शीर्षक पढ़कर शायद आप कहें कि सिर्फ माओवादी या दुसरे आतंकवादी ही क्यों, इंसान को इंसान न समझने वाले, दूसरों के जीवन को दो कौड़ी से कम आंककर सारी दुनिया को मानव रक्त से लाल करने का सपना देख रहा हर वहशी जानवर से बदतर है। मगर ज़रा ठहरिये, यह शीर्षक मेरा नहीं है, यह लिया गया है "डायरी ऑव एन इंडियन" वाले अनिल रघुराज की एक ताज़ा पोस्ट से।
मैं अनिल रघुराज को जानता नहीं मगर हाल ही में मैंने उनका ब्लॉग अर्थकाम देखा था। पूंजीवाद और अर्थतंत्र में मुझे ख़ास रूचि नहीं है तो भी भूतपूर्व बैंकर होने के नाते इन चीज़ों पर नज़र पड़ जाती है। मैं पूंजी निवेश पर आधारित उस ब्लॉग की शैली से प्रभावित हुए बिना न रह सका। इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उसे "ज़रा हट के" वाली ब्लॉगलिस्ट में जोड़ा। पहले कभी उनकी एक कहानी भी पढी थी मगर वह सोवियत रूसी प्रचार पत्रिकाओं की उपदेशात्मक, सारहीन, बनावटी और इश्तिहारी कहानियों की याद दिलाती थी इसलिए उस पर उतना ध्यान नहीं गया।
उस पोस्ट पर एक दुखद चित्र लगाया गया है जिसमें सैनिक वर्दी में दो पुरुष निर्विकार भाव से एक महिला की लाश को लेकर जा रहे हैं। उस चित्र को देखना भी दुखद है। अगर यह चित्र चीन, उत्तर कोरिया आदि का होता तो शायद किसी को आश्चर्य नहीं होता क्योंकि तानाशाहों के यहाँ तो जनता हमेशा ही सूली पर टंगी होती है परन्तु भारत के बारे में ऐसा कुछ सुनना, देखना दर्दनाक होने के साथ शर्मनाक भी है। ब्लॉग के अनुसार यह चित्र पश्चिम बंगाल का है। पश्चिम बंगाल जहाँ अत्याधुनिक चीनी हथियार और मिलिशिया से सशस्त्र एक कम्युनिस्ट दल, दशकों से सत्तारूढ़ सरकारी साधन-संपन्न दूसरे कम्युनिस्ट दल के साथ सशस्त्र संघर्ष में लिप्त है। इन दोनों कम्युनिस्ट दलों के बीच पिसते निर्दोष मासूम गरीब रोज़ अकारण ही मारे जा रहे हैं। मगर हिंसक कम्युनिस्ट संघर्षों का झंडा तो सारी दुनिया में निर्दोषों के खून से ही लाल किया गया है तो यहाँ कोई अपवाद क्यों हो?
शहरों में अपने परिवारों के साथ आराम की ज़िंदगी बिताने वाले लोग शायद उन परिस्थितियों के बारे में सोचकर ही सिहर जाएँ जो माओवाद, नक्सलवाद - जहां यह चित्र खींचा गया था - और आतंकवाद के अन्य प्रकारों से प्रभावित क्षेत्रों में दिन रात घट रहे है। मुझे चित्र की घटना, स्थल, समय, परिस्थिति या स्रोत के बारे में कुछ भी निश्चित पता नहीं है इसलिए उस पर कुछ नहीं कह सकता हूँ। आपत्ति तो मुझे इस बात पर है कि जन-भावना भड़काने के उद्देश्य से उस चित्र के साथ जानबूझकर सूअर का शिकार करके डंडे पर बांधकर लाते एक सुविधा-संपन्न पश्चिमी पर्यटक स्त्री-पुरुष का पूर्णतया असम्बद्ध चित्र वहां लगाकर इन दोनों चित्रों की तुलना की गयी है।
सुदूर बीहड़ वनों में माओवादियों द्वारा ज़हरीले कर दिए गए जलस्रोतों के बीच, १२३ अंश फेहरनहाईट के तापमान में तपती टीन और पुराने तम्बुओं के नीचे कई हफ़्तों से पसीने से लिजलिजा रही वर्दी में नहाना तो दूर, दांत मांजने की विलासिता की बात सोचे बिना कई-कई रातों तक बिना सोये, अपनी छः महीने की होंठकटी बिटिया को एक बार भी देखे बिना और इस अभियान पर आने से पहले अपनी अंधी और विधवा माँ के पाँव छूए बिना चल पड़ने की बेबसी लिए जो जवान देश के किसानों और आदिवासियों की जीवनरक्षा के साथ उनकी नदियों, पुलों, सडकों, रेल पटरियों, स्कूलों और गाँवों को आधुनिक विदेशी हथियारों से लैस निर्दय तस्करों, खनिज और वन संपदा के लुटेरों, माओवादियों और दुसरे आतंकवादियों से बचाने के लिए दीवार बन कर खड़े हुए हैं उन्हें अपने कर्म का औचित्य ढूँढने के लिए किसी झूठे, किताबी, स्वार्थी, हत्यारे सत्तालोलुप या धनलोलुप, वाद की ज़रुरत नहीं है।
