य को न केवल अपनी क्षमता का बल्कि सभा के अन्य प्रतियोगियों की योग्यता का भी सही आँकलन था। अपनी विजय का विश्वास ही नहीं बल्कि ज्ञान होते हुए भी उन्होंने बहस में दूसरों को हराने से बचने का प्रयास किया और चुनौती दिए जाने पर भी अपनी योग्यता का ढिंढोरा पीटने के बजाय "आवश्यकता" की विनम्र बात की। इसके विपरीत उनके प्रतिद्वन्द्वी प्रतियोगी उनकी सदाशयता, सदुद्देश्य, विनम्रता, आँकलन क्षमता को न देख सके और उनमें उस स्वार्थ और अहंकार को देखते रहे जो याज्ञवल्क्य में नहीं बल्कि स्वयं उनमें उछालें ले रहा था। देखने वाली नज़र न हो तो सरलता भी अहंकार ही लगती है और इस प्रकार हमारी नज़र धुन्धली हो जाती है।
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारन, साधुन धरा शरीर।। ~ संत कबीरदास
निर्लिप्तता और सर्वस्व त्याग तो नायकों का नैसर्गिक गुण है। मानव शवों की प्रसिद्ध "बॉडीज़" प्रदर्शनी के पिट्सबर्ग आने की बात पर स्थानीय अजायबघर के एक कर्मचारी को जब यह पता लगा कि मृतकों के शव चीन सरकार द्वारा अनैतिक रूप से अधिगृहीत किये गये हैं तो उन्होंने इसका विरोध किया। कानूनी बहस शुरू होने पर यह सिद्ध हुआ कि कि यदि अधिग्रहण के देश (चीन) के कानून का पालन किया गया है तो फिर यह शव अधिग्रहण अमेरिका में भी कानूनी ही माना जायेगा। प्रदर्शनी नहीं रुकी परंतु उस कर्मचारी ने "एक अनैतिक कार्य" का भाग बनने के बजाय नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। दूसरी ओर पशुप्रेम पर भाषण देने वाले एक ब्लॉग परिचित ने किस्सा लिखा जिसमें अपने एक क्लाइंट की निन्दा करते हुए उन्होंने उसके घर में होने वाले पशु-अत्याचार का ज़िक्र किया। मज़े की बात यह है कि वहाँ रहते हुये उन्होंने न तो अपने क्लाइंट से इस बारे में कोई बात की और न ही उनके दिमाग़ में एक बार भी उस कॉंट्रैक्ट को छोड़ने का विचार आया। सत्पुरुष इस प्रकार का दोहरा व्यवहार नहीं करते। वे मन-वचन-कर्म से ईमानदार और पारदर्शी होते हैं और निहित स्वार्थ और प्रलोभनों से विचलित नहीं होते। धन, लाभ, व्यक्तिगत स्वार्थ, और दूसरों की कीमत पर अपना उत्थान उनकी प्रेरणा कभी नहीं हो सकते। बात चाहे पशु-प्रेम की हो, बाल-श्रम की, नागरिक समानता की या नारी-अधिकारों की, नायकों का क्षेत्र सीमित या विस्तृत कैसा भी हो सकता है परंतु उनकी दृष्टि सदा उदात्त ही रहती है, कभी संकीर्ण नहीं होती।

प्रलोभन की तलवार दुधारी होती है। कई बार वह कुविचार की प्रेरणा बनता है और कई बार सत्कर्म में बाधा। लिखना, बोलना, उपदेश देना आसान होगा पर सत्पथ पर चलना "इदम् न मम्" के बिना शायद ही सम्भव हुआ हो।

साहस, धैर्य और सहनशीलता के बिना कैसा नायक? राणा प्रताप घास की रोटी खाकर लड़े, गुरु अर्जुन देव को भूखा प्यासा रखकर खौलते पानी, सुलगते लोहे और जलती रेत में डाला गया, प्रभु यीशु को चोरों और अपराधियों के साथ क्रॉस पर टांगा गया, मीरा को विष दिया गया मगर इनको इनके पथ से डिगाया न जा सका। नायक मानवमात्र की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के जीते-जागते प्रतिमान होते हैं। मानव मन की स्वतंत्रता और सम्मान में उनका दृढ विश्वास रहता है।

ग़रीबनवाज़ भगवान की भक्तवत्सलता से नायकों ने शरणागत-रक्षा का गुण अपनाया है। वे सबको अपनाते हैं। बुद्ध ने अंगुलिमाल को अपनाया। कभी मानव-उंगलियों का हार पहनने वाला दानव अहिंसा का ऐसा पुजारी बना कि पत्थरों से चूर होकर जान दे दी परंतु उफ़ नहीं की। न क्षोभ हुआ न हाथ उठाया। चाणक्य ने शत्रुपक्ष के राक्षस को उसकी योग्यता के अनुरूप सम्मान और ज़िम्मेदारी सौंपी। मुझे तो द्वेष से मुक्ति भी नायकत्व की एक अनिवार्य शर्त लगती है। गीता में इसी गुण को अद्रोह कहा गया है।

सामान्य दुर्गुणों यथा काम, क्रोध, लोभ, लोभ और मोह आदि को तो हम सभी आसानी से पहचान सकते हैं परंतु उनके अलावा भी अनेक दुर्गुण ऐसे हैं जिनको त्यागे बिना नायकत्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। क्रूरता, सत्तारोहण की इच्छा, तानाशाही, अहंकार, दोषारोपण, कुंठा, हीन भावना, आहत होने का स्वभाव, अन्ध-स्वामिभक्ति आदि ऐसे ही दुर्गुण हैं।
[क्रमशः] [अगली कड़ी में सम्पन्न]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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प्रेरणादायक जीवन-चरित्र
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 1
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 2
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 3
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 4
डॉक्टर रैंडी पौष (Randy Pausch)
महानता के मानक (प्रवीण पाण्डेय)
मैं कोई सांख्यिकीय नहीं हूं! (देवदत्त पटनायक)

21 comments:

  1. नायक बनने की आतुरता किसे नहीं होती,मगर नायक तो वही होते हैं जिन्होंने इस बात की परवाह किये बगैर सही उद्देश्यों को लेकर आगे बढ़ते जाते हैं.वे इस प्रक्रिया में किसी तरह की 'माप-तौल' भी नहीं करते कि अमुक काम करने से किसे लाभ-हानि होगी !
    आपने जिस विस्तार से नायकत्व के जितने गुण बताये हैं ,बिलकुल सहमत हूँ !

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  2. उद्देश्य जब बलवती हो जाता है तो शेष मर्यादायें और विचारधारायें गौड़ हो जाती हैं। यह जीवटता ही नायकों का आकर्ष है।

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  3. कमेंट हेरा गया पढ़कर..! का लिखें ?..कुछ न लिखें, अगली की प्रतीक्षा करें।

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  4. काश हम अपने को संतुलित कर पाते .....
    शुभकामनायें आपको !

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  5. नायक , स्वयं नायक तो होते हैं - परन्तु अपने समाज में हर एक से यह अपेक्षा नहीं रखते कि उनमे भी नायकत्व के गुण हों ही | वे उदार और करुणावान होते हैं - और दूसरों की कमजोरियों को क्षमा कर पाते हैं | उन भूलों को भी - जो स्वयं उन्ही के विरुद्ध दीख रही हों |

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  6. पोस्ट के बारे में सिर्फ़ यह कहना है कि इस श्रूँखला का समापन करना सही नहीं होगा, विराम दे सकते हैं।
    कमेंट्स के बारे में - ’नो कमेंट्स।’

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  7. यह भी गीता के ज्ञान से कम नहीं ।
    पढ़कर तो यही लगा कि नायक होने के लिए सात्विक प्रवृति का होना अत्यंत आवश्यक है ।
    सुन्दर सार्थक आलेख ।

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  8. रोचक जानकारी पूर्ण प्रस्तुति....

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  9. मौन के अतिरिक्त कुच्छ भी कहना संभव नहीं इस पोस्ट के विषय में!!

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  10. क्रूरता, सत्तारोहण की इच्छा, तानाशाही, अहंकार, दोषारोपण, कुंठा, हीन भावना, आहत होने का स्वभाव, अन्ध-स्वामिभक्ति आदि ऐसे ही दुर्गुण हैं।
    इन दुर्गुणों से भी दूर रहनेवालों को ही सच्चा नायक कह सकते हैं.

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  11. मन-वचन-कर्म से ईमानदार और पारदर्शी बहुत बड़ी बात है , अक्सर खुद को बार बार जस्टिफाई कर के संतुष्ट होने + लोगों को भी प्रभावित करने की प्रवृति देखी जाती है |
    अनुयायी तो सबको मिल ही जाते हैं :))
    मो सम कौन [संजय जी] की बात विचारणीय है

    ज्ञानवर्धक . विचारणीय पोस्ट

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  12. नायक सिर्फ़ नायक हि होता है, उसके अंदर कुछ तो विशेष अन्य लोगों से हटकर होती ही है.

    रामराम.

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  13. जबरदस्त श्रृंखला,आभार.

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  14. बहुत सुन्दर सन्देश देता हुआ आलेख आभार
    भ्रमर ५

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  15. कल 27/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  16. "देखने वाली नज़र न हो तो सरलता भी अहंकार ही लगती है"

    यही आज की वास्तविकता है। हमने अपने ही मायाजाल में ह्रदय को सम्वेदनाशून्य कर दिया है। किसी को कपट रहित समझ ही नहीं सकते। ऐसे में कोई वास्तविक सरल व्यक्ति से सामना हो जाय तो उसकी सरलता में कपट का भास होने लगता है।

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  17. आपका ये प्रेरणादायक लेख बहुत पसंद आया!

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  18. देखने वाली नजर की बात भली कही आपने. उदहारण भी सटीक.

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  19. "देखने वाली नज़र न हो तो सरलता भी अहंकार ही लगती है"
    नजर बदलते ही नज़ारे बदल जाते हैं!

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  20. इन अमृत शब्दों ने जो अनिर्वचनीय आनंद दिया ...क्या कहूँ...

    साधुवाद आपका...कोटि कोटि आभार इस अप्रतिम लेख के लिए..

    कुछ भी नहीं छूटा इन समस्त कड़ियों में...सांगोपांग विवेचन...

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