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Tuesday, April 17, 2012

अमर महानायक तात्या टोपे (1814-1859)

तात्या टोपे की समाधि
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के महानायक रामचन्द्र पांडुरंग राव योलेकर से शायद ही कोई अपरिचित हो। जी हाँ, अपनी वीरता और रणनीति के लिये विख्यात महानायक कमांडर तात्या टोपे का वास्तविक नाम यही था।

1814 में योले (या यवले/यउले/यवला) ग्राम में एक देशस्थ कुलकर्णी परिवार में जन्मे तात्या अपने माता-पिता श्रीमती रुक्मिणी बाई व पाण्डुरंग त्र्यम्बक राव भट्ट़ मावलेकर की एकमात्र संतति थे। तात्या का परिवार सन 1818 में नाना साहब पेशवा के साथ ही बिठूर आ गया था। अंग्रेज़ों द्वारा हर कदम पर भारत और भारतीयों के विरुद्ध खेली जा रही चालों के विरुद्ध एक देशव्यापी अभियान संगठित रूप से चलाने में नाना के साथ तात्या का एक बड़ा योगदान था। यह अभियान 1857 के संग्राम से काफ़ी पहले से आरम्भ होकर तात्या टोपे की मृत्यु तक निर्बाध चलता रहा।

लाल कमल अभियान 1857
तात्या टोपे के परिवार की वर्तमान पीढी के श्री पराग टोपे ने कुनबे के अन्य सदस्यों व इतिहासकारों के सहयोग से 1857 के संग्राम के कुछ छिपे हुए पन्नों को रोशन करने का प्रयास किया है। उनके अध्ययन और परिवार में चल रही कथाओं के अनुसार 1857 के संग्राम के तयशुदा आरम्भ से कहीं पहले ही तात्या ने ब्रिटिश सेना के भारतीय प्लाटूनों को कमल भेजकर उनकी भागीदारी, संख्या और सैन्यबल सुनिश्चित करना आरम्भ कर दिया था। भागीदारी में सहमति देने वाले सैनिकों द्वारा कमल की पंखुड़ियाँ रखी जाने के बाद खाली डंडियाँ गिनकर सेना का आगत गमनागमन तय किया गया। डंडियों से निकले कमलगट्टों के मखाने के साथ रोटियों को ग्रामप्रधानों में बाँटकर सेना के संचलन के समय उनके सम्भावित मार्ग पर रसद की आपूर्ति सुनिश्चित करने का काम किया गया। रोटियाँ और कमल बँटने की घटनाओं का ज़िक्र कई इतिहास ग्रंथों में मिलता है परंतु उसका विस्तृत स्पष्टीकरण अन्यत्र नहीं दिखता।

अंग्रेज़ों के लिये सबसे आश्चर्य की बात थी तात्या के दस्तों का संचलन। छापामार युद्ध के माहिर तात्या हर जगह मौजूद थे। खासकर वहाँ, जहाँ अंग्रेज़ों की गणना के अनुसार उतने कम समय में पहुँचा ही न जा सकता हो। उस समय में चम्बल या नर्मदा नदी के एक ओर की सेना का पलक झपकते दूसरी ओर पहुँच जाना किसी आश्चर्य से कम न था। एक बार भारी ब्रिटिश गोलीबारी के बीच भी उनके दस्ते नर्मदा पार करके सलामत निकल गये थे। तात्या टोपे और उनके सिपाहियों के बारे में दंतकथाओं का अम्बार है, विशेषकर मध्य भारत में।