माओवादियों की बंदूकों से निकलती आसुरी मौत के शिकार बने लोगों के साथ पूरी सहानुभूति और दया होने के बावजूद उनके शवों को ले जाने के लिए दुर्दम्य परिस्थितियों में काम करते वे सिपाही संदर्भित ब्लॉग के लेखकों की तरह मुम्बई के किसी एसी कमरे में बैठकर महंगी विदेशी परफ्यूम से सुवासित रुमाल से अपनी नाक ढंककर स्ट्रेचर मंगवाने का इंतज़ार नहीं कर सकते हैं। उन्हें वहीं जंगल से लकडियाँ तोड़कर या जैसे भी संसाधन हों उन्हें इकट्ठा करके अपना काम करना पडेगा। जिस किसी ने भी वह चित्र लिया है और जिस ने भी अपनी-अपनी पोस्ट पर लगाया है उनसे मेरा अनुरोध है कि अपना मानवीय पक्ष दिखाएँ और लाशों की राजनीति करके शिकायत करने के बजाय एसी कमरे से बाहर निकलें और निष्ठा से अपने काम में लगे उन निर्भीक सिपाहियों के काम में हाथ बंटाएं। नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उनकी कार्य-परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील हों और प्रयास करें कि ऐसी परिस्थितियां बनने ही न पायें कि मानवता को रोज़ शर्मिन्दा होना पड़े। हमें गर्व है कि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं और माओवादियों के कारनामों के साथ-साथ पुलिस की कमियाँ भी उजागर कर सकते हैं। भगवान् न करे माओवाद या तालेबान जैसी कोई आसुरी शक्ति अगर किसी इलाके में सफल हो गयी तो चीन, अफगानिस्तान, चेचन्या, म्यांमार और उत्तर कोरिया की तरह यहाँ भी आप न अपने ब्लॉग पर और न अपनी जुबां से इस देशसेवा का दंभ दिखा पायेंगे।
पुलिस और उस पर सत्ता रखने वाली सरकारें सही हों, यह ज़रूरी नहीं है। सत्ता का दुरुपयोग करने वालों की कमी नहीं है, खासकर तानाशाही "-वादों" वाली दम्भी सरकारों में। मगर उसका बहाना लेकर जान जोखिम में डालते सैनिकों पर बेल्ट के नीचे प्रहार करने के बहाने ढूंढना शर्मनाक है। जिन वीरों ने देशवासियों की सुरक्षा के लिए वर्दी पहनकर कफ़न बांधा है उनके भी मानवाधिकार है, यह बात अगर हम ही नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा?
संदर्भित पोस्ट पर एक मृत मानव की एक शिकार किये गए सूअर से की गयी इस असंवेदनशील तुलना से मैं उतना ही व्यथित हूँ जितना माओवाद-प्रभावित क्षेत्रों में चल रही निष्ठुर कुत्ता-घसीटी से। विडम्बना है कि हमारा लोकतंत्र अपना विचार और भावनाएं व्यक्त करने का अधिकार देता है भले ही उससे एक मृतक का और मानव जीवन का घोर अपमान हो रहा हो। चित्र में दिखाई गयी स्त्री से मुझे सहानुभूति है। ईश्वर उसकी आत्मा को शान्ति दें। राज्य एवं केंद्र सरकार उन क्षेत्रों से अराजकता मिटाकर व्यवस्था लाये। हम लोग इंसान बनें और अपनी ब्लॉग पोस्टों या अखबारों में उसकी मृतदेह का भद्दा मज़ाक उड़ाने से बचें।
चलते चलते "दिनकर" की "परशुराम की प्रतीक्षा" से दो पंक्तियाँ
गर्दन पर किसका पाप वीर! ढोते हो?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो?
