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कोई खास नहीं, कोई अनोखी नहीं, एक आम ईमानदार भारतीय परिवार की ईमानदार दास्ताँ, जो कभी गायी नहीं गयी, जिस पर कोई महाकाव्य नहीं लिखा गया। इस गाथा पर कोई फिल्म भी नहीं बनी, हिन्दी, अंग्रेज़ी या क्षेत्रीय। शायद इसकी याद भी नहीं आती अगर ज्ञानदत्त पांडेय जी ईमानदारी पर चर्चा को एक बार कर चुकने के बाद दोबारा आगे न बढाते। याद रहे, यह ऐसा साधारण और ईमानदार भारतीय परिवार है जहाँ ईमानदारी कभी भी असाधारण नहीं थी। छोटी-छोटी बहुतेरी मुठभेडें हैं, सुखद भी दुखद भी। यह यादें चाहे रुलायें चाहे होठों पर स्मिति लायें, वे मुझे गर्व का अनुभव अवश्य कराती हैं। कोई नियमित क्रम नहीं, जो याद आता जायेगा, लिखता रहूंगा। आशा है आप असुविधा के लिये क्षमा करेंगे।
बात काफी पुरानी है। अब तो कथा नायक को दिवंगत हुए भी कई दशक हो चुके हैं। जीवन भर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उनके कुनबे के अयोध्या से स्वयं-निर्वासन लेकर उत्तर-पांचाल आने की भी एक अजब दंतकथा है लेकिन वह फिर कभी। उनके पिताजी के औसत साथियों की कोठियाँ खडी हो गयीं मगर उनके लिये पैतृक घर को बनाए रखना भी कठिन था। काम लायक पढाई पूरी करके नौकरी ढूंढने की मुहिम आरम्भ हुई। बदायूँ छूटने के बाद ईमानदारी के चलते बीसियों नौकरियाँ छूटने और बीसियों छोडने के बाद अब वे गाज़ियाबाद के एक स्कूल में पढा रहे थे। वेतन भी ठीक-ठाक मिल रहा था। शरणार्थियों के इलाके में एक सस्ता सा घर लेकर पति-पत्नी दोनों पितृऋण चुकाने के लिये तैयार थे। विलासिता का आलम यह था कि यदि कभी खाने बनाने का मन न हो तब तन्दूर पर आटा भेजकर रोटी बनवा ली जाती थी।
पति स्कूल चले जाते और पास पडोस की महिलायें मिलकर बातचीत, कामकाज करते हुए अपने सामाजिक दायित्व भी निभाती रहतीं। सखियों से बातचीत करके पत्नी को एक दिन पता लगा कि राष्ट्रपति भवन में एक अद्वितीय उपवन है जिसे केवल बडे-बडे राष्ट्राध्यक्ष ही देख सकते हैं। लेकिन अब गरीबों की किस्मत जगी है और राष्ट्रपति ने यह उपवन एक महीने के लिये भारत की समस्त जनता के लिये खोल दिया है। पत्नी का बहुत मन था कि वे दोनों भी एक बार जाकर उस उद्यान को निहार लें। एक बार देखकर उसकी सुन्दरता को आंखों में इस प्रकार भर लेंगे कि जीवन भर याद रख सकें। बदायूँ में रहते हुए तो वहाँ की बात पता ही नहीं चलती, गाज़ियाबाद से तो जाने की बात सोची जा सकती है। वे घर आयें तो पूछें, न जाने बस का टिकट कितना होगा। कई दिन के प्रयास के बाद एक शाम दिल की बात पति को बता दी। वे रविवार को चलने के लिये तैयार हो गये। तैयार होकर घर से निकलकर जब उन्होने साइकल उठाई तो पत्नी ने सुझाया कि वे बस अड्डे तक पैदल जा सकते हैं। पति ने मुस्कुराकर उन्हें साइकल के करीयर पर बैठने को कहा और पैडल मारना शुरू किया तो सीधे राष्ट्रपति भवन आकर ही रुके।
