(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)
अवचेतन की
कुछ चेतन की
थोड़ी मन की
बाकी तन की
कुछ यौवन की
कुछ जीवन की
इस नर्तन की
उस कीर्तन की
परिवर्तन की
और दमन की
सीमायें होती हैं
लेकिन
सीमा होती नहीं
पतन की...
इस जीवन की आपूर्ति सीमित है, कृपया सदुपयोग करें |
अवचेतन की
कुछ चेतन की
थोड़ी मन की
बाकी तन की
कुछ यौवन की
कुछ जीवन की
इस नर्तन की
उस कीर्तन की
परिवर्तन की
और दमन की
सीमायें होती हैं
लेकिन
सीमा होती नहीं
पतन की...
आकाश और पाताल की गहराइयो की माप कौन कर पाया आज तक - उत्थान और पतन की सीमा रेखा कहाँ से आए !
ReplyDeleteसटीक ... कुछ शब्दों में गहरी बात ... पतन की कोई सीमा नहीं ...बस सबकी अपनी अपनी सीमा है अगर अपना अपना पतन रोकना चाहें तब ...
ReplyDeleteबहुत खूब !!
ReplyDelete:)
ReplyDeleteसही है पतन की कोई सीमा नहीं !
ReplyDeleteकटु यथार्थ
ReplyDeleteSach, Bahut Umda
ReplyDeleteTrue
ReplyDeleteबहुत ही बढिया
ReplyDeleteऔर ऐसे ही उत्थान की भी...
ReplyDeleteसही कहा!
ReplyDeleteधन्यवाद शास्त्री जी
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है आपने. एक शेर याद आया कृष्ण बिहारी नूर का -
ReplyDeleteसच घटे, या बढे, तो सच ना रहे
झूठ की कोई इंतेहा ही नहीं.
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति सर.
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