मैं अनिल रघुराज को जानता नहीं मगर हाल ही में मैंने उनका ब्लॉग अर्थकाम देखा था। पूंजीवाद और अर्थतंत्र में मुझे ख़ास रूचि नहीं है तो भी भूतपूर्व बैंकर होने के नाते इन चीज़ों पर नज़र पड़ जाती है। मैं पूंजी निवेश पर आधारित उस ब्लॉग की शैली से प्रभावित हुए बिना न रह सका। इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उसे "ज़रा हट के" वाली ब्लॉगलिस्ट में जोड़ा। पहले कभी उनकी एक कहानी भी पढी थी मगर वह सोवियत रूसी प्रचार पत्रिकाओं की उपदेशात्मक, सारहीन, बनावटी और इश्तिहारी कहानियों की याद दिलाती थी इसलिए उस पर उतना ध्यान नहीं गया।
उस पोस्ट पर एक दुखद चित्र लगाया गया है जिसमें सैनिक वर्दी में दो पुरुष निर्विकार भाव से एक महिला की लाश को लेकर जा रहे हैं। उस चित्र को देखना भी दुखद है। अगर यह चित्र चीन, उत्तर कोरिया आदि का होता तो शायद किसी को आश्चर्य नहीं होता क्योंकि तानाशाहों के यहाँ तो जनता हमेशा ही सूली पर टंगी होती है परन्तु भारत के बारे में ऐसा कुछ सुनना, देखना दर्दनाक होने के साथ शर्मनाक भी है। ब्लॉग के अनुसार यह चित्र पश्चिम बंगाल का है। पश्चिम बंगाल जहाँ अत्याधुनिक चीनी हथियार और मिलिशिया से सशस्त्र एक कम्युनिस्ट दल, दशकों से सत्तारूढ़ सरकारी साधन-संपन्न दूसरे कम्युनिस्ट दल के साथ सशस्त्र संघर्ष में लिप्त है। इन दोनों कम्युनिस्ट दलों के बीच पिसते निर्दोष मासूम गरीब रोज़ अकारण ही मारे जा रहे हैं। मगर हिंसक कम्युनिस्ट संघर्षों का झंडा तो सारी दुनिया में निर्दोषों के खून से ही लाल किया गया है तो यहाँ कोई अपवाद क्यों हो?
शहरों में अपने परिवारों के साथ आराम की ज़िंदगी बिताने वाले लोग शायद उन परिस्थितियों के बारे में सोचकर ही सिहर जाएँ जो माओवाद, नक्सलवाद - जहां यह चित्र खींचा गया था - और आतंकवाद के अन्य प्रकारों से प्रभावित क्षेत्रों में दिन रात घट रहे है। मुझे चित्र की घटना, स्थल, समय, परिस्थिति या स्रोत के बारे में कुछ भी निश्चित पता नहीं है इसलिए उस पर कुछ नहीं कह सकता हूँ। आपत्ति तो मुझे इस बात पर है कि जन-भावना भड़काने के उद्देश्य से उस चित्र के साथ जानबूझकर सूअर का शिकार करके डंडे पर बांधकर लाते एक सुविधा-संपन्न पश्चिमी पर्यटक स्त्री-पुरुष का पूर्णतया असम्बद्ध चित्र वहां लगाकर इन दोनों चित्रों की तुलना की गयी है।
सुदूर बीहड़ वनों में माओवादियों द्वारा ज़हरीले कर दिए गए जलस्रोतों के बीच, १२३ अंश फेहरनहाईट के तापमान में तपती टीन और पुराने तम्बुओं के नीचे कई हफ़्तों से पसीने से लिजलिजा रही वर्दी में नहाना तो दूर, दांत मांजने की विलासिता की बात सोचे बिना कई-कई रातों तक बिना सोये, अपनी छः महीने की होंठकटी बिटिया को एक बार भी देखे बिना और इस अभियान पर आने से पहले अपनी अंधी और विधवा माँ के पाँव छूए बिना चल पड़ने की बेबसी लिए जो जवान देश के किसानों और आदिवासियों की जीवनरक्षा के साथ उनकी नदियों, पुलों, सडकों, रेल पटरियों, स्कूलों और गाँवों को आधुनिक विदेशी हथियारों से लैस निर्दय तस्करों, खनिज और वन संपदा के लुटेरों, माओवादियों और दुसरे आतंकवादियों से बचाने के लिए दीवार बन कर खड़े हुए हैं उन्हें अपने कर्म का औचित्य ढूँढने के लिए किसी झूठे, किताबी, स्वार्थी, हत्यारे सत्तालोलुप या धनलोलुप, वाद की ज़रुरत नहीं है।
माओवादियों की बंदूकों से निकलती आसुरी मौत के शिकार बने लोगों के साथ पूरी सहानुभूति और दया होने के बावजूद उनके शवों को ले जाने के लिए दुर्दम्य परिस्थितियों में काम करते वे सिपाही संदर्भित ब्लॉग के लेखकों की तरह मुम्बई के किसी एसी कमरे में बैठकर महंगी विदेशी परफ्यूम से सुवासित रुमाल से अपनी नाक ढंककर स्ट्रेचर मंगवाने का इंतज़ार नहीं कर सकते हैं। उन्हें वहीं जंगल से लकडियाँ तोड़कर या जैसे भी संसाधन हों उन्हें इकट्ठा करके अपना काम करना पडेगा। जिस किसी ने भी वह चित्र लिया है और जिस ने भी अपनी-अपनी पोस्ट पर लगाया है उनसे मेरा अनुरोध है कि अपना मानवीय पक्ष दिखाएँ और लाशों की राजनीति करके शिकायत करने के बजाय एसी कमरे से बाहर निकलें और निष्ठा से अपने काम में लगे उन निर्भीक सिपाहियों के काम में हाथ बंटाएं। नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उनकी कार्य-परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील हों और प्रयास करें कि ऐसी परिस्थितियां बनने ही न पायें कि मानवता को रोज़ शर्मिन्दा होना पड़े। हमें गर्व है कि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं और माओवादियों के कारनामों के साथ-साथ पुलिस की कमियाँ भी उजागर कर सकते हैं। भगवान् न करे माओवाद या तालेबान जैसी कोई आसुरी शक्ति अगर किसी इलाके में सफल हो गयी तो चीन, अफगानिस्तान, चेचन्या, म्यांमार और उत्तर कोरिया की तरह यहाँ भी आप न अपने ब्लॉग पर और न अपनी जुबां से इस देशसेवा का दंभ दिखा पायेंगे।
पुलिस और उस पर सत्ता रखने वाली सरकारें सही हों, यह ज़रूरी नहीं है। सत्ता का दुरुपयोग करने वालों की कमी नहीं है, खासकर तानाशाही "-वादों" वाली दम्भी सरकारों में। मगर उसका बहाना लेकर जान जोखिम में डालते सैनिकों पर बेल्ट के नीचे प्रहार करने के बहाने ढूंढना शर्मनाक है। जिन वीरों ने देशवासियों की सुरक्षा के लिए वर्दी पहनकर कफ़न बांधा है उनके भी मानवाधिकार है, यह बात अगर हम ही नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा?