पत्नी को मुगल गार्डैन भेजकर वे साइकल स्टैंड की तरफ चले गये। पत्नी ने इतना सुन्दर उद्यान पहले कभी नहीं देखा था। उन्हें अपने निर्णय पर प्रसन्नता हुई। कुछ तो उद्यान बडा था और कुछ भीड के कारण पति पत्नी बाग में एक दूसरे से मिल नहीं सके। सब कुछ अच्छी प्रकार देखकर जब वे प्रसन्नमना बाहर आईं तो चतुर पति पहले से ही साइकल लाकर द्वार पर उनका इंतज़ार कर रहे थे। साइकल पर दिल्ली से गाज़ियाबाद वापस आते समय हवा में ठंड और बढ गयी थी। मौसम से बेखबर दोनों लोग मगन होकर उस अनुपम उद्यान की बातें कर रहे थे और उसके बाद भी बहुत दिनों तक करते रहे। बेटी की शादी के बाद पत्नी को पता लगा कि जब वे उद्यान का आनन्द ले रही थीं तब पति बाग के बाहर खडे साइकल की रखवाली कर रहे थे क्योंकि तब भी एक ईमानदार भारतीय साइकल स्टैंड का खर्च नहीं उठा सकता था। लेकिन उस ईमानदार भारतीय परिवार को तब भी अपनी सामर्थ्य पर विश्वास और अपनी ईमानदारी पर गर्व था और उनके बच्चों को आज भी है।
कोई खास नहीं, कोई अनोखी नहीं, एक आम ईमानदार भारतीय परिवार की ईमानदार दास्ताँ, जो कभी गायी नहीं गयी, जिस पर कोई महाकाव्य नहीं लिखा गया। इस गाथा पर कोई फिल्म भी नहीं बनी, हिन्दी, अंग्रेज़ी या क्षेत्रीय। शायद इसकी याद भी नहीं आती अगर ज्ञानदत्त पांडेय जी ईमानदारी पर चर्चा को एक बार कर चुकने के बाद दोबारा आगे न बढाते। याद रहे, यह ऐसा साधारण और ईमानदार भारतीय परिवार है जहाँ ईमानदारी कभी भी असाधारण नहीं थी। छोटी-छोटी बहुतेरी मुठभेडें हैं, सुखद भी दुखद भी। यह यादें चाहे रुलायें चाहे होठों पर स्मिति लायें, वे मुझे गर्व का अनुभव अवश्य कराती हैं। कोई नियमित क्रम नहीं, जो याद आता जायेगा, लिखता रहूंगा। आशा है आप असुविधा के लिये क्षमा करेंगे।
बात काफी पुरानी है। अब तो कथा नायक को दिवंगत हुए भी कई दशक हो चुके हैं। जीवन भर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उनके कुनबे के अयोध्या से स्वयं-निर्वासन लेकर उत्तर-पांचाल आने की भी एक अजब दंतकथा है लेकिन वह फिर कभी। उनके पिताजी के औसत साथियों की कोठियाँ खडी हो गयीं मगर उनके लिये पैतृक घर को बनाए रखना भी कठिन था। काम लायक पढाई पूरी करके नौकरी ढूंढने की मुहिम आरम्भ हुई। बदायूँ छूटने के बाद ईमानदारी के चलते बीसियों नौकरियाँ छूटने और बीसियों छोडने के बाद अब वे गाज़ियाबाद के एक स्कूल में पढा रहे थे। वेतन भी ठीक-ठाक मिल रहा था। शरणार्थियों के इलाके में एक सस्ता सा घर लेकर पति-पत्नी दोनों पितृऋण चुकाने के लिये तैयार थे। विलासिता का आलम यह था कि यदि कभी खाने बनाने का मन न हो तब तन्दूर पर आटा भेजकर रोटी बनवा ली जाती थी।
पति स्कूल चले जाते और पास पडोस की महिलायें मिलकर बातचीत, कामकाज करते हुए अपने सामाजिक दायित्व भी निभाती रहतीं। सखियों से बातचीत करके पत्नी को एक दिन पता लगा कि राष्ट्रपति भवन में एक अद्वितीय उपवन है जिसे केवल बडे-बडे राष्ट्राध्यक्ष ही देख सकते हैं। लेकिन अब गरीबों की किस्मत जगी है और राष्ट्रपति ने यह उपवन एक महीने के लिये भारत की समस्त जनता के लिये खोल दिया है। पत्नी का बहुत मन था कि वे दोनों भी एक बार जाकर उस उद्यान को निहार लें। एक बार देखकर उसकी सुन्दरता