कहानी भविष्यवाणी में अब तक आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अड़चन से कैसे निकाला जाय। रूबी की व्यंग्योक्तियाँ और क्रूर कटाक्ष किसी को पसंद नहीं थे, फिर भी हमने प्रयास करने की सोची। रूबी ने अपनी नौकरी छूटने और बीमारी के बारे में बताते हुए कहा कि उसके घर हमारे आने के बारे में उसे शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने इत्तला दी थी। बहकी बहकी बातों के बीच वह कहती रही कि भगवान् ने उसे बताया है यहाँ गैरकानूनी ढंग से रहने पर भी उसे कोई हानि नहीं होनी है जबकि भारत के समय-क्षेत्र में प्रवेश करते ही वह मर जायेगी। उसके हित के लिए हम भी उसकी तरह भगवान से वार्तालाप करने लगे। उसके लिए नौकरी ढूँढने के साथ-साथ उसके संबंधियों की जानकारी भी इकट्ठी करनी शुरू कर दी।
भाग १ , भाग २ , भाग ३ , भाग ४ ; अब आगे की कथा:
पिट्सबर्ग का एक दृश्य |
रूबी के पति से बात करना तो हमारी आशंका से कहीं अधिक कठिन साबित हुआ, "उस पगलैट से मेरा कोई लेना देना नहीं है। तंग आ चुका हूँ मुसीबत झेलते-झेलते …"
"कैसी बात कर रहे हैं आप? अपने काम से संसार भर में भारत का नाम रोशन करने वाली इतनी योग्य महिला को ऐसे कहते हुए शर्म नहीं आती?" मुझसे रहा न गया।
"मुझे पाठ मत पढाओ लडके! लेख उसने कोई नहीं लिखे, मैंने लिखे थे। उसे या तो नकल करना आता है या क्रेडिट लेना। जितना नसीब में था, मैंने झेल लिया, अब वो अपने रास्ते है, मैं अपने। तुम भी उस नामुराद औरत से दूर ही रहो वरना जल्दी ही किसी मुसीबत में फंसोगे।"
"कुछ भी हो, अपनी पत्नी के बुरे वक़्त में उसकी सहायता करना आपका कर्त्तव्य है … आखिर आपकी जीवन-संगिनी है वह ..."
"जब पत्नी थी तब बहुत कर ली सहायता, अब मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं उस कमबख्त से" मेरी बात बीच में काटकर उस व्यक्ति ने अपनी बात कही और फोन काट दिया. बात वहीं की वहीं रह गई।
मार्ग कठिन था लेकिन उसकी सहायता कैसे की जाय यह सोचना छोड़ा नहीं था, न मैंने, न रोनित ने। नौकरी करना, घर संभालना, और फिर कुछ समय मिले तो रूबी के रिज्यूमे पर काम करना। पता ही न लगा कितना समय बीत गया। उसे सात्विक और पौष्टिक भोजन नियमित मिले, यह ज़िम्मेदारी श्रीमतीजी ने ले ली थी। वह खाने नहीं आती थी तो वे ही खाना लेकर सुबह शाम उसके पास चली जाती थी।
उस दिन काम करते-करते तबीयत कुछ खराब सी लगने लगी। इसी बीच श्रीमतीजी का फोन आया, "आप जल्दी से आ जाइए, रूबी को ले जाने आए हैं।"
"ले जाने आए हैं? कौन?"
उन्होने बताया कि प्रशासन की ओर से कुछ लोग आकर रूबी से बात कर रहे हैं। कौन लोग हैं, यह तो उन्हें भी ठीक से नहीं पता। मुझसे दफ्तर में रुका न गया और मैं तभी घर चला आया। अपार्टमेंट परिसर के द्वार तक पहुँचा तो रूबी को अफ्रीकी मूल के एक लंबे-तगड़े पुलिस अधिकारी के साथ बाहर आते देखा। मैंने उन्हें रोककर रूबी से सारा किस्सा जानना चाहा। उसके कुछ कहने से पहले ही उस पुलिस अधिकारी ने हमें आश्वस्त कराते हुए विनम्रता से बताया कि वह उसे नगर के महिला सुरक्षा संस्थान में ले जाने के लिए आया है। वहाँ उसके रहने-खाने, मनोरंजन व स्वास्थ्य सेवा का प्रबंध तो है ही, प्रशिक्षित जन उसे वीसा प्रक्रिया सुचारु करने और नई नौकरी ढूँढने में सहायता करेंगे। वह जब तक चाहे, महिला सुरक्षा संस्थान में निशुल्क रह सकती है। नई नौकरी मिलने तक वे लोग ही उसके बेरोज़गारी भत्ते के कागज भी तैयार कराएंगे। इन दोनों के पीछे-पीछे महिला सुरक्षा संस्थान की जैकेट पहने दो श्वेत महिलाओं के साथ ही श्रीमतीजी बाहर आईं। रूबी हमसे विदा लेकर उन महिलाओं के साथ, संस्थान की वैन में बैठकर चली गई और फिर उस पुलिस अधिकारी ने जाने से पहले हमें बेफिक्र रहने की सलाह देते हुए अपना हैट उतारकर विदा ली। उसके इमली के कोयले जैसे स्निग्ध चेहरे पर हैट हटाने से अनावृत्त हुए घने कुंचित केश देखकर न जाने क्यों मुझे नानी के घर बड़े से फ्रेम में लगे जर्मनी में छपे कृष्ण जी की पुरानी तस्वीर की याद आ गई।
सबके जाने के बाद अकेले बचे हम दोनों वहीं खड़े हुए बात करने लगे। संस्थान की महिलाओं ने श्रीमतीजी को बताया था कि रूबी नौकरी छूटने के दिन से ही बेरोजगारी भत्ते की अधिकारी थी और वे उसकी बकाया रकम भी उसे दिला देंगे। अपार्टमेंट वालों ने उसकी स्थिति को देखते हुए उस पर बकाया किराया, बिजली आदि का खर्च पहले ही क्षमा कर दिया था।
"चलो सब ठीक ही हुआ। हमारी उम्मीद से कहीं बेहतर" मैंने आश्वस्ति की साँस लेते हुए कहा।
"अरेSSS" श्रीमतीजी ऐसे चौंकीं जैसे कोई बड़ा रहस्य हाथ लगा हो, " ... आपने देखा हम कहाँ खड़े हैं?"