टोपे परिवार, परम्परागत वेशभूषा में (ऑपरेशन रेड लोटस से साभार)
तात्या के विरोधी भी तात्या के सैन्य-संचलन के क़ायल थे। कई ब्रिटिश इतिहासकारों का विश्वास है कि यदि सिन्धिया सरीखे कुछ राजा अंग्रेज़ों के पक्ष में न आये होते तो 1857 में भारत से गोरों का सफ़ाया निश्चित था। ऐतिहासिक कथा यह है कि 7 अप्रैल 1859 को अपने शिविर में सोते हुए तात्या को उनके साथी नरवर के राजा मानसिंह के विश्वासघात की सहायता से अंग्रेज़ों ने बन्दी बना लिया गया। 8 अप्रैल को वे शिवपुरी में जनरल मीड के शिविर में एक युद्धबन्दी थे। 1857 के डेढ वर्ष बाद अभी भी यत्र-तत्र संघर्षरत भारतीय सैनिकों का मनोबल तोड़ने के लिये तात्या टोपे को फ़ांसी देना तो तय था, तो भी शिवपुरी में सैनिक अदालत की काग़ज़ी कार्यवाही पूरी की गयी। फ़ांसी देने से पहले बन्दी तात्या से लिखवाये गये बयानों में उनका नाम तात्या टोपे (नाना साहेब के कार्यकर्ता) लिखा गया है। स्वाधीनता संग्राम में अपनी भागीदारी स्वीकार करते हुए उन्होंने लिखा कि वे अपने देश के महाराज नाना साहेब की ओर से अपनी देशरक्षा के लिये लड़े हैं और वे किसी अन्य सत्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं। न ही उन्होंने अपने जीवन में किसी असैनिक को चोट पहुँचाई है। 15 अप्रैल 1859 को उन्हें मृत्युदंड की सज़ा सुनाई गयी और आज ही के दिन ... 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी जेल की चार नम्बर बैरक में फांसी दी गयी थी। कहा जाता है कि उन्हें दो बार फ़ांसी पर लटकाकर अंग्रेज़ों ने अपनी संतुष्टि की थी।

डॉ. राजेश टोपे से एक अविस्मरणीय मुलाकात
इसके बाद बदला लेने के उद्देश्य से अंग्रेज़ सेना के साथ नरवर और ग्वालियर के शासक भी तात्या के परिवारजनों को ढूंढने में लग गये। लम्बे समय तक इस स्वाभिमानी परिवार के सदस्य अपने नाम और वेशभूषा बदलकर अनेक ग़ैर-पारम्परिक पेशों को चुनकर देशभर में भटकते रहे। गर्व की बात यह है कि वर्षों के उत्पीड़न के बावजूद भी स्वस्थ परम्पराओं का सम्मान करने वाला यह परिवार आज सुशिक्षित और समृद्ध हैं। तात्या टोपेज़ ऑपरेशन रेड लोटस के लेखक पराग टोपे अमेरिका में रहते हैं। डॉ राजेश टोपे आयरलैंड में रहे हैं परंतु अधिकांश टोपे परिवारजन भारत में ही रहते हैं।

पराग टोपे के अनुसार तात्या को कभी पकड़ा नहीं जा सका था और वे दरअसल एक छापामार युद्ध में शहीद हुए थे। उनकी शहादत के बाद युद्ध की शैली, सैन्य संचलन आदि में अचानक एक बड़ा अंतर आया। उनकी प्रतीकात्मक फ़ांसी अंग्रेज़ों की एक ज़रूरत थी जिसके बिना स्वतंत्रता संग्राम का पूर्ण पटाक्षेप कठिन था। इस प्रक्रिया के नाट्य रूपांतर में नरवर के राजा ने एक नरबलि देकर अपने गौर प्रभुओं की सहायता की। फ़ांसी लगे व्यक्ति ने अपनी आयु 55 वर्ष बताई थी जबकि उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार उस समय तात्या की आयु 45-46 वर्ष की होनी थी। सत्य जो भी हो, जन्मभूमि की ओर आँख उठाने वालों के छक्के छुड़ा देने वाले तात्या जैसे वीर संसार भर के स्वतंत्रताप्रिय देशभक्तों की नज़र में सदा अमर रहेंगे।

अमर हो स्वतंत्रता!
सम्बन्धित कड़ियाँ
* तात्या टोपे - अधिकारिक वैब साइट
* तात्या टोपे - हिन्दी विकीपीडिया
* तात्या टोपे प्रशंसक पृष्ठ - फ़ेसबुक
* फाँसी नहीं दी गई थी तात्या टोपे को
* प्रेरणादायक जीवन-चरित्र

Saturday, May 15, 2010

बुद्ध हैं क्योंकि भगवान परशुराम हैं

Bhagvan Parashu Ram Jamdagneya
1970 की हिन्दी फिल्म का पोस्टर
ज भगवान् परशुराम के जन्म दिन यानी अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर यूँ ही डॉ. मनोज मिश्र द्वारा मा पलायनम पर 5 हफ़्ते पहले पर पोस्ट किया गया आलेख क्या परशुराम क्षत्रिय विरोधी थे? याद आ गया। आलेख में यह दर्शाया गया था कि भगवान् परशुराम क्षत्रियों के नहीं बल्कि निरंकुश और अत्याचारी शासकों के विरुद्ध थे।