को आंखों में इस प्रकार भर लेंगे कि जीवन भर याद रख सकें। बदायूँ में रहते हुए तो वहाँ की बात पता ही नहीं चलती, गाज़ियाबाद से तो जाने की बात सोची जा सकती है। वे घर आयें तो पूछें, न जाने बस का टिकट कितना होगा। कई दिन के प्रयास के बाद एक शाम दिल की बात पति को बता दी। वे रविवार को चलने के लिये तैयार हो गये। तैयार होकर घर से निकलकर जब उन्होने साइकल उठाई तो पत्नी ने सुझाया कि वे बस अड्डे तक पैदल जा सकते हैं। पति ने मुस्कुराकर उन्हें साइकल के करीयर पर बैठने को कहा और पैडल मारना शुरू किया तो सीधे राष्ट्रपति भवन आकर ही रुके।
पत्नी को मुगल गार्डैन भेजकर वे साइकल स्टैंड की तरफ चले गये। पत्नी ने इतना सुन्दर उद्यान पहले कभी नहीं देखा था। उन्हें अपने निर्णय पर प्रसन्नता हुई। कुछ तो उद्यान बडा था और कुछ भीड के कारण पति पत्नी बाग में एक दूसरे से मिल नहीं सके। सब कुछ अच्छी प्रकार देखकर जब वे प्रसन्नमना बाहर आईं तो चतुर पति पहले से ही साइकल लाकर द्वार पर उनका इंतज़ार कर रहे थे। साइकल पर दिल्ली से गाज़ियाबाद वापस आते समय हवा में ठंड और बढ गयी थी। मौसम से बेखबर दोनों लोग मगन होकर उस अनुपम उद्यान की बातें कर रहे थे और उसके बाद भी बहुत दिनों तक करते रहे। बेटी की शादी के बाद पत्नी को पता लगा कि जब वे उद्यान का आनन्द ले रही थीं तब पति बाग के बाहर खडे साइकल की रखवाली कर रहे थे क्योंकि तब भी एक ईमानदार भारतीय साइकल स्टैंड का खर्च नहीं उठा सकता था। लेकिन उस ईमानदार भारतीय परिवार को तब भी अपनी सामर्थ्य पर विश्वास और अपनी ईमानदारी पर गर्व था और उनके बच्चों को आज भी है।
ओह गजब है. लेकिन यह क्षमता कितने लोगों में है, कठिनाईयां सहन करना (ईमानदारी के लिये) कौन चाहता है... फिर जिस बात के लिये इतना बड़ा तन्त्र चुना जाता है, इतने लोगों के पेटों को पाला जाता है, वह अपना कर्तव्य क्यों नहीं निभाता. यदि सिस्टम इतना ही निकम्मा है तो हमें फिर उस सिस्टम की जरूरत है क्या.
ReplyDeleteवाह ! शानदार !
ReplyDeleteअनुराग भाई,
ReplyDeleteखुशियां दुनिया भर की दौलत में नहीं, सच्चे साथ और छोटी-छोटी ऐसी ही बातों में छुपी होती है...ईमानदारी अनमोल है...खुद अपनी नज़रों में आदमी कभी नहीं गिरता...माताजी-पिताजी से जुड़ी ये घटना बताती है कि उस पीढ़ी ने हमें जीवन में कुछ बनाने के लिए खुद कितना संघर्ष किया...बस हमारी पीढ़ी ये बात ही हमेशा याद रख सके तो बड़ी बात है...वरना तो...
जय हिंद...
विश्वास नहीं होता कि ऐसे भी लोग होते हैं दुनिया में ...
ReplyDeleteek sach----jisse har aam aadmi kabhi na kabhi gujrata hai...
ReplyDeletejai baba banaras....
नुकरणीय उदाहरण ! हार्दिक शुभकामनायें !!
ReplyDeleteमुनव्वर राना साहब का एक शेर कुछ इस तरह है (सही तौर पर याद नहीं आ रहा):
ReplyDeleteशर्म आती है तनख्वाह बताते हुए मुझको,
इतने में तो बच्चों का गुबारा नहीं मिलता.
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चलो अमीरी का एन्तिलिया न सही, इमानदारी की साईकिल तो है!!
