पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये।
अब आगे भाग 18 ...
"अबे कब तक सोते रहोगे तुम लोग?" यह लट्ठमार स्वर घर के मालिक फ़तहसिंह का था।
"उठ जा बच्चे, ईर तो तैयार भी हो लिया, तूई बचा रै गया इब तक।"
वीर ने आँखें खोलीं तो फ़त्ते को सजा-धजा, एकदम तैयार अपने कमरे में पाया। सुबह सुबह, छुट्टी के दिन!
"आज इतनी जल्दी कैसे उठ गये?" वीर ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा।
"सुबह? 12 बज लिये हैं और तेरे चेहरे पे इबी 12 बज रहे हैं, उठ जा इब वरना ..." फ़त्ते ने शरारत से हाथ के टिकट हवा में हिलाते हुए कहा, " ... वरना जगजीत सिंह को देख नहीं पायेगा।
चादर झटक कर वीर बिस्तर से बाहर कूदे और फ़त्ते के हाथ से छीनकर टिकट देखे। वाकई जगजीत सिंह के कंसर्ट के तीन टिकट थे। यह तो उन्हें पता था कि दिल्ली में कंसर्ट था, उनकी इच्छा भी थी मगर टिकट महंगा होने, स्थल दूर होने और उस पर दोनों साथियों की संगीत में कोई खास रुचि न होने के कारण उन्होंने अधिक प्रयास नहीं किया था। पता लगा कि फ़त्ते ने खास उनके लिये अपने "कनेक्शंस" का प्रयोग करके बिल्कुल आगे के ये वीआइपी टिकट मंगवाये थे।
"हम तुझे खुस देखना चाहते हैं हीरो। इब नहा धो कै राजा बेटा बन जा फ़टाफ़ट, फेर निकलते हैं।"
"लेकिन इतनी जल्दी? क्या वहाँ गेट पर टिकट हमने ही चैक करने हैं?"
"देर मती न कर भाई, खाना दिल्ली में ही खायेंगे।"
कुछ ही देर में तीनों दोस्त फ़त्ते की गाड़ी में दिल्ली के लिये निकल पड़े। पहले तो परिक्रमा पहुँचे। फ़त्ते अपनी पार्टियों के साथ वहाँ आता रहता था परंतु वीर के लिये रिवॉल्विंग रेस्त्राँ में बैठकर घूमती दिल्ली देखने का अनुभव अद्भुत था। दल का अलिखित नियम था कि जब फ़त्ते खुद कहकर अपनी पसन्द की जगह लेकर जाता तो ट्रिप का स्पॉंसर वही होता था। सो आज का बिल भी उसी के नाम था।
ऐपेटाइज़र्स आ गये थे। खाते जा रहे थे, दिल्ली की परिक्रमा भी चल रही थी और मज़ाक भी। झरना का नाम लेकर दोनों वीर की शादी की वेन्यू तय करने के लिये झगड़ रहे थे। एक को फ़ाइव स्टार चाहिये था और दूसरे को फ़ार्म हाउस। वीर भी उनके उल्लास से उत्साहित थे।
तभी फ़त्ते ने ईर को कोहनी मारते हुए कहा, "ठाँ ठाँ, सामने।" और दोनों चुप होकर सामने देखने लगे। वीर उनका इशारा समझकर मन ही मन बोले, "कभी नहीं सुधरेंगे ये" फिर बोलकर फ़त्ते से कहा, "अरविन्द को भी बिगाड़ देना अपने साथ।"
"यो!" फत्ते ने हँसी से लोटपोट सा होते हुए कहा, "उल्टा इस चालू ने मुझे बिगाड़ा है।"
"पलटकर देख तो सही, तू भी बिगड़ जायेगा, झरना, ज़रीना सब भूल के" इस बार चुटकी लेने वाला ईर था।
तब तक जिनकी बात हो रही थी वे लोग अन्दर आकर इन लोगों के विपरीत टेबल पर बैठने लगे थे। वीर ने कनखियों से देखा और देखता ही रह गया।