शास्त्रों में जहाँ भी उनका उल्लेख है वहाँ यह बात स्पष्ट समझ में आती है कि वे अत्याचार और निरंकुशता के खिलाफ ही सीना तान कर खड़े हुए थे। मगर इसका मतलब यह नहीं कि वे हिंसा को अहिंसा से ऊपर मानते थे। आम जनता को अनाचारियों के पापों से बचाने के लिए उन्होंने सहस्रबाहु को नर्मदा नदी के किनारे महेश्वर में मारा जहाँ आज भी उसकी समाधि और शिव मन्दिर है।

राजकुमार विश्वामित्र के भांजे परशुराम राज-परिवार में नहीं बल्कि ऋषि आश्रम में जन्मे थे और उनका पालन पूर्ण अहिंसक और सात्विक वातावरण में हुआ था। इसलिए उनके द्वारा अन्याय के खिलाफ हिंसा का प्रयोग कुछ लोगों के लिए वैसा ही आश्चर्यजनक है जैसा कि गौतम बुद्ध या महावीर जैसे राजकुमारों का बचपन से अपने चारों ओर देखी और भोगी गयी हिंसा के खिलाफ खड़े हो जाना। अंतर केवल इतना है कि बुद्ध या महावीर जैसे राजकुमारों ने जब हिंसा का परित्याग किया तो कालान्तर में उनके अनुयायी इतने अतिवादी हुए कि उनकी नयी परम्परा का पूर्णरूपेण पालन आम गृहस्थों के लिए असंभव हो गया और दैनंदिन जीवन के लिए अव्यवहारिक जीवनचर्या के लिए गृहस्थों से अलग, भिक्षुकों की आवश्यकता पडी। इसके विपरीत भगवान् परशुराम ने स्वयं अविवाहित रहते हुए भी कभी अविवाहित रहने या अहिंसा के नाम पर हिंसक समुदायों या शासकों के विरोध से बचने जैसी बात नहीं की। उल्लेखनीय है कि महाभारत के दो महावीर भीष्म और कर्ण उनके ही शिष्य थे। समरकला के पौराणिक गुरु द्रोणाचार्य के दिव्यास्त्र भी परशुराम-प्रदत्त ही हैं।

अनाचार रोकने के लिये उन्हें हिंसा का सहारा लेना पडा फिर भी उन्होंने न सिर्फ 21 बार इसका प्रायश्चित किया बल्कि जीती हुई सारी धरती दान करके स्वयं ही देश निकाला लेकर महेंद्र पर्वत पर चले गए और राज्य कश्यप ऋषि के संरक्षण में विभिन्न क्षत्रिय कुलों को दिये। इस कृत्य की समता भगवान् राम द्वारा श्रीलंका जीतने के बावजूद विभीषण का राजतिलक करने में मिलती है। मारे गए राजाओं के स्त्री-बच्चों के पालन-पोषण और समुचित शिक्षा की व्यवस्था विभिन्न आश्रमों में की गयी और इन बाल-क्षत्रियों ने ही बड़े होकर अपने-अपने राज्य फिर से सम्भाले। भृगुवंशी परशुराम ऋग्वेद, रामायण, महाभारत और विभिन्न पुराणों में एक साथ वर्णित हुए चुनिन्दा व्यक्तित्वों में से एक हैं। ऋग्वेद में परशुराम के पितरों की अनेकों ऋचाएं हैं परन्तु 10.110 में राम जामदग्नेय के नाम से वे स्वयं महर्षि जमदग्नि के साथ हैं।

जब भी भगवान् परशुराम की बात आती है तब-तब उनके परशु और समुद्र से छीनकर बसाए गए परशुराम-क्षेत्र का ज़िक्र भी आता है। गोवा से कन्याकुमारी तक का परशुराम क्षेत्र समुद्र से छीना गया था या नहीं यह पता नहीं मगर परशुराम इस मामले में अग्रणी ज़रूर थे कि उन्होंने परशु (कुल्हाड़ी) का प्रयोग करके जंगलों को मानव बस्तियों में बदला। मान्यता है कि भारत के अधिकांश ग्राम परशुराम जी द्वारा ही स्थापित हैं। राज्य के दमन को समाप्त करके जनतांत्रिक ग्राम-व्यवस्था का उदय उन्हीं की सोच दिखती है। उनके इसी पुण्यकार्य के सम्मान में भारत के अनेक ग्रामों के बाहर ब्रह्मदेव का स्थान पूजने की परम्परा है। यह भी मान्यता है कि परशुराम ने ही पहली बार पश्चिमी घाट की कुछ जातियों को सुसंकृत करके उन्हें सभ्य समाज में स्वीकृति दिलाई। पौराणिक कथाओं में यह वर्णन भी मिलता है कि जब उन्होंने भगवान् राम को एक पौधा रोपते हुए देखा तब उन्होंने काटे गए वृक्षों के बदले में नए वृक्ष लगाने का काम भी शुरू किया। कोंकण क्षेत्र का विशाल सह्याद्रि वन क्षेत्र उनके वृक्षारोपण द्वारा लगाया हुआ है। हिंडन तट का पुरा महादेव मन्दिर, कर्नाटक के सात मुक्ति स्थल और केरल के 108 मंदिर उनके द्वारा स्थापित माने जाते हैं। साम्यवादी केरल में परशुराम एक्सप्रेस का चलना किसी आश्चर्य से कम नहीं है।