कठिनाईयों से ही ईमानदारी को पोषण मिलता है,अन्यथा कौन समझता ईमानदारी संघर्ष!!और उसकी कीमत।
ReplyDeleteयह प्रसंग निश्चित ही पिताजी का है।। आज आप अभावो को भूलकर उस ईमानदारी पर गर्व कर सकते है। यही तो है उस संघर्ष का मूल्य!!
स्पष्ट है कि उन्होंने बस यात्रा भी उसी कारण से नहीं की जिसके लिये उन्हें अपनी साइकिल की रखवाली स्वयं करनी पड़ी ! मुझे लगता है कि साइकिल / अर्थ / ईमानदारी के अतिरिक्त एक आयाम और है इस कथा का ...
ReplyDeleteअपनी संगिनी के आह्लाद के लिए उन्होंने जो* किया वह भी कम अनुकरणीय है क्या ? स्वजन के आनंद का कोई मोल है भला ?
* ( श्रम , इन्तजार , उद्यान देखने की निज इच्छा पर नियंत्रण और पत्नी को इसकी भनक तक नहीं लगने दी कि जानकारी होने पर पत्नी के उत्साह पर पानी फिर जाएगा या वह कार्यक्रम निरस्त कर देंगी )
स्पष्ट है कि उन्होंने बस यात्रा भी उसी कारण से नहीं की जिसके लिये उन्हें अपनी साइकिल की रखवाली स्वयं करनी पड़ी ! मुझे लगता है कि साइकिल / अर्थ / ईमानदारी के अतिरिक्त एक आयाम और है इस कथा का ...
ReplyDeleteअपनी संगिनी के आह्लाद के लिए उन्होंने जो* किया वह भी कम अनुकरणीय है क्या ? स्वजन के आनंद का कोई मोल है भला ?
* ( श्रम , इन्तजार , उद्यान देखने की निज इच्छा पर नियंत्रण और पत्नी को इसकी भनक तक नहीं लगने दी कि जानकारी होने पर पत्नी के उत्साह पर पानी फिर जाएगा या वह कार्यक्रम निरस्त कर देंगी )
सरजी, ये भी तो नहीं कह सकता की अनुकरणीय ..... ऐसी बातें पढते और कहते बहुत ही अच्छी लगती हैं, पर कर नहीं सकते.......
ReplyDelete२०-१५ दिन पहले की ही तो बात है, मुग़ल गार्डन का मसला उठा था, पर सोच सोच कर रह गया की वहाँ पता नहीं स्कूटर पार्किंग की जगह होगी या नहीं.......
पर बच्चों का मन रखने के लिए यहाँ तो तो सोचा ही न था. और शायद कर भी न पाता
पति की इमानदारी , पत्नी के लिए प्रेम और धैर्य की मसाल ....वाह !...अनुकरणीय व्यक्तित्व।
ReplyDeleteईमानदारी एक अनमोल वस्तु है जबकि आजकल इसका मोल भाव तय हो गया है, और यही असली परेशानी का कारण है.
ReplyDeleteरामराम.
अनुकरणीय।
ReplyDeleteइस संस्मरण ने मेरा आत्म विश्वास बढाया। अच्छा लगा। मन भीग आया और 'उन' पर गर्व हो आया। 'उन्हें' नमन।
ReplyDeleteहैं अभी भी ऐसे लोग जो शुध्द सोने के गहने बनाने का दम रखते हैं।
अनुकरणीय उदाहरण ..... सकारात्मक बातें पढ़कर बहुत अच्छा लगता है....
ReplyDeleteबहुत सुंदर... यह ईमान दारी भी ऎक तरह का शोक हे जी, जिसे लग जाये वो ही जाने इस का मजा, धन दोलत मे वो मजा नही जो ईमान दारी मे हे....लेकिन इस मजे को लेने के लिये दिल चाहिये... जो बहुत कम लोगो के पास हे.
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी लगी आज आप की यह कहानी....धन्यवाद
ईमानदारी से बढ़कर यह पत्नी के लिए उद्दाम समर्पण की कथा है -भला हुआ पत्नी ने एक और मुग़ल गार्डेन या ताजमहल की फरमाईश नहीं की -ईमानदार पतियों की पत्नियां समझदार होती हैं -बल्कि ईमानदारी/बेईमानी उन्ही की ही बदौलत चल पाती है!कह देती जहन्नुम जाए तुमाहारी साईकिल तब ? पड़ोस वाले गुप्ता जी स्कूटर पर घुमाते हैं अपनी पत्नी को !