"काँड़ी आँख से मत देख, घुमा ले गर्दन अपनी, आ सीट बदल ले मेरे से छोरे।" फ़त्ते ने अपने स्थान से उठकर वीर के पास आकर उनको आग्रहपूर्वक उठाकर अपनी सीट पर भेज दिया। यहाँ से सामने का दृश्य एकदम स्पष्ट था। वे पाँच लोग थे, दो लड़के और तीन लडकियाँ। उसे अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं हो रहा था। ऐसे भी होता है क्या? एक हफ्ते मन्नत मांगो और दूसरे हफ्ते सच? वही है? नहीं है? वही है? अभी-अभी क्या चमत्कार हो गया था इसका वीर के साथियों को बिल्कुल भी अन्दाज़ नहीं था।
[क्रमशः]
पिछले किसी अंक में झरना की संपत्तियों और शहरों के जो संकेत देखे थे उनके सूत्र पकड़कर मैं इस कथा को संस्मरणात्मक आलेप के साथ गढा गया महसूस कर रहा हूं !
ReplyDeleteयही वज़ह है कि दुआ करने वालों में चौथा नाम अपना भी जुड़वाया था :)
अभी के हालात भले ही मिलन के लग रहे हों पर कथांत पर मेरी अपनी परिकल्पना अब तक बिछोह की ही है !
जिज्ञासा के मारे म्हारा तो हार्ट फ़ेल करवा देंगे आपके यो ईर, वीर, फ़त्ते, झरना, अली भाई एट्सेट्रा एट्सेट्रा..
ReplyDeleteमन्नतों का असर हो रहा है।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढने के बाद मैंने अपने एक 'नोट' अपने कम्प्यूटर के पास रख दिया है कि यदि मैं कम्प्यूटर पर काम करते-करते मरा हुआ पाया जाऊँ तो इसकी जिम्मेदारी 'अनुरागी मन' और इसके लेखक की मानी जाए।
ReplyDeleteऐसी और इतनी प्रतीक्षा भी क्या करवानी कि पढनेवाले की जान ही निकल जाए?
जिज्ञासा बढ़ा रही है आपकी कहानी,आभार.
ReplyDeleteऐसा चमत्कार 'फिलम' में भी हो जाता है !
ReplyDeleteआभार !
main vishnu sir ki baat se sahmat hu.aap chahte hai intejaar aur sahi par tukdo tukdo me padhne ke sabar ni ho raha
ReplyDelete:) good direction of progress :)
ReplyDeleteई देखा देखी क्या है ई देखा देखी ?
ReplyDeleteमेरा नाम बस संयोग ही है न ?
गति बढ़ा के मुझ पर बहुत उपकार किया है आपने, लेकिन बावजूद इसके मेरी टिप्पणी संजय जी और विष्णु जी की सहमति में ही है। :)
ReplyDeleteअली जी,
ReplyDeleteअब आपसे क्या कहूँ? कुछ कहता हूँ तो आगे रस कम होने का डर लगता है। तो भी इतना तो कहनी ही पड़ रहा है कि इस कहानी के पात्रों ने अपने लेखक को कभी पसन्द नहीं किया था।
कनु, अविनाश, संजय और विष्णु जी (ऐवं अन्य सभी),
ReplyDeleteइंतज़ार की घड़ियाँ लम्बी लगती हैं पर होती नहीं हैं। बस अगली दो कड़ियों में सबकी कहानी अपने-अपने ठिये लगने वाली है।
अरविन्द जी,
ReplyDeleteकहानी में नाम, पात्र, स्थान, आदि सभी काल्पनिक हैं और इसका किसी जीवित, मृतक या अजन्मे व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं है। हर पात्र का कोई नाम तो रखना ही है पर नामों की समानता संयोगमात्र है।