हुतात्मा खुदीराम बसु (3 दिसंबर 1889 - 11 अगस्त 1908) |
आपने सही पहचाना, बात खुदीराम बासु की हो रही है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद के दमन को गुज़रे हुए आधी शती बीत चुकी थी। कहने के लिए भारत ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशासन से मुक्त होकर इंग्लॅण्ड के राजमुकुट का सबसे प्रतिष्ठित रत्न बन चुका था। परन्तु सच यह था कि सच्चे भारतीयों के लिए वह भी विकट समय था। देशभक्ति, स्वतन्त्रता आदि की बात करने वालों पर मनमाने मुक़दमे चलाकर उन्हें मनमानी सजाएं दी जा रही थीं। माँओं के सपूत छिन रहे थे। पुलिस तो भ्रष्ट और चापलूस थी ही, इस खूनी खेल में न्यायपालिका भी अन्दर तक शामिल थी।
तीन बहनों के अकेले भाई खुदीराम बसु तीन दिसम्बर 1889 को मिदनापुर जिले के महोबनी ग्राम में लक्ष्मीप्रिया देवी और त्रैलोक्यनाथ बसु के घर जन्मे थे। अनेक स्वाधीनता सेनानियों की तरह उनकी प्रेरणा भी श्रीमदभगवद्गीता ही थी।
मुजफ्फरपुर का न्यायाधीश किंग्सफोर्ड भी बहुत से नौजवानों को मौत की सज़ा तजवीज़ कर चुका था। 30 अप्रैल 1908 को अंग्रेजों की बेरहमी के ख़िलाफ़ खड़े होकर खुदीराम बासु और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी ने साथ मिलकर मुजफ्फरपुर में यूरोपियन क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड की कार पर बम फेंका।
पुलिस द्वारा पीछा किए जाने पर प्रफुल्ल चंद्र समस्तीपुर में खुद को गोली मार कर शहीद हो गए जबकि खुदीराम जी पूसा बाज़ार में पकड़े गए। मुजफ्फरपुर जेल में ११ अगस्त १९०८ को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। याद रहे कि प्राणोत्सर्ग के समय खुदीराम बासु की आयु सिर्फ 18 वर्ष 7 मास और 11 दिन मात्र थी।
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