ReplyDelete:):):)........
ReplyDeletepranam.
पिताजी के औसत साथियों की कोठिया खडी होगई औसत शव्द का प्रयोग भागया ।एक ईमानदार व्यक्ति के पास साइकल स्टेन्ड का खर्च उठाने लायक आर्थिक स्थिति भले ही न हो लेकिन वह मनोबल का इतना धनी होता है कि कुछ पूछिये मत ।क्या तव्दीली आई है जमाने में पहले कोई बेईमान होता था तो उसकी चर्चा होती है आज ईमानदार की चर्चा होती है
ReplyDeleteलाजवाब।
ReplyDelete:)
ऐसे एक ईमानदार को तो मैं जानता ही हूँ कम से कम।
लिखते रहिएगा, प्रतीक्षा रहेगी।
बहुत ही अच्छा लगा यह पढ़ना। और अपनी भी कई पुरानी यादें ताजा हो आईं।
ReplyDeleteChicken Soup for the Soul वाली साइट और पुस्तकें ऐसे ही जीवन मूल्यों को प्रस्तावित-प्रोत्साहित करती हैं। हिन्दी ब्लॉगरी भी इसी तरह के मूल्यों को आगे बढ़ाये तो बहुत सुन्दर हो!
ऐसा और लिखें आप।
अनुराग जी मैं समझता हूँ ईमानदारी के बहुत से स्तर हैं. व्यक्तिगत संबंधों में ईमानदारी, पद पर ईमानदारी, सामाजिक संबंधों की ईमानदारी. मैंने देखा है की कुछ लोग एक स्तर पर ईमानदार होते हैं तो दुसरे स्तर पर जाकर बेईमान हो जाते हैं. हर स्तर पर सच्चा और ईमानदार तो शायद खुद भगवन भी नहीं होगा. बात बहुत लम्बी है जो संक्षेप में कहने का प्रयास किया है. काम लिखा ज्यादा समझा जाय.
ReplyDeleteऐसी बातों का स्मरण नहीं होता और हो तो जिक्र नहीं. उल्लेखनीय, बार-बार चर्चा योग्य.
ReplyDeleteइस तरह के लोगों को शाही बाग़ देखने की ज़िद करने की शायद ज़रूरत नही ही होनी चाहिये..
ReplyDelete@इस तरह के लोगों को शाही बाग़ देखने की ज़िद करने की शायद ज़रूरत नही ही होनी चाहिये...
ReplyDeleteसत्य वचन! उन्होने भी नहीं देखा और मैने भी दो दशक दिल्ली में रहते हुए, रोज़ वहाँ से गुज़रते हुए भी कभी नहीं देखा।
@ VICHAAR SHOONYA
ReplyDeleteआप एकदम सही हैं। बेईमानी के अनेकों रूप हैं, परंतु उसका सबसे सामान्य और मापन योग्य रूप आर्थिक ही है।
@ ऐसा और लिखें आप।
ReplyDeleteधन्यवाद, ईश्वर आपका कहा पूरा करे।
@ali, दीपक बाबा, ZEAL
ReplyDeleteधन्यवाद, ईमानदारी और ज़िम्मेदारी सयामी जुडवाँ बहनें हैं। एक के बिना दूसरे की जान खतरे में है।
@ अभी भी ऐसे लोग जो शुध्द सोने के गहने बनाने का दम रखते हैं।
ReplyDeleteविष्णु जी, "सप्तैते चिरजीविना:..." में इन्हीं लोगोंकी बात कही गयी है। सातों चिरजीवियों के चिरंजीवी लक्षणों को एक बार फिर से देखिये।
सच में विश्वास होना मुश्किल है की आज के दौर मेईएन भी ऐसे इंसान हैं ... पर शायद हैं तभी तो दुनिया टिकी है ... भारत टिका है ...
ReplyDelete@ खुशदीप सहगल, सुज्ञ जी,
ReplyDeleteयह किस्सा मेरे पिताजी का नहीं, ताऊजी का है। पिताजी के किस्से फिर कभी।