संदर्भित पोस्ट पर एक मृत मानव की एक शिकार किये गए सूअर से की गयी इस असंवेदनशील तुलना से मैं उतना ही व्यथित हूँ जितना माओवाद-प्रभावित क्षेत्रों में चल रही निष्ठुर कुत्ता-घसीटी से। विडम्बना है कि हमारा लोकतंत्र अपना विचार और भावनाएं व्यक्त करने का अधिकार देता है भले ही उससे एक मृतक का और मानव जीवन का घोर अपमान हो रहा हो। चित्र में दिखाई गयी स्त्री से मुझे सहानुभूति है। ईश्वर उसकी आत्मा को शान्ति दें। राज्य एवं केंद्र सरकार उन क्षेत्रों से अराजकता मिटाकर व्यवस्था लाये। हम लोग इंसान बनें और अपनी ब्लॉग पोस्टों या अखबारों में उसकी मृतदेह का भद्दा मज़ाक उड़ाने से बचें।
चलते चलते "दिनकर" की "परशुराम की प्रतीक्षा" से दो पंक्तियाँ
गर्दन पर किसका पाप वीर! ढोते हो?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो?
अभी देखता हूं और सोचता हूं कि आखिर क्या किया जा सकता है...
ReplyDeleteआप शायद भूल रहे हैं कि प्रजातंत्र के इस लबादे के नीचे बहुत से तानाशाह/तानाशाहीवाद पनप रहे हैं।
ReplyDeleteमाथा देखकर तिलक लगाने वाले अंदाज में कहीं मानवाधिकारों का शोर मचा देना और किसी पर दमन का आरोप लगा देना हमारे यहां फ़ैशन बन चुका है।
चीन के थियानमिन चौक पर जो कुछ हुआ, उस पर चुप्पी, दंतेवाड़ा में जो हुआ उसपर चुप्पी, बल्कि बताते हैं कि jnu में सेलिब्रेट भी किया गया उस नरसंहार को और जब बात कसाब या अफ़जल की आयेगी तो मानवाधिकार और पता नहीं क्या क्या उठ खड़े होते हैं।
चीन के सिक्यांग प्रांत में कट्टरवादी ग्रुपों पर कार्रवाई की सरकार ने तो संप्रभुता बचाने और बनाने के लिये वो जायज था, यहां सशस्त्र विद्रोहियों द्वारा बड़े बड़े हत्याकांड करने पर भी सरकार यही नहीं तय कर पाती कि हमें बलप्रयोग करना है कि नहीं तो उसके पीछे इन बुद्धिजीवियों द्वारा पैदा किया गया वही हाईप है कि वोट बैंक नाराज हो जायेगा।
जानवर तो फ़िर भी जो करता है वो पेट भरने के लिये या जीवन जीने के लिये, ये जो कर रहे हैं उसे नाम बेशक सर्वहारा का दे दें, करते साजिशन ही हैं।
सेलेक्टिव नैतिकता से और क्या उम्मीद की जा सकती है ?
ReplyDeleteप्रचार में विश्वास रखने वाले तस्वीर का दूसरा पक्ष नहीं देखा करते।
शवों को ले जाने के लिए दुर्दम्य परिस्थितियों में काम करते वे सिपाही इस ब्लॉग के लेखकों की तरह मुम्बई के किसी एसी कमरे में बैठकर महंगी विदेशी परफ्यूम से सुवासित रुमाल से अपनी नाक ढंककर स्ट्रेचर मंगवाने का इंतज़ार नहीं कर सकते हैं. उन्हें वहीं जंगल से लकडियाँ तोड़कर या जैसे भी संसाधन हों उन्हें इकट्ठा करके अपना काम करना पडेगा.