जिस प्रकार हिमालय काटकर गंगा को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय भागीरथ को जाता है उसी प्रकार पहले ब्रह्मकुण्ड (परशुराम कुण्ड) से और फिर लौहकुन्ड (प्रभु कुठार) पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय परशुराम जी को जाता है। दुर्जेय ब्रह्मपुत्र का नामकरण इस ब्राह्मणपुत्र के नाम पर ही हुआ है। यह भी कहा जाता है कि गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से धरा पर लाये थे।

परशुराम क्षेत्र के निर्माण के समय भगवान परशुराम का आश्रम माने जाने वाले सूर्पारक (मुम्बई के निकट सोपारा ग्राम) में महात्मा बुद्ध ने तीन चतुर्मास बिताये थे। कभी कभी मन में आता है कि अगर शाक्यमुनि बुद्ध के शिष्यों ने अहिंसा के अतिवाद को नहीं अपनाया होता तो बौद्धों का परचम शायद आज भी चीन से ईरान तक लहरा रहा होता। न तो तालेबानी दानव बामियान के बुद्ध को धराशायी कर पाते और न ही चीन के माओवादी दरिन्दे तिब्बती महिलाओं का जबरन बंध्याकरण कर पाए होते। इस निराशा के बीच भी खुशी की बात यह है कि सुदूर पूर्व के क्षेत्रों में बौद्ध धर्म आज भी जापान तक जीवित है और इस अहिंसक धर्म को जीवित रखने का श्रेय भगवान् परशुराम के सिवा किसी को नहीं दिया जा सकता है।

परशुराम क्षेत्र के धुर दक्षिण, केरल में जाएँ तो परशुराम द्वारा प्रवर्तित एक कला आज भी न सिर्फ जीवित बल्कि फलीभूत होती दिखती है। वह है विश्व की सबसे पुरानी समर-कला 'कलरिपयट्टु।' दुःख की बात है कि जूडो, कराते, तायक्वांडो, ताई-ची आदि को सर्वसुलभ पाने वाले अनेकों भारतीयों ने कलारि का नाम भी नहीं सुना है। भगवान् परशुराम को कलारि (प्रशिक्षण शाला/केंद्र) का आदिगुरू मानने वाले केरल के नायर समुदाय ने अभी भी इस कला को सम्भाला हुआ है।

बौद्ध भिक्षुओं ने जब भारत के उत्तर और पूर्व के सुदूर देशों में जाना आरंभ किया तो वहाँ के हिंसक प्राणियों के सामने इन अहिंसकों का जीवित रहना ही असंभव सा था और तब उन्होंने परशुराम-प्रदत्त समर-कलाओं को न केवल अपनाया बल्कि वे जहाँ-जहाँ गए, वहाँ स्थानीय सहयोग से उनका विकास भी किया। और इस तरह कलरिपयट्टु ने आगे चलकर कुंग-फू से लेकर जू-जित्सू तक विभिन्न कलाओं को जन्म दिया। इन दुर्गम देशों में बुद्ध का सन्देश पहुँचाने वाले परशुराम की सामरिक कलाओं की बदौलत ही जीवित, स्वस्थ और सफल रहे।

