(अनुराग शर्मा)
यह नज़्म या कविता जो भी कहें, लंबे समय से ड्राफ्ट मोड में रखी थी, इस उम्मीद में कि कभी पूरी होगी, अधूरी ही सही, अंधेर से देर भली ...
यह नज़्म या कविता जो भी कहें, लंबे समय से ड्राफ्ट मोड में रखी थी, इस उम्मीद में कि कभी पूरी होगी, अधूरी ही सही, अंधेर से देर भली ...
एक देश वो जिसमें रहता है एक देश जो उसमें रहता है एक देश उसे अपनाता है एक देश वो छोड़ के आता है इस देश में अबला नारी है नारी ही क्यों दुखियारी है ये देश भरा दुखियारों से बेघर और बंजारों से ये इक सोने का बकरा है ये नामा, गल्ला, वक्रा है इस देश की बात पुरानी है नानी की लम्बी कहानी है उस किस्से में न राजा है न ही सुन्दर इक रानी है हाँ देओ-दानव मिलते हैं दिन में सडकों पर फिरते हैं रिश्वत का राज चलाते हैं वे जनता को धमकाते हैं दिन रात वे ढंग बदलते हैं गिरगिट से रंग बदलते हैं कभी धर्म का राग सुनाते हैं नफरत की बीन बजाते हैं वे मुल्ला हैं हर मस्जिद में वे काबिज़ हैं हर मजलिस में बंदूक है उनके हाथों में है खून लगा उन दांतों में उन दाँतो से बचना होगा इक रक्षक को रचना होगा | उस देश में एक निठारी है जहां रक्खी एक कटारी है जहां खून सनी दीवारें हैं मासूमों की चीत्कारें हैं कितने बच्चों को मारा था मानव दानव से हारा था कोई उन बच्चों को खाता था शैतान भी तब शरमाता था न उनका कोई ईश्वर है न उनका कोई अल्ला था न उनका एक पुरोहित है न उनका कोई मुल्ला था न उनका कोई वक़्फ़ा था न उनकी कोई छुट्टी थी जिस मिट्टी से वे उपजे थे उन हाथों में बस मिट्टी थी वे बच्चे थे मजदूरों के बेबस और मजबूरों के जो रोज़ के रोज़ कमाते थे तब जाके रोटी खाते थे संसार का भार बंधे सर में तब चूल्हा जलता है घर मेंं वे बच्चों को तो बचा न सके दुनियादारी सिखला न सके हमें उनके घाव नहीं दिखते हम कैंडल मार्च नहीं करते हम सब्र उन्हें सिखलाते हैं और प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं |
ReplyDeleteमार्मिक -
कटु सत्य
सटीक प्रस्तुति-
आभार आदरणीय-
पता नहीं कितने समय तक यह रचना ड्राफ्ट में पड़ी रही, लेकिन कुछ भी नहीं बदला.. यही विडम्बना है इस देश की.. उम्मीद है कि इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!!
बहुत सुंदर !
ReplyDeleteआपकी इस मार्मिक रचना को पढ़कर बस इतनाही कहूँगी
ReplyDeleteहे परम पिता परमेश्वर
यदि
दुःख इतना ही
रचना था तो
मुझे संवेदनशील
क्यों इतना बनाया
तेरी इस
असंवेदनशील
दुनिया में …
वाह . .
Deleteबहुत सवेदनशील नज़्म है. दुखती रग पर हाथ रख दिया.
ReplyDeleteबेहद सुन्दर !!!
ReplyDeleteदिल के नर्म हिस्सों को कुरेदती रचना....
इतने दिनों आपने यूँही वंचित रखा हमें इसे पढने से.
सादर
अनु
नया प्रयोग है . बढिया है .
ReplyDeleteवाह ...बहुत सुंदर .....
ReplyDeleteकालक्रम का दस्तावेज
ReplyDeleteसंसार का भार बंधे सर में
ReplyDeleteतब कहीं जले चूल्हा घर में.........................ऐसे लगा जैसे आपके दुख-दर्द को मैं भी वैसा ही महसूस कर रहा हूँ जैसा आपने किया। जानसाध कवितावली।
हर रात के बाद सुबहा आती है
ReplyDeleteअँधेरी रात बहुत डराती है ।
जब गहरा सबसे अंधियारा है
समझो उस ओर उजियारा है
वो सुबहा जल्द ही आएगी
सब ओर खुशहाली छाएगी
बच्चे सब शिक्षा पायेंगे
जीवन उज्ज्वन बन जायेंगे
ढूंढ लेंगे सही रास्ता हम सब मिल के
घाव सारे भर जायेंगे दिले के।
सब्र रखो दोस्त कुछ धैर्य धरो
इस निराशा के दलदल से निकलो ....
आज का सच, सच की कविता।
ReplyDeleteबहुत उदास नज़्म है।
ReplyDeleteआधी रात को,जलसा होगा,दावत भूत पिशाचों की !
ReplyDeleteबड़े दिनों के बाद आज , इस जंगल में , नर आये हैं !
यथार्थ हमेशा उदास ही होता है शायद.
ReplyDeleteयथार्थ हमेशा उदास ही होता है शायद.
ReplyDeleteबस पाठ पढ़ाते हैं पढ़ते नहीं हैं।
ReplyDeleteदेश और देशवासियों के हालातों पर मार्मिक चित्रण।
ReplyDeleteबदले सब यहाँ बेहतर दिशा में , उम्मीद रखनी होगी !
यथार्थ तो यही है।
ReplyDeleteइन कटु शब्दों को बहर में ढालना आसान भी कहाँ रहा होगा ...
ReplyDeleteयथार्थ है आज का ....
हृदयस्पर्शी रचना।
ReplyDeleteसत्य का यथारूप दिखाती रचना।
ReplyDeleteबढ़िया, शुरू के दोहे तो बहुत अच्छे हैं।
ReplyDeleteढूंढ लेंगे सही रास्ता हम सब मिल के
ReplyDeleteघाव सारे भर जायेंगे दिले के।
..................बहुत सवेदनशील नज़्म है
कितना कुछ कहती है आपकी यह रचना. देर भले लगी हो आपके ड्राफ्ट को पूरा होने में लेकिन जोरदार आवाज़ बनकर आई है यह रचना.
ReplyDeletebahut achchhaaa
ReplyDeleteSuperb Sir
ReplyDeleteसवेदनशील नज़्म है
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