ReplyDelete@ इस बात से १००% सहमत |
जंगल में वही साधन काम आते है जो वहां उपलब्ध हो | इस तरह के चित्र लगाने वाले उन्ही नक्सलियों के दलाल है | वैसे भी नक्सली इंसान कहाँ है ? वे तो जानवर से भी गए गुजरे है उनके साथ तो इससे भी घटिया व्यवहार होना चाहिए थे मरने के बाद इन नक्सलियों के शवों को जंगली जानवरों के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए |
याद है दंतेवाडा की घटना | जहाँ नक्सलियों ने मरे जवानों के अंग तक काट डाले | ऐसे जानवरों के साथ कैसी हमदर्दी ?
शर्मनाक है!!!! मानवाधिकारों का शोर मचा देना और किसी पर दमन का आरोप लगा देना हमारे यहां फ़ैशन बन चुका है।
ReplyDeleteबहुत बडी त्रास्दी है इस देश की ये मानवाधिकार आयोग मे भी शायद ऐसे ही लोगों की घुसपैठ हो चुकी है। तभी तो इतना शोर मचाते हैं ये आयोग । बेकसूर लोगों के साथ क्या हुया इसका किसी को भी ख्याल नही। बहुत अच्छा लगा आलेख धन्यवाद्
ReplyDeleteआप में से कभी किसी ने वास्तविक माओवादी देखा है? या चित्र देख कर ही अपने प्यार और घृणा का निर्णय करते हैं।
ReplyDeleteYor question is not too bad , Mr. Anonymous.
ReplyDeleteEver thought, how can I be so sure about "Mister"?
माओवादियों से वारेन एंडरसन ज्यादा खतरनाक है, उसे क्यों नहीं ऐसे लटकाते हैं, मार कर डंडों से। और न जाने कितने एंडरसन आप के आस पास ही अड्डा जमाए बैठे होंगे।
ReplyDeleteपूरी तौर पर सहमत हूँ ! जैसे को तैसा मिलना ही चाहिए ! एक अच्छे लेख के लिए शुभकामनायें !
ReplyDeleteसैनिकों का किसी महिला के शव को इस तरह से ले जाना दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन हमें उन परिस्थियों के बारे में भी सोचना चाहिए जिनमें ये सैनिक काम कर रहे हैं. जंगल के इलाके में माओवादियों ने घर बना लिए होंगे लेकिन ये सैनिक कहाँ से घर लेकर आयें? दो फोटो को जिस तरह से एक जगह लगाया गया है, वह निहायत ही घटिया काम है. कभी किसी ने वह फोटो देखी है जो उस पुलिस इंस्पेक्टर का था जिसकी गर्दन माओवादियों ने अलग कर दी थी? नहीं देखा होगी किसी ने? कारण यह है की जहाँ मीडिया ने इस फोटो को बिना किसी काट-छांट के दिखाया वहीँ उस इंस्पेक्टर की बिना गर्दन वाली शरीर की फोटो को धुंधला करके दिखाया गया था.
ReplyDeleteअगर सवाल यह है कि; "क्या माओवादी जानवर दे भी बदतर हैं?" तो जवाब हाँ ही है.
माओवादियों (या दूसरे आतंकियों) को डंडे पर लटकाकर ले जाना ठीक नहीं है. उन्हें रस्सी से बांध कर घसीटते हुए ले जाया जाना चाहिये.
ReplyDeletewhaat! :-(
Deleteमाओवादियों या नकसली तो शायद अपने हको के लिये लडते है, लेकिन यह नेता किस लिये हमारा हक मारते है, क्यो गरीबो का खुन चुसते है....वारेन एंडरसन जेसो को देश से भागने मे मदद करते है, तो केसे हम इन नकस्ली को इन माऒ वादियो को बुरा कहे?? जब कि इन से बुरे लोग तो यह हरामी नेता है... ओर यही नेता इन्हे पनह भी देते है इन्हे बनाते भी यही है
ReplyDeleteपता नहीं लोगों को इन्हें आतंकवादी कहने में क्या दिक्कत है?
ReplyDelete--------
भविष्य बताने वाली घोड़ी।
खेतों में लहराएँगी ब्लॉग की फसलें।
इस सुन्दर आलेख के लिए आभार.
ReplyDeleteनक्सली और माओवादी घृणा के लायक ही नहीं बल्कि जूतों के लायक हैं। उनके प्रति हमदर्दी रखने वालों पर मुझे दया आती है। इनकी जुबान पर तब ताला लग जाता है जब ये बेरहमी से दुधमुंहे बच्चों और बेकसूरों की हत्या कर देते हैं। सेना और पुलिस के जवानों को घेरकर और तड़पा-तड़पा कर मारते हैं।
ReplyDeleteहां नक्सली और माओवादी जानवर हैं।
जितना कुछ माओवादियों के बारे में उद्घाटित हो रहा है उससे तो लगता है कि अब माओवाद की शकल में पूँजीवाद आनेवाला है।
ReplyDelete...वे सिपाही संदर्भित ब्लॉग के लेखकों की तरह मुम्बई के किसी एसी कमरे में बैठकर महंगी विदेशी परफ्यूम से सुवासित रुमाल से अपनी नाक ढंककर स्ट्रेचर मंगवाने का इंतज़ार नहीं कर सकते हैं....
ReplyDeleteWonderfully expresssed the several other aspects` of the tough life of our cop.
People in power has the luxury to make faces and talk big. when the time comes to take action, they simple allow the culprits like Anderson to run away. Arjun Singh like traitors are many in our country.
Its our misfortune that majority of intellectuals are busy with unimportant issues , raising voice for unnecessary and pathetic issues like language and other trivial stuff.
Life is foremost. We need to think and talk and do something for saving lives of innocent people. Govt. must take stern actions against Maoists otherwise there will be million kasaabs within no time.
बिना किसी तस्वीर और सन्दर्भ के भी केवल सवाल ही होता तो भी मेरा उत्तर यही होता कि 'हाँ माओवादी जानवर से बदत्तर हैं!' और ऐसे तस्वीर, तुलना और अरुंधती के लेखों से सभी नहीं भटक सकते. सही आकलन किया है आपने.
ReplyDeleteटिपण्णी द्वार अपने जिन भावों को प्रकट करना चाहता था वे भाव 'मो सम कौन' द्वारा प्रकट किये जा चुके हैं. इस देश के बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक वर्ग एक विशेष चश्मे से घटनाओं को देखने का आदी है और अपनी इस प्रवृति से देश का नुक्सान ( देश के साथ गद्दारी ) कर रहा है.
ReplyDeleteटिपण्णी द्वार अपने जिन भावों को प्रकट करना चाहता था वे भाव 'मो सम कौन' द्वारा प्रकट किये जा चुके हैं. इस देश के बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक वर्ग एक विशेष चश्मे से घटनाओं को देखने का आदी है और अपनी इस प्रवृति से देश का नुक्सान ( देश के साथ गद्दारी ) कर रहा है.
ReplyDeleteटिपण्णी द्वार अपने जिन भावों को प्रकट करना चाहता था वे भाव 'मो सम कौन' द्वारा प्रकट किये जा चुके हैं. इस देश के बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक वर्ग एक विशेष चश्मे से घटनाओं को देखने का आदी है और अपनी इस प्रवृति से देश का नुक्सान ( देश के साथ गद्दारी ) कर रहा है.
ReplyDeleteटिपण्णी द्वार अपने जिन भावों को प्रकट करना चाहता था वे भाव 'मो सम कौन' द्वारा प्रकट किये जा चुके हैं. इस देश के बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक वर्ग एक विशेष चश्मे से घटनाओं को देखने का आदी है और अपनी इस प्रवृति से देश का नुक्सान ( देश के साथ गद्दारी ) कर रहा है.
ReplyDeleteमैंने इस लेख को पढ़ने में थोड़ी देर कर दी पर अपने बहुत ही बढ़िया लेख लिखा है. उस ब्लॉग पर लगे दो चित्रों को देख कर मैं खुद भी सन्न था पर अपने मान के भावों को शब्दों की अभिव्यक्ति नहीं दे पाया. अपने मेरा काम कर दिया. बेहद धन्यवाद.
ReplyDeleteअनुराग जी, चाहे माओवादी हों या भ्रष्ट नेता, सभी गरीबों का शोषण करते हैं और गरीबों में जहाँ आदिवासी हैं, वहीं हमारे सैनिक भी हैं... गरीब बेचारा तो एक तरफ विचारधारा और दूसरी ओर सिद्धांतहीन राजनीति के बीच पिस रहा है.
ReplyDeleteयह पोस्ट मैंने भी देखी थी और मन वितृष्णा से भर गया था...
ReplyDeleteआपने अपने पोस्ट में जो कुछ भी कहा, बिलकुल यही भाव मेरे भी मन में उठे थे...परन्तु मन इतना तिक्त हो गया था कि लगा इसपर यदि प्रतिकारस्वरूप कुछ कहूँगी,तो स्वयं को संतुलित रख, आक्रोश दबाकर बात कहने में सफल न हो पाउंगी...
यही तो है नजरिया..अफ़सोस है कि ऐसे हलके ढंग से कैसे लोग इन गंभीर मसलों पर कलम चला देते हैं...
नहीं आंक पाते लोग स्वतंत्रता या लोकतंत्र का मोल...नहीं देख पाते कि मुखबिरी के नाम पर आये दिन किस प्रकार इस पूरे क्षेत्र में गांववालों को सीधे सीधे मार दिया जाता है..लोग दहशत में रहें,इनके सम्मुख शत प्रतिशत नतमस्तक रहें इसके लिए नक्सलियों ,माओवादियों की दंडनीति क्या है, नहीं देख पा रहे लोग...नहीं सोच पा रहे कि यदि सम्पूर्ण तंत्र पर इनका नियंत्रण हो गया तो फिर आम जन जीवन कैसा होगा...
आपका बहुत बहुत आभार कि आपने इसका प्रतिकार किया...आपके इस आलेख के एक एक शब्द को मेरा भी समझें...
अनुराग, इस विषय पर मैं आपके द्वारा दी गई लिंक्स पर दो टिप्पणियाँ पहले ही कर चुकी हूँ। यहाँ पर मैं उन्हें भी दोहराऊँगी और साथ में कहूँगी कि.......
ReplyDeleteहमारी पुलिस व सुरक्षा बलों के लिए भारत के अंदर की लड़ाई से निपटना बहुत कठिन होता जा रहा है। इसके कई कारण हैं। सरकार के गलत या ऐसे निर्णय जो किसी जगह के मूल निवासियों के विरुद्ध जाते हों वहाँ के लोगों को राज्य विरुद्ध कर देते हैं। सेना विदेशी हमलावरों को हराने के लिए होती है न कि नरम दस्ताने पहन स्थानीय लोगों से सालों साल उलझने के लिए। उनकी ट्रेनिंग इस काम के लिए नहीं होती है। राजनैतिक समस्याओं के हल राजनीतिज्ञ जब नहीं निकाल पाते तो सेना पुलिस आदि को सदा के लिए उस आग से लड़ने के लिए झोंक दिया जाता है। इनका जीवन तो हमने नरक बना दिया है। ऐसे में कभी न कभी वे भी धेर्य खो देते हैं और स्थिति बिगड़ती चली जाती है।
कश्मीर को ही देखिए। क्या हमारे सिपाही भी गुलेल लेकर पत्थरमारों का मुकाबला करें? या फिर बन्दूक में गोलियों की जगह पत्थर डालने शुरू करें? यदि वे पत्थर का मुकाबला बन्दूक से करते हैं तो गलत कहलाता है। क्या वे पत्थर खाते रहें?
हमारी सहानुभूति उनके साथ भी होनी ही चाहिए। दुख की बात तो यह है कि जिन समस्याओं को सुलझाना चाहिए, जिनका हमें मिलकर सामना करना चाहिए वे आम नागरिक को भी दो खेमों में बाँट रही हैं। क्या यही आतंकवादियों का उद्देश्य तो नहीं था?
घुघूती बासूती
पुरानी टिप्पणियाँः
ReplyDeleteMired Mirage said...
मुझे माओवाद से कोई सहानुभूति नहीं है किन्तु मरे हुए तो शत्रु को भी आदर से विदा किया जाता है। यह फोटो देख मुझे भी लिखने का मन था।
मृतक को ले जाने का यह तरीका बेहद आपत्तिजनक तो है ही, सरकार व सरकारी लोगों का यही रवैया नक्सलवादी बनाने में सहायक है। वैसे किसी दुर्घटना के बाद भी जिस तरह से मृतकों व घायलों को उठाया जाता है वह किसी विकसित या विकासशील देश को नहीं एक हजार साल पहले के युग में जीने वालों को दर्शाता है।
इस फोटो पर आपत्ति होनी ही चाहिए।
घुघूती बासूती
17 June 2010 3:04 PM
Blogger Mired Mirage said...
अनिल जी, हम अलग अलग विचारधारा रख सकते हैं, अलग अलग वाद का समर्थन कर सकते हैं या किसी वाद में विश्वास नहीं रख सकते हैं किन्तु कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें समझने के लिए किसी विशेष पढ़ाई या वाद की आवश्यकता नहीं होती। यह एक आम व्यक्ति भी समझ सकता है बशर्ते उसने अपनी स्वाभाविक समझ को स्वयं विकृत न दिया हो। सहमति असहमति तो होती रहेगी किन्तु थोड़ी सी मानवता तो हममें होनी ही चाहिए। कुछ बातें हैं जिनका ध्यान किसी भी पदाधिकारी को रखना ही होगा।
जैसे........
१.सरकार, पुलिस, अधिकारीगण बदला नहीं लेते(या उन्हें बदला नहीं लेना चाहिए।)। वे नियम बनाए रखने के लिए नियमानुसार काम ही कर सकते हैं।
२.अध्यापक विद्यार्थी से बदला नहीं लेते। अनुशासन बनाए रखने के लिए कोई नियमानुसार कार्यवाही करते हैं।
३. माता पिता बच्चे की धृष्टता के बदले वैसा ही नहीं करते। बच्चा जीभ चिढ़ाए तो वे भी जीभ नहीं चिढ़ाते। बच्चा उद्दंडता करे तो वे भी नहीं करते।
४.न्यायालय तेजाब फेंकने वालों को यह सजा नहीं देते कि उनके ऊपर भी तेजाब फेंका जाए। या बलात्कारी के साथ बलात्कार किया जाए। वे न्याय करते हैं बदला नहीं लेते।
५.जैसे को तैसा में आम नागरिक विश्वास रख सकता है और वह भी तब जब हमारी न्याय व्यवस्था उसे न्याय दिलाने में असमर्थ हो। जैसे को तैसा वाली विचारधारा सरकार अपने नागरिकों के लिए नहीं रख सकती। हाँ वह कानून द्वारा दंडित अवश्य कर सकती है।
अन्यथा किसी सरकार या व्यवस्था की आवश्यकता ही क्या होगी?
सभी जानते हैं कि सरकार, सेना या पुलिस के बुरे बर्ताव या बर्बरता से स्थिति सुधरती कभी नहीं हाँ अतिवादियों को और साथी अवश्य मिल जाते हैं। एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिन्होंने सरकार के विरुद्ध मोर्चे को इसीलिए चुना क्योंकि उनके साथ व्यवस्था ने अन्याय किया था।
वैसे हमें व सरकार को निर्णय करना है कि हमें बदला लेना है या न्याय करना है, गलतियों को सुधारना है, अपराधियों को दंडित करना है और समस्या को सुलझाना है।
एक बात और, यह हिन्दु वाली बात कहाँ से आई? क्या मुसलमान अपराधियों से प्यार करते हैं या क्रिस्चियन? या आप सोचते हें कि वे ही अतिवादी, आतंकवादी होते हैं? यह तो अहिन्दुओं के साथ अन्याय हुआ।
घुघूती बासूती
So TRUE !
DeleteMired Mirage said...
ReplyDeleteमुझे माओवाद से कोई सहानुभूति नहीं है किन्तु मरे हुए तो शत्रु को भी आदर से विदा किया जाता है। यह फोटो देख मुझे भी लिखने का मन था।
मृतक को ले जाने का यह तरीका बेहद आपत्तिजनक तो है ही, सरकार व सरकारी लोगों का यही रवैया नक्सलवादी बनाने में सहायक है। वैसे किसी दुर्घटना के बाद भी जिस तरह से मृतकों व घायलों को उठाया जाता है वह किसी विकसित या विकासशील देश को नहीं एक हजार साल पहले के युग में जीने वालों को दर्शाता है।
इस फोटो पर आपत्ति होनी ही चाहिए।
घुघूती बासूती
17 June 2010 3:04 PM
Blogger Mired Mirage said...
ReplyDeleteअनिल जी, हम अलग अलग विचारधारा रख सकते हैं, अलग अलग वाद का समर्थन कर सकते हैं या किसी वाद में विश्वास नहीं रख सकते हैं किन्तु कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें समझने के लिए किसी विशेष पढ़ाई या वाद की आवश्यकता नहीं होती। यह एक आम व्यक्ति भी समझ सकता है बशर्ते उसने अपनी स्वाभाविक समझ को स्वयं विकृत न दिया हो। सहमति असहमति तो होती रहेगी किन्तु थोड़ी सी मानवता तो हममें होनी ही चाहिए। कुछ बातें हैं जिनका ध्यान किसी भी पदाधिकारी को रखना ही होगा।
जैसे........
१.सरकार, पुलिस, अधिकारीगण बदला नहीं लेते(या उन्हें बदला नहीं लेना चाहिए।)। वे नियम बनाए रखने के लिए नियमानुसार काम ही कर सकते हैं।
२.अध्यापक विद्यार्थी से बदला नहीं लेते। अनुशासन बनाए रखने के लिए कोई नियमानुसार कार्यवाही करते हैं।
३. माता पिता बच्चे की धृष्टता के बदले वैसा ही नहीं करते। बच्चा जीभ चिढ़ाए तो वे भी जीभ नहीं चिढ़ाते। बच्चा उद्दंडता करे तो वे भी नहीं करते।
४.न्यायालय तेजाब फेंकने वालों को यह सजा नहीं देते कि उनके ऊपर भी तेजाब फेंका जाए। या बलात्कारी के साथ बलात्कार किया जाए। वे न्याय करते हैं बदला नहीं लेते।
५.जैसे को तैसा में आम नागरिक विश्वास रख सकता है और वह भी तब जब हमारी न्याय व्यवस्था उसे न्याय दिलाने में असमर्थ हो। जैसे को तैसा वाली विचारधारा सरकार अपने नागरिकों के लिए नहीं रख सकती। हाँ वह कानून द्वारा दंडित अवश्य कर सकती है।
अन्यथा किसी सरकार या व्यवस्था की आवश्यकता ही क्या होगी?
सभी जानते हैं कि सरकार, सेना या पुलिस के बुरे बर्ताव या बर्बरता से स्थिति सुधरती कभी नहीं हाँ अतिवादियों को और साथी अवश्य मिल जाते हैं। एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिन्होंने सरकार के विरुद्ध मोर्चे को इसीलिए चुना क्योंकि उनके साथ व्यवस्था ने अन्याय किया था।
वैसे हमें व सरकार को निर्णय करना है कि हमें बदला लेना है या न्याय करना है, गलतियों को सुधारना है, अपराधियों को दंडित करना है और समस्या को सुलझाना है।
एक बात और, यह हिन्दु वाली बात कहाँ से आई? क्या मुसलमान अपराधियों से प्यार करते हैं या क्रिस्चियन? या आप सोचते हें कि वे ही अतिवादी, आतंकवादी होते हैं? यह तो अहिन्दुओं के साथ अन्याय हुआ।
घुघूती बासूती