कलारि के साधक निहत्थे युद्ध के साथ-साथ लाठी, तलवार, गदा और कटार उरमि की कला में भी निपुण होते हैं। इनकी उरमि इस्पात की पत्ती से इस प्रकार बनी होती थी कि उसे धोती के ऊपर कमर-पट्टे (belt) की तरह बाँध लिया जाता था। कई लोगों को यह सुनकर आश्चर्य होता है कि लक्ष्मण जी ने विद्युत्जिह्व दुष्टबुद्धि नामक असुर की पत्नी श्रीमती मीनाक्षी उर्फ़ शूर्पनखा के नाक कान एक ही बार में कैसे काट लिए। लचकदार कटारी से यह संभव है। केरल के वीर नायक सेनानी उदयन कुरूप अर्थात ताच्चोली ओथेनन के बारे में मशहूर था कि उनकी फेंकी कटार शत्रु का सर काटकर उनके हाथ में वापस आ जाती थी।

किसी भी कठिन समय में भारतीय संस्कृति की रक्षा के निमित्त सामने आने वाले सात प्रातः स्मरणीय चिरंजीवियों में परशुराम का नाम आना स्वाभाविक है:

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमानश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ॥
(श्रीमद्‍भागवत महापुराण)

एक बार फिर, अक्षय तृतीया की शुभकामनाएँ! भगवान् परशुराम की जय!
अपडेट: परशुराम जी से सम्बन्धित वाल्मीकि रामायण के तीन श्लोक
(सुन्दर हिन्दी अनुवाद के लिये आनन्‍द पाण्‍डेय जी का कोटिशः आभार)

वधम् अप्रतिरूपं तु पितु: श्रुत्‍वा सुदारुणम्
क्षत्रम् उत्‍सादयं रोषात् जातं जातम् अनेकश: ।।१-७५-२४॥

अन्‍वय: पितु: अप्रतिरूपं सुदारुणं वधं श्रुत्‍वा तु रोषात् जातं जातं क्षत्रम् अनेकश: उत्‍सादम्।।

अर्थ: पिता के अत्‍यन्‍त भयानक वध को, जो कि उनके योग्‍य नहीं था, सुनकर मैने बारंबार उत्‍पन्‍न हुए क्षत्रियों का अनेक बार रोषपूर्वक संहार किया।।

पृथिवीम् च अखिलां प्राप्‍य कश्‍यपाय महात्‍मने
यज्ञस्‍य अन्‍ते अददं राम दक्षिणां पुण्‍यकर्मणे ॥१-७५-२५॥

अन्‍वय: राम अखिलां पृथिवीं प्राप्‍य च यज्ञस्‍यान्‍ते पुण्‍यकर्मणे महात्‍मने कश्‍यपाय दक्षिणाम् अददम् ।

अर्थ: हे राम । फिर सम्‍पूर्ण पृथिवी को जीतकर मैने (एक यज्ञ किया) यज्ञ की समाप्ति पर पुण्‍यकर्मा महात्‍मा कश्‍यप को दक्षिणारूप में सारी पृथिवी का दान कर दिया ।

दत्‍वा महेन्‍द्रनिलय: तप: बलसमन्वित:
श्रुत्‍वा तु धनुष: भेदं तत: अहं द्रुतम् आगत: ।।१-७५-२5॥

अन्‍वय: दत्‍वा महेन्द्रनिलय: तपोबलसमन्वित: अहं तु धनुष: भेदं श्रुत्‍वा तत: द्रुतम् आगत: ।।

अर्थ: (पृथ्‍वी को) देकर मैने महेन्द्रपर्वत को निवासस्‍थान बनाया, वहाँ (तपस्‍या करके) तपबल से युक्‍त हुआ। धनुष को टूटा हुआ सुनकर वहाँ से मैं अतिशीघ्रता से आया हूँ ।।

भगवान् परशुराम श्रीराम चन्‍द्र को लक्ष्‍य करके उपर्युक्त बातें कहते हैं।  इसके तुरंत बाद ही उन्‍हें विष्‍णु के धनुष पर प्रत्‍यंचा चढा कर संदेह निवारण का आग्रह करते हैं। शंका समाधान हो जाने पर विष्‍णु का धनुष राम को सौंप कर तपस्‍या हेतु चले जाते हैं ।।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* परशुराम स्तुति
* परशुराम स्तवन
* अक्षय-तृतीया - भगवान् परशुराम की जय!
* परशुराम और राम-लक्ष्मण संवाद
* मटामर गाँव में परशुराम पर्वत
* भगवान् परशुराम महागाथा - शोध ग्रंथ
* ग्वालियर में तीन भगवान परशुराम मंदिर
* अरुणाचल प्रदेश का जिला - लोहित
* बुद्ध पूर्णिमा पर परशुराम पूजा

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