"पार्किंग लॉट में, और कहाँ?"
"ध्यान से देखिये, यह बिल्कुल वही जगह है जहाँ इंगित करते हुए रूबी ने भगवान का जहाज़ उतरने की भविष्यवाणी की थी।"
मैं भ्रमित था, क्या ये सारा घटनाक्रम, वाहन लैंडिंग स्थल, और उस पुलिस अधिकारी का चेहरा-मोहरा संयोगमात्र था?
[समाप्त]
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कई संयोग होते हैं जिन पर देर तक सोचते ही रह जाएँ। मुझे लगा था कहानी लम्बी चलेगी।
ReplyDeleteआप भ्रमित, हम भौंचक्क - इति संयोगम?
ReplyDeleteफ़ोटू शायद उसी पार्किंग लॉट की है :)
आपकी कहानियाँ रंबल-स्ट्रिप की तरह प्रभाव डालती हैं और यह शैली एकदम हटकर है।
बहुत ही रोचक लगी ......................
ReplyDeleteबहुत ही रोचक लगी ......................
ReplyDeleteआश्चर्य जनक !!
ReplyDeleteसुन्दर कथा-
ReplyDeleteबढ़िया समापन-
आभार आदरणीय-
रूबी ने बताया था कि उसे शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने बताया था और आपको वे भगवान संस्थान के अधिकारी के रूप में उनके हैट उतारते ही अनुभव भी हुए।
ReplyDeleteab pata nahin kyon yah kaahani ek jaan pahchaan ke paatra ke ird gird ghomamatee naza aatee hai (sorry transliteration is not working!)
ReplyDeleteबड़ी ही रोचक कहानी, उसका तरीक़ा अनोखा
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रोचक लगा कहानी का अंत !
ReplyDeleteबहुत रोचक कहानी...
ReplyDeleteek din achanak is kahani ki yaad aai aur laga ki aapne ise beech main hi chhod diya, rubi ke mukammal anjam par khushi hui.
ReplyDeleteऐसा लगता है बहुत कुछ और था, जो आपने किसी कारणवश रोक लिया.. एक गुजारिश है। अगर आप उचित समझें तो मुझे मेल पर साझा करें। मेरी उत्सुकता है...
ReplyDeleteimjoshig@gmail.com
आपकी कहानी शैली में एक अलग अंदाज़ है ,बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteपिछली कड़ी को पढ़कर ऐसा लगा था कि कही आप पर तो मुश्किल नहीं आने वाली. लेकिन कहानी का अंत एकदम 'विन-विन' वाला हुआ . नहीं तो इतने नियमों को तोड़ के सलाखें ही प्रतीक्षा कर रही होती. पूरी कहानी बहुत अच्छी लगी.
ReplyDeleteआज कहानी को पहली कड़ी से पाँचवीं कड़ी तक पूरा पढ़ गया... कहानी का अंत चौंकाने वाला है... हमारे मित्र चैतन्य इसे डिवाइन इंटर्वेंशन कहते हैं और मैं बस एक कनेक्शन ऊपरवाले का उसके बन्दों के साथ... कहानी पढ़ते हुए मेरे मुँह से निकला - ओ एम जी!! इसी नाम की फ़िल्म भी याद आई.
ReplyDeleteएक और बार याद आती रही पूरी कहानी के दौरान और देखा कि डॉ. अरविन्द मिश्र जी ने भी उसी का ज़िक्र छेड़ दिया है!! मुझे भी शायद वही पात्र याद आता रहा पूरी कहानी में!! अनुराग जी, बहुत ख़ूब!!
आज कहानी को पहली कड़ी से पाँचवीं कड़ी तक पूरा पढ़ गया... कहानी का अंत चौंकाने वाला है... हमारे मित्र चैतन्य इसे डिवाइन इंटर्वेंशन कहते हैं और मैं बस एक कनेक्शन ऊपरवाले का उसके बन्दों के साथ... कहानी पढ़ते हुए मेरे मुँह से निकला - ओ एम जी!! इसी नाम की फ़िल्म भी याद आई.
ReplyDeleteएक और बार याद आती रही पूरी कहानी के दौरान और देखा कि डॉ. अरविन्द मिश्र जी ने भी उसी का ज़िक्र छेड़ दिया है!! मुझे भी शायद वही पात्र याद आता रहा पूरी कहानी में!! अनुराग जी, बहुत ख़ूब!!
ह्म्म्म
ReplyDeleteअरे,ये तो हमने सोचा ही नहीं था अचानक ..एकदम..अप्रत्